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काले धन की कालिमा और सफ़ेद धन की सफ़ेदी एक छलावा है

मीडिया तथा राजनीतिक पार्टियों द्वारा अकसर यह शोर मचाया जाता है कि अगर विदेशी बैंकों में जमा काला धन भारत लाया जाता है तो इससे देश की ग़रीबी ख़त्म हो जायेगी और जनजीवन ख़ुशहाल हो जायेगा। वैसे तो सरकारों की मंशा को देखते हुए इस बात की कोई सम्भावना नहीं नज़र आती कि इस काले धन को भारत में लाया जा सकेगा। लेकिन यदि यह हो भी जाये तब भी यह उम्मीद करना कि इसका इस्तेमाल जनकल्याण के लिए किया जायेगा, मूर्खता ही होगी। तब भी यह पूँजीपतियों की ही सम्पत्ति बना रहेगा और पूँजीवादी तौर-तरीक़ों के अनुसार ही निवेशित होगा। काला धनधारकों को सज़ा देकर भी काले धन के सृजन की प्रक्रिया को रोका जाना असम्भव है। कुछ काला धन रखने वालों को अगर फ़ाँसी भी दे दी जाये तो काले धन के पैदा होने की प्रक्रिया वहीं पर नहीं रुक जायेगी, पूँजीवादी व्यवस्था में पैदा होने वाली सम्पत्ति लगातार काले तथा सफ़ेद धन में बँटती रहती है और यह प्रक्रिया पूँजीवाद का आन्तरिक गुण है, जिसे क़ानून बनाकर ख़त्म नहीं किया जा सकता है। सम्पत्ति की व्यवस्था के रहते, जिसमें उत्पादन के समस्त साधनों पर मुठ्टीभर लोग काबिज़ हों, राजनीतिक ढाँचे में अगर कुछ पैबन्द लगा भी दिये जायें तो जनता के जीवन में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आयेगा।

छात्र-युवा आन्दोलन में नया उभार और भविष्य के संकेत

ऐसे कितने ही छात्र-युवा आन्दोलन आज दुनिया भर में देखने को मिल रहे हैं। ये सब अपने-अपने देश के शासकों को यही चेतावनी दे रहे हैं कि हम अपने अधिकारों पर हो रहे हमलों को चुपचाप बर्दाश्त नहीं करेंगे। जैसे-जैसे शिक्षा के क्षेत्र में बाज़ारीकरण और निजीकरण को लागू किया जायेगा, वैसे-वैसे आम घरों के बेटे-बेटियों के लिए अच्छी शिक्षा प्राप्त कर पाना मुश्किल होता जायेगा जिसका नतीजा छात्रों में बढ़ते असन्तोष के रूप में सामने आयेगा और ज़्यादा से ज़्यादा छात्र इसके विरोध में सड़कों पर उतरेंगे। इसके साथ ही इस विरोध को कुचलने के लिए सत्ता के दमन का पहिया भी तेज़ होता जायेगा। शिक्षा के बाज़ारीकरण के विरोध की इस लड़ाई को छात्र सिर्फ़ अपने दम पर नहीं जीत सकते। इसके लिए उन्हें अपनी लड़ाई को मज़दूर वर्ग की पूँजीवाद विरोधी लड़ाई के साथ जोड़ना होगा।