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दिल्ली के करावल नगर में जारी बादाम मज़दूरों का जुझारू संघर्ष : एक रिपोर्ट

हड़ताल मज़दूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मज़दूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, वरन तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मज़दूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फ़ैक्टरी का मालिक, जिसने मज़दूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मज़दूरी में मामूली वृद्धि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मज़दूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हज़ारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मज़दूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में समग्र मज़दूर वर्ग का दुश्मन है और मज़दूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लफ़ाज़ी और मज़दूर आबादी!

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लफ्फ़ाज़ियाँ उनके तमाम भाषणों, टी.वी. पर विज्ञापनों व अख़बारों में विज्ञापनों के ज़रिये आम आबादी को ज़बरदस्ती सुननी या देखनी ही पड़ती हैं, जिसमें मोदी सरकार ग़रीबों को समर्पित प्रधानमन्त्री जन-धन योजना, मेक इन इण्डिया, जापान के 2 लाख 10 हज़ार करोड़ के निवेश से भारत में रोज़गार का सृजन होगा, 2019 तक स्वच्छ भारत अभियान से स्वच्छ भारत का निर्माण होगा आदि-आदि। मीडिया और अख़बारों में ऐसे नारों से और जुमलों से पूरी मज़दूर आबादी भ्रमित होती है कि भइया, मोदी सरकार तो ग़रीबों और मज़दूरों की सरकार है। मगर जब वास्तविकता में महँगाई से पाला पड़ता है तो इस सरकार के खि़लाफ़ गुस्सा भी यकायक फूट पड़ता है।

चुप्पी तोड़ो, आगे आओ! मई दिवस की अलख जगाओ!!

मई दिवस का इतिहास पूँजी की ग़ुलामी की बेड़ियों को तोड़ देने के लिए उठ खड़े हुए मज़दूरों के ख़ून से लिखा गया है। जब तक पूँजी की ग़ुलामी बनी रहेगी, संघर्ष और क़ुर्बानी की उस महान विरासत को दिलों में सँजोये हुए मेहनतकश लड़ते रहेंगे। हमारी लड़ाई में कुछ हारें और कुछ समय के उलटाव-ठहराव तो आये हैं लेकिन इससे पूँजीवादी ग़ुलामी से आज़ादी का हमारा जज्ब़ा और जोश क़त्तई टूट नहीं सकता। करोड़ों मेहनतकश हाथों में तने हथौड़े एक बार फिर उठेंगे और पूँजी की ख़ूनी सत्ता को चकनाचूर कर देंगे। इसी संकल्प को लेकर दिल्ली, लुधियाना और गोरखपुर में मज़दूरों के मई दिवस के आयोजनों में बिगुल मज़दूर दस्ता के साथियों ने शिरकत की और इन आयोजनों को क्रान्तिकारी धार और जुझारू तेवर देने में अपनी भूमिका निभायी।

करावल नगर मज़दूर यूनियन ने दो दिवसीय मेडिकल कैम्प अयोजित किया।

करावल नगर मज़दूर यूनियन द्वारा आयोजित कैम्प का मक़सद झोला-छापा डॉक्टर व मुनाफ़े का धन्धा चलाने वाले डॉक्टरों के बरक्स जनता की पहलक़दमी पर जन-स्वास्थ्य सेवा को खड़ा करना है। यूनियन के नवीन ने बताया कि असल में स्वास्थ्य-शिक्षा-आवास-रोज़गार सरकार की बुनियादी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए, लेकिन मुनाफ़े और लूट पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में ये भी एक बाज़ारू माल बना दिया जाता है और पूँजीपति इसे बेचकर मुनाफ़ा पीटता है। इसलिए मज़दूरों को अपनी लड़ाई सिर्फ़ वेतन-भत्ते तक नहीं लड़नी है, बल्कि स्वास्थ्य-शिक्षा-आवास जैसे मुद्दे को भी अपनी लड़ाई में शामिल करना होगा।

दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार के विभिन्न इलाक़ों में चुनावी राजनीति का भण्डाफोड़ अभियान

अभियान के दौरान कार्यकर्ताओं की टोलियाँ पिछले 62 वर्ष से जारी चुनावी तमाशे का पर्दाफ़ाश करते हुए बड़े पैमाने पर बाँटे जा रहे विभिन्न पर्चों, नुक्कड़ सभाओं, कार्टूनों और पोस्टरों की प्रदर्शनियों तथा नुक्कड़ नाटकों के ज़रिये लोगों को बता रही हैं कि दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों, अशिक्षितों व बेरोज़गारों वाले हमारे देश में कुपोषण, बेरोज़गारी, महँगाई, मज़दूरों का भयंकर शोषण या भुखमरी कोई मुद्दा ही नहीं है! आज विश्व पूँजीवादी व्यवस्था गहराते आर्थिक संकट तले कराह रही है। ऐसे में किसी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिए कोई ठोस मुद्दा नहीं है। सब जानते हैं कि सत्ता में आने के बाद उन्हें जनता को बुरी तरह निचोड़कर अपने देशी-विदेशी पूँजीपति आकाओं के संकट को हल करने में अपनी सेवा देनी है। सभी पार्टियों में अपने आपको पूँजीपतियों का सबसे वफ़ादार सेवक साबित करने की होड़ मची हुई है।

“अपना काम” की ग़लत सोच में पिसते मज़दूर

दोस्तो! मुझे तो यही समझ आता है कि चाहे वेतन पर काम करने वाले मज़दूर हो या पीस रेट पर सब मालिकों के ग़ुलाम ही हैं। इस गुलामी के बन्धन को तोड़ने के लिए हम मज़दूरों के पास एकजुट होकर लड़ने के सिवा कोई रास्ता भी नहीं है। मैं नियमित मज़दूर बिगुल अख़बार पड़ता हूँ। मुझे लगता है कि मज़दूर वर्ग की सच्ची आज़ादी का रास्ता क्या होगा; यहीं इस अखबार के माध्यम से बताया जाता है।

दिहाड़ी मज़दूरों की जिन्दगी!

मैं एक भवन निर्माण मज़दूर हूँ। मैं बिहार प्रदेश से रोजी-रोटी के लिए दिल्ली आया हूँ। यहाँ मुश्किल से 30 दिनों में 20 दिन ही काम मिल पाता है। जिसमें भी काम करने के बाद पैसे मिलने की कोई गारण्टी नहीं होती है। कहीं मिल भी जाते हैं तो कहीं दिहाड़ी भी मार ली जाती है। कोई-कोई मालिक तो जबरन पूरा काम करवाकर (ज़मींदारी समय के समान) ही पैसे देते हैं और अधिक समय तक काम करने पर उसका अलग से मज़दूरी भी नहीं देते हैं। कई जगह मालिक पैसे के लिए इतना दौड़ाते हैं कि हमें लाचार होकर अपनी दिहाड़ी ही छोड़नी पड़ती है। यहाँ करावल नगर में लेबर चौक भी लगता है। जहाँ न बैठने की जगह है न पानी पीने की। चौक से जबरन कुछ मालिक काम पर ले जाते हैं नहीं जाने पर पिटाई भी कर देते हैं। दूसरी तरफ दिहाड़ी मज़दूरों की बदतर हालात सिर्फ काम की जगह नहीं बल्कि उनकी रहने की जगह पर भी है जहाँ हम तंग कमरे में रहते हैं।

ये कहानी नहीं बल्कि सच्चाई है

अपनी ज़ि‍न्दगी के अनुभव से मुझे विश्वास हो गया है कि सभी पूँजीपति एक जैसे ही होते हैं और जब तक यह व्यवस्था क़ायम रहेगी तब तक हम मज़दूरों को दर-दर भटकना पड़ेगा, गालियाँ, डण्डे खाने पड़ेंगे और जान भी गँवानी पड़ेगी। इसलिए जितनी जल्दी हो इस व्यवस्था को बदल दो। पूँजीवाद मुर्दाबाद!

करावलनगर की वॉकर फ़ैक्ट्रियों में मज़दूरों के हालात

मालिक द्वारा गाली-गलौज आम बात है। कभी-कभी तो कुछ मज़दूरों की पिटाई भी मालिकों के हाथों हुई है। आपस में कोई एकता न होने से मज़दूर कुछ कर नहीं पाते हैं। मज़दूरों के बीच से ही कुछ मज़दूरों को नाम भर का ठेकेदार बनाकर और फिर इन ‘मज़दूर ठेकेदारों’ की आपस में होड़ करवाकर मालिक अपनेआप को हर तरह की ज़िम्मेदारी से बरी कर लेता है और फिर बेगारी भी करवाता है। कुशल मज़दूर यह नहीं समझ पाते कि कुशल मज़दूरों को अर्द्धकुशल मज़दूर या अकुशल मज़दूर को साथ में लेकर ही अपना अधिकार मिल सकता है। मालिक जानबूझकर सभी काम ठेके पर करवाना चाहता है ताकि मज़दूरों को ज़्यादा अच्छी तरह निचोड़ सके और उसे कोई दिक्कत भी न हो।

कड़वे बादाम : दिल्ली के बादाम उद्योग में मज़दूरों का शोषण

बादाम से छिलका उतारने का काम बेहद कठिन और जोखिमभरा होता है। बादाम निकालने के लिए जो खोल तोड़ा जाता है वह काफ़ी सख्त होता है और उसे नरम बनाने के लिए रसायनों का प्रयोग किया जाता है। यह पूरा काम नंगे हाथों से किया जाता है और लम्बे समय तक काम करने से लगभग सभी मज़दूरों की उँगलियों के पोरों पर घाव हो जाते हैं और दरारें पड़ जाती हैं जिनमें सर्दियों में बहुत अधिक दर्द होता है। ये घाव खोल के खुरदुरेपन और/या रसायनों के प्रभाव, दोनों ही वजहों से हो सकते हैं। हड़ताल के दौरान भी हम जितने मज़दूरों से मिले, उनमें से अधिकांश के हाथें और उंगलियों में घाव के निशान थे। उनके हाथों में ये घाव बादाम तोड़ते समय पडे थे। ये मज़दूर लगभग एक हफ्ते से काम पर नहीं गये थे फिर भी उनके ये घाव बहुत पीड़ादायी बने हुए थे।