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कड़वे बादाम : दिल्ली के बादाम उद्योग में मज़दूरों का शोषण

बादाम से छिलका उतारने का काम बेहद कठिन और जोखिमभरा होता है। बादाम निकालने के लिए जो खोल तोड़ा जाता है वह काफ़ी सख्त होता है और उसे नरम बनाने के लिए रसायनों का प्रयोग किया जाता है। यह पूरा काम नंगे हाथों से किया जाता है और लम्बे समय तक काम करने से लगभग सभी मज़दूरों की उँगलियों के पोरों पर घाव हो जाते हैं और दरारें पड़ जाती हैं जिनमें सर्दियों में बहुत अधिक दर्द होता है। ये घाव खोल के खुरदुरेपन और/या रसायनों के प्रभाव, दोनों ही वजहों से हो सकते हैं। हड़ताल के दौरान भी हम जितने मज़दूरों से मिले, उनमें से अधिकांश के हाथें और उंगलियों में घाव के निशान थे। उनके हाथों में ये घाव बादाम तोड़ते समय पडे थे। ये मज़दूर लगभग एक हफ्ते से काम पर नहीं गये थे फिर भी उनके ये घाव बहुत पीड़ादायी बने हुए थे।

करावलनगर में इलाक़ाई मज़दूर यूनियन की पहली सफल हड़ताल

इस हड़ताल की सबसे ख़ास बात यह थी कि हालाँकि यह बड़े पैमाने पर नहीं थी, लेकिन इसमें जिस पेशे और कारख़ानों के मज़दूरों ने हड़ताल की थी, उससे ज़्यादा संख्या में अन्य पेशों के मज़दूरों ने भागीदारी की। अगर अन्य पेशों के मज़दूर भागीदारी न करते तो अकेले पेपर प्लेट मज़दूरों की लड़ाई का सफल होना मुश्‍क़िल हो सकता था। इलाक़ाई मज़दूर यूनियन बनने के बाद यह पहला प्रयोग था जिसमें मज़दूरों की इलाक़ाई एकजुटता के आधार पर एक हड़ताल जीती गयी। आज जब पूरे देश में ही बड़े कारख़ानों को छोटे कारख़ानों में तोड़ा जा रहा है, मज़दूरों को काम करने की जगह पर बिखराया जा रहा है, तो कारख़ाना-आधारित संघर्षों का सफल हो पाना मुश्‍क़िल होता जा रहा है। ऐसे में, ‘बिगुल’ पहले भी मज़दूरों की इलाक़ाई और पेशागत एकता के बारे में बार-बार लिखता रहा है। यह ऐसी ही एक हड़ताल थी जिसमें एक इलाक़े के मज़दूरों ने पेशे और कारख़ाने के भेद भुलाकर एक पेशे के कारख़ाना मालिकों के ख़िलाफ़ एकजुटता क़ायम की और हड़ताल को सफल बनाया।

करावल नगर के मज़दूरों ने बनायी इलाक़ाई यूनियन

7 जुलाई को करावल नगर मज़दूर यूनियन के गठन के लिए अगुआ टीम की बैठक हुई जिसमें मज़दूर साथियों की समन्यवय समिति बनायी गयी जिसने इलाक़े में यूनियन के प्रचार और इसके महत्व को बताते हुए सभी पेशों के मज़दूरों को सदस्य बनाने की योजना बनायी। सदस्यता का प्रमुख पैमाना सक्रियता को रखा गया। साथ ही यूनियन के संयोजक नवीन ने बताया कि जब यूनियन की सदस्यता 100 हो जायेगी तो इसके सभी सदस्यों को बुलाकर इसके पदाधिकारी, कार्यकारणी व अन्य पदों के लिए चुनाव कराया जाएगा।

बादाम उद्योग में मशीनीकरण: मज़दूरों ने क्या पाया और क्या खोया

मज़दूरों को बेवजह डरना बन्द कर देना चाहिए। उन्हें याद रखना चाहिए कि हाथ से भी वही काम करते थे और मशीनें भी वही चलायेंगे, ठेकेदारों और मालिकों के अमीरज़ादे नहीं! इसलिए चाहे कोई भी मशीन आ जाये, मज़दूरों की ज़रूरत कभी ख़त्म नहीं हो सकती है। चाहे मालिक कुछ भी जादू कर ले, बिना मज़दूरों के उसका काम नहीं चल सकता है। मज़दूर ही मूल्य पैदा करता है। मशीनें भी मज़दूर ही बनाता है और उन्हें चलाता भी मज़दूर ही है। बादाम मालिक मशीनीकरण के साथ कई अर्थों में कमज़ोर हुए हैं। मशीनीकरण इस उद्योग और पूरी मज़दूर आबादी का मानकीकरण करेगा। इस मानकीकरण के चलते मज़दूरों में दूरगामी तौर पर ज़्यादा मज़बूत संगठन और एकता की ज़मीन तैयार होगी, क्योंकि उनके जीवन में अन्तर का पहलू और ज़्यादा कम होगा और जीवन परिस्थितियों का एकीकरण और मानकीकरण होगा। ऐसे में, मज़दूरों के अन्दर वर्ग चेतना और राजनीतिक संगठन की चेतना बढ़ेगी। मालिक मशीन पर काम करने वाले मज़दूर के सामने ज़्यादा कमज़ोर होता है, बनिस्बत हाथ से काम करने वाले मज़दूर के सामने। इसलिए मशीन पर काम करने वाली मज़दूर आबादी ज़्यादा ताक़तवर और लड़ाकू सिद्ध हो सकती है। बादाम मज़दूर यूनियन को इसी दिशा में सोचना होगा और मज़दूरों को यह बात लम्बी प्रक्रिया में समझाते हुए संगठित करना होगा।

करावलनगर के बादाम उद्योग का मशीनीकरण

मशीनीकरण करावलनगर के बादाम उद्योग का मानकीकरण करेगा और उसे देर-सबेर कारख़ाना अधिनियम के तहत लायेगा। मशीनीकरण मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को बढ़ाने में एक सहायक कारक बनेगा और मशीन पर काम करने वाली मज़दूर आबादी मालिकों और ठेकेदारों के लिए अकुशल मज़दूर के मुक़ाबले कहीं ज्यादा अनिवार्य होगी। अकुशल मज़दूर आसानी से मिल जाता है, लेकिन एक ख़ास प्रकार की मशीन को सही तरीक़े से चला सकने वाला मज़दूर सड़क पर घूमता नहीं मिल जाता। ऐसे में, मज़दूरों की सामूहिक मोल-भाव की ताक़त पहले के मुक़ाबले कहीं ज्यादा होगी। मशीनीकरण के शुरू होने के समय मज़दूर आतंकित थे कि अब मालिक गरज़मन्द नहीं रहा और अब उनकी ताक़त कम हो गयी है। लेकिन अब मज़दूर इस बात को समझने लगे हैं कि मशीनीकरण के कारण होने वाली छँटनी के बाद जो कटी-छँटी मज़दूर आबादी बचेगी, वह कहीं ज्यादा ताक़तवर और संगठित होगी और साथ ही मालिकों के लिए कहीं ज्यादा ज़रूरी होगी। इस रूप में मशीनीकरण ने बादाम उद्योग के साथ-साथ बादाम मज़दूरों के संगठन को भी एक नयी मंज़िल में पहुँचा दिया है।