आइसिन मज़दूरों का बहादुराना संघर्ष और ऑटोमोबाइल सेक्टर
के मज़दूरों लिए कुछ ज़रूरी सबक़

बिगुल संवाददाता
रोहतक, हरियाणा

‘आइसिन ऑटोमोटिव हरियाणा प्राइवेट लिमिटेड’ के मज़दूरों का धरना फ़िलहाल आईएमटी चौक रोहतक पर समाप्त हो चुका है। क़रीब 90 दिनों तक चले संघर्ष ने सोचने के लिए कई नुक्ते ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के सामने रखे हैं। मज़दूर बिगुल के पिछले अंकों में आइसिन के मज़दूरों के संघर्ष पर रपटें दी जाती रही हैं। ज्ञात हो कि हरियाणा की रोहतक आईएमटी में स्थित आइसिन ऑटोमोटिव हरियाणा प्राइवेट लिमिटेड जापानी मालिकाने वाली एक वेण्डर कम्पनी है। यह कम्पनी ख़ास तौर पर मारुती, टोयोटा, होण्डा इत्यादि के लिए ‘डोर लॉक’, ‘इनडोर-आउटडोर हैण्डल’ समेत कुछ अन्य उत्पादों की आपूर्ति करती है। 3 मई को धरना शुरू होने से पहले कम्पनी में क़रीब 270 स्थाई मज़दूर, क़रीब 250 ट्रेनी मज़दूर और लगभग 150 ठेका मज़दूर काम कर रहे थे। कहने के लिए यह एक वेण्डर कम्पनी है, किन्तु आइसिन ग्रुप दुनियाभर के 7 सबसे बड़े ग्रुपों में से एक है तथा दुनियाभर में इसकी 195 के क़रीब शाखाएँ हैं। इससे पता चलता है कि कितनी बड़ी पूँजी की ताक़त के साथ उक्त कम्पनी बाज़ार की प्रतिस्पर्धा में खड़ी है। भारत में इसकी दो कम्पनियाँ हैं जिनमें एक रोहतक में तो दूसरी बैंगलोर में स्थित है।

कम्पनी में काम करने वाले मज़दूर साथी बताते हैं कि यहाँ पर कार्यस्थिति बेहद ख़राब थी, 4-5 साल से काम करने वाले मज़दूरों को भी 8,600 से लेकर 9-10 हज़ार में खटाया जाता था। मैनेजमेण्ट का ज़बरदस्त दबाव मज़दूरों पर रहता था, उत्पादन लक्ष्य लगातार बढ़ता ही रहा तथा कम्पनी में काम शुरू होने के बाद उत्पादन कई गुना बढ़ गया, साथ ही लाइन पर काम करने वाले मज़दूरों की संख्या भी घट गयी, श्रम की उत्पादकता बढ़ने के बावजूद तनख़्वाहों में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई, कई मज़दूरों को तो 1-2 रुपये तक की सालाना बढ़ोत्तरी मिली! कम्पनी का लगातार विस्तार हो रहा था व मैनेजरों की तनख़्वाहें तो कई गुना बढ़ गयीं, टूटी-फूटी मोटरसाइकिलों पर आने वाले चमचमाती गाड़ियों तक पहुँच गये, उनके कोठी-बँगले खड़े हो गये, घरों में लिफ़्ट तक लग गयी किन्तु मज़दूरों के हालात बद से बदतर होते चले गये, मज़दूरों की ‘सेलरी’ बढ़ाने की बात आते ही कम्पनी के घाटे का रोना रोया जाता था, ‘ग्रेडिंग सिस्टम’ के द्वारा मज़दूरों को लगातार आपस में बाँटकर रखा जाता था, चाय व भोजन का ब्रेक बहुत थोड़े समय का होता था, मज़दूरों के साथ गाली-गलौज और गधे जैसे शब्दों का प्रयोग आम बात थी, महिला मज़दूरों के साथ भी छेड़छाड़ से लेकर ज़्यादतियाँ हो जाती थी। एक मज़दूर साथी ने आपबीती सुनायी कि जब वे घर गये हुए थे तो उसी दौरान दुर्घटनावश उनके पिताजी नहीं रहे जिसके कारण उन्हें घर पर समय लग गया। उन्होंने कम्पनी में सूचित भी कर दिया था, किन्तु जब वे लौटकर आये तो कोई मदद करना तो दूर उल्टा मैनेजर का यह कहना था कि आगे से छुट्टी ‘प्लान’ करके जाया करो!

इन्हीं सब कारणों से मज़दूरों ने एकजुट होने व यूनियन बनाने का फै़सला लिया। पंजीकरण हेतु फ़ाइल श्रम विभाग में लगा दी गयी। ज़्यादा समय नहीं हुआ था कि मैनेजमेण्ट को इसकी भनक लग गयी और षड्यन्त्र के तहत श्रम विभाग के साथ साँठगाँठ करके पहले तो यूनियन की पंजीकरण फ़ाइल रद्द करवायी और फिर अनुशासन के नाम पर मज़दूरों पर छँटनी का पाटा चलाना शुरू कर दिया। कम्पनी मज़दूरों की एकता पर हमला करने का लगातार मौक़ा तलाश रही थी, फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ी से लेकर पुलिस के सिपाही कम्पनी में पहले ही तैनात हो गये थे, किन्तु जब कामयाबी मिलती नहीं दिखी, तो 3 मई को सुबह वाली शिफ़्ट में 20 मज़दूरों को बिना किसी कारण से काम पर से निकालने का नोटिस लगाकर तालाबन्दी कर दी, भारी मात्रा में पुलिस बल लगाकर मज़दूरों को डराने के प्रयास किये गये तथा एक ‘अण्डरटेकिंग’ फॉर्म मज़दूरों को थमा दिया गया, जिसका लुब्बेलुबाब यह था कि मज़दूर कम्पनी से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर कोई माँग नहीं कर सकते। यहीं से आइसिन ऑटोमोटिव हरियाणा मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में आइसिन के मज़दूरों का जुझारू संघर्ष शुरू हुआ। 3 मई से लेकर 31 मई तक यानी 29 दिन तक मज़दूर कम्पनी गेट के पास जमे रहे, अलग-अलग तरीक़ों से मज़दूर श्रम विभाग, उपायुक्त कार्यालय रोहतक, स्थानीय, राज्यस्तरीय और राष्ट्रीय नेताओं व सम्बद्ध मन्त्रालयों तक अपनी बात पहुँचाते रहे लेकिन किसी के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी, किसी ने भी न्याय के पक्ष में मज़दूरों का साथ नहीं दिया। हारकर 31 मई को मज़दूरों ने गेट जाम कर दिया तो तुरन्त प्रशासन हरक़त में आ गया और लाठीचार्ज करके 425 मज़दूरों, अभिभावकों और मज़दूर कार्यकर्त्ताओं को विभिन्न धाराएँ लगाकर जेल में ठूँस दिया गया। जेल जाने वालों में 35 महिलाएँ भी शामिल थीं। इसके बाद कम्पनी को कोर्ट से ‘स्टे’ मिल गया और मज़दूरों को कम्पनी से निश्चित दूरी पर बैठना पड़ा। लम्बे समय तक मज़दूर आईएमटी गेट पर बैठे रहे। तीन महीने आते-आते तमाम उतार-चढ़ाव के बाद अन्त में आइसिन का मज़दूर आन्दोलन बिखराव की तरफ़ गया तथा अब केवल क़ानूनी लड़ाई जारी है।

बिगुल मज़दूर दस्ता ने आइसिन के संघर्ष में प्रारम्भ से ही यथासम्भव भागीदारी की। हमें लगता है कि भले ही सेक्टरगत और इलाक़ाई एकजुटता के बगै़र ऑटोमोबाइल सेक्टर के आन्दोलनों की एक वस्तुगत सीमा है किन्तु एकजुटता, जुझारुता और कुर्बानी का जज़्बा होने के बावजूद आइसिन के मज़दूरों का आन्दोलन उतना भी हासिल नहीं कर पाया, जितना कि सम्भवतया हासिल किया जा सकता था। मज़दूर आन्दोलन न केवल अपनी जीतों से सीखता है, बल्कि आंशिक तौर पर मिली हारें भी उसे शिक्षित करती हैं। अब हम थोड़ी दूरी लेकर आन्दोलन को देख सकते हैं, इसमें मौजूद विभिन्न प्रवृत्तियों और रुझानों पर साफ़ नज़र होकर बात कर सकते हैं।

सम्भावना सम्पन्न आन्दोलन

दर्जनभर को छोड़कर कम्पनी में काम करने वाले कुल मज़दूरों की लगभग सारी की सारी संख्या आन्दोलन में शामिल थी। आन्दोलन में न केवल कैजुअल व ट्रेनी मज़दूर खड़े थे, बल्कि स्थायी मज़दूर भी कन्धे से कन्धा मिलाकर संघर्ष में अन्त तक डटे रहे। शुरू में जिन 20 मज़दूरों को निकालने का नोटिस लगाया गया था, वे भी दरअसल ट्रेनी मज़दूर ही थे। संघर्ष की अगुवाई कर रहे मज़दूर साथियों ने पूरी निष्ठा, तत्परता और लगन के साथ अपनी जि़म्मेदारियों का निर्वहन किया और कर रहे हैं किन्तु सामने मालिक-प्रशासन का गठजोड़ और साथ में सरकारी शह के रूप में दुश्मन बहुत बड़ा था और ताक़त छोटी व सीमित। मज़दूरों ने क़रीब एक महीने तक सामूहिक भोजनालय चलाया। स्थानीय और ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों सहित आस-पास की आबादी से सहयोग जुटाया गया। संघर्ष शुरू होते ही होने वाली मैनेजमेण्ट के साथ बैठकों में मज़दूर इस बात के लिए क़रीब-क़रीब सहमत हो गये थे कि हम यूनियन फ़ाइल रद्द करवाने पर कोई कार्रवाई नहीं करेंगे, किन्तु सभी मज़दूरों को अन्दर लिया जाये, उसके बाद धीरे-धीरे पहले निकाले गयों की संख्या 20 से बढ़कर 30 हुई और उसके बाद लगभग हर अगली बैठक में ‘टर्मिनेट’ व ‘सस्पैण्ड’ कर दिये गये मज़दूरों की संख्या बढ़ती चली गयी। मज़दूरों की जब तक एक चीज़ पर सहमति बनती, तब तक मालिक पक्ष अगली चाल चल देता था। यूनियन नेतृत्व की ईमानदारी और क़ुर्बानी की भावना बेशक सवालों के घेरे से परे थी, किन्तु संघर्ष का कोई पुराना अनुभव न होने के कारण कई जगह पर कुछ चूकें होना भी लाज़िमी था। हालाँकि मज़दूरों की कमेटी व्यवस्था और सामूहिक नेतृत्व काफ़ी हद तक लागू था, लेकिन बिना संघर्षों के लम्बे अनुभवों यानी नौसिखिया होने के कारण नेतृत्व ख़ुद कई बार अनिर्णय की स्थिति में होता था या कई बार निर्णय ही ग़लत ले लिये गये। आन्दोलन के दौरान लगभग जितनी भी प्रदर्शनात्मक गतिविधियाँ की गयीं, वे लगभग सभी-की-सभी ख़ासे समय अन्तराल के बीच की गयी यानी मालिक पक्ष पर दबाव निरन्तरता में बना नहीं रह सका। लम्बे समय तक अडिग रहकर संघर्ष चलाने के बावजूद भी आन्दोलन को ठोस रूप से ऑटोमोबाइल सेक्टर में चल रहे अन्य संघर्षों के साथ नहीं जोड़ा जा सका। आन्दोलन में मुख्य तौर पर दो विजातीय प्रवृत्तियाँ अन्त तक मौजूद रही जिन्होंने समय-ब-समय आन्दोलन को आपने कारनामों से ख़ासा नुक़सान पहुँचाने का काम किया।

“इंक़लाबी कॉमरेडों” की भूमिका: ‘पहाड़ों पर बर्फ़ पड़ रही हो तो मैदानों में भी कम्बल ओढ़कर बैठो’!

“क़ानूनी सलाहकार” के तौर पर “इंक़लाबी कॉमरेड” लम्बे समय से यूनियन के नेतृत्वकारी साथियों के सम्पर्क में थे। अपने अनुभववादी, अर्थवादी और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी तरीक़ों से ये लोग पहले भी मज़दूर आन्दोलनों में ख़ासा भरभण्ड मचा चुके हैं। सबसे पहले तो अपने संकीर्ण सांगठनिक हितों के चलते आइसिन के मज़दूर आन्दोलन में भी इन्होंने हमेशा की तरह साँयफुस्स की कुनीति का परिचय दिया। जैसे कि बैठक में बात न करके नेतृत्वकारी मज़दूर साथियों को एक तरफ़ ले जाकर उनके कानों में फुसफुसाना, तालमेल कमेटी – जिसमें कि सभी हमदर्द संगठनों के व्यक्ति शामिल होते – नहीं बनने देना, मज़दूरों के साथ राजनीतिक धरातल की बजाय निम्नस्तरीय एकता क़ायम करना इत्यादि काम इन श्रीमानों ने यहाँ भी किये। ऑटोमोबाइल सेक्टर के आन्दोलनों को सेक्टरगत आधार पर संगठित किये जाने की ज़रूरत पर तो ये लोग चाहकर भी कुछ नहीं बोल पाते! इसका कारण यह है कि कुछ साल पहले बिगुल ने जब सेक्टरगत आधार पर यूनियन बनाने और ऑटोमोबाइल सेक्टर के संघर्षों को भी आपस में जोड़ने की बात की थी, तो ये लोग अपनी अर्थवादी व संघाधिपत्यवादी पहुँच और पद्धति के कारण इस लाइन के विरोध में खड़े थे। पर वास्तविक सच्चाई से कठदलीली करने वाले भी भला कब तक विमुख रह सकते हैं। अब ये श्रीमान भी यही लाइन “चोरी करके” चुपके-चुपके दबे स्वर में सेक्टरगत एकजुटता की बात करने लगे हैं पर इस बारे में अभी ये साफ़-नज़र नहीं हो पाये हैं कि खुले स्वर में किस मुँह से कहें!? आइसिन के मज़दूर आन्दोलन में इन्होंने एक ग़ज़ब का सादृश्य निरूपण बैठा दिया और फिर स्वयं कुछ समय के लिए चम्पत हो लिये। हरिद्वार में एवरेस्ट कम्पनी के मज़दूरों का आन्दोलन चल रहा था। वहाँ पर कम्पनी ने न्यायालय से ‘स्टे ऑर्डर’ लेकर मज़दूरों को कम्पनी से दूर बैठा दिया था। मज़दूरों ने एकजुट होकर परिवारवालों और स्थानीय आबादी को साथ लेकर बैरीकेड को तोड़ दिया और कम्पनी गेट पर क़ब्ज़ा कर लिया, इसके बाद दबाव के चलते मैनेजमेण्ट समझौते की टेबल पर आ गयी। हर जगह के संघर्ष की अपनी विशिष्टताएँ होती हैं, इसलिए आइसिन कम्पनी से एवरेस्ट कम्पनी के संघर्ष की तो कोई तुलना ही नहीं की जा सकती थी। बिगुल मज़दूर दस्ता ने इस स्थिति में स्पष्ट तौर पर बात रखी थी कि गेट जाम करना अपने आप में ग़लत नहीं है, किन्तु स्थानीय और ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों को साथ में जोड़कर बनी ताक़त पर निर्भर करता है कि उक्त क़दम कब उठाया जाये, फि़लहाली स्थिति से ऐसा नहीं लगता कि अभी ऐसा क़दम उठाया जा सकता हो। किन्तु ‘क़ानूनी सलाहकार महोदय’ वीडियो दिखा-दिखाकर मज़दूरों को ऐसा करने के लिए उकसा रहे थे। ख़ैर जो भी रहा हो मज़दूर बहादुरी के साथ पुलिस दमन के सामने सीना तानकर खड़े हो गये, नेतृत्वकारी कमेटी यहाँ भी संघर्ष की अगली क़तारों में थी। पर जो होना था वही हुआ, अन्त में सब सामने आ गया। लाठीचार्ज करने के बाद बसों में भरकर मज़दूरों को थाने ले जाया गया, गिरफ़्तार किये जाने वालों में कुछ परिवारजनों व मज़दूर कार्यकर्ताओं के साथ ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ और ‘ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री कॉण्ट्रेक्ट वर्कर्स यूनियन’ के कार्यकर्त्ता भी शामिल थे। जब थाने में गिरफ़्तारी दिखाकर जेल भेजने की तैयारी होने लगी तब भी कम्पनी की पहुँच और ताक़त को यूनियन के नेतृत्वकारी साथी बड़े ही हल्के में ले रहे थे तथा आश्वस्त थे कि थोड़ी-बहुत देर में सभी को छोड़ दिया जायेगा, इतने लोगों को कहाँ रखेंगे!? कहना नहीं होगा कि 31 तारीख़ को गेट जाम करने के क़दम से आन्दोलन में नया मोड़ आया। इसके बाद आन्दोलन के लिए सबसे नकारात्मक चीज़ थी कम्पनी गेट से दूर हट जाना। जिससे कि कम्पनी पर बन रहा दबाव हट गया और कम्पनी को साँस लेने का मौक़ा मिल गया। पहले जहाँ चोरी-छिपे कैजुअल भर्ती हो रही थी अब कम्पनी के दोनों गेट खुल गये। कम्पनी से गाड़ियों का आवागमन शुरू हो गया। जेल से छूटते ही बिगुल की तरफ़ से तालमेल कमेटी की ज़रूरत पर बात की गयी, किन्तु कानाफूसी की कुनीति के कारण यह बात भी सिरे नहीं चढ़ पायी।

संशोधनवादी पार्टियों से जुड़ी ट्रेड यूनियनें : नाम बड़े और दर्शन छोटे!

रोहतक में मज़दूरों की नामधारी दो पार्टियों के बड़े-बड़े दफ़्तर हैं और इनका संस्थाबद्ध ढंग का काम है। इनमें से एक पार्टी ख़ुद को भारत के मज़दूर वर्ग की एकमात्र क्रान्तिकारी पार्टी बताती है। इस पार्टी से जुड़ी सेण्ट्रल ट्रेड यूनियन के नेता तीन महीने के संघर्ष के दौरान केवल 3 बार दिखायी दिये और वह भी “अकेले” ही तथा उस समय भी सिर्फ़ भाषण देने के लिए। इनके स्थानीय नेता अपने दफ़्तर में बैठकर आइसिन के मज़दूरों की तरफ़ से निमन्त्रण पत्र दिये जाने का इन्तज़ार करते रहे। इनसे जुड़े एक व्यक्ति ने तो ऐसा बोल ही दिया कि उन्हें किसी ने बुलाया ही नहीं तो वे क्यों आते! दूसरी पार्टी से जुड़ी ट्रेड यूनियन कुछ दिन पहले तक देश की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन होने का दम भरती थी। दुवन्नी-चवन्नी के लिए संघर्ष लड़ने और मज़दूर वर्ग को अर्थवाद के गोल-गोल घेरे में घुमाना ही इनका काम है। मज़दूरों का नाम लेकर कमीशनखोरी करने और 30 प्रतिशत की दलाली खाने के लिए देश के तमाम औद्योगिक इलाक़ों में मज़दूरों के बीच ये भी ख़ासे कुख्यात हैं। बिगुल से जुड़े एक मज़दूर कार्यकर्त्ता ने जब आइसिन के मज़दूरों की रैली-प्रदर्शन के समय अपनी अकादमिक परीक्षा छोड़ दी तो इनसे जुड़े छात्र संगठन के नेता का कहना था कि परीक्षा छोड़ने की क्या ज़रूरत थी, अभी तो ख़ुद को “कुर्बान” करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है यानी ये श्रीमान परीक्षा छोड़ने की तुलना कुर्बानी देने से कर रहे थे। सही भी है इनके लिए भविष्य (‘करियर’) चमकाना ही मुख्य काम हो सकता है! गिरफ़्तारी के बाद तो इन्होंने ऐसे गुल खिलाये कि इनका नक़ली लाल रंग धुलकर असल चरित्र खुलकर सामने आ गया। पता नहीं क्यों इन लोगों के अन्दर यह ‘फड़का’ बैठा हुआ था कि आन्दोलन बिगुल के इशारों पर चल रहा है! गिरफ़्तारी के बाद इनकी एक बड़ी नेत्री व्यंग्य में कहती हैं कि क्यों बज गया बिगुल?! जब 35 महिला मज़दूरों और अभिभावक महिलाओं के साथ इनकी एक महिला कार्यकर्त्ता गिरफ़्तार हुई तो उन्हें छुड़ाने के लिए परीक्षा का हवाला देते हुए तमाम बड़े नेता रोहतक ‘एसपी’ के सामने क़रीब-क़रीब गिड़गिड़ाने की हद तक चले गये थे। 425 लोग जब जेल के अन्दर थे तो इन महानुभावों का कहना था कि जमानत लेने की ज़रूरत ही नहीं है। मतलब मज़दूर जेल के अन्दर सड़ते रहें और ये लोग प्रदर्शनों में अपने झण्डे-बैनर चमकाते रहें! अभिभावकों और अन्य संगठनों के दबाव के बाद जमानत की कार्रवाई आगे बढ़ायी जा सकी। किसी भी तरह बाहर आना इसलिए भी आवश्यक था, ताकि कम्पनी पर बना दबाव बरकरार रह सके और मामला कम्पनी बनाम मज़दूर ही बना रहे। फिर यदि समझौता होता तो मुक़दमे खारिज हो सकते थे। अकेला पड़ता दिखने पर ये भी बाद में सुर में सुर मिलाने लगे। मज़दूर वर्ग को राजनीतिक तौर पर शिक्षित करना, आज के समय ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूर आन्दोलन के समक्ष उपस्थित चुनौतियों इत्यादि पर बोलने के लिए इन लोगों के पास कुछ होता ही नहीं था। प्रदर्शनों के समय आन्दोलनरत मज़दूरों का मंच कैसे हथियाया जाता है; यह चीज़ कोई इनसे सीखे! मज़दूर बस देखते रह जाते हैं और इनके एक से बढ़कर एक सूरमा आन्दोलन को भाषणों में ही फ़तह करके निकल जाते हैं! जब मज़दूरों ने इन्हें भाव देना कम कर दिया तो आम मज़दूरों में इन्होंने यूनियन के प्रति अविश्वास पैदा करने की कोशिश भी की जिसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कहना न होगा कि आइसिन के मज़दूर आन्दोलन की दशा और दिशा को संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों ने भी प्रभावित किया।

ऑटोमोबाइल सेक्टर के आन्दोलन और सेक्टरगत इलाक़ाई यूनियन का सवाल

आन्दोलन में शुरू से ही ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ व ‘ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री कॉण्ट्रेक्ट वर्कर्स यूनियन’ के साथी लगातार मौजूद थे। हर क़दम पर न केवल मज़दूरों के संघर्ष में भागीदारी की गयी बल्कि सकर्मक हस्तक्षेप भी किया गया। आइसिन के मज़दूरों का संघर्ष एक बार फिर से ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों की सेक्टरगत और इलाक़ाई यूनियन की ज़रूरत को रेखांकित करता है। ऑटोमोबाइल सेक्टर से जुड़े आम मज़दूर तक इस बात को अपने तर्क-विवेक और आम वर्गबोध से समझते हैं। भले ही उन्हें सेक्टरगत यूनियन संगठित करने का कोई ठोस रास्ता समझ नहीं आ रहा हो, किन्तु बहुत सारे आइसिन के मज़दूर साथियों से हमने जब बात की तो उन्होंने भी सेक्टरगत यूनियन की बात को अनुमोदित किया। यदि ऑटोमोबाइल उद्योग के व्यापक परिप्रेक्ष्य में आइसिन मज़दूरों के संघर्ष को देखा जाये तो यह बात आसानी से समझ में आ सकती है कि मज़दूरों की व्यापक सेक्टरगत एकता के बगै़र एक कम्पनी/फ़ैक्टरी के स्तर पर मज़दूरों के द्वारा अपने संघर्ष में जीत हासिल करना या हासिल की गयी जीत को बचाये रखना ख़ासा मुश्किल काम है। ज्ञात हो ऑटोमोबाइल सेक्टर की कुछ कम्पनियों में हाल-फ़िलहाल मज़दूरों की बनी-बनायी यानी पंजीकृत (‘रजिस्टर्ड’) यूनियनों को मैनेजमेण्ट ने बड़ी ही आसानी से तुड़वा दिया। फ़ैक्टरी के स्तर पर व्यापक एकजुटता के बावजूद भी मालिक पक्ष को आसानी से अपनी जायज़ और क़ानूनसम्मत माँगों के लिए नहीं झुकाया जा सकता। इसका एक प्रमुख कारण तो यही है कि पूँजीपति वर्ग ने आज उत्पादन को एक फ़ैक्टरी स्तर की बजाय इलाक़ाई स्तर पर बिखरा दिया है। एक ही प्रकार का माल एक से ज़्यादा और कई बार तो दर्जनों वेण्डर कम्पनियाँ उपलब्ध करा देती हैं या फिर एक ही मालिक की कई-कई वेण्डर कम्पनियाँ अलग-अलग जगह पर चलती हैं। जैसे कि आइसिन कम्पनी ही वैश्विक स्तर पर काम करती है तथा पूरी दुनिया में 190 से भी ज़्यादा कम्पनियाँ चलाती है। इसी कारण से मज़दूर अपने संघर्ष के दौरान मालिक के मुनाफ़े के चक्के को जाम नहीं कर पाते। दूसरा मालिक वर्ग तो आपस में अपने “बुरे वक़्त” में एक-दूसरे का साथ दे देते हैं। मिसाल के तौर पर आइसिन के मालिक और कम्पनी की मैनेजमेण्ट का साथ मारुि‍त और मिण्डा कम्पनी की मैनेजमेण्ट समेत अन्यों ने दिया, लेकिन मज़दूर वर्ग एक-दूसरे के संघर्ष में मुस्तैदी के साथ मदद नहीं कर पा रहे हैं या कहिए आम मज़दूरों की वर्ग चेतना का इस स्तर तक विकास नहीं हो पाया है और कई कम्पनियों में मज़दूर यूनियनों और संघों में नेतृत्वकारी पदों पर अवसरवादी तत्वों का बोलबाला है, जो असल में अपनी कम्पनी तक के मज़दूरों की पूरी संख्या का प्रतिनिधित्व नहीं करते, क्योंकि पूरे ऑटोमोबाइल सेक्टर में स्थायी मज़दूरों की कुल संख्या मात्र 20 प्रतिशत है और यूनियनों में सदस्यता ग्रहण करने का अधिकार केवल स्थायी मज़दूरों को ही होता है। हीरो, मारुति, होण्डा, अस्ति, श्रीराम पिस्टन, ओमेक्स, एह्रस्टी, मार्क एक्झोस्त इत्यादि कम्पनियों के संघर्षों के माँगपत्रों की विभिन्न माँगें साझा होने के बावजूद इनका संघर्ष साझा नहीं हो सका। यह बात आज ऑटोमोबाइल सेक्टर में काम करने वाला हरेक कामगार समझता है कि अत्यधिक वर्कलोड, स्थाई, ट्रेनी, कैजुअल, ठेका के नाम पर मज़दूरों का बँटवारा और शोषण, श्रम क़ानूनों का खुला उल्लंघन, मज़दूरों को निचोड़ डालने की मालिक की चाहत पूरे ऑटोमोबाइल सेक्टर की तमाम कम्पनियों की आम परिघटना बन चुकी है। उदारीकरण-निजीकरण के मौजूदा दौर में श्रम विभाग, स्थानीय प्रशासन से लेकर सरकार तक मालिक और पूँजीपति वर्ग के सामने दण्डवत खड़े हैं। इन्हीं सब कारणों से व्यापक सेक्टरगत एकता के बिना आज काम नहीं चल सकता। पहले जहाँ एक ही छत के नीचे पूरा उत्पाद बनता था तथा ‘असेम्बलिंग’ भी वहीं होती थी, वहीं आज पूरा उत्पाद एक जगह बनने की बजाय टुकड़ों-टुकड़ों में बनता है तथा ‘असेम्बलिंग’ भी कहीं और होती है। इसीलिए आज सेक्टरगत यूनियनें हमारे संघर्ष को ज़्यादा कारगर ढंग से लड़ पायेंगी तथा इसका मतलब यह भी क़त्तई नहीं है कि हम फ़ैक्टरी के आधार पर यूनियन नहीं बनायें, बल्कि ज़रूर बनायें बल्कि दोनों ही प्रक्रियाओं पर ही साथ-साथ ध्यान दें, क्योंकि आगे चलकर सेक्टरगत यूनियन हमारे स्थानीय संघर्षों में मददगार ही साबित होंगी। ऑटोमोबाइल सेक्टर के सन्दर्भ में भी हम यह बात बार-बार कहते रहे हैं कि फ़ैक्टरीगत यूनियनों के साथ-साथ गुडगाँव, मानेसर, धारूहेड़ा, बावल, ख़ुशखेड़ा, भिवाड़ी, टपुकड़ा, अलवर से लेकर बहादुरगढ़, रोहतक आदि तक की ऑटोमोबाइल की पूरी पट्टी की एक सेक्टरगत यूनियन खड़ा करना आज वक़्त की ज़रूरत है। आइसिन के मज़दूरों का संघर्ष अब भले ही आन्दोलन की शक्ल में चलने की बजाय कोर्ट-कचहरी के माध्यम से चलेगा, किन्तु आइसिन के मज़दूरों ने क़रीब 90 दिनों के अपने संघर्ष में जाति-धर्म की बेड़ियों को तोड़कर मज़दूर वर्ग की वर्गीय एकजुटता का शानदार परिचय दिया है। साथ ही स्थाई, ट्रेनी और कैजुअल के बँटवारे को ठोकर मारकर तीन महीने तक साझा संघर्ष चलाकर अन्य मज़दूर भाइयों के सामने शानदार मिसाल भी क़ायम की है।

 

मज़दूर बिगुल,सितम्‍बर 2017


 

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