Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

दिल्ली बजट 2025 – दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों व मेहनतकश महिलाओं के साथ भाजपा का एक और भद्दा मज़ाक!

मोदी सरकार के जनता से किये गए तमाम वायदे हास्यास्पद साबित हुए हैं। दिल्ली चुनाव में इस सरकार ने महिलाओं से यह भी वायदा किया था कि उन्हें होली-दिवाली पर रसोई गैस मुफ़्त उपलब्ध कराया जायेगा। स्थिति अब यह है कि हर महीने रसोई गैस पहले 50 रुपये की बढ़ी हुई कीमत पर ख़रीदो और फिर साल में एक सिलिण्डर मुफ़्त लेने का लाभ उठाओ (अगर योजना जुमला न साबित हुई!)! वहीं अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में जब पेट्रोल-डीजल की कीमत कम हुई तो भाजपा सरकार ने एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाकर इसे और महँगा कर दिया जिसका परिणाम यह होगा कि लोगों की ज़रूरत की सभी चीज़ों की कीमत बढ़ेगी, महँगाई बढ़ेगी और जनता की ज़ेब पर डाका डलेगा।

रसोई गैस के दाम और पेट्रोल-डीज़ल पर कर बढ़ाकर मोदी सरकार का जनता की गाढ़ी कमाई पर डाका!

सरकार लगातार कॉरपोरेट कर और उच्च मध्य वर्ग पर लगने वाले आयकर को घटा रही है और इसकी भरपाई आम जनता की जेबों से कर रही है। भारत में मुख्‍यत: आम मेहनतकश जनता द्वारा दिया जाने वाला अप्रत्‍यक्ष कर, जिसमें जीएसटी, वैट, सरकारी एक्‍साइज़ शुल्‍क, आदि शामिल हैं, सरकारी खज़ाने का क़रीब 60 प्रतिशत बैठता है। यह वह टैक्‍स है जो सभी वस्तुओं और सेवाओं ख़रीदने पर आप देते हैं, जिनके ऊपर ही लिखा रहता है ‘सभी करों समेत’। इसके अलावा, सरकार बड़े मालिकों, धन्‍नासेठों, कम्‍पनियों आदि से प्रत्‍यक्ष कर लेती है, जो कि 1990 के दशक तक आमदनी का 50 प्रतिशत तक हुआ करता था, और जिसे अब घटाकर 30 प्रतिशत तक कर दिया गया है। यह कॉरपोरेट और धन्‍नासेठों पर लगातार प्रत्‍यक्ष करों को घटाया जाना है, जिसके कारण सरकार को घाटा हो रहा है। दूसरी वजह है इन बड़ी-बड़ी कम्‍पनियों को टैक्‍स से छूट, फ़्री बिजली, फ़्री पानी, कौड़ियों के दाम ज़मीन दिया जाना, घाटा होने पर सरकारी ख़र्चों से इन्‍हें बचाया जाना और सरकारी बैंकों में जनता के जमा धन से इन्‍हें बेहद कम ब्याज दरों पर ऋण दिया जाना, उन ऋणों को भी माफ़ कर दिया जाना या बट्टेखाते में, यानी एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट) बोलकर इन धन्‍नासेठों को फोकट में सौंप दिया जाना। अब अमीरों को दी जाने वाली इन फोकट सौगातों से सरकारी ख़ज़ाने को जो नुक़सान होता है, उसकी भरपाई आपके और हमारे ऊपर टैक्‍सों का बोझ लादकर मोदी सरकार कर रही है।

केन्द्रीय बजट 2025 : मनरेगा मज़दूरों के साथ एक बार फ़िर से छल करती मोदी सरकार

दिये गए आँकड़ों से यह साफ़ दिखता है कि सरकार का मनरेगा के तहत अपने कानूनी दायित्वों को पूरा करने का कोई इरादा नहीं है। इस अपर्याप्त बजट का अनिवार्य रूप से तीन परिणाम होंगे। पहला, मज़दूरी भुगतान में भारी देरी, जिससे लाखों ग्रामीण मज़दूरों की आर्थिक स्थिति बिगड़ेगी। दूसरा, काम की माँग का दमन होगा, या उसे दबाया जायेगा, इस तरह से लोगों को रोज़गार के उनके अधिकार से वंचित किया जायेगा। तीसरा, मनरेगा के तहत होने वाले ढाँचों के निर्माण की गुणवत्ता में गिरावट, जिससे ग्रामीण बुनियादी ढाँचा ही कमज़ोर होगा।

महिला एवं बाल विकास मन्त्रालय को आवण्टन बजट में दिखावटी वृद्धि : हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और!

एक तरफ़ मोदी सरकार सक्षम आँगनवाड़ी के तहत आँगनवाड़ी केन्द्रों पर वाईफ़ाई, एलईडी स्क्रीन, वॉटर प्यूरिफ़ायर इत्यादि लगाने की योजना बना रही है जबकि असलियत में इन केन्द्रों पर बुनियादी सुविधाएँ भी मौजूद नहीं! मोदी जी का “गुजरात मॉडल” यही है! कहाँ दिल्ली के विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र भाजपा ने दिल्लीवासियों को 500 रुपये में गैस सिलिण्डर और होली और दिवाली में मुफ़्त सिलिण्डर की रेवड़ी देने के जुमले फेंक रही थी, और कहाँ वित्त मन्त्री महोदया एलपीजी सब्सिडी के आबण्टन में 17.7 प्रतिशत की कटौती कर रही थीं!

केन्द्रीय बजट 2025-26 – मज़दूरों, ग़रीब किसानों और निम्न-मध्यवर्ग की क़ीमत पर अमीरों को राहत

मन्दी के दौरों में दुनिया के हर देश में पूँजीपति वर्ग अपनी सरकारों पर दबाव बनाता है कि वह बची-खुची सामाजिक कल्याण की नीतियों को भी समाप्त कर दे। विशेष तौर पर आर्थिक संकट के दौर में तो पूँजीपति वर्ग मज़दूरों की औसत मज़दूरी को कम-से-कम रखने और उनके काम के घण्टों व श्रम की सघनता को अधिक से अधिक बढ़ाने का प्रयास करता है। ऐसे में, वह ऐसी किसी भी पूँजीवादी पार्टी को अपनी पूँजी की शक्ति का समर्थन नहीं देगा, जो सरकार में आने पर किसी किस्म का कल्याणवाद करना चाहती हो। यहाँ तक कि वह कल्याणवाद का दिखावा करने वाली किसी पार्टी को भी चन्दे नहीं देता है। यही वजह है कि 2010-11 में भारतीय अर्थव्यवस्था में मन्दी के गहराने के बाद से पूँजीपति वर्ग का समर्थन एकमुश्त फ़ासीवादी भाजपा और मोदी-शाह की ओर स्थानान्तरित हुआ है।

अमेरिका में ट्रम्प की वापसी के मज़दूर वर्ग के लिए क्या मायने हैं?

ट्रम्प के सनक भरे बयानों और उसके सिरफ़िरेपन को देखकर बहुत से लोग ताज्जुब करते हैं कि भला ऐसा शख़्स दुनिया के सबसे ताक़तवर देश का राष्ट्रपति कैसे बन सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह व्यक्ति अपने आप में एक नमूना है जिसके नमूनेपन को देखकर अमेरिकी पूँजीवाद के तमाम समर्थक व प्रशंसक भी शर्म से झेंप जाते हैं। हालाँकि हमारे देश के ‘सुप्रीम लीडर’ को देखकर उनकी झेंप की भावना अक्सर प्रतिस्पर्द्धा की भावना में भी तब्दील हो जाती है! बहरहाल, ऐसा भी नहीं है कि अमेरिकी राजनीति में ऐसे शख़्स का तूफ़ानी उभार बिल्कुल समझ से परे है। अगर हम अमेरिकी समाज की वर्तमान दशा व विश्व के पैमाने पर अमेरिकी साम्राज्यवाद की मौजूदा सेहत की रोशनी में इस परिघटना को देखें तो हमें ट्रम्प नामक परिघटना को समझना मुश्किल नहीं होगा।

कौन हैं हमारे देश के ‘मुफ़्तखोर’?

मुफ़्तखोरी कौन कर रहा है? बड़ी-बड़ी कम्पनियों को न सिर्फ़ टैक्स से छूट मिलती है बल्कि फ्री बिजली मिलती है, फ्री पानी मिलता है, कौड़ियों के दाम ज़मीन दी जाती है। इन कम्पनियों को घाटा होने पर बचाया जाता है। इन बड़ी कम्पनियों को बेहद कम ब्याज पर ऋण दिया जाता है जिसे न चुकाने पर एनपीए बोलकर माफ़ कर दिया जाता है! ये ही हैं जो इस देश के असली मुफ़्तखोर हैं जो इस देश के संसाधनों से लेकर मेहनत की खुली लूट मचा रहे हैं। इनके लिए ही सरकार श्रम क़ानूनों को लचीला बना रही है और मज़दूरों को फैक्ट्रियों में 18-18 घण्टे लूटने की योजना बना रही है। अमीरों को दी जाने वाली इन सौगातों से सरकारी ख़ज़ाने को जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई आपके और हमारे ऊपर टैक्सों का बोझ लाद कर मोदी सरकार कर रही है। आम मेहनतकश जनता की माँग बनती है कि सरकार अप्रत्यक्ष कर प्रणाली को पूरी तरह से समाप्त करे और बड़े-बड़े पूँजीपतियों और धन्नासेठों पर अतिरिक्त कर लगाकर जनता की बुनियादी ज़रूरतें पूरी करे।

मोदी राज में ‘अडानी भ्रष्टाचार – भ्रष्टाचार न भवति’ !

भाजपा नेताओं के लिए तो अडानी जी ही देश हैं, इसलिए अडानी पर हमला “देश” पर हमला है, विदेशी ताक़तों की साज़िश है। इन सब (कु)तर्कों के बावजूद अडानी जी ने विदेशों में देश का डंका तो बजवा ही दिया है।

भाजपा की वाशिंग मशीन : भ्रष्टाचारी को “सदाचारी” बनाने का तन्त्र!

जहाँ एक तरफ़ मुकुल रॉय, सुवेंदु अधिकारी, मिथुन चक्रवर्ती, सोवन चटर्जी, वाईएस चौधरी, सीएम रमेश, प्रफुल्ल पटेल व अन्य सारे उदाहरण आपके सामने हैं, जो भाजपा के समर्थक बनते या उसमें शामिल होते ही परम भ्रष्टाचारी से परम “सदाचारी” बन गये, वहीं दूसरी तरफ़ मोदी सरकार के कार्यकाल में ही हुए राफेल घोटाला, पीएम केयर घोटाला, अडानी घोटाला, सेण्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट घोटाला, इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाला जैसे घोटाले भी है, जिनकी जाँच की फाइल ही नहीं बन रही हैं। ऐसे में ‘बहुत सह लिया भ्रष्टाचार अबकी बार मोदी सरकार’ और ‘न खाऊँगा न खाने दूँगा’ जैसे मोदी के जुमलों की हक़ीक़त व संघ परिवार व भाजपा द्वारा सरकारी एजेंसियों ईडी, सीबीआई, एसीबी, आईटी, न्यायपालिका, चुनाव आयोग व अन्य के अन्दर घुसपैठ की तस्वीर अच्छी तरह से सबके सामने आ रही है। भाजपा सरकार अपने आपको चाहे जितना भी “संस्कारी”, “धर्मध्वजाधारी”, “राष्ट्रवादी” का तमगा लगा लें, मगर इनके “चाल-चेहरा-चरित्र” की सच्चाई सबके सामने आने लगी है। भाजपा सरकार ‘देशभक्ति’, हिन्दू-मुसलमान साम्प्रदायिकता, मन्दिर-मस्जिद, ‘लव जिहाद’, ‘गोरक्षा’, आदि के फ़र्जी शोर में इन्हें दबाने की कोशिश ज़रूर कर रही है, मगर मोदी का 56 इंच का सीना सिकुड़ता जा रहा है।

अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार : पूँजीवाद के इतिहास से उपनिवेशवाद के ख़ूनी दाग़ साफ़ करने के प्रयासों का ईनाम

उनका सिद्धान्त उपनिवेशवाद के रक्तरंजित इतिहास को साफ़ करने की कोशिश करता है। वे एक भी जगह उपनिवेशवाद द्वारा ग़ुलाम देशों के लोगों पर की गयी लूट, हत्या और अत्याचारों को ध्यान में नहीं रखते हैं। आश्चर्य की बात नहीं है कि पुरस्कार प्राप्त करने के बाद जीतने वाले एक अर्थशास्त्री ऐसमोग्लू ने कहा कि उपनिवेशवाद के कुकर्मों पर विचार करने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी। उपनिवेशीकरण की रणनीतियों के जो निहितार्थ थे बस उन्हीं में उनकी दिलचस्पी थी। हालाँकि अगर इस स्पष्ट स्वीकारोक्ति को छोड़ भी दिया जाये तो वैज्ञानिक व ऐतिहासिक रूप में उनका सिद्धान्त अन्य जगहों पर भी बुरी तरह विफल होता है। मसलन, उपनिवेशवाद के परिणाम उपनिवेशवादी देशों और उपनिवेशों के लिए समान या सीधे समानुपाती नहीं होते हैं। सच्चाई तो यह है कि उपनिवेशवादी देश ग़ुलाम देशों की भूमि से कच्चा माल व अन्य प्राकृतिक संसाधन लूटते हैं, वहाँ की जनता का सस्ता श्रम निचोड़ते हैं और ग़ुलाम देशों की क़ीमत पर अपने देश को समृद्ध बनाते है। इसलिए, पश्चिमी उदार लोकतंत्र वाले साम्राज्यवादी देश, जिनकी ये नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रशंसा करते नहीं थकते, उपनिवेशवाद की सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद, यानी दुनिया के तमाम देशों को गुलाम बनाकर और उन्हें लूटकर आर्थिक समृद्धि के वर्तमान स्तर पर पहुँचे हैं।