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चन्द्रशेखर आज़ाद के जन्मदिवस (23 जुलाई) पर – अपनी क्रान्तिकारी विरासत को आगे बढ़ाने का संकल्प लो!

आज़ादी की लड़ाई में एक धारा क्रान्तिकारियों की भी थी और अंग्रेज़ी हुकूमत की नाक में उन्होंने हमेशा दम करके रखा। वे समाजवाद के उसूलों को मानते थे, मज़दूर पार्टी बनाने का लक्ष्य रखते थे और मज़दूर राज क़ायम करना चाहते थे। उनके इन आदर्शों और विचारों से न सिर्फ़ अंग्रेज़ी हुकूमत ख़ौफ़ज़दा थी बल्कि देश के पूँजीपति वर्ग की पार्टी कांग्रेस का नेतृत्व भी घबराता था। क्योंकि वह समझता था कि अगर आज़ादी के आन्दोलन का नेतृत्व भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, चन्द्रशेखर आज़ाद, अशफ़ाक़ उल्ला, बिस्मिल जैसे क्रान्तिकारियों की क्रान्तिकारी धारा के हाथों में आया तो भारत की आज़ादी पूँजीपतियों की लक्ष्यपूर्ति से आगे जायेगी और मज़दूर राज और समाजवाद की स्थापना की ओर जायेगी। ये बेहद युवा क्रान्तिकारी थे और अपने विचारधारात्मक-राजनीतिक विकास के आरम्भिक चरणों में थे, हालाँकि इन शुरुआती मंज़िलों में भी उन्होंने अपनी बौद्धिक-वैचारिक शक्ति को दिखला दिया था।

आज़ाद ने मज़दूरों और ग़रीबों के जीवन को नज़दीक से देखा था और आज़ादी के बाद मज़दूरों के राज की स्थापना उनका सपना था

शोषण का अन्त, मानव मात्र की समानता की बात और श्रेणी-रहित समाज की कल्पना आदि समाजवाद की बातों ने उन्हें मुग्ध-सा कर लिया था। और समाजवाद की जिन बातों को जिस हद तक वे समझ पाये थे उतने को ही आज़ादी के ध्येय के साथ जीवन के सम्बल के रूप में उन्होंने पर्याप्त मान लिया था। वैज्ञानिक समाजवाद की बारीकियों को समझे बग़ैर भी वे अपने-आप को समाजवादी कहने में गौरव अनुभव करने लगे थे। यह बात आज़ाद ही नहीं, उस समय हम सब पर लागू थी। उस समय तक भगतसिंह और सुखदेव को छोड़कर और किसी ने न तो समाजवाद पर अधिक पढ़ा ही था और न मनन ही किया था। भगतसिंह और सुखदेव का ज्ञान भी हमारी तुलना में ही अधिक था। वैसे समाजवादी सिद्धान्त के हर पहलू को पूरे तौर पर वे भी नहीं समझ पाये थे। यह काम तो हमारे पकड़े जाने के बाद लाहौर जेल में सन 1929-30 में सम्पन्न हुआ। भगतसिंह की महानता इसमें थी कि वे अपने समय के दूसरे लोगों के मुक़ाबले राजनीतिक और सैद्धान्तिक सूझबूझ में काफ़ी आगे थे।

चन्द्रशेखर आज़ाद के 110वें जन्मदिवस (23 जुलाई) के अवसर पर ‘यश की धरोहर’ पुस्तिका से एक अंश

एकश्लोकी रामायण की तरह संक्षेप में आज़ाद का चरित्र इतना ही है, परन्तु उनके जीवन में इस भाँति अशिक्षित, कुसंस्कारग्रस्त, ग़रीबी में पड़ी हुई जनता के क्रान्ति के मार्ग पर बढ़ते जाने की एक संक्षिप्त उद्धरणी-सी हमें मिलती है। आज़ाद का जन्म हद दर्जे की ग़रीबी, अशिक्षा, अन्धविश्वास और धार्मिक कट्टरता में हुआ था, और फिर वे, पुस्तकों को पढ़कर नहीं, राजनीतिक संघर्ष और जीवन संघर्ष में अपने सक्रिय अनुभवों को सीखते हुए ही उस क्रान्तिकारी दल के नेता हुए जिसने अपना नाम रखा था: ‘’हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ और जिसका लक्ष्य था भारत में धर्म निरपेक्ष, वर्ग-विहीन समाजवादी प्रजातंत्र की स्थापना करना।