भारत की मेहनतकश जनता को फ़िलिस्तीन की जनता का साथ क्यों देना चाहिए?
भारत के लोगों को औपनिवेशिक नस्लवादी इज़रायल का विरोध क्यों करना चाहिए?

विशेष सम्पादकीय अग्रलेख

बहुत-से मज़दूर और मेहनतकश साथियों के मन में यह प्रश्न आ सकता है कि भला भारत के एक मज़दूर अख़बार के लिए, भारत के मज़दूरों और मेहनतकशों के लिए फ़िलिस्तीन के मसले की क्या प्रासंगिकता है? क्या हमारी अपनी समस्याएँ ही पर्याप्त नहीं हैं कि हम उस पर सोचें, बात करें और उसे हल करने की दिशा में काम करें? आपके मन में ऐसे प्रश्नों का उभरना वाजिब है। वजह यह कि हमारे देश में फ़िलिस्तीन के मसले को लेकर जागरूकता की बेहद कमी है। पहले भी थी, लेकिन नवउदारवादी नीतियों व शासन की शुरुआत के बाद से और विशेष तौर पर आज के फ़ासीवादी दौर में जो थोड़ी-बहुत जागरूकता थी, वह भी कम हो गयी है। ऐसे में, हम ऊपर उठाये गये सवालों का जवाब कुछ नुक़्तों में देंगे।

फ़िलिस्तीन का सवाल हमारे समय का एक लिटमस पेपर टेस्ट है। यानी, इस जाँच से पता लगाया जा सकता है कि कौन इन्साफ़पसन्द, तरक़्क़ीपसन्द और इन्सानियत में भरोसा करने वाले लोग हैं और कौन लोग ऐसे हैं जो शारीरिक तौर पर दो पाँव-दो हाथ रखते हैं, लेकिन इन्सान होने की तार्किक और भावनात्मक शर्तों को खो चुके हैं। इसलिए सबसे पहले इस मसले की सच्चाई को समझ लेते हैं। इसके आधार पर ही हम यह तय कर सकते हैं कि हम मज़दूरों, मेहनतकशों का और आम तौर पर भारत के लोगों का इस मसले पर क्या रुख़ होना चाहिए। सबसे पहले तो यह जान लेते हैं कि फ़िलिस्तीन का मसला क्या नहीं है।

फ़िलिस्तीन का मसला धर्म का मसला नहीं है

हमारे देश में जो सबसे बड़ी ग़लतफ़हमी है जो लोगों के दिमाग़ में अक्सर देखने को मिलती है वह यह है कि फ़िलिस्तीन के मसले का इस्लाम धर्म, मुसलमानों और यहूदी धर्म व लोगों के बीच झगड़े से कोई लेना-देना है। कई लोगों को लगता है कि फ़िलिस्तीन मुसलमानों का मुल्क है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इसे इज़रायल के यहूदी सेटलरों (सेटलर – जो किसी जगह जाकर रहने लगते हैं या बस जाते हैं) और फ़िलिस्तीन के मुसलमानों के बीच का झगड़ा समझते हैं। तो सबसे पहले हमें जान लेना चाहिए कि इस मसले का मज़हब या अलग-अलग धार्मिक समुदायों के झगड़े से कोई लेना-देना नहीं है और न ही कभी रहा है।

फ़िलिस्तीन में न सिर्फ़ मुसलमान रहते हैं बल्कि ख़ुद अरब जगत के मूल यहूदी, ईसाई और साथ ही बद्दू क़बीले के लोग भी रहते हैं। ये लोग वहाँ के मूल बाशिन्दे हैं और हज़ारों साल से वहीं रह रहे हैं। 1917 में ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा हस्तक्षेप और 1920, 1930 और 1940 के दशकों के दौरान यूरोप के नस्लवादी, साम्राज्यवादी और कट्टरपन्थी यहूदी संगठनों (जिन्हें ज़ायनवादी कहा जाता है) के साथ मिलीभगत के ज़रिये फ़िलिस्तीन पर कब्ज़ा कर वहाँ एक सेटलर उपनिवेश स्थापित करने की साज़िश के पहले, फ़िलिस्तीन में मुसलमान, ईसाई, यहूदी, बद्दू क़बीलों के लोग एक साथ रहते आये थे। उनमें कभी कोई साम्प्रदायिक झगड़ा, नस्ली मार-काट या क़त्लेआम नहीं होता था। अरब में रह रहे मूल अरबी यहूदियों के साथ भी ऐसा नहीं होता था। वास्तव में, यहूदियों के साथ यहूदी-विरोधी यानी एण्टी-सेमिटिक दंगे, क़त्लेआम आदि यूरोपीय देशों और अमेरिका में हो रहे थे, फ़िलिस्तीन में नहीं। वहाँ तो हज़ारों साल से विभिन्न धार्मिक व जातीय (एथनिक) समुदाय साथ रहते आये थे।

वहाँ की यह स्थिति तब बदली जब यूरोप के साम्राज्यवादी, नस्लवादी, कट्टरपन्थी यहूदी संगठनों ने ब्रिटिश व पश्चिमी साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ कर फ़िलिस्तीन में जबरन यहूदियों का सेटलर उपनिवेश बनाने के ख़तरनाक मंसूबों पर अमल करना शुरू किया। जर्मनी में नात्सी पार्टी व हिटलर के शासन के दौरान यहूदी जनता का जो क़त्लेआम जारी था, उसके कारण इन यूरोपीय साम्राज्यवादियों व यहूदी नस्लवादी कट्टरपन्थी संगठनों को अपने नापाक मंसूबों को अमली जामा पहनाने का एक मौक़ा मिल गया। यहूदी नस्लवादी कट्टरपन्थी संगठनों को ही ज़ायनवादी संगठन कहा जाता है। कहने के लिए इनकी यह विचारधारा होती है कि यहूदी “ईश्वर द्वारा चुनी गयी” नस्ल या क़ौम हैं और इसलिए वे अन्य नस्लों से श्रेष्ठ हैं। लेकिन असल में इस कट्टरपन्थी विचारधारा के पीछे यूरोप के यहूदी पूँजीपति वर्ग और उसके पिछलग्गू टुटपुँजिया वर्ग के एक हिस्से के साम्राज्यवादी व नस्लवादी मंसूबे थे। ये ज़ायनवादी संगठन यहूदी पूँजीपतियों के वर्ग के ही एक विचारणीय हिस्से की नुमाइन्दगी करते थे और इन्होंने न सिर्फ़ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ रिश्ते बनाये, बल्कि यूरोप में यहूदियों का नरसंहार करने वाले हिटलर और नात्सियों से भी इनके घिनौने रिश्ते थे।

ज़ायनवादी अपने आपको समूचे यहूदियों का उसी प्रकार नुमाइन्दा बताते हैं जैसे कि साम्प्रदायिक फ़ासीवादी हमारे देश में अपने आपको सभी हिन्दुओं का अकेला प्रवक्ता और प्रतिनिधि बताते हैं। दोनों के ही दावों में रत्ती भर दम नहीं है। दुनिया भर में यहूदियों का बड़ा हिस्सा अपने आपको ज़ायनवाद के विरोध में बताता है और फ़िलिस्तीनी जनता के साथ एकजुटता और हमदर्दी ज़ाहिर करता है। वह समझता है कि ज़ायनवादी इज़रायली सेटलर औपनिवेशिक राज्य वास्तव में कोई देश या कोई राष्ट्र है ही नहीं, क्योंकि यहूदी किसी एक क़ौम का निर्माण करते ही नहीं हैं। वे अलग-अलग देशों में अलग-अलग राष्ट्रों का हिस्सा हैं। पोलैण्ड का यहूदी पोलिश भाषा, संस्कृति व सभ्यता में रचा-बचा है, फ़्रांसीसी यहूदी फ़्रांसीसी भाषा को अपनी मातृभाषा मानता है और फ़्रांसीसी संस्कृति को अपने जीवन का अंग मानता है, ब्रिटिश यहूदी ब्रिटिश भाषाभाषी है और उस देश के इतिहास और संस्कृति का ही अभिन्न अंग है। दुनिया के सभी सेक्युलर, जनवादी यहूदी इस बात को जानते हैं। वे समझते हैं कि ज़ायनवाद यहूदी कट्टरपन्थी नस्लवाद और पश्चिमी साम्राज्यवाद की खोटी औलाद है। यही कारण था कि जब यूरोपीय साम्राज्यवादी व नस्लवादी यहूदियों ने ब्रिटेन व पश्चिमी साम्राज्यवाद की सहायता से फ़िलिस्तीन में मूल अरबी मुसलमानों, यहूदियों, ईसाइयों आदि का, यानी फ़िलिस्तीनी क़ौम का बड़े पैमाने पर नरसंहार व विस्थापन कर कब्ज़ा करना, और अपनी साम्राज्यवादी बस्ती स्थापित करना शुरू किया, तो इन कट्टरपन्थी यहूदियों ने अपने नाम तक बदले, हीब्रू भाषा को सीखा और बाक़ियों पर आरोपित किया ताकि एक नयी क़ौमी पहचान बनायी जा सके। लेकिन आज तक यह पहचान बन नहीं पायी है और आज भी इज़रायली सेटलर राज्य के ज़्यादातर यहूदी निवासी अपने मूल देश की नागरिकता, मसलन, पोलैण्ड, फ़्रांस, यूक्रेन, रूस, अमेरिका आदि की नागरिकता व पासपोर्ट भी क़ायम रखे हैं। मिसाल के तौर पर, इज़रायल के हत्यारे बेन्यामिन नेतन्याहू का असली नाम है बेंज़ियन मिलाईकोव्स्की, जिसे सुनकर ही उसके पोलिश या पूर्वी यूरोपीय मूल का पता चल जाता है।

ज़ायनवाद यानी कट्टरपन्थी यहूदी नस्लवाद व फ़ासीवाद और पश्चिमी साम्राज्यवाद की दख़लन्दाज़ी और कब्ज़े के पहले से ही फ़िलिस्तीन में एक फ़िलिस्तीनी क़ौम रह रही थी। इस क़ौम में सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं शामिल थे, बल्कि अरबी मुसलमान, अरबी यहूदी, अरबी ईसाई व अरबी बद्दू क़बीलों तक के लोग शामिल थे। जब ज़ायनवाद और पश्चिमी साम्राज्यवाद के घिनौने गठजोड़ ने 1920 से 1940 के दशक के बीच धीरे-धीरे वहाँ यूरोपीय यहूदियों की बस्तियाँ बसानीं और फ़िलिस्तीनी जनता के गाँव उजाड़ने शुरू किये और जब 1948 में उन्होंने एक भयंकर नरसंहार और विस्थापन को अंजाम देकर फ़िलिस्तीन से फ़िलिस्तीनियों को ही लाखों की तादाद में मार डाला और विस्थापित कर दिया, तब से फ़िलिस्तीनी राष्ट्र इन जबरन क़ब्ज़ा करने वाले यूरोपीय साम्राज्यवादियों और ज़ायनवादियों के ख़िलाफ़ लड़ रहा है और इसमें मुसलमान, यहूदी, ईसाई सभी शामिल हैं।

जैसे ही आप फ़िलिस्तीन के इतिहास पर निगाह डालते हैं वैसे ही आप समझ जाते हैं कि फ़िलिस्तीन और पश्चिमी साम्राज्यवादियों के फेंके हुए टुकड़ों पर पल रहे इज़रायली ज़ायनवादी सेटलर औपनिवेशिक राज्य के बीच क़रीब आठ दशकों से जारी संघर्ष का मज़हबी लड़ाई, मुसलमानों और यहूदियों के बीच लड़ाई से कोई लेना-देना नहीं है। इस संघर्ष के नेतृत्व में कभी पूरी तरह से सेक्युलर विचारधारा वाले लोग थे, कभी वामपन्थी लोग थे, कभी इस्लामिक विचारधारा मानने वाले लोग थे और कल किसी और प्रकार के लोग हो सकते हैं। लेकिन यह संघर्ष अपने आप में मुसलमानों का मसला है ही नहीं। यह शुरू से ही फ़िलिस्तीनी क़ौम का मसला रहा है, जिसे उसकी ज़मीन पर ही दफ़्न किया जा रहा है, मारा जा रहा है, वहाँ से बेदख़ल किया जा रहा है और उनके राष्ट्र के साथ साम्राज्यवादियों और ज़ायनवादियों का यह अत्याचार आठ दशकों से भी ज़्यादा समय से जारी है। इसलिए फ़िलिस्तीनी क़ौम अपनी आज़ादी के लिए लड़ रही है। जो संगठन या पार्टी इस लड़ाई को नेतृत्व देने को तैयार होते हैं, फ़िलिस्तीनी क़ौम उनके साथ खड़ी होती है, लेकिन यह लड़ाई किसी एक संगठन या पार्टी की लड़ाई नहीं है। ग़ुलाम बना दी गयी क़ौम किसी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट या प्रगतिशील नेतृत्व के पैदा होने तक अपनी आज़ादी की लड़ाई को स्थगित नहीं कर देती है। जो लड़ने को तैयार होता है, उनके संघर्ष को नेतृत्व देने को तैयार होता है, उससे विचारधारात्मक तौर पर सहमत या असहमत हुए बिना भी वह उसके साथ खड़ी होती है। यह फ़िलिस्तीनी क़ौम की आज़ादी की लड़ाई है, जिसका मज़हबी मसले से कोई लेना-देना नहीं है। इसका अपने आप में मुसलमानों और यहूदियों से कोई लेना-देना नहीं है।

यह बात हम आम मेहनतकश लोगों को अपने दिमाग़ में अच्छे से बिठा लेनी चाहिए क्योंकि हमारे देश के साम्प्रदायिक फ़ासीवादी हमारे देश में साम्प्रदायिकता की आग को भड़काने और उसका फ़ायदा उठाने के लिए फ़िलिस्तीन के मसले के बारे में ये झूठ फैलाते रहते हैं।

 

फ़िलिस्तीन का मसला आतंक या आतंकवाद का मसला नहीं है

आज ‘आतंकवाद’ शब्द का वास्तव में कोई विशिष्ट अर्थ नहीं रह गया है। यह एक ऐसा ख़ाली बर्तन है जिसे हर देश के हुक़्मरान किसी भी चीज़ से भर देते हैं। जो भी आन्दोलन या जनप्रतिरोध उन्हें आतंकित करता है, वे उसे “आतंकवादी” क़रार दे देते हैं। यहाँ तक कि हम मज़दूर व मेहनतकश भी जब अपने हक़ों के लिए लड़ते हैं, हड़ताल करते हैं, धरने देते हैं, रैलियाँ निकालते हैं तो हमें भी पूँजीपति वर्ग और उसकी सरकार व राज्यसत्ता आतंकवादी क़रार देती है और ट्रेड यूनियन के कार्यकर्ताओं और मज़दूरों तक पर आतंकवाद निरोधक क़ानून की धाराएँ लगा दी जाती हैं। हमारे ही देश में आज़ादी से पहले आज़ादी के लिए लड़ने वाले महान क्रान्तिकारियों जैसे शहीदे-आज़म भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकुल्ला ख़ाँ, आदि को भी अंग्रेज़ी औपनिवेशिक सरकार ने आतंकवादी क़रार दिया था। यह शासक वर्गों की पुरानी तरक़ीब रही है कि अपने मीडिया और भोंपुओं के लिए ज़रिये जनता के पक्ष में खड़े होने वाले बहादुर लोगों को जनता के ही सामने आतंकवादी क़रार दे दिया जाय। जबकि सही मायने में आतंकवादी तो पूँजीपति वर्ग का राज्य है जो रोज़मर्रा जनता को प्रताड़ित करता है, आतंकित करता है। यह हम नहीं कहते, स्वयं भारतीय न्यायपालिका के एक न्यायाधीश ने कहा था कि भारत में सबसे संगठित गुण्डा-फ़ोर्स भारतीय पुलिस है और अक्सर ही वर्दी पहने आतंकियों की भूमिका में नज़र आती है। इसलिए हम मज़दूरों को यह बात समझ लेनी चाहिए कि जब तक यह बात स्पष्ट न हो कि कौन “आतंकित” कर रहा है, किसको “आतंकित” कर रहा है, और कौन “आतंकित” हो रहा है, तब तक अपने आप में इस शब्द का कोई अर्थ नहीं होता या फिर इसका कोई भी अर्थ बनाया जा सकता है।

फ़िलिस्तीन के राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध को अमेरिकी, ब्रिटिश, फ़्रांसीसी व आम तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवादी और साथ ही ज़ायनवादी इज़रायली राज्य (याद रखें इज़रायल कोई राष्ट्र या देश नहीं है) आतंकवादी के रूप में चित्रित करता है। जब हमास पैदा नहीं हुआ था, फ़िलिस्तीन की आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व पूरी तरह से सेक्युलर यासर अराफ़ात के नेतृत्व वाले पीएलओ के हाथों में था तब भी फ़िलिस्तीन की आज़ादी के लिए लड़ने वाली सभी शक्तियों को अमेरिकी व पश्चिमी साम्राज्यवाद व उसके टट्टू और ज़ायनवादी आतंकवादी क़रार दिया करते थे। वजह यह कि फ़िलिस्तीन की मुक्ति के लिए जारी संघर्ष से वे आतंकित होते हैं। आज भी फ़िलिस्तीन की आज़ादी की लड़ाई की अगुवाई में महज़ हमास नहीं है (जो स्वयं अब एक सेक्युलर राज्य की स्थापना की बात करता है), बल्कि और कई ताक़तें हैं जिनका इस्लामी कट्टरपन्थी विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। मसलन, एक विचारणीय ताक़त है पी.एफ़.एल.पी. यानी ‘पाप्युलर फ्रण्ट फ़ॉर दि लिबरेशन ऑफ़ पेलेस्टाइन’। यह एक प्रगतिशील, जनवादी व सेक्युलर ताक़त है जो फ़िलिस्तीन के सेक्युलर राज्य की स्थापना के लिए लड़ रही है। लेकिन साम्राज्यवादियों और ज़ायनवादियों के लिए जो भी फ़िलिस्तीन की आज़ादी की बात करेगा और उसके लिए जुझारू तरीक़े से लड़ने का रास्ता अपनायेगा, वह आतंकवादी कहलायेगा। ठीक उसी प्रकार जैसे 1947 में राजनीतिक आज़ादी मिलने के पहले भारत में जो भी क्रान्तिकारी या जुझारू ताक़तें भारत की आज़ादी की बात करती थीं और उसके लिए समझौताविहीन और जुझारू संघर्ष की बात करती थीं, ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता उन्हें आतंकवादी क़रार देती थी। लेकिन देश की जनता उन्हें क्रान्तिकारी मानती थी।

अगर आपके देश में कोई साम्राज्यवादी ताक़त आकर कब्ज़ा कर ले तो क्या आपको हथियार उठा कर लड़ने का हक़ है? बिल्कुल है। अगर आप अन्तरराष्ट्रीय क़ानून की बात करें, जिसे सभी देश मान्यता देते हैं, तो वह भी कहता है कि किसी भी जबरन कब्ज़ा करने वाली ताक़त के ख़िलाफ़ किसी भी देश के लोगों को हथियारबन्द बग़ावत करने और अपनी आज़ादी के लिए सशस्त्र संघर्ष करने की पूरी आज़ादी है। यह आतंकवाद नहीं है। यह आत्मरक्षा और मुक्ति के लिए और ग़ुलामी के विरुद्ध संघर्ष है। अगर आप को हथियारबन्द ताक़त और हिंसा के ज़रिये कोई ग़ुलाम बनाकर रखता है तो अन्तरराष्ट्रीय क़ानून के ही मुताबिक आप हथियारबन्द संघर्ष और क्रान्तिकारी हिंसा द्वारा उसकी मुख़ालफ़त कर सकते हैं, उसके विरुद्ध लड़ सकते हैं। यह भी हम नहीं, अन्तरराष्ट्रीय क़ानून कहता है, जिसे सभी देशों से मान्यता प्राप्त है, भारत से भी।

अब इस बुनियादी तर्क के आधार पर इस बात पर विचार करें : जब हमास के नेतृत्व में फ़िलिस्तीनी जनता ने 7 अक्टूबर 2023 को विद्रोह किया और इज़रायल पर हमला किया तो क्या वह आतंकवाद था? याद रखें कि ग़ज़ा पट्टी को इज़रायल ने 2006 में ग़ज़ा के फ़िलिस्तीनी मुक्तियोद्धाओं के संघर्ष के कारण घबराकर छोड़ दिया था। लेकिन उसके बाद 20 साल से उसने ग़ज़ा की सैन्य घेराबन्दी और नाकेबन्दी कर रखी है और ग़ज़ा के ऊपर आये-दिन बिना वजह अपने लड़ाकू विमानों से बम बरसाकर बेगुनाह नागरिकों, बच्चों, बूढ़ों, औरतों की हत्याएँ करता रहता है। ग़ज़ा को दुनिया से रिश्ता नहीं रखने दिया जाता था, उसके भीतर पर्याप्त राहत सामग्री, दवाएँ, ईंधन, बिजली, भोजन आदि नहीं पहुँचने दिया जाता था और कुछ अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा बस मामूली सामग्री पहुँचने की इजाज़त दी जाती है, जिसके कारण ग़ज़ा के लोग लगातार भुखमरी, कुपोषण, ग़रीबी में जी रहे थे। इस लगातार जारी ज़ुल्म के अलावा, 2006 के बाद से इज़रायल ने ग़ज़ा पट्टी पर बाक़ायदा कई सैन्य हमले करके हज़ारों की संख्या में लोगों का क़त्लेआम किया। ग़ज़ा के लोगों के पास न तो कोई हवाई सेना है, न नौसेना है, न टैंक हैं और न ही कोई अन्य अत्याधुनिक हथियार। दूसरी ओर, इज़रायल को अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन व फ़्रांस आदि से दुनिया के सबसे आधुनिक हथियार मिलते हैं ताकि इज़रायली फ़ासीवादी व नस्लवादी गुण्डे मध्य-पूर्व में मौजूद अक़ूत तेल भण्डार के नियन्त्रण में पश्चिमी साम्राज्यवादी हस्तक्षेप को बनाये रखें। अत्याधुनिक हथियारों और करोड़ों डॉलर की मदद से लैस इज़रायली हत्यारे नियमित तौर पर ग़ज़ा को कुपोषण व भूख की स्थिति में रखते हैं और नियमित अन्तरालों पर उस पर बम बरसाते हैं, अमेरिका और ब्रिटेन के लिए उनके नये हथियारों का परीक्षण ग़ज़ा के बच्चों और औरतों पर मिसाइलें व बम बरसाकर करते रहते हैं।

नतीजतन, ग़ज़ा दुनिया का सबसे बड़ा यातना-शिविर और खुली जेल बना दिया गया है। ऐसे में, क्या यातना-शिविर के बन्दियों को जेल तोड़कर विद्रोह करने का हक़ है? बिल्कुल है। असल में, नात्सियों द्वारा बनाये गये यातना-शिविरों के भीतर से खु़द यहूदी व कम्युनिस्ट कैदियों की हथियारबन्द बग़ावत की कई मिसालें इतिहास में मौजूद हैं, और आज दुनिया के सभी लोग उसे जनता की बग़ावत के तौर पर ही याद करते हैं। 7 अक्टूबर 2023 को जो हमला हुआ, वह भूख, कुपोषण, हत्याकाण्डों और अपमान से तंग आ चुकी ग़ुलाम क़ौम की बग़ावत थी, एक मुक्ति-युद्ध था और युद्ध में लोग मरते हैं। जो इज़रायली मरे उनका बड़ा हिस्सा ग़ज़ा के यातना-शिविर के ठीक बाहर ड्रग्स और नशे में धुत्त होकर नाच-पार्टी कर रहे थे। भूख, कुपोषण और इज़रायली बमों से मरते बच्चों से कुछ सौ मीटर दूर ही सेटलर उपनिवेशवादी इज़रायलियों का यह नंगनाच जारी था। अधिकांश इज़रायली जो मारे गये वे या तो इज़रायली सैनिक थे या इस अश्लील समारोह में बेशर्मी का प्रदर्शन कर रहे सेटलर कब्ज़ाधारी।

जैसा कि भगतसिंह ने कहा था कि हम क्रान्तिकारी हैं और हर जीवन के मूल्य को समझते हैं और जीवन से प्यार करते हैं। लेकिन एक ऐसी दुनिया में जहाँ अन्याय, दासता, शोषण, हिंसा और उत्पीड़न है, जहाँ वर्गों के बीच युद्ध जारी है, जहाँ साम्राज्यवाद और ग़ुलाम बनाये गये राष्ट्रों के बीच युद्ध जारी है, वहाँ किसी आदर्श समाज की कल्पना से पैदा होने वाली सदिच्छाओं का बहुत महत्व नहीं रह जाता है। उल्टे, एक न्यायपूर्ण, समानतामूलक, शोषणमुक्त, उत्पीड़नमुक्त समाज बनाने के लिए संघर्ष करना ही पड़ता है और किसी की भी इच्छा से स्वतन्त्र युद्ध में जानें भी जाती हैं। यह हर कोई जानता है और मानता है। क्या कोई इस बात का खण्डन कर सकता है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई में भी हिंसा हुई, लोगों की जानें गयीं, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की भी जानें गयीं और भारत के मुक्तियोद्धाओं की भी जानें गयीं। लेकिन आज़ादी हासिल करने के लिए यह पीड़ा झेलना अनिवार्य था। ठीक उसी प्रकार जैसे किसी बच्चे के जन्म में प्रसव-पीड़ा होती ही है।

हिंसा भी दो प्रकार की होती है : शासक वर्गों द्वारा की जाने वाली हिंसा जिसे हमारे सामने अदृश्य बना दिया जाता है क्योंकि हमें उसका आदी बना दिया जाता है; और, आत्मरक्षा और मुक्ति के लिए जनता की ओर से की जाने वाली हिंसा। जनता द्वारा की जाने वाली हिंसा भी दो प्रकार की होती है : पहला, जनता के कुछ विशिष्ट लोग बिना जनता को साथ लिये नायकत्वपूर्ण तरीक़े से शासक वर्ग के विरुद्ध वैयक्तिक हिंसा करते हैं और अपनी कुरबानी तक देने से नहीं डरते; दूसरा, जहाँ जनता का विचारणीय हिस्सा संगठित और गोलबन्द होकर अपने शोषकों और उत्पीड़कों की सत्ता को उखाड़ फेंकने का संघर्ष करता है। शासक वर्ग की हिंसा प्रतिक्रियावादी आतंकवादी हिंसा है और जनता के कुछ बहादुर लोगों द्वारा जनता को साथ लिये बिना शासक वर्ग के विरुद्ध वैयक्तिक हिंसा करना क्रान्तिकारी आतंकवादी हिंसा है। पहली वाली प्रतिक्रियावादी आतंकवादी हिंसा इसलिए है क्योंकि वह शोषण और उत्पीड़न को क़ायम रखने के लिए शासक वर्गों और उनकी सरकार व आम तौर पर राज्यसत्ता द्वारा की जाती है। दूसरी वाली क्रान्तिकारी आतंकवादी हिंसा इसलिए है क्योंकि वह जनता के कुछ लोगों द्वारा जनता के पक्ष में सदिच्छाओं के आधार पर दुस्साहसवादी ढंग से की जाती है। यह हमेशा शासक वर्गों की हिंसा के विरुद्ध कुछ जल्दबाज़ और रूमानी लोगों द्वारा की जाने वाली क्रान्तिकारी आतंकवादी हिंसा होती है और यह कभी भी शासक वर्ग की सत्ता को अर्थपूर्ण चुनौती नहीं दे सकती है, चाहे ऐसे दुस्साहसवादी तौर-तरीक़े अपनाने वाले क्रान्तिकारियों की इच्छाएँ कितनी ही पवित्र क्यों न हों, उनके इरादे कितने ही नेक क्यों न हों और वे कितने ही बहादुर क्यों न हों। ऐसे नेक और बहादुर लोगों की समस्या यह है कि वे जनता पर भरोसा करने के बजाय, हथियारों पर भरोसा करते हैं; वे जनता को इतिहास बनाने वाली शक्ति नहीं मानते। इसलिए जनता में भरोसा रखने वाली क्रान्तिकारी ताक़तें उनकी भी आलोचना करती हैं। वे मानती हैं कि क्रान्तिकारी जनदिशा के ज़रिये जनता को जागरूक, गोलबन्द और संगठित करने और शासक वर्गों के विरुद्ध संघर्ष करने के रास्ते ही शोषण, अन्याय और दमन के विरुद्ध लड़ा जा सकता है। इस संघर्ष में जब और अगर जनता सामूहिक तौर पर हथियार उठाने को बाध्य हो जाती है और शासक वर्ग की सत्ता को बलपूर्व उखाड़ फेंकने का संघर्ष करने का रास्ता अख्तियार करती है, तो वह सही मायने में जनता की सामूहिक शक्ति द्वारा की जाने वाली क्रान्तिकारी हिंसा होती है और वह हमेशा ही शासक वर्गों की संगठित हिंसा का जनता की संगठित हिंसा द्वारा जवाब होती है।

फ़िलिस्तीन में राष्ट्रीय मुक्ति के लिए कुछ लोग नहीं, बल्कि पूरा फ़िलिस्तीनी राष्ट्र लड़ रहा है। उसने शान्तिपूर्ण तरीक़े से भी लड़ाइयाँ लड़ीं। उसने याचिकाओं पर दस्तख़त करवाये, उसने शान्तिपूर्ण धरने दिये, उसने हस्ताक्षर अभियान चलाये और अन्तरराष्ट्रीय समुदाय से शान्तिपूर्ण अपीलें कीं। लेकिन इन सबका जवाब इज़रायली बमों, मिसाइलों, गोलियों और टैंकों से और अपमानजनक उत्पीड़न व दमन से दिया गया। नतीजतन, फ़िलिस्तीनी राष्ट्र ने बलपूर्वक और हथियारबन्द बग़ावत का रास्ता चुना, ठीक उसी तरह से जैसे भारत में भी तमाम राष्ट्रीय मुक्तियोद्धाओं ने औपनिवेशिक दासता के विरुद्ध यह रास्ता चुना था और न सिर्फ़ भारत में बल्कि अल्जीरिया, इण्डोनेशिया, तुर्किये, घाना, ट्यूनीशिया, कोरिया और तमाम ऐसे देशों में जनता ने चुना था, जिन्हें साम्राज्यवाद ने ग़ुलाम बनाकर रखा था। क्या यह आतंकवाद है? नहीं! अगर ऐसा है तो भगतसिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, सुखदेव, राजगुरू, बिस्मिल, अशफ़ाक सभी आतंकवादी हो जायेंगे।

मज़दूर, मेहनतकश और आम जनता को शासक वर्ग के नज़रिये से चीज़ों को देखने की आदत डलवायी जाती है। जवाब में हमें सचेतन तौर पर अपने वर्ग हितों के आधार पर चीज़ों को देखने की आदत डालनी चाहिए और शासक वर्ग की दिमाग़ी ग़ुलामी से ख़ुद को मुक्त करना चाहिए। फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध भी आतंकवाद नहीं है, बल्कि मुक्ति-युद्ध है। यह सिर्फ़ हम नहीं मानते। आज दुनिया की कुल आबादी का बड़ा हिस्सा यही मानता है। आपको दुनिया भर में तमाम शहरों में लाखों की तादाद में आम मज़दूरों, छात्रों-युवाओं, महिलाओं द्वारा फ़िलिस्तीन के पक्ष में किये जा रहे अभूतपूर्व विशालकाय प्रदर्शनों के बारे में पता होगा। आज दुनिया में करोड़ों की तादाद में लोग फ़िलिस्तीन और उसकी जनता के पक्ष में खड़े हैं जबकि इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारे सेटलर राज्य और उसके अमेरिकी व पश्चिमी साम्राज्यवादी आक़ाओं के पक्ष में एक बेहद छोटा कट्टरपन्थी, नस्लवादी व फ़ासीवादी गिरोह खड़ा है। हमारा देश इस मामले में थोड़ा अलग है। अधिकांश लोगों को फ़िलिस्तीन के पूरे मसले में बारे में उपयुक्त रूप में जानकारी ही नहीं है। इसलिए यहाँ के फ़ासीवादियों के इज़रायल-समर्थक प्रचार में भी कई लोग बह जाते हैं। बड़ी आबादी ऐसी है जो नाजानकारी में कोई पक्ष चुनने की स्थिति में ही नहीं होती। लेकिन जनता को अपना पक्ष चुनना चाहिए। उसका पक्ष क्या है?

जनता का पक्ष यह है कि दुनिया के किसी भी कोने में हो रहे अन्याय, गुलामी, शोषण, ग़ैर-बराबरी और दमन के ख़िलाफ़ हमें आवाज़ उठानी चाहिए। हम चाहें जहाँ भी हों, हमें उसके विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करनी चाहिए। क्यों?

 

मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता को किसी पर भी हो रहे अन्याय का विरोध क्यों करना चाहिए?

उपरोक्त सारी बातों के बावजूद कुछेक साथियों के दिमाग़ में यह बात आ सकती है कि फिर यह लड़ाई तो फ़िलिस्तीनी जनता और राष्ट्र की है, इसको लेकर हमें कुछ भी करने की क्या ज़रूरत है? या हम कर ही क्या सकते हैं? या हमारे कुछ करने से फ़र्क क्या पड़ेगा? हमारा कहना है कि हमें फ़िलिस्तीन पर हो रहे ज़ुल्म का विरोध करना चाहिए, हम विरोध कर सकते हैं, और इस विरोध से फ़र्क पड़ेगा। क्यों?

हमें विरोध इसलिए करना चाहिए कि जब तक मज़दूर और मेहनतकश देश में या दुनिया के किसी भी हिस्से में ग़रीबों, मजलूमों, दबाये-कुचले गये मेहनतकश लोगों, दमित क़ौमों, दमित जातियों, दमित जेण्डरों के लोगों पर हो रहे ज़ुल्म और नाइन्साफ़ी का विरोध नहीं करते, तब तक वे कभी भी एक राजनीतिक वर्ग नहीं बन सकते, जो कि अपने वर्ग हितों के लिए सचेतन, संगठित और गोलबन्द तौर पर संघर्ष करने की क्षमता रखता है, जो अपना राज, यानी जनता का राज क़ायम रखने की क्षमता रखता है। जब हम केवल अपने वर्ग के तात्कालिक आर्थिक और भौतिक हितों के बारे में ही सोचते और लड़ते हैं, लेकिन हमारे ही साथ अन्य शोषित, दमित वर्गों व सामाजिक समुदायों पर शासक-शोषक वर्गों द्वारा किये जा रहे शोषण, दमन और अन्याय पर चुप रहते हैं, तो इससे दो त्रासद घटनाएँ घटती हैं : पहला, हम शोषक-शासक वर्गों के “अन्याय, शोषण, दमन और हिंसा करने के अधिकार” का अनजाने ही समर्थन कर बैठते हैं, उसकी हिमायत कर बैठते हैं; जब एक दफ़ा शासक-शोषक वर्गों की हिंसा को, अन्याय और दमन को, शोषण को यह वैधीकरण मिल जाता है तो वह उसका इस्तेमाल हमारे ऊपर भी करता है, यानी हम मज़दूरों-मेहनतकशों के वर्ग पर भी करता है; दूसरा, अकेले मज़दूर दुनिया नहीं बदलता है, शोषित-दमित-उत्पीड़ित जनता दुनिया बदलती है; यह सच है कि वह सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व के बिना दुनिया बदल नहीं सकती, क्रान्ति नहीं कर सकती, बस विद्रोह तक सीमित रह जाती है; लेकिन यह भी सच है कि व्यापक मेहनतकश जनता की अकूत ताक़त को साथ लिये बिना सर्वहारा वर्ग भी अकेले इतिहास नहीं बना सकता; इसलिए सर्वहारा वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता के बीच के सम्बन्ध के सवाल को क्रान्तिकारी तरीक़े से हल करना ज़रूरी है; सर्वहारा वर्ग जनता के सभी दमित, शोषित, उत्पीडि़त वर्गों और हिस्सों को साथ लेकर ही दुनिया बदल सकते हैं और मेहनतकश का राज क़ायम कर सकते हैं; अगर मज़दूर वर्ग शासक वर्गों के विरुद्ध परिवर्तनकामी संघर्ष में ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों, अर्द्धसर्वहारा वर्ग, निम्न-मध्यवर्ग, दमित क़ौमों, आम मेहनतकश घरों की औरतों, दलितों, आदिवासियों और प्रगतिशील छात्रों-युवाओं को साथ नहीं लेते तो वह एक ऐसे शासक वर्ग से कैसे लड़ सकते हैं, जो राजनीतिक वर्ग चेतना से लैस है और जनता के विरुद्ध एकजुट है चाहे वह हिन्दू उच्च वर्ग से आता हो, मुसलमान उच्च वर्ग से आता हो, सवर्ण उच्च वर्ग से आता हो या दलित व पिछड़ा उच्च वर्ग से आता हो, चाहे वह उच्च वर्ग की औरतों के बीच से आता हो या फिर उच्च वर्ग के पुरुषों के बीच से? यानी, जहाँ भी जनता से अन्तरविरोध का प्रश्न आता है तो शासक वर्ग जाति, वर्ग, जेण्डर, धर्म के मामले में एकदम एकजुट है, चाहे उनके आन्तरिक झगड़े कुछ भी हों। ऐसा शासक वर्ग ही देश-दुनिया के हर मसले पर एक पोजीशन लेता है, चाहे वह उससे सीधे प्रत्यक्षत: प्रभावित होता हो या न होता हो। ये ही चीज़ें तो शासक वर्ग को एक राजनीतिक वर्ग बनाती हैं और यही तो वजह है कि आज वह हम पर शासन कर पा रहा है। शासक वर्ग इसी वजह से हमेशा ही चाहता है कि मज़दूर वर्ग ट्रेडयूनियन संघर्ष से आगे न जा पाये और ठीक इसी वजह से महज़ ट्रेडयूनियन संघर्षों तक सीमित रहने की प्रवृत्ति, यानी ट्रेडयूनियनवाद, मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के भीतर पूँजीवादी विचारधारा की भूमिका अदा करता है। ठीक इसलिए हम मज़दूरों को हर मसले पर सोचना चाहिए, बोलना चाहिए, जूझना चाहिए चाहे वह हमारे देश में अलग-अलग दमित-शोषित हिस्सों पर हो रहा ज़ुल्म और अन्याय हो, या फिर फ़िलिस्तीन या दुनिया में कहीं भी किसी भी रूप में हो रहा ज़ुल्म और अन्याय हो।

यानी, फ़िलिस्तीन का मसला भी हमारा मसला है। सीरिया का मसला भी हमारा मसला है। अमेरिका में काले लोगों पर हो रहा ज़ुल्म भी हमारा मसला है। दुनिया के हर शोषित, दमित, उत्पीड़ित और अन्याय और हिंसा की शिकार आबादी का मसला हमारा मसला है। शासक वर्ग कहता है : ‘यह तुम्हारा मसला नहीं है, अपने काम से काम रखो।’ हम जवाब देते हैं : ‘आज से अन्याय और शोषण के हर मसले को हम अपना मसला बना रहे हैं, तुम जो उखाड़ सकते हो उखाड़ लो।’ इसी बात से हुक्मरानों की रूह काँपती है, यानी कि, कहीं मज़दूर वर्ग अपने आपको शोषित-दमित जनता के सभी वर्गों और हिस्सों से जोड़ न ले। और हमें ठीक यही करना चाहिए और करना होगा।

आज के समय में दुनिया भर के तरक़्क़ीपसन्द, इन्साफ़पसन्द और एक महसूस करने वाला दिल रखने वाले हर इन्सान के लिए और विशेष तौर पर आम मेहनतकश जनता के लिए फ़िलिस्तीन का मसला एक अहम मसला है। यह न सिर्फ़ हमारी इन्सानियत का लिटमस पेपर टेस्ट है, बल्कि यह विश्व पूँजीवाद की प्रधान गाँठ बना हुआ है। फ़िलिस्तीन की आज़ादी से दुनिया के साम्राज्यवादी और इज़रायली ज़ायनवादी क्यों इतना घबराते हैं कि एक पूरी क़ौम का सफ़ाया करने की कोशिश कर रहे हैं? इसलिए क्योंकि फ़िलिस्तीन की आज़ादी का मतलब है इज़रायल नामक सेटलर औपनिवेशिक राज्य का अन्त। इज़रायल के अन्त का अर्थ है समूचे मध्य-पूर्व ही नहीं बल्कि समूची दुनिया में शोषक व लुटेरे साम्राज्यवादियों और लगभग सभी देशों के हुक्मरान पूँजीपति वर्ग को एक भारी झटका। इज़रायल आज विश्व पूँजीवाद के लिए एक अहम औज़ार बना हुआ है। वह दुनिया की तमाम पूँजीवादी सरकारों को जनता के बर्बर दमन के नये-नवेले तौर-तरीक़े सिखाता है। हमारे देश में मोदी सरकार के दौर में इज़रायल की कुख्यात आतंकवादी ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद के हमारे देश के ख़ुफ़िया एजेंसियों और पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों से गहरे सम्बन्ध हैं; देश की जनता के निजी जीवन पर चौकसी बरतने के लिए फ़ासीवादी मोदी सरकार ज़ायनवादी इज़रायल से तमाम क़िस्म के सॉफ्टवेयर व उपकरण ख़रीदती है। यही नहीं स्वयं भारत इज़रायल को सैन्य सामग्री बेचता है, जिसका इस्तेमाल ग़ज़ा के बच्चों, बूढ़ों, औरतों के क़त्लेआम में किया जाता है। हर जगह के सबसे कट्टरपन्थी, अर्द्धफ़ासीवादी, फ़ासीवादी, नस्लवादी, जनवाद-विरोधी, मज़दूर-विरोधी हुक़्मरानों का इज़रायल के साथ इश्क-मुहब्बत का रिश्ता है चाहे वह हंगरी का ओरबान हो, अमेरिका का ट्रम्प हो, इटली की मेलोनी हो, भारत का मोदी हो। इज़रायल की हत्यारी दमनकारी सत्ता और जनता को दबाने-कुचलने और मारने के उसके नायाब तरीक़े दुनिया भर के जालिम हुक़्मरानों के लिए एक सीखने वाला प्रयोग-सरीखा है। खु़द अमेरिका की पुलिस अमेरिका के काले लोगों, प्रगतिशील छात्रों, युवाओं, स्त्रियों व मज़दूरों को कुचलने के लिए अपनी पुलिस को नये-नये तौर-तरीक़ों में प्रशिक्षण के लिए इज़रायल भेजती है। कई यूरोपीय साम्राज्यवादी देशों के हुक्मरान भी यही करते हैं। इज़रायल अमानवीयता, नस्लवाद, जनवाद-विरोध, कट्टरपन्थ, तानाशाही, फ़ासीवाद की एक ऐसी मिली-जुली मिसाल है, जो दुनिया के सभी मज़दूर-विरोधी और जन-विरोधी शासकों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। और दुनिया भर में जनता के बहुलांश के लिए ठीक इसीलिए यह हत्यारा और ज़ालिम सेटलर औपनिवेशिक राज्य, यानी इज़रायल, नफ़रत और घृणा का विषय है।

हमारे देश में भी व्यापक जनता को इज़रायल की सच्चाई के बारे में व्यापक पैमाने पर शिक्षित किया जाना चाहिए। उन्हें इसका सच्चा इतिहास बताया जाना चाहिए। उन्हें यह प्रदर्शित किया जाना चाहिए इज़रायल न तो कोई देश है और न ही कोई क़ौम या राष्ट्र है। यह यूरोपीय कट्टरपन्थी नस्लवादी व फ़ासीवादी यहूदी विचारधारा, राजनीति व संगठनों के ज़रिये मध्य-पूर्व में खड़ी की गयी पश्चिमी साम्राज्यवाद की सैन्य चौकी है। यह विशेष तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवादी धुरी का लठैत है, जिसका काम ही यह है कि मध्य-पूर्व को बाँटकर, दबाकर, कुचलकर रखो ताकि सबसे रणनीतिक माल, यानी तेल, के अक़ूत भण्डारों पर पश्चिमी साम्राज्यवाद के नियन्त्रण को बरक़रार रखा जाय। इस काम में मध्य-पूर्व की शेख़ों की सत्ताएँ भी साम्राज्यवाद का साथ देती हैं क्योंकि उनके हित मध्य-पूर्व की जनता के बिल्कुल विपरीत हैं। इससे भी पता चलता है कि फ़िलिस्तीन का मसला इस्लाम या मुसलमानों का मसला कतई नहीं है। अगर वह होता तो सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, क़तर, ओमान के लुटेरे शेख़ जो पूरी दुनिया में अपने आप को मुसलमानों का नुमाइन्दा और हिमायती बताते हैं, इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीनियों के नरसंहार में उसकी मदद नहीं करते।

कुल मिलाकर, साम्राज्यवाद और उसके सबसे बर्बर हत्यारे लठैत और गुण्डे के रूप में इज़रायली सेटलर औपनिवेशिक राज्य पूरी दुनिया की जनता का ख़तरनाक और घृणास्पद दुश्मन है। उसकी पराजय और अन्त दुनिया के हर देश की आम मेहनतकश जनता के लिए एक विजय है क्योंकि यह आम तौर पर हम सबके दुश्मन यानी साम्राज्यवाद और पूँजीवाद को कमज़ोर बनाती है और यह हर जगह इन्साफ़ और बराबरी की लड़ाई को ताक़त देती है। इसलिए फ़िलिस्तीन की मुक्ति का प्रश्न हम सभी मेहनतकश लोगों के लिए महत्वपूर्ण सवाल है और हमारी एकजुटता साम्राज्यवादी लुटेरों और उसके भाड़े के ज़ायनवादी हत्यारों के साथ नहीं, बल्कि फ़िलिस्तीनी जनता और दमित राष्ट्र के साथ है। और अन्याय के दौर में चुप्पी हमेशा अन्यायकारी ताक़तों का ही अनकहा समर्थन होती है और यह ख़ुद हमारे ऊपर हो रहे अन्याय को भी वाजिब ठहराने का काम करती है। इसलिए हमें भी चुप नहीं रहना है। हम जहाँ भी हैं, वहाँ छोटे-बड़े रूपों में फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष के पक्ष में और अमेरिकी और इज़रायली हत्यारों के विरोध में आवाज़ बुलन्द करनी है।

हमें इसलिए भी ऐसा करना होगा कि एक देश, एक जनता के तौर पर हम भी 200 सालों तक साम्राज्यवाद की गु़लामी और उसके द्वारा हमारे देश के हर समुदाय के लोगों के ही क़त्लेआम का दंश झेल चुके हैं। आज साम्राज्यवाद और ज़ायनवाद के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई लड़ रही फ़िलिस्तीनी जनता के पक्ष में न खड़े होना, हमारे लिए अपनी क्रान्तिकारी विरासत पर थूकने के समान है। किसी भी देश की ग़ुलामी का समर्थन करना या उसे लेकर चुप्पी बनाये रखना, अपनी ग़ुलामी के इतिहास को भूलने के समान है, यह अपने ही शोषकों, लुटेरों, यानी पश्चिमी साम्राज्यवाद से इश्क जताने के समान है। ऐसा कोई ऐसी जनता ही करेगी, जिसके अन्दर आत्मसम्मान और आत्म-गरिमा की कोई भावना नहीं है। इसलिए एक देश के तौर पर भी हमारे देश के लोगों को फ़िलिस्तीन की आज़ादी की लड़ाई का समर्थन करना होगा, क्योंकि फ़िलिस्तीनी राष्ट्र और जनता को दबाने-कुचलने वाली ताक़तें वही हैं, जिन्होंने 200 साल तक हमें ग़ुलाम बनाकर रखा था और आज भी उनकी पूँजी हमें लूट-खसोट रही है।

हम फ़िलिस्तीनी जनता के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के पक्ष में क्या कर सकते हैं और क्या वह कारगार होगा?

हमारे देश की जनता ऐतिहासिक तौर पर तमाम देशों के राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के पक्ष में रही है। एक दौर में हमारे देश में विचारणीय संख्या में लोग फ़िलिस्तीन की मुक्ति के संघर्ष का भी समर्थन करते थे। हमारे देश के आज़ादी के आन्दोलन में सक्रिय कई बुर्जुआ नेताओं ने भी फ़िलिस्तीन की आज़ादी का समर्थन किया था और इज़रायली कब्ज़े को ग़लत ठहराया था। इसमें गाँधी और नेहरू भी शामिल थे। लेकिन विशेष तौर पर 1980 के दशक में नवउदारवादी नीतियों की चोरी-छिपे शुरुआत और 1990 के दशक में उनकी खुलेआम शुरुआत के बाद हमारे देश के हुक्मरानों ने फ़िलिस्तीन के सवाल पर समझौतापरस्ती करनी शुरू कर दी और अपने पूँजीवादी हितों के लिए इज़रायल से क़रीबी बढ़ानी शुरू कर दी। औपचारिक तौर पर आज भी भारत सरकार फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना की हिमायत करती है। लेकिन वास्तव में वह इज़रायल से नज़दीकियाँ बढ़ा रही है और ग़ज़ा के कत्लेआम में उसे सैन्य सामग्री की आपूर्ति कर अप्रत्यक्ष तौर पर मदद भी कर रही है।

इसी दौर में, देश की जनता के बीच फ़िलिस्तीन के मसले को लेकर अज्ञान भी फैला और भाजपा की मोदी सरकार के आने के बाद तो फ़िलिस्तीन के मसले को एक धार्मिक व साम्प्रदायिक रंग दे दिया गया, जबकि हम देख चुके हैं कि फ़िलिस्तीन के राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध का मुसलमानों या इस्लाम से कोई रिश्ता नहीं है। वह एक क़ौम की आज़ादी की लड़ाई है, जिसमें मुसलमान, ईसाई, यहूदी सभी शामिल हैं। फ़ासीवादी शासन के दौर में इस मसले को लेकर बाक़ायदा अज्ञान और नाजानकारी फैलायी गयी और इसे साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की गयी। वैसे भी भारत के साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों की इज़रायल के ज़ायनवादी फ़ासीवादी सेटलरों से नैसर्गिक मित्रता बनती है क्योंकि दोनों ही मज़दूर-विरोधी, जनविरोधी और जनवाद-विरोधी हैं। दोनों ही भारत की मेहनतकश जनता के भी स्वाभाविक तौर पर शत्रु हैं। वहीं दूसरी ओर, फ़िलिस्तीन में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड़ रही जनता हमारी नैसर्गिक मित्र है। पर सवाल है कि हम उनके लिए क्या कर सकते हैं?

ज़ाहिर है, हम फ़िलिस्तीन जाकर उनके लिए लड़ नहीं सकते। फिर हम अपने देश में रहकर क्या कर सकते हैं? हम बहुत-कुछ कर सकते हैं। सबसे पहले तो अपने देश में हमें अपनी सरकार से यह माँग करनी चाहिए और इसके लिए बाक़ायदा संगठित तौर पर अभियान चलाना चाहिए कि भारत सरकार इज़रायली ज़ायनवादी राज्य से सभी कूटनीतिक सम्बन्धों, सैन्य सम्बन्धों और अन्य आर्थिक सम्बन्धों को तत्काल समाप्त करे, इज़रायली दूतावास और राजनयिकों को देश से बाहर करे। हम एक नस्लवादी कट्टरपन्थी हत्यारे राज्य और हुकूमत के साथ सम्बन्ध नहीं रख सकते। आपको पता होना चाहिए कि ऐसा बहिष्कार पहले भी जनता के आन्दोलनों के बूते कामयाब हो चुका है। दक्षिण अफ्रीका में 1990 की दशक की शुरुआत तक रंगभेद की नीति वहाँ की श्वेत सेटलरों की सरकार द्वारा लागू की जाती थी। दुनिया के कई देशों में लोगों ने आन्दोलन कर अपनी सरकारों को बाध्य किया कि वह दक्षिण अफ्रीका का पूर्ण राजनीतिक व कूटनीतिक बहिष्कार करे और इसने वहाँ पर इसी रंगभेदी नस्लवादी शासन के अन्त में एक भूमिका निभायी। इज़रायल भी एक नस्ली भेद वाला अपार्थाइड राज्य है और दक्षिण अफ्रीकी रंगभेदी शासन से कहीं ज़्यादा बर्बर, हत्यारा, फ़ासीवादी राज्य है। उसका भी उसी प्रकार बहिष्कार होना चाहिए। ज़ाहिर है, इसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर जनता के सक्रिय आन्दोलन की आवश्यकता है और आज इस मसले पर देश में जागरूकता की जो स्थिति है, इसमें बहुत वक़्त लगेगा। फिर भी इस दिशा में प्रयास शुरू करने होंगे।

लेकिन एक दूसरा तरीक़ा है, जिसे दुनिया भर की आम जनता पहले से ही अपना रही है और उसके कारण इज़रायल और उसके आका अमेरिका और पश्चिमी साम्राज्यवाद को पर्याप्त दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा है। वह तरीक़ा है : बहिष्कार, विनिवेश, प्रतिबन्ध आन्दोलन यानी बायकॉट, डाइवेस्टमेण्ट, सैंक्शंस आन्दोलन। इस आन्दोलन का मक़सद क्या है? इज़रायली या इज़रायल का समर्थन करने वाली सभी कम्पनियों के उत्पादों का पूर्ण बहिष्कार; यानी उनके सामानों की ख़रीद को बन्द करना। इज़रायली अकादमिकों, लेखकों, कलाकारों का पूर्ण बहिष्कार, मसलन, इज़रायली या इज़रायल का समर्थन करने वाले लोगों द्वारा बनायी गयी फिल्मों, अन्य कलात्मक उत्पादों, बुद्धिजीवियों का पूर्ण बहिष्कार। इसे सांस्कृतिक व अकादमिक बहिष्कार कहा जाता है। इसके ज़रिये इन कम्पनियों, संस्थाओं व व्यक्तियों को बाध्य करना कि वे इज़रायल में निवेश को बन्द करें और जो निवेश हैं उन्हें वापस लें और उनसे कोई भी रिश्ता रखना बन्द करें। कई कम्पनियों को जनता के आन्दोलनों ने ऐसा करने को बाध्य कर दिया। जैसे कि फ़्रांसीसी कार कम्पनी रेनो। आज के समय में मैकडॉनल्ड, केएफसी, स्टारबक्स, कोका कोला आदि जैसे विशालकाय राष्ट्रपारीय कारपोरेशनों को इस बहिष्कार के कारण अरबों डॉलर का नुकसान हो रहा है, श्रीलंका, तुर्किये, बंगलादेश, मलेशिया, इण्डोनेशिया जैसे दर्जनों देशों में इन कम्पनियों की दुकानों व शोरूमों पर ताले लटक गये हैं। इन साम्राज्यवादी कम्पनियों द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता के बूते ही इज़रायल की अर्थव्यवस्था चलती है। लेकिन उनमें से कई के विनिवेश के कारण इज़रायली अर्थव्यवस्था बुरी तरह से डावाँडोल है।

अमेरिकी साम्राज्यवादियों और आम तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवाद को इस आन्दोलन के कारण पिछले 1 साल में भारी नुक़सान उठाना पड़ा है। कई कम्पनियाँ भयंकर हानि में हैं, कुछ दिवालिया होने की कगार पर हैं। इसके कारण, तमाम पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों में पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा अपनी-अपनी मैनेजिंग कमेटियों यानी सरकारों पर दबाव बना रहा है कि वह इज़रायल को मदद बन्द करे, या कम करे या कम-से-कम शस्त्रों का निर्यात बन्द या कम करे।

पूरी दुनिया में आर्थिक, सांस्कृतिक व अकादमिक बहिष्कार के आन्दोलन के बढ़ते ज्वार के कारण इज़रायली अर्थव्यवस्था एक भँवर में फँसी हुई है। अमेरिकी मदद के बिना इज़रायल एक दिन भी ग़ज़ा में अपना नरसंहार जारी रखने की स्थिति में नहीं है। सेटलर इज़रायली इससे बिलबिलाये हुए सड़कों पर निकल और बिलख रहे हैं और नेतनयाहू की सरकार का विरोध कर रहे हैं। लेकिन इस मदद का बोझ अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर भी बढ़ रहा है। नतीजतन, पहली बार एक सर्वे में पता चला कि आधे से ज़्यादा अमेरिकी इज़रायल के प्रति एक प्रतिकूल नज़रिया रखते हैं। यह एक बदलाव है। वजह यह कि पिछले 70 सालों से अमेरिकी जनता का इज़रायल के प्रति लगाव बढ़ाने के लिए अमेरिकी शासक वर्ग ने जिस प्रकार झूठ फैलाया है, जिस प्रकार नात्सियों द्वारा यहूदियों के नरसंहार का इस्तेमाल करके आज यहूदी कट्टरपन्थी नात्सियों की हरक़तों को जायज़ ठहराया है और जिस प्रकार अपने मीडिया (जो कि ज़ायनवादी अमेरिकियों के हाथों में है) के ज़रिये देश के लोगों का ब्रेन वॉश किया है, उसके कारण पारम्परिक तौर पर अमेरिकी जनता का बड़ा हिस्सा इज़रायल का समर्थक नहीं तो कम-से-कम उसके प्रति अनुकूल नज़रिया रखता था। पिछले 1 से 1.5 वर्षों में यह स्थिति बदल गयी है। यही हालत यूरोप के अधिकांश देशों की है, जिसकी भारी बहुसंख्या फ़िलिस्तीन के पक्ष में इज़रायल के विरोध में खड़ी है।

आज भारत और किसी भी देश के मेहनतकश लोग बीडीएस आन्दोलन के ज़रिये इज़रायल और उसके आक़ाओं को चोट पहुँचा सकते हैं, जिनके बूते इज़रायल बेगुनाह फ़िलिस्तीनियों का क़त्लेआम कर रहा है, एक ऐसा बर्बर क़त्लेआम जिसकी इतिहास में कोई मिसाल नहीं है। जिस तरीक़े से इस प्रक्रिया को इज़रायल अंजाम दे रहा है, उसका मुक़ाबला नात्सियों द्वारा यहूदियों के प्रति की गयी बर्बरता भी मुश्कि़ल से कर पाती है। हम मज़दूर-मेहनतकश भी बहुत से ऐसे मज़दूरी-उत्पाद ख़रीदते हैं, जो इज़रायल का समर्थन और मदद करने वाली कम्पनियाँ बनाती हैं। हमें उन सभी उत्पादों का बहिष्कार कर, उनके विकल्पों को ख़रीदना चाहिए।

किसी के मन में आ सकता है कि इससे तो किन्हीं और पूँजीपतियों को फ़ायदा होगा! हो सकता है। लेकिन किसी भी राजनीतिक कार्रवाई का मूल्यांकन उसके लक्ष्य के चरित्र से किया जाता है। इस बहिष्कार आन्दोलन का मक़सद है एक राजनीतिक जनवादी लक्ष्य और माँग, यानी फ़िलिस्तीन की राष्ट्रीय मुक्ति का समर्थन करना और औपनिवेशिक कब्ज़ा करने वाले ज़ायनवादी इज़रायली सेटलरों का विरोध करना। जब हम विभिन्न इज़रायल समर्थक कम्पनियों का बहिष्कार करेंगे, उनके उत्पादों का बहिष्कार करेंगे और वैकल्पिक उत्पादों को प्रयोग करेंगे, तो बस इतना होगा कि अलग-अलग कम्पनियों में लाभप्रदता के आपसी रिश्ते बदल जायेंगे। तब भी हम मज़दूर के तौर पर मज़दूरी-उत्पाद पूँजीपतियों से ही ख़रीद रहे होंगे और पूँजीवादी व्यवस्था में ऐसा ही हो भी सकता है, क्योंकि मज़दूरों के जीवन के लिए उपयोगी वस्तुएँ और सेवाएँ भी पूँजीवादी समाज में माल ही होती हैं और उन्हें भी पूँजीपतियों से ही ख़रीदना पड़ता है। इसलिए इस अभियान के विशिष्ट राजनीतिक जनवादी चरित्र के अनुसार, यह नीति बिल्कुल सही है कि साम्राज्यवादी ज़ायनवादियों और नस्लवादियों के नरसंहार को फाइनेंस करने वाली, यानी उसका वित्त-पोषण करने वाली कम्पनियों का बहिष्कार कर समूचे इज़रायली सेटलर औपनिवेशिक परियोजना को ध्वस्त करने में अपना योगदान दिया जाय। इसी से दुनिया में मज़दूर सत्ता और समाजवाद नहीं आ जायेगा। लेकिन इससे हमारा साझा दुश्मन यानी साम्राज्यवाद, नस्लवाद और फ़ासीवाद निश्चित ही कमज़ोर होंगे। वैसे भी हमारे महान शिक्षकों लेनिन और स्तालिन के मार्फ़त हम जानते हैं कि राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष हमेशा साम्राज्यवाद और पूँजीवाद को कमज़ोर करते हैं। आज दुनिया में फ़िलिस्तीन के रूप में एक उपनिवेश और अफ्रीका व लातिन अमेरिका में कुछेक अर्द्धउपनिवेश और नवउपनिवेश ही बचे हैं। लेकिन ये साम्राज्यवाद के लिए भारी महत्व रखते हैं और वहाँ पर उपनिवेशवाद का पतन साम्राज्यवाद के विरुद्ध ही एक श्रृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया यानी ‘चेन रिएक्शन’ की शुरुआत कर सकता है और यह दुनिया भर में जनता के संघर्षों, मज़दूरों-मेहनतकशों के संघर्षों, दमित क़ौमों के संघर्षों और हर प्रकार के दमित समुदायों के संघर्षों को भारी बल देगा। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि आज फ़िलिस्तीन का प्रश्न विश्व साम्राज्यवाद की सबसे अहम गाँठ बना हुआ है और इसलिए फ़िलिस्तीन की आज़ादी का मसला पूरी दुनिया में दमित, उत्पीड़ित, शोषित मज़दूरों, मेहनतकशों, स्त्रियों, व अन्य दमित समुदायों का साझा मसला है, यह हमारा अपना मसला है।

इसलिए आप सभी मज़दूर-मेहनतकश साथी बहिष्कार के इस आन्दोलन से जुड़कर इज़रायली ज़ायनवादी नस्लवादी व एक विशिष्ट प्रकार की फ़ासीवादी सत्ता और उसके पश्चिमी साम्राज्यवादी आक़ाओं का पूर्ण बहिष्कार करें, उन्हें चोट पहुँचाएँ और फ़िलिस्तीन के लिए न्याय की लड़ाई में हिस्सेदारी करें। बहिष्कार करना हमारा अधिकार है। कोई संविधान या क़ानून इसे कभी रोक नहीं सकता है। हम कौन से उत्पाद या सेवाएँ इस्तेमाल करेंगे, यह हमारा व्यक्तिगत फैसला होता है। पूँजीवादी बुद्धिजीवी ही तो कहते हैं कि पूँजीवाद की ख़ूबसूरती यह है कि यह हर उत्पाद व सेवा के बहुत-से विकल्प देता है! सबके पास ‘स्वतन्त्र चयन’ का अधिकार होता है! इस पर भला पूँजीवाद कैसे रोक लगा सकता है!? हमें इस “अधिकार” का विवेकवान और समझदार तरीक़े से इस्तेमाल करना चाहिए और फ़िलिस्तीनी जनता, यानी वहाँ के मूल बाशिन्दों के लिए, चाहे वे मुसलमान हों, ईसाई हों या यहूदी हों, इन्साफ़ की लड़ाई में मदद करनी चाहिए। आज यही इन्सानियत का तकाज़ा है, यही हमारी मेहनतकश जमात का तकाज़ा है, यानी संवेदनशीलता और न्यायप्रियता का तकाज़ा है और यही क्रान्तिकारी नैतिकता का तकाज़ा भी है।

नीचे हम फ़िलिस्तीनियों के इज़रायली नरसंहार में शामिल सबसे प्रातिनिधिक कम्पनियों की एक सूची दे रहे हैं। इन कम्पनियों का कोई भी उत्पाद या सेवा न ख़रीदें। इन सबके बहुत से विकल्प मौजूद हैं। इस फोटो में ही एक क्यूआर कोड दिया गया है, जिसे अपने मोबाइल से स्कैन करने पर आपको विस्तृत बहिष्कार सूची और वैकल्पिक उत्पादों की सूची अपने मोबाइल पर मिल जायेगी। इस बहिष्कार आन्दोलन में भागीदारी कर अपने इन्सान होने का फ़र्ज़ निभाएँ, मज़दूर वर्ग की नैतिक ज़िम्मेदारी निभाएँ, मेहनतकशों की जमात की पक्षधरता जताएँ।

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2025


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments