Category Archives: पाठकों के पत्र

मज़दूर बिगुल अख़बार को घर-घर पहुँचाने की ज़रूरत है

मज़दूर बिगुल के माध्यम से मैनें लेनिन के जीवन के बारे में जाना और मुझे इनसे प्रेरणा मिली। देश दुनिया के मज़दूर आन्दोलनों, आर्थिक व्यवस्था, सरकारों की चालबाजियों को मैनें बिगुल अखबार के माध्यम से जाना। मेरा सुझाव है कि मज़दूर बिगुल में चित्र भी होने चाहियें। चित्र होते तो हैं किन्तु कम होते हैं। आम तौर पर कम पढ़े-लिखे मज़दूर लोगों को चित्र आकर्षित करते हैं। साथ ही मुश्किल शब्दों के साथ कोशिश करके आसान शब्द भी दिये जायें ताकि बिलकुल कम पढ़े-लिखे लोग भी इसे और भी आसानी से समझ सकें तथा जान सकें कि पूँजीपति उनका शोषण कैसे करते हैं और इससे कैसे छुटकारा पाया जाये। इससे इसका प्रचार ज़्यादा बढ़ेगा और फ़िर इसे पाक्षिक और साप्ताहिक भी किया जा सकता है। मैं अपने मज़दूर भाइयों से कहना चाहूँगा इसे घर-घर तक पहुँचाएँ।

मजदूरों के पत्र – राजस्थान में बिजली विभाग में बढ़ता निजीकरण, एक ठेका कर्मचारी की जुबानी

निजीकरण का यह सिलसिला सिर्फ़ बिजली तक सीमित नहीं है, सभी विभागों की यही गति है। सरकारी नीतियों और राजनीति के प्रति आँख मूँदकर महज कम्पीटीशन एक्जाम की तैयारियों में लगे बेरोज़गार युवकों को ऐसे में ठहरकर सोचना-विचारना चाहिए कि जब सरकारी नौकरियाँ रहेंगी ही नहीं तो बेवजह उनकी तैयारियों में अपना पैसा और समय ख़र्च करने का क्या तुक बनता है? क्या उन्हें नौकरी की तैयारी के साथ-साथ नौकरियाँ बचाने के बारे में सोचना नहीं चाहिए? बिजली विभाग में भर्ती होने के लिए भारी फ़ीस देकर आईटीआई कर रहे लाखों नौजवानों को तो सरकार के इस फ़ैसले का त्वरित विरोध शुरू कर देना चाहिए।

मजदूरों के पत्र – हम सब मेहनतकश आदमखोर पूँजीपतियों की लूट का शिकार हैं।

मैंने अपने परिवार की गाढ़ी कमाई के सहारे डिप्लोमा किया। इसके बाद गुुड़गाँव, रेवाड़ी, बद्दी, डेराबस्सी, पानी आदि स्थानों पर नौकरी के लिए आवेदन दिया, लेकिन कहीं भी सिफ़ारिश या जान-पहचान न होने के कारण मेरे आवेदनों का कोई जवाब नहीं आया। उसके बाद मैनें दो साल एसएससी-एचएसएससी की कोचिंग शुरू कर दी। लम्बी तैयारी के बाद कोचिंग की धन्धेबाज़ी और सरकारी नौकरियों की बेहद कमी के कारण मैं हताश हो गया। और उसके बाद मैं कैथल की चावल मिल में मज़दूर के रूप में काम करने लगा। वहाँ मुझे 12 घण्टे के 7500 रुपये मिलते थे। इसके अलावा न कोई छुट्टी और न ही कम्पनी की तरफ़ से कोई चाय या फिर लंच के टाइम-सीमा तय नहीं थी। मुझे वहाँ चावल पोलिश की बोरिया मशीन से हटाकर 25-30 फ़ीट की दूरी पर उठाकर ले जानी थी। जिसके लिए बिल कार्ट होनी चाहिए।

आज़ादी के सात दशक : किसकी आज़ादी – कैसी आज़ादी ?

उक्त दो घटनाएँ आज़ादी के बाद की सारी तरक़्क़ी और विकास का भेद खोलने के लिए काफ़ी हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि 15 अगस्त 1947 को देश की जनता को औपनिवेशिक गुलामी से आज़ादी मिली जिसे निश्चय ही एक प्रगतिशील क़दम कहा जा सकता है। समझौते के द्वारा सत्ता हथियाकर शासन की गद्दी पर बैठने वाले पूँजीपति वर्ग ने भी आम जन के शोषण-दमन-उत्पीड़न में कोई कौर-कसर नहीं छोड़ी। कोई भी पार्टी सत्ता में आये किन्तु जनता की लूट बदस्तूर जारी रहती है। जब मानवता चाँद और मंगल ग्रह तक अपनी पहुँच बना रही है, उस समय हमारे यहाँ पर प्राकृतिक आपदाओं और एकदम उन बीमारियों से लोग मर जाते हैं, जिनका इलाज बहुत पहले विज्ञान ने खोज निकाला था।

दोस्तो, हम सभी को एक साथ मिलकर लड़ना चाहिए

मजबूरी के कारण मुझे कम उम्र में ही पढ़ाई छोड़कर काम करने जाना पड़ा। मेरे पिताजी ऑटो चलाते थे, एक दिन उनकी गाड़ी पलट गयी, जिसके कारण नौ लोग घायल हो गये, इस वजह से 3-4 लाख ख़र्च हो गया था, और क़र्ज़ चढ़ गया था। पढ़ने की इच्छा थी फिर भी मुझे मजबूरी में आना पड़ा। अगली बार जब गाँव गया, तो मेरे दोस्त मुझे दुबारा बाहर जाकर कमाने से रोक रहे थे, मेरी भी वही इच्छा थी, लेकिन मुझे मजबूरी में आना पड़ा। जब मैं पहली बार गाँव से बाहर निकला तो दिल्ली गया। वहाँ मैंने समयपुर बदली में पौचिंग लाइन में काम किया। बहुत काम करने के बावजूद वहाँ पर काम चलने लायक़ भी पैसा नहीं मिलता था।

आपस की बात :लेखक को बधाई

अगस्तजिस बात ने मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया वो है सैद्धान्तिक स्तर पर ज़रा भी समझौता किये बग़ैर विनम्र बने रहना, ज्ञानी होने के अहंकार को पास ना फटकने देना। ‘कम्युनिस्टों’ के अन्दाज़-ए-बयाँ अम्बेडकर के मुद्दे पर हमेशा तिरस्कारपूर्ण रहे हैं, ये लेख बड़ा ही सुखद बदलाव है। जिग्नेश मेवानी में वे सम्भावनाएँ अभी नज़र आती हैं कि जाति तोड़ो आन्दोलन से वर्ग विहीन आन्दोलन की तरफ़ जा सकें, दूसरे रिपब्लिकन तो कब के पतन को प्राप्त हो चुके। अम्बेडकर के मूल्यांकन में ये एहतियात ख़ास तौर से क़ाबिले तारीफ़ है कि कोई अम्बेडकरवादी बिना बिदके कुछ ज़रूर सीख सकता है।

फैक्ट्रियों के अनुभव और मज़दूर बिगुल से मिली समझ ने मुझे सही रास्ता दिखाया है

यह साफ़ था कि हमारे हाथ में कुछ नहीं था और हम लोग मानसिक रूप से परेशान रहने लगे। इस प्रकार अपना हुनर चमकाने और इसे निखारने का भूत जल्द ही मेरे सिर से उतर गया। मेरा वेतन 8,000 रुपये था किन्तु काट-पीटकर मात्र 6,800 रुपये मुझे थमा दिये जाते थे। मानेसर जैसे शहर में इतनी कम तनख़्वाह से घर पर पैसे भेजने की तो कोई सोच भी नहीं सकता, अपना ही गुज़ारा चल जायेे तो गनीमत समझिए, बल्कि कई बार तो उल्टा घर से पैसे मँगाने भी पड़ जाते थे।

उड़ती हुई अफ़वाहें, सोती हुई जनता!

सरकार और उसके तमाम प्रकार के पिट्ठू जनता को अन्धविश्वासी और कूपमण्डूक बनाये रखना चाहते हैं। लोगों की चेतना हर सम्भव तरीक़े से कुन्द कर देना चाहते हैं। ताकि वे भयंकर रूप से फैलती ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई, बदहाली जैसी ज्वलन्त समस्याओं को भूलकर तमाम प्रकार की बेसिर-पैर की ऊल-जलूल बातों में उलझे रहें।

धुएँ में उड़ता बचपन

जिप्सम की पर्याप्त उपलब्धता देखते हुए शहरों व महानगरों में बैठे धनासेठों ने गाँव के आस-पास ही चूना-फ़ैक्टरियाँ स्थापित करना शुरू कर दिया। यह प्रक्रिया इतनी तीव्र गति से हुई कि गाँव के दोनों तरफ़ हाइवे के किनारे-किनारे इन फ़ैक्टरियों का अम्बार लग गया। जिनकी संख्या दिन-ब-दिन बढ़ ही रही है। बरमसर गाँव पूँजीपतियों का आकर्षण-केन्द्र बन गया। ऐसी स्थिति में गाँव के मज़दूर वर्ग के रोज़गार का एकमात्र विकल्प ये फ़ैक्टरियाँ ही रह गयीं, फलत: समूचा मज़दूर वर्ग इन चूना-फ़ैक्टरियों में भर्ती हो गया।