नये साल का पहला ही दिन चढ़ा जातिगत तनाव की भेंट
जाति-धर्म के नाम पर बँटने की बजाय हमें असली मुद्दे उठाने होंगे

सत्यनारायण

नये साल 2018 का पहला दिन ही इस बार जातिगत तनाव की भेंट चढ़ गया। महाराष्ट्र के भीमा कोरेगाँव में इकट्ठा हुए दलितों पर पत्थरबाजी की घटना व उसके बाद दो दिन महाराष्ट्र के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शनों ने आम आबादी के बीच जातिगत दीवार को थोड़ा और ऊँचा कर दिया। ये जातिगत तनाव एक मायने में पिछले साल की ही निरन्तरता है। पिछले पूरे साल मराठा मूक मोर्चा व बहुजन मोर्चा निकलते रहे। हर मोर्चा जाति के नाम पर लोगों को एकजुट करता गया और लोगों के असली मुद्दे ग़ायब हो गये। पिछले कुछ सालों में खेती के संकट, नोटबन्दी व लगातार जारी मन्दी ने बेरोज़गारी को अभूतपूर्व रूप से बढ़ाया है। लेकिन आम जनता को इन असली मुद्दों पर एकजुट होने से रोकने के लिए शासक वर्ग ने धर्म व जाति का बख़ूबी इस्तेमाल किया है व वो इसमें कामयाब भी हुए हैं। भीमा कोरेगाँव की ये हिंसा भी शासक वर्ग का एक ऐसा ही षड्यन्त्र थी।

भीमा कोरेगाँव में क्या हुआ था

भीमा कोरेगाँव की लड़ाई अंग्रेज़ों व पेशवा के बीच 1 जनवरी 1818 को हुई थी। हालाँकि पेशवा इससे पहले नवम्बर 1817 में पुणे में ही हार चुका था पर उसकी दुबारा इकट्ठा होकर हमला करने की कोशिश को यहाँ धक्का लगा था। महार महाराष्ट्र की एक दलित जाति है। अंग्रेज़ों की सेना में महार भी काफ़ी संख्या में थे। इसीलिए पेशवा की हार के जश्न के नाम पर दलितों की बड़ी आबादी यहाँ हर साल 1 जनवरी को इकट्ठा होती है। भीमा कोरेगाँव के युद्ध से दलितों को क्या मिला व क्या ये जश्न मनाने लायक है, इस विषय पर 1 जनवरी 2018 की हिंसा से पहले एक लेख हमने लिखा था जो अलग से दिया जा रहा है। ( देखें ये लिंक ) संक्षेप में हमारा मत है कि अंग्रेज़ों ने हमेशा ही ब्राह्मणवाद से समझौता किया व जाति व्यवस्था को क़ानूनी जामा पहनाकर मज़बूती प्रदान की। अपनी भू-राजस्व व्यवस्था से व अन्य उपकरणों से दलितों की स्थिति को ओर भी रसातल में पहुँचाया। इसलिए भीमा कोरेगाँव युद्ध का जश्न ये कहकर मनाना कि इससे पेशवाई (ब्राह्मणवादी व्यवस्था) ख़त्म हुई, एक अस्मितावादी राजनीति के अलावा ओर कुछ नहीं है। लेकिन इसके बावजूद देश में किसी भी ऐतिहासिक घटना का स्मरण करने व उसके नाम पर इकट्ठा होने का अधिकार जनता के हरेक हिस्से के पास है व हम इस अधिकार की हिमायत करते हैं।

 इस बार जब भीमा कोरेगाँव में लोग इकट्ठा हुए तो उससे काफ़ी पहले से ही आरएसएस से जुड़े दो संगठनों ने मराठा आबादी को दलितों के विरुद्ध भड़काना शुरू कर दिया था। ये दो संगठन थे, सम्भाजी भिडे के नेतृत्व वाला शिवप्रतिष्ठान व मिलिन्द एकबोटे के नेतृत्व वाला समस्त हिन्दु आघाडी। इन्होंने मराठा आबादी के बीच प्रचार किया कि दलित पेशवा के ऊपर जीत का जश्न मनाते हैं और पेशवा की सेना में तो बड़ी संख्या में मराठा थे, इसलिए एक तरीक़े से दलित मराठों के ऊपर जीत का जश्न मनाते हैं। उनके इस प्रचार व साथ ही अन्य अफ़वाहों ने युवा आबादी को उन्मादित किया व 1 जनवरी के दिन पत्थरबाज़ी व आगजनी हुई। सम्भाजी भिडे सांगली जि़ले का वही व्यक्ति है जिसके बारे में नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि सम्भाजी भिडे नरेन्द्र मोदी को आने के लिए निमन्त्रण नहीं बल्कि आदेश देते हैं। दोनों व्यक्तियों की संघ से क़रीबी ये बताने के लिए काफ़ी है कि इन पर अब कोई कार्रवाई नहीं होगी। उल्टा मीडिया के माध्यम से ये हवा बनायी जा रही है कि इस हिंसा के लिए 31 दिसम्बर को पुणे में हुई एल्गार परिषद के वक्ता जि़म्मेदार हैं। असली अपराधियों को गिरफ़्तार ना कर निर्दोषों को फँसाना, उनके विरुद्ध कुत्साप्रचार ये संघ का पुराना हथकण्डा है। अब तो इनके पास पूरी राज्यसत्ता है, मीडिया है और लाखों ट्रॉल्स की भीड़ है। एक तरफ़ ये भक्तजन फ़ोटोशॉप की हुई फ़ोटो दिखाकर इस घटना के पीछे कभी पाकिस्तान तो कभी नक्सलियों का हाथ बता रहे हैं और दूसरी तरफ़ फ़डनवीस सरकार असली अपराधी भिडे व एकबोटे को गिरफ़्तार नहीं कर रही है। इस घटना के बाद पूरे महाराष्ट्र में दो दिन तक बन्द का आयोजन किया गया व स्वत:स्फूर्त तरीक़े से दलित युवाओं की बड़ी आबादी सड़कों पर आयी व अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के ि‍ख़‍लाफ़ गुस्से का इज़हार किया।

महाराष्ट्र में मराठा-दलित तनाव का असली कारण क्या है

जनता को आपस में लड़वाने के सिर्फ़ अफ़वाहें ही काफ़ी नहीं होती हैं, बल्कि उसकी आर्थिक ज़मीन होना भी ज़रूरी है। आज देश के अन्य राज्यों की तरह महाराष्ट्र भी आर्थिक संकट से गुज़र रहा है। बेरोज़गारी बेतहाशा है। मराठा आबादी के बीच से कुछ मुट्ठी-भर अमीरों को छोड़ दिया जाये तो बाक़ी मराठा आबादी के हालात बेहद ख़राब हैं। अगर महाराष्ट्र के भीतर, जनसंख्या के आधार पर देखा जाये तो आबादी का क़रीब एक-तिहाई हिस्सा और कुछ आँकड़ों के अनुसार 35-38 फ़ीसदी मराठा आबादी का है। 27 फ़ीसदी अन्य पिछड़ी जातियों जिसमें कुनबी, धनगर जातियाँ आदि हैं और 10-12 फ़ीसदी आबादी दलितों की है। मराठा आबादी में 200 कुलीन और अतिधनाढ्य मराठा परिवार ऐसे हैं जिनका आज प्रदेश के लगभग सारे मुख्य आर्थिक संसाधनों और राजनीतिक सत्ता के केन्द्रों पर क़ब्ज़ा है। यह मराठा आबादी का सबसे कुलीन वर्ग है, जिसके पास अप्रत्याशित रूप से राजनीतिक और आर्थिक ताक़त का संकेन्द्रण है। प्रदेश के क़रीब 54 प्रतिशत शिक्षा संस्थानों पर इनका क़ब्ज़ा है, प्रदेश की 105 चीनी मीलों में से क़रीब 86 का मालिकाना इनके पास है, प्रदेश के क़रीब 23 सहकारी बैंकों के यही खाते-पीते मराठा प्रबन्धक हैं, प्रदेश के विश्वविद्यालयों में क़रीब 60-75 प्रतिशत प्रबन्धन इनके क़ब्ज़े में है। क़रीब 71 फ़ीसदी सहकारी समि‍ति‍याँ इनके पास हैं। जहाँ तक राजनीतिक ताक़त की बात है तो 1962 से लेकर 2004 तक चुनकर आये 2430 विधायकों में 1336 (यानी 55 फ़ीसदी) मराठा हैं, जिनमें अधिकांश इन्हीं परिवारों से आते हैं। 1960 से लेकर अब तक महाराष्ट्र के 19 मुख्यमन्त्रियों में से 10 इनके बीच से ही हैं।

इनके ठीक नीचे है मराठा आबादी का दूसरा वर्ग – धनी किसान या ‘बागायती’ वर्ग जो नक़दी फ़सलें पैदा करता है और गाँवों का पूँजीपति वर्ग है। महाराष्ट्र में क़रीब 80-90 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि के हिस्से का मालिकाना मराठा जाति के पास है। इनमें से क़रीबी एक-तिहाई से ज़्यादा इसी धनी किसान वर्ग के पास है। यह वर्ग ऊपर के धनी घरानों जैसी आर्थिक शक्तिमत्ता तो नहीं रखता, लेकिन यह महाराष्ट्र की चुनावी राजनीति का एक प्रमुख राजनीतिक प्रेशर ग्रुप है, जिसका नीति-निर्धारण पर असर है। इनके नीचे आता है मँझोले किसानों का वर्ग जिनके पास 2.5 एकड़ से लेकर 10 एकड़ तक की ज़मीनें हैं। यह न तो पूरी तरह ख़ुशहाल है, न ही बर्बादी के क़गार पर खड़े हैं। ये अनिश्चितता में जीते हैं और अपनी खेती में काफ़ी हद तक मौसम-बारिश जैसे प्राकृतिक कारकों और सरकारी नीतियों पर निर्भर होते हैं। ये धनी किसानों की क़तार में शामिल होने के लगातार सपने सँजोते हैं, और जब ऐसा करने में आर्थिक तौर पर नाकामयाब होते हैं, तो हताशा और रोष का शिकार होते हैं। ये सूदखोरों और बैंकों द्वारा तंग किये जाने पर आत्महत्याएँ कर लेते हैं। मँझोले किसानों के इस वर्ग का अच्छा ख़ासा हिस्सा पिछले दशकों में खेतिहर मज़दूरों की क़तार में भी शामिल हुआ है। इसके नीचे आने वाला चौथा वर्ग है ग़रीब मराठा आबादी का जो कि केवल खेती से जीविकोपार्जन नहीं कर पाते और उनका अच्छा-ख़ासा हिस्सा बड़े किसानों के खेतों पर मज़दूरी भी करता है। इनकी स्थिति काफ़ी हद तक खेतिहर मज़दूरों जैसी होती है। ये अपने बच्चों को स्तरीय शिक्षा नहीं दिला सकते। डिग्री इत्यादि के अभाव में शहरों तक पहुँच रोज़गार प्राप्त कर सकने की इनकी स्थिति नहीं होती। इनमें सांस्कृतिक और शैक्षणिक पिछड़ापन बुरी तरह व्याप्त है। पाँचवाँ वर्ग सबसे ग़रीब मराठा आबादी का यानी खेतिहर मज़दूरों का है, जो दूसरे के खेतों पर मज़दूरी करने या सरकार की रोज़गार गारण्टी योजनाओं पर निर्भर रहने को बाध्य हैं। यह आबादी सबसे भयंकर ग़रीबी में जीवनयापन कर रही है। कुछ नमूना सर्वेक्षणों के अनुसार कुल मराठा आबादी का क़रीब 35-40 हिस्सा खेतिहर मज़दूरों का है।

इसमें नीचे के विशेषकर तीन वर्गों का गुस्सा ग़रीबी, बेरोज़गारी और असमानता के ख़ि‍लाफ़ लम्बे समय से संचित हो रहा है। इस गुस्से का निशाना मराठा जातियों की नुमाइन्दगी करने वाली प्रमुख पार्टियाँ बन सकती हैं, जो कि वास्तव में मराठों के बीच मौजूद अतिधनाढ्य वर्गों की नुमाइन्दगी करता है। यह वर्ग अन्तरविरोध अपने आपको इस रूप में अभिव्यक्त करने की सम्भावना-सम्पन्नता रखता है। लेकिन यह सम्भावना-सम्पन्नता स्वत: एक यथार्थ में तब्दील हो, इसकी गुंजाइश कम है। ग़रीब मेहनतकश मराठा आबादी में भी जातिगत पूर्वाग्रह गहराई से जड़ जमाये हुए हैं। ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद की सोच उनमें भी अलग-अलग मात्रा में मौजूद है। ऐसे में, मराठों के बीच मौजूद जो शासक वर्ग है और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली मराठा पहचान की राजनीति करने वाली बुर्जुआ पार्टियाँ मराठा जातियों के व्यापक मेहनतकश वर्ग के वर्गीय गुस्से को एक जातिगत स्वरूप दे सकती हैं और देती रही हैं। इन आबादी को इस बात पर भरमाया जा सकता है कि उसकी ग़रीबी और बेरोज़गारी का मूल कारण दलित हैं जो कि आरक्षण के ज़रिये रोज़गार के मौक़े हड़प जा रहे हैं। इसी के साथ दलित आबादी के बीच जो एक मध्यवर्ग पैदा हुआ है, वह भी अस्मितावादी राजनीति के प्रभाव में होने के चलते जातीय तौर पर अपने आपको एसर्ट कर रहा है, जिससे कि वर्गीय अन्तरविरोधों को जातिगत स्वरूप देने की सम्भावनाएँ प्रबल हो जाती हैं।

अगर दलित आबादी की बात की जाये तो उसका बहुलांश खेतिहर या औद्योगिक मज़दूर है। शहरी दलित आबादी के बीच अन्य उच्च जातियों की तुलना में बेरोज़गारी दर दोगुनी है। कहने की ज़रूरत नहीं कि दलित मेहनतकशों को आर्थिक शोषण के साथ-साथ क़दम-क़दम पर बेइन्तहा जातीय अपमान और उत्पीड़न भी सहना पड़ता है। दूसरी तरफ़ यह भी सच है कि मध्य जातियों के साथ ही सवर्ण कही जाने वाली जातियों की भी एक अच्छी-ख़ासी आबादी ग़रीब और मेहनतकशों की है। पूँजीवादी विकास के साथ इन जातियों में भी ऊपर की एक छोटी आबादी ज़्यादा से ‍़ज़्यादा अमीर और ताक़तवर होती जा रही है और ग़रीबों की तादाद बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि आज कई राज्यों में मध्य किसान जातियाँ आरक्षण की माँग को लेकर सड़कों पर हैं, चाहे वो गुजरात के पटेल हों, महाराष्ट्र के मराठा हों या फिर हरियाणा के जाट। आज आरक्षण की लड़ाई एक ऐसा हथियार बन गया है जिसमें शासक वर्ग को खर्च कुछ नहीं करना पड़ता और जनता को बाँटने में काफी सहायता मिलती है। मध्य किसान जातियों के बीच यह प्रचार किया जाता है कि दलित आबादी के आरक्षण के कारण आपको नौकरियाँ नहीं मिल रही हैं। जबकि हकीकत कुछ और ही है। 1990 के दशक से जारी निजीकरण, उदारीकरण की नीतियों के कारण आज ज़्यादातर नौकरियाँ अस्थायी हो चुकी हैं, सरकारी नौकरियों में लगातार भारी कटौती जारी है। हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने सरकारी कर्मचारियों की संख्या में 30 प्रतिशत की कटौती का ऐलान किया था। यानी कुल 17 लाख कर्मचारियों में से 5.1 लाख पद इस सरकार ने गायब करने का मन बना लिया है। ऐसा ही हाल केन्द्र सरकार का भी है। 29 मार्च 2017 को लोकसभा में कार्मिक मंत्री जितेन्द्र सिंह ने बताया था कि 2013 के मुकाबले 2015 में 89 प्रतिशत सरकारी भर्ती बन्द हो गयी है। 2013 में जहां 1,51,841 सीधी भर्तियाँ हुईं वहीं 2015 में मात्र 15,877। ऐसे हालात में आरक्षण अगर पूरी तरह हटा भी दिया जाये या फिर किसी जाति का आरक्षण एक-दो प्रतिशत बढ़ा दिया जाये तो भी समग्र बेरोज़गारी की तस्वीर वैसी ही रहेगी। आज आरक्षण हटवाने या नया आरक्षण लेने की लड़ाई लड़ने की बजाय रोज़गार गारण्टी की माँग के लिए एकजुट होना ही एकमात्र रास्ता है।

हर जाति के ग़रीबों को ये समझाने की ज़रूरत है कि उनकी बदतर हालत के असल जि़म्मेदार दलित, मुस्लिम या आदिवासी नहीं बल्कि ख़ुद उनकी ही व अन्य जातियों के अमीर हैं। जब तक मेहनतकश अवाम ये नहीं समझेगा तब तक होगा यही कि एक जाति अपना कोई आन्दोलन खड़ा करेगी व उसके विपरीत शासक वर्ग दूसरी जातियों का आन्दोलन खड़ा करके जनता के बीच खाइयों को और मज़बूत करेगा। इस साज़िश को समझने की ज़रूरत है। इस साज़िश का जवाब अस्मितावादी राजनीति और जातिगत गोलबन्दी नहीं है। इसका जवाब वर्ग संघर्ष और वर्गीय गोलबन्दी है। इस साज़िश को बेनक़ाब करना होगा और सभी जातियों के बेरोज़गार, ग़रीब और मेहनतकश तबक़ों को गोलबन्द और संगठित करना होगा। इसी प्रक्रिया में ब्राह्मणवाद और जातिवाद पर भी प्रहार करना होगा। वास्तव में, जाति उन्मूलन और ब्राह्मणवाद के नाश का रास्ता इसी प्रकार की वर्गीय गोलबन्दी के ज़रिये सम्भव है। अस्मिताओं (पहचानों) के टकराव में हर अस्मिता कठोर बनती जाती है और अन्ततः ग़ैर-मुद्दों पर आम मेहनतकश लोग ही कट मरते हैं। क्या दशकों से ऐसा ही नहीं होता आया है? क्या अब भी हम शासक वर्गों के इस जाल में फँसेंगे? क्या हम अब भी उनके हाथों मूर्ख बनते रहेंगे? नहीं! पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एकजुट होना और इसके लिए और इसी प्रक्रिया में ब्राह्मणवाद, जातिवाद और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध समझौताविहीन संघर्ष करना – मेहनतकश जनता के पास यही एकमात्र रास्ता है!

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2018


 

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