बिगुल पुस्तिकाएँ

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मज़दूर आंदोलन के लिए जरूरी कुछ पुस्तिकाएं (पुस्तिका डाउनलोड करने के लिए शीर्षक पर क्लिक करें)

 

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बिगुल पुस्तिका - 1 : कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा

बिगुल पुस्तिका - 1 : कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा

यह पुस्तिका लेनिन द्वारा प्रतिपादित बुनियादी सांगठनिक उसूलों को सरल रूप में और साथ ही सूत्रवत् प्रस्तुत करती है। दरअसल इसे 1921 में कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की तीसरी कांग्रेस में ‘कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठन पर प्रस्ताव’ शीर्षक से दस्तावेज़ के रूप में प्रस्तुत किया गया था और पारित किया गया था। इसका मसविदा स्वयं लेनिन ने तैयार किया था। आज यह दुर्लभ दस्तावेज़ विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन की धरोहर बन चुका है। इसका महत्त्व न सिर्फ़ ऐतिहासिक है बल्कि मज़दूर वर्ग के लिए तथा कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के लिए आज भी यह एक बेहद ज़रूरी किताब है। वे तमाम मज़दूर साथी और कार्यकर्ता कॉमरेडगण जो आज नये सिरे से एक क्रान्तिकारी पार्टी बनाने के बारे में संजीदगी के साथ सोचते हैं, उनसे हमारी पुरज़ोर सिफ़ारिश है कि इस पुस्तिका को ज़रूर पढ़ें और कई बार पढ़ें और इसे आज अपने देश की परिस्थितियों से जोड़कर देखें।[...]
बिगुल पुस्तिका - 2 : मकड़ा और मक्खी

बिगुल पुस्तिका - 2 : मकड़ा और मक्खी

विल्हेल्म लिब्कनेख्त (1826-1900) जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक दल के संस्थापकों में से एक थे। वह जर्मनी के मज़दूर वर्ग के ऐसे नेता थे जिनका सारा जीवन मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी संघर्ष और समाजवाद के लिए समर्पित था। ‘मकड़ा और मक्खी’ जर्मन मज़दूरों के लिए लोकप्रिय शैली में लिखे गये उनके एक पैम्फलेट का अंग्रेज़ी से हिन्दी में भावानुवाद है।[...]
बिगुल पुस्तिका - 3 : ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके — सेर्गेई रोस्तोवस्की

बिगुल पुस्तिका - 3 : ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके — सेर्गेई रोस्तोवस्की

सोवियत संघ की पहल पर बनी वर्ल्‍ड फ़ेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियन्स के सेक्रेटरी सर्गेई रोस्तोवस्की द्वारा 1950 में लिखी यह पुस्तिका ट्रेड यूनियनों में नौकरशाही के विरुद्ध संघर्ष करने और यूनियनों में हर स्तर पर जनवाद बहाल करने की ज़रूरत को सरल और पुरज़ोर ढंग से बताती है।[...]
बिगुल पुस्तिका - 4 :  मई दिवस का इतिहास

बिगुल पुस्तिका - 4 : मई दिवस का इतिहास

प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक और कम्युनिस्ट साहित्य के प्रकाशक अलेक्ज़ेंडर ट्रैक्टनबर्ग द्वारा 1932 में लिखित यह पुस्तिका मई दिवस के इतिहास, उसके राजनीतिक महत्व और मई दिवस के बारे में मज़दूर आन्दोलन के महान नेताओं के विचारों को रोचक तरीके से प्रस्तुत करती है।[...]
बिगुल पुस्तिका - 5 :  मेहनतकशों के खून से लिखी पेरिस कम्यून की अमर कहानी

बिगुल पुस्तिका - 5 : मेहनतकशों के खून से लिखी पेरिस कम्यून की अमर कहानी

मेहनतकशों के खून से लिखी पेरिस कम्यून की अमर कहानी फ्रांस की राजधानी पेरिस में इतिहास में पहली बार 1871 में मज़दूरों ने अपनी हुकूमत क़ायम की। हालांकि पेरिस कम्यून सिर्फ 72 दिनों तक टिक सका लेकिन इस दौरान उसने दिखा दिया कि किस तरह शोषण-उत्पीड़न, भेदभाव-गैरबराबरी से मुक्त समाज क़ायम करना कोरी कल्पना नहीं है। पेरिस कम्यून की पराजय ने भी दुनिया के मजदूर वर्ग को बेशकीमती सबक सिखाये। पेरिस कम्यून का इतिहास क्या था, उसके सबक क्या हैं, यह जानना मज़दूरों के लिए बेहद ज़रूरी है। यह पुस्तिका इसी जरूरत को पूरा करने की एक कोशिश है। पुस्तिका में संकलित लेख ‘नई समाजवादी क्रान्ति का उद्घोषक बिगुल’ और क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों की पत्रिका ‘दायित्वबोध’ से लिये गये हैं।[...]
बिगुल पुस्तिका - 6 :  बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

बिगुल पुस्तिका - 6 : बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

‘नयी समाजवादी क्रान्ति का उद्घोषक बिगुल’ में प्रकाशित लेखों का संकलन साम्राज्यवाद के मौजूदा दौर में मज़दूर क्रान्तियों का स्वरूप और रास्ता क्या होगा यह तय करना एक अहम कार्यभार है। इसके लिए अक्टूबर क्रान्ति के इतिहास और उसके मार्गदर्शक सिद्धान्त का गहराई से अध्ययन करना भी ज़रूरी है। यह पुस्तिका इसी दिशा में एक कोशिश है। अक्टूबर क्रान्ति के  ऐतिहासिक महत्व और ऐतिहासिक संवेग को रेखांकित करने के साथ ही इनमें आज के दौर में क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन की समस्याओं और चुनौतियों पर विचारोत्तेजक चर्चा की गयी है।[...]
बिगुल पुस्तिका - 7 :  जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा

बिगुल पुस्तिका - 7 : जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा

सतनाम द्वारा पंजाबी भाषा में लिखी किताब ‘जंगलनामा’ की समीक्षा करते हुए इस लेख में बस्तर के जंगलों में आदिवासियों के संघर्ष का नेतृत्व करने वाले क्रान्तिकारी संगठन की राजनीतिक लाइन की आलोचना प्रस्तुत की गयी है।[...]
बिगुल पुस्तिका - 8 : लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल-उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

बिगुल पुस्तिका - 8 : लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल-उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

इस पूरी बहस को प्रकाशित करने का मूल कारण यह है कि भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन में लागत मूल्य, लाभकारी मूल्य और मँझोले किसानों के सवाल पर भारी भ्रान्ति व्याप्त है। ज़्यादातर की अवस्थिति इस मामले में कमोबेश एस. प्रताप जैसी ही है। अपने को मार्क्सवादी कहते हुए भी उनकी मूल अवस्थिति नरोदवादी है। इसलिए इस प्रश्न पर सफ़ाई बेहद ज़रूरी है।[...]
बिगुल पुस्तिका - 9 : संशोधनवाद के बारे में

बिगुल पुस्तिका - 9 : संशोधनवाद के बारे में

सर्वहारा क्रान्ति की तैयारी से लेकर समाजवादी संक्रमण की लम्बी अवधि के दौरान संशोधनवाद नये-नये रूपों में लगातार क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन में घुसपैठ करता रहता है। मज़दूर आन्दोलन में बुर्जुआ विचारधारा और राजनीति की यह घुसपैठ स्वाभाविक है। दुश्मन सामने से लड़कर जो काम नहीं कर पाता, वह घुसपैठियों और भितरघातियों के ज़रिये अंजाम देता है। संशोधनवाद के प्रभाव के विरुद्ध सतत संघर्ष करने और उस पर जीत हासिल किये बिना सर्वहारा क्रान्ति की सफलता असम्भव है। इसलिए संशोधनवादी राजनीति की पहचान बेहद ज़रूरी है। इस विषय पर लेनिन, स्तालिन और माओ ने काफ़ी कुछ लिखा है। इस पुस्तिका में मोटे तौर पर, एकदम संक्षेप में और एकदम सरल ढंग से संशोधनवादी राजनीति और संशोधनवादी पार्टियों के चरित्र के लक्षणों एवं विशेषताओं को खोलकर रखने की कोशिश की गयी है। साथ ही, भारत में संशोधनवादी राजनीति का एक संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है।[...]
बिगुल पुस्तिका - 10 : शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी

बिगुल पुस्तिका - 10 : शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी

और अभी भी मज़दूर आते ही जा रहे थे। आल्टगेल्ड एक घण्टे तक खड़ा रहा, पर वे आते ही रहे। कन्धे से कन्धे मिलाये, चेहरे पत्थर जैसे, आँखों से धीरे-धीरे आँसू बह रहे थे जिन्हें कोई पोंछ नहीं रहा था। एक और घण्टा बीता, फिर भी उनका अन्त नहीं था। कितने हज़ार जा चुके थे, कितने हज़ार और आने बाकी थे, वह अन्दाज़ नहीं लगा सकता था। पर एक चीज़ वह जानता था, इस देश के इतिहास में ऐसी कोई अन्त्येष्टि पहले कभी नहीं हुई थी, सबसे ज़्यादा प्यारा नेता अब्राहम लिंकन जब मरा था, तब भी नहीं।[...]
बिगुल पुस्तिका - 11 : मज़दूर आन्दोलन में एक नयी शुरुआत के लिए

बिगुल पुस्तिका - 11 : मज़दूर आन्दोलन में एक नयी शुरुआत के लिए

भारत के क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन में मौजूद गतिरोध को तोड़ने और एक नयी शुरुआत के लिए जिन मुद्दों पर आज गहराई से और बिना देर किये सोचे जाने की ज़रूरत है, उन्हें मज़दूर अख़बार ‘बिगुल’ के लेखों में लगातार उठाया जाता रहा है। हम पाठकों के लिए ‘बिगुल’ के हाल के कुछ अंकों में प्रकाशित दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण लेख प्रस्तुत कर रहे हैं जिनमें मज़दूर आन्दोलन को क्रान्तिकारी आधार पर पुनस्संगठित करने, क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण एवं गठन के प्रश्न और भारत में एक नये सर्वहारा नवजागरण तथा सर्वहारा प्रबोधन के कार्यभारों पर विस्तार से विचार किया गया है।[...]
बिगुल पुस्तिका - 12 : मज़दूर नायक : क्रान्तिकारी योद्धा

बिगुल पुस्तिका - 12 : मज़दूर नायक : क्रान्तिकारी योद्धा

इस पुस्तिका में तीन मज़दूर क्रान्तिकारियों का परिचय दिया गया है। जर्मनी, इंलैण्ड और रूस के ये मज़दूर नायक इतिहास में प्रसिद्ध तो नहीं हुए लेकिन उनकी ज़िन्दगी से यह शिक्षा मिलती है कि जब मेहनत करने वाले लोग ज्ञान हासिल करते हैं और अपनी मुक्ति का माग ढूँढ़ लेते हैं तो फिर वे किस तरह अडिग-अविचल रहकर क्रान्ति में हिस्सा लेते हैं। उनके भीतर ढुलमुलपन, कायरता, कैरियरवाद, उदारतावाद, और आधू-अधूरे ज्ञान पर इतराने जैसे दुर्गुण नहीं होते जो मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों में पाये जाते हैं। इनके साथ ही हम अमेरिका की एक जुझारू महिला मज़दूर संगठनकर्ता मैरी जोंस का परिचय और उनकी लिखी एक रपट भी दे रहे हैं, जिन्हें मज़दूर प्यार से ‘मदर जोंस’ कहकर पुकारते थे।[...]
बिगुल पुस्तिका - 13 :  चोर, भ्रष्ट और विलासी नेताशाही

बिगुल पुस्तिका - 13 : चोर, भ्रष्ट और विलासी नेताशाही

अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों और पूँजीवादी अख़बारों की कुछ रिपोर्टों, सूचना के अधिकार के तहत विभिन्न सरकारी महक़मों से हासिल की गयी जानकारियों और आर्थिक-राजनीतिक मामलों के बुर्जुआ विशेषज्ञों की पुस्तकों या लेखों से लिये गये थोड़े से चुनिन्दा तथ्यों और आँकड़ों की रोशनी में भारतीय जनतन्त्र की कुरूप, अश्लील और बर्बर असलियत को पहचानने की एक कोशिश।[...]
बिगुल पुस्तिका - 14 : बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

बिगुल पुस्तिका - 14 : बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

आँकड़ों के ज़रिए निजीकरण-उदारीकरण के दो दशकों के ”विकास“ की असली तस्वीर।[...]
बिगुल पुस्तिका - 15 : राजधानी के मेहनतकश: एक अध्ययन

बिगुल पुस्तिका - 15 : राजधानी के मेहनतकश: एक अध्ययन

यह पुस्तिका, विभिन्न स्रोतों से लिये गये आँकड़ों के माध्यम से राजधानी के मेहनतकशों के बारे जनसांख्यिकीय जानकारियों, उनकी जीवन-स्थितियों और संघर्षों की तस्वीर पेश करने के साथ ही उन्हें संगठित करने के नये रूपों की भी चर्चा करती है। पुस्तिका इस बात की भी तस्वीर पेश करती है कि राजधानी में मेहनतकशों की कितनी बड़ी ताक़त मौजूद है। ज़रूरत है इस बिखरी हुई ताक़त को जागरूक, एकजुट और संगठित करने की। आम मेहनतकशों, मज़दूर संगठनकर्ताओं और अध्येताओं के लिए एक बेहद उपयोगी पुस्तिका।[...]
बिगुल पुस्तिका - 16 : फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें?

बिगुल पुस्तिका - 16 : फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें?

असुरक्षा के माहौल के पैदा होने पर एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का काम था पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को बेनकाब करके जनता को यह बताना कि पूँजीवाद जनता को अन्तत: यही दे सकता है गरीबी, बेरोज़गारी, असुरक्षा, भुखमरी! इसका इलाज सुधारवाद के ज़रिये चन्द पैबन्द हासिल करके, अर्थवाद के ज़रिये कुछ भत्ते बढ़वाकर और संसदबाज़ी से नहीं हो सकता। इसका एक ही इलाज है मज़दूर वर्ग की पार्टी के नेतृत्व में, मज़दूर वर्ग की विचारधारा की रोशनी में, मज़दूर वर्ग की मज़दूर क्रान्ति। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने पूरे मज़दूर वर्ग को गुमराह किये रखा और अन्त तक, हिटलर के सत्ता में आने तक, वह सिर्फ नात्सी-विरोधी संसदीय गठबन्‍धन बनाने में लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि हिटलर पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी असुरक्षा के माहौल में जन्मे प्रतिक्रियावाद की लहर पर सवार होकर सत्ता में आया और उसके बाद मज़दूरों, कम्युनिस्टों, ट्रेड यूनियनवादियों और यहूदियों के कत्ले-आम का जो ताण्डव उसने रचा वह आज भी दिल दहला देता है। सामाजिक जनवादियों की मज़दूर वर्ग के साथ ग़द्दारी के कारण ही जर्मनी में फ़ासीवाद विजयी हो पाया। जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी मज़दू[...]
बिगुल पुस्तिका - 17 : नेपाली क्रान्ति: इतिहास, वर्तमान परिस्थिति और आगे के रास्ते से जुड़ी कुछ बातें, कुछ विचार

बिगुल पुस्तिका - 17 : नेपाली क्रान्ति: इतिहास, वर्तमान परिस्थिति और आगे के रास्ते से जुड़ी कुछ बातें, कुछ विचार

इस पुस्तिका में ‘बिगुल’ में मई, 2008 से लेकर जनवरी-फ़रवरी 2010 तक नेपाल के कम्युनिस्ट आन्दोलन और वहाँ जारी क्रान्तिकारी संघर्ष के बारे में लिखे गये आलोक रंजन के लेख कालक्रम से संकलित हैं। इन लेखों में शुरू से ही नेपाल की माओवादी पार्टी के उन भटकावों-विसंगतियों को इंगित किया है, जिनके नतीजे 2009 के अन्त और 2010 की शुरुआत तक काफ़ी स्पष्ट होकर सतह पर आ गये। नेपाली क्रान्ति की समस्याएँ गम्भीर हैं, लेकिन लेखक उसके भविष्य को अन्धकारमय मानने के निराशावादी निष्कर्षों तक नहीं पहुँचता। उसका मानना है कि दक्षिणपन्थी अवसरवाद की हावी प्रवृत्ति को निर्णायक विचारधारात्मक संघर्ष में शिकस्त देकर और मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी-माओवादी क्रान्तिकारी लाइन पर नये सिरे से अपने को पुनगर्ठित करके ही एकीकृत नेकपा (माओवादी) नेपाली क्रान्ति को आगे बढ़ाने में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकती है। यदि वह ऐसा नहीं कर सकती तो फिलहाली तौर पर उसके बिखराव और क्रान्तिकारी प्रक्रिया के विपयर्य की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। लेकिन आने वाले समय में बुर्जुआ जनवादी और संसदीय राजनीति में आकण्ठ धँसे सभी कि़स्म के संशोधनवादी वाम का ‘एक्सपोज[...]

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