देशभक्ति के नाम पर युद्धपिपासु अन्‍धराष्‍ट्रवाद किसके हित में है?
अन्धराष्ट्रवाद और नफ़रत की आँधी में बुनियादी  सवालों  को  खोने  नहीं  देना  है!

सम्‍पादक मण्‍डल

कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले में सीआरपीएफ़ के 40 से अधिक जवानों की भीषण मौत पर देश भर में शोक और ग़ुस्से की लहर है। ऐसी घटनाओं में मरने वाले सभी आम घरों के बेटे होते हैं।  ऐसी घटना होने के बाद कोई भी संजीदा सरकार और समाज ऐसी घटना के दोषियों को सज़ा देने और साथ ही घटना के कारणों के बारे में सोचेगा और कार्रवाई करेगा। लेकिन वास्तव में क्या हो रहा है?

चारों तरफ़ बस बदला-बदला और युद्ध-युद्ध की पागलपन भरी चीख़-चिल्लाहट और अपने ही देश के आम लोगों पर हमले, गालियाँ और धमकियाँ। वो कौन लोग हैं जनता के एक हिस्से को जनता के दूसरे हिस्से के ख़िलाफ़ भड़का रहे हैं? दूसरों को राजनीति न करने की सीख देकर ख़ुद इस त्रासदी का इस्तेमाल वोटों की फसल काटने के लिए करने में जुट गये हैं?

लगातार महँगाई, बेहिसाब बढ़ती बेरोज़गारी, और राफ़ेल सहित भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में बुरी तरह फँसने, हिन्दुत्व के नाम पर गुण्डागर्दी और नफ़रत फैलाने की खुली छूट और छात्रों-युवाओं-किसानों-मज़दूरों के आन्दोलनों के दमन तथा विरोध में बोलने वाले बुद्धिजीवियों का गला घोंटने की हरकतें मोदी सरकार के जनविरोधी चरित्र को नंगा कर चुकी थीं और साम्प्रदायिक जुनून पैदा करने के सारे दाँव भी फुस्स पटाखा साबित हो रहे थे। राम मन्दिर का मुद्दा गरमाने की कोशिशें भी टाँय-टाँय फिस्स हो चुकी थीं। ऐसे में सीमा पर तनाव और युद्धोन्माद भड़काना फ़ासिस्टों का पुराना आज़माया हुआ नुस्खा है। अनेक लोग ऐसा अन्देशा प्रकट कर रहे थे कि चुनाव के पहले युद्धोन्माद पैदा करने की कोशिश मोदी सरकार और संघ परिवार का आख़िरी हथकण्डा हो सकता है। इस घटना के तुरन्त बाद से ही पूरी नंगई के साथ इसे चुनाव में भुनाने के लिए मोदी सहित सारी भाजपा और तमाम संघी संगठन जुट गये हैं। अपने वर्ग चरित्र के हिसाब से सभी चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियों और नकली वामपंथी पार्टियों ने भी फ़ौरन सरकार के साथ खड़े होने का ऐलान कर दिया और बुनियादी सवालों पर चुप्पी साधकर भाजपा को अपना खेल खेलने के लिए खुला मैदान सौंप दिया। आतंकवादी घटना के डेढ़ घण्टे बाद मोदी का रुद्रपुर में चुनावी भाषण हो रहा था और उसके बाद से लगातार चुनावी रैलियाँ जारी हैं। बेशर्मी की हद यह थी कि सर्वदलीय बैठक बुलाकर खु़द उसमें शामिल होने के बाद प्रधानमंत्री महाराष्ट्र में चुनावी रैली करने निकल गये।

यह घटना जिस ढंग से हुई और जिस योजनाबद्ध ढंग से इसका चुनावी लाभ उठाने की कोशिश की जा रही है वह गहरे सन्देह को जन्म दे रहा है।

टीवी ऐंकरों से लेकर फ़िल्मी सितारों और मध्य वर्ग के निठल्लों तक, अपने आरामदेह कमरों में बैठकर जंग छेड़ देने, आग लगा देने, पाकिस्तान को तबाह कर देने की चीख़-पुकार मचाये हुए हैं। लेकिन यह बुनियादी सवाल कोई नहीं पूछ रहा कि इतना बड़ा हमला हुआ कैसे? ख़ुद सेना की रिपोर्टें बताती हैं कि पिछले साढ़े चार सालों में कश्मीर के हालात बदतर हुए हैं। आतंकवादी हमलों की घटनाएँ भी बढ़ी हैं और मरने वालों की संख्या भी। इस घटना से चन्द दिन पहले ख़ुफ़िया रिपोर्ट में आईईडी से हमले की चेतावनी जारी की गयी थी। फिर भी सीआरपीएफ़ का इतना लम्बा कॉनवॉय रवाना किया गया और सुरक्षा की सामान्य बातों की भी अनदेखी की गयी। सीआरपीएफ़ ने गृह मंत्रालय से अपने जवानों को हवाई मार्ग से कश्मीर भेजने की अनुमति माँगी थी लेकिन उसे भी नामंज़ूर कर दिया गया था। जिस इलाक़े में सिविलियन आबादी और गाड़ियों की सघन जाँच होती है और जगह-जगह बैरिकेड लगे हैं वहाँ इतनी भारी मात्रा में विस्फोटक कैसे इकट्ठा हो गया? सीआरपीएफ़ के काफ़िले की सटीक जानकारी कैसे मिली और इतनी आसानी से एक कम उम्र नौजवान गाड़ी लेकर वहाँ तक कैसे पहुँच गया? हमले के बाद जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल ने बेशर्मी से मान भी लिया कि ‘’गम्भीर चूक’’ हुई है। लेकिन रणबाँकुरे ऐंकरों से लेकर सरकार चला रहे नेताओं तक कोई इन सवालों पर नहीं बोल रहा। यह स्थिति स्पष्टत: सन्देह पैदा करती है।

घटनाक्रम हर दिन सन्देह को और गहरा बना रहा है

उत्तर भारत के अधिकांश शहरों में उन्मादी नारों के साथ जुलूस निकल रहे हैं। ‘हमें नौकरी नहीं बदला चाहिए’, ‘भूखों रह लेंगे पर मोदीजी, बदला लो’, ‘आम चुनाव रोक दो, पाकिस्तान को ठोंक दो’, ‘देश को बचाओ मोदीजी को फिर से लाओ’… जैसे नारे लग रहे हैं। इन जुलूसों में मुसलमानों को ग़द्दार और पाकिस्तान-परस्त बताते हुए भी नारे लगाये जा रहे हैं और मुस्लिम आबादी की बस्तियों से गुज़रते हुए जानबूझकर तनाव उकसाने और आतंक पैदा करने की कोशिशें की जा रही हैं। जी न्यूज़, आजतक, रिपब्लिक टीवी, सुदर्शन आदि चैनल तो दिन-रात ज़हर उगल ही रहे हैं, भाड़े के साइबर प्रचारकों की फ़ौज व्हाट्सअप आदि के ज़रिये अफ़वाहों और फासिस्ट प्रचार का  घटाटोप फैलाने में जुट गयी है।

घटना के तुरन्त बाद जम्मू से लेकर बिहार तक अनेक जगहों पर कश्मीरी लोगों पर हमले किये गये। उनकी दुकानें जलाई गयीं, घरों से भगाया जा रहा है। मुज़फ़्फ़रनगर की चीनी मिलों में काम करने वाले सैकड़ों कश्मीरी मज़दूरों को काम छोड़ने के लिए मजबूर किया गया।  कश्मीर की बिगड़ी अर्थव्यवस्था और रोज़गार के अवसर नदारद होने के कारण बड़ी संख्या में ग़रीब कश्मीरी आबादी देशभर में छोटे-मोटे काम करके गुज़ारा कर रही है। हज़ारों कश्मीरी छात्र विभिन्न राज्यों में पढ़ाई कर रहे हैं। अधिकांश जगहों पर हिन्दुत्ववादी गुण्डों ने उन आम लोगों पर हमले किये। हमले में मारे गये जवानों के शवों के साथ कई भाजपा नेताओं ने बाकायदा रोड शो किये। गुजरात भाजपा के नेता और प्रवक्ता ने तो बेशर्मी के साथ साफ़ कह दिया कि इस समय देश में ‘’राष्ट्रवाद’’ की लहर चल रही है और हमें इसे वोटों में बदलना है।  साध्वी प्राची ने तो कह दिया कि ‘’जैसे मोदी ने गोधरा का नरसंहार कराया था, वैसे ही पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए फिर से कराना होगा।’’

लोग शोक में हैं पर भाजपाइयों के चेहरे क्यों खिले हुए हैं?

भाजपा का यह खेल इस समय तो सफल होता दिख रहा है। आम घरों के वे लोग भी सबकुछ भूलकर पाकिस्तान, मुसलमान और कश्मीरियों को गरियाने में लग गये हैं जो जी.एस.टी., नोटबंदी, रिकार्डतोड़ बेरोज़गारी और आसमान छूती मँहगाई से बेहद परेशान थे और मोदी सरकार को गालियाँ दे रहे थे। राफ़ेल मामले में रोज़ नये-नये भण्डाफोड़ों से चेहरे पर पुती कालिख और सी.बी.आई. काण्ड में सरकार की हुई फ़जीहत भी लोग भूल गये हैं। महागठबन्धन और प्रियंका के राजनीति में उतरने से माहौल बदलने से भाजपाई चिन्तित थे, 15 लाख वाले जुमले और रोज़गार के वादे के बारे में लोगों के सवालों के जवाब देते नहीं बन रहा था। पर अब ये सारी बातें फिलहाल हवा हो गयी हैं। इसीलिए पुलवामा की घटना के बाद भाजपाइयों के चेहरे खिले हुए हैं।

यह समय उन्माद में पागल हो जाने का नहीं, ठण्डे दिमाग़ से सोचने का है।

कश्मीर की आम आबादी का बड़ा हिस्सा आज सेना और अर्द्धसैनिक बलों के विरोध में क्यों है? ख़ुद सेना की रिपोर्टें बताती हैं कि पिछले चार सालों में उग्रवादियों के साथ जाने वाले स्थानीय युवकों की संख्या बढ़ गयी है। ऐसा क्यों हुआ है? इतिहास से परिचित सभी जानते हैं कि कश्मीर के आम अवाम ने शेख़ अब्दुल्ला की अगुवाई में जिन्ना की साम्प्रदायिक राजनीति का विरोध किया था। अगर भारत की सरकारों ने संघात्मक ढाँचे को वास्तव में लागू किया होता, और कश्मीरी जनता के साथ किये करार को तोड़ा नहीं होता, साफ़-साफ़ वादाख़िलाफ़ी न की होती, तो कश्मीर की स्थिति ऐसी नहीं होती। 1948 में पाकिस्तानी सेना की मदद से कबायलियों के हमले के ख़िलाफ़ कश्मीरी अवाम ने भी लड़ाई लड़ी थी। उसके बाद भी घाटी में आतंकवाद का माहौल दशकों तक नहीं था हालांकि भारतीय राज्य के बर्ताव को लेकर असन्तोष पनप रहा था। 1953 में शेख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त करके उन्हें 11 वर्ष तक जेल में बन्द रखने और जितना भी बुर्जुआ लोकतांत्रिक स्पेस देश में था, उसे भी कश्मीर में लगातार कम करते जाने से यह असन्तोष और अविश्वास और बढ़ा। 1987 में फ़र्ज़ी चुनाव के बाद उग्रवादी गतिविधियाँ तेज़ी से बढ़ीं और 1990 से गर्वनर के रूप में जगमोहन के कार्यकाल के दौरान कश्मीरी जनता पर बर्बर दमन और अनेक भीषण गोलीकांडों में सेना के हाथों आम लोगों की मौत के बाद हालत बद से बदतर होते गये। पाकिस्तान को भी जमकर दखलन्दाज़ी करने का मौक़ा मिला।

आज सोशल मीडिया पर अनेक पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी भी पूरे कश्मीरी अवाम को ‘’एहसान फ़रामोश’’ घोषित करके उन्हें सबक़ सिखाने की चीख़-चिल्लाहट में सुर मिला रहे हैं। उन्हें अपने दिमाग़ की नसें थोड़ी ढीली करके संजीदगी के साथ यह सोचना चाहिए कि कश्मीर में भी हमारी-आपकी तरह इंसान ही रहते हैं। सालों-साल अपमान और दमन का सिलसिला चलता रहेगा, हज़ारों गुमनाम क़ब्रों से घाटी भर जायेगी, बलात्कार और फ़र्ज़ी मुठभेडों में मासूमों की हत्याओं के दोषियों को बचाया जायेगा, बच्चों तक को मारा और प्रताड़ित किया जायेगा, और समाज में क्रान्तिकारी बदलाव का कोई रास्ता नज़र नहीं आयेगा, तो हताशा और प्रतिशोध की भावना आतंकवादियों के पैदा होने की ज़मीन तैयार करेगी ही।

कश्मीर घाटी पिछले लम्बे समय से दुनिया का सबसे ज़्यादा सैन्यकृत क्षेत्र बना हुआ है। हर 8 कश्मीरियों पर सेना का एक जवान वहाँ तैनात है। पुलवामा में मारे गये जवान देश के आम घरों के बेटे थे। ऐसी हर घटना में आम सिपाही ही मरते हैं। लेकिन ज़रा ठण्डे दिमाग़ से, व्हाट्सऐप संदेशों और टीवी चैनलों की हुंकार से भडकी उत्तेजना को किनारे रखकर सोचिये। ये सैनिक कश्मीर में पिकनिक मनाने नहीं जा रहे थे। भारतीय राज्य के दशकों से जारी दमनचक्र के मोहरे ही बनाकर भेजे गये थे वे। सिर्फ़ कश्मीर ही क्यों? उत्तर-पूर्व के राज्यों में जाकर देखिये। मणिपुर में जिन माँओं को सेना के ख़िलाफ़ नग्न प्रदर्शन करने पर मजबूर होना पड़ा था, वे देशद्रोही नहीं थीं। इरोम शर्मिला की 11 वर्ष चली भूख हड़ताल देशद्रोह नहीं थी। कश्मीर में कुनान पश्पोरा में उस भयानक रात के सामूहिक बलात्कारों की हक़ीक़त अब सबके सामने आ चुकी है। देश काग़ज़ पर बना नक़्शा नहीं होता। देश यहाँ रहने वाले लोगों से बनता है।

अम्बानी, अडानी और डोभाल का पाकिस्तान से अरबों का व्यापार बनाम मोदी भक्तों की देशभक्ति!

पाकिस्तान को बर्बाद कर देने की चीख़-पुकार मोदी भक्तों को पता ही नहीं है कि मोदी के दोस्त अम्बानी और अडानी की कितने करोड़ डॉलर की पूँजी पाकिस्तान में लगी हुई है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के बेटे शौर्य डोभाल पाकिस्तानी नागरिक सैयद अली अब्बास और प्रिंस मिशाल बिन अबदुल्लाह बिन तुर्की बिन अबदुल्लाज़ीज़ अल साऊद के साथ मिलकर जेमिनी फाइनेंशियल सर्विसेज नामक कंपनी चलाते हैं। जूनियर डोभाल इंडिया फाउंडेशन नामक थिंक टैंक भी चलाता है जिसमें रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण सहित चार केन्द्रीय मंत्री निदेशक के तौर पर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। यानी एक पाकिस्तानी का बिज़नेस पार्टनर भारत सरकार के लिए नीतियाँ बनाने के काम में लगा हुआ है और उसका बाप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार है। मोदी का एक और मित्र, देश की दूसरी सबसे बड़ी स्टील कम्पनी का मालिक सज्जन जिन्दल पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के साथ गुप्त मीटिंग करता है और बिरयानी खाने भी मोदी के साथ पाकिस्तान पहुँच जाता है। मगर इनसे कोई नहीं कहेगा कि पाकिस्तान से अपना धन्धा समेट लें। जंग-जंग चिल्ला रहे मीडिया को ये सारी ख़बर है लेकिन इस पर सब चुप्पी साधे हुए हैं।

और तो और, सऊदी अरब के कुख्यात ज़ालिम सुलतान प्रिंस सलमान के भारत आने पर छप्पन छुरी दाँत निपोरे हुए स्वागत करने हवाई अड्डे तक पहुँच गया। ये वही सलमान है जो अपने देश के एक पत्रकार की बर्बर हत्या कराने के बाद पूरी दुनिया में थू-थू का सामना कर रहा है और भारत आने से पहले पाकिस्तान को को हथियार खरीदने और ऊर्जा क्षेत्र में निवेश करने के लिए दो सौ करोड़ डॉलर का तोहफ़ा देकर आया था। दोनों हत्यारे नेताओं ने निहायत बेशर्मी के साथ आतंकवाद के बारे में जो साझा बयान जारी किया उसमें पाकिस्तान का नाम भी नहीं था।

इसलिए, यह साफ़ है कि चुनाव तक गरमागरम बातें ख़ूब होंगी, सीमा पर तनाव और कुछ झड़पें होगीं, आतंकियों के नाम पर कश्मीर में न जाने कितने बेगुनाह गोलियों से छलनी किये जायेंगे, पर पाकिस्तान पर हमला करके कोई बड़ी सैनिक कार्रवाई कत्तई नहीं होगी। अम्बानी, अडानी और डोभाल के लाल के व्यावसायिक हितों पर कोई चोट नहीं आयेगी। गन्दा है, पर धन्धा है। कश्मीर में भी लाशों का धन्धा है, जो भारत-पाकिस्तान दोनों के हुक़्मरानों की ज़रूरत है। लाशें आम ग़रीबों के बेटों की ही गिरनी हैं, चाहे वे कश्मीर के आम लोग हों या फिर सी.आर.पी.एफ़., बी.एस.एफ़. और सेना के जवान। जितनी लाशें गिरेंगी, उतना ही देशभक्ति का जुनून उफ़ान मारेगा और उतना ही कमल खिलेगा।

यह भी समझ लीजिये कि अन्धराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद की ज़रूरत जितनी भारत के शासक वर्गों को है, उतनी ही पाकिस्तान के शासक वर्गों को भी, जिसका एक ताक़तवर हिस्सा पाकिस्तानी सेना के जनरल भी हैं। पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की हालत बुरी है, लम्बे-चौड़ी बातें करके सत्ता में आये इमरान ख़ान को वहाँ के लोग भी जुमलेबाज़ और सेना की कठपुतली से ज़्यादा नहीं मान रहे। सीमा पर तनाव दोनों देशों के शासक वर्गों के हित में है। किसी भी अपराध के पीछे मकसद पता करने का एक तरीक़ा यह देखना है कि उससे किसका फ़ायदा हो रहा है। सीमा के इधर और उधर किसे फ़ायदा हो रहा है, यह देखना अब मुश्किल नहीं है।

युद्ध चाहने वालो, युद्ध की कीमत भी पता है तुम्हें?

अन्धराष्ट्रवादी भावनाओं के जोश में मध्य वर्ग ही नहीं, मज़दूर वर्ग के भी जो लोग युद्ध छेड़ देने के सुर में सुर मिलाये हुए हैं, उन्हें ज़रा दो पल ठहर कर सोचना चाहिए कि युद्ध हुआ तो उन्हें क्या मिलेगा? कारगिल युद्ध के कारण अर्थव्यवस्था पर करीब 10 हज़ार करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ा था और नई सैनिक चौकियों तथा अन्य नियमित सामरिक ख़र्चों के रूप में हज़ारों करोड़ का सालाना ख़र्च बढ़ गया था। पिछले कुछ वर्षों से सरकार का फ़ौजी ख़र्च लगातार बढ़ता ही रहा है। फ़ौजी ख़र्च अभी ही स्वास्थ्य, शिक्षा और तमाम सामाजिक सेवाओं पर होने वाले कुल ख़र्च के तीन गुने से भी अधिक रहा है। यह अलग बात है कि इस भारी-भरकम सैन्य ख़र्च के बावजूद न तो सीमाओं पर घुसपैठ रुकी, न आतंकवादी घटनाएँ और न ही समय-समय पर दोनों ओर से होती रहने वाली गोलीबारी।

दोनों देशों के अख़बार-टीवी-फ़िल्में आदि एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लगातार नफ़रत और अन्धराष्ट्रवाद फैलाते रहते हैं। सीमा पर तनाव बनाया रखा जाता है और अरबों-खरबों के भारी खर्चे से युद्ध की तैयारियाँ जारी रहती हैं। लगातार बढ़ते फ़ौजी ख़र्च का बोझ दोनों देशों की जनता ही उठाती है। दोनों देशों के पूँजीपतियों का आपसी कारोबार भी जारी रहता है और सैनिक कार्रवाइयों की किसी भी तरह की कीमत चुकाना तो दूर, वे इनसे भी जमकर मुनाफ़ा कमाते हैं। दोनों तरफ़ की सरकारें जनता को यह पट्टी पढ़ाती रहती हैं कि उनकी समस्याओं का मूल कारण साम्राज्यवाद और पूँजीवाद नहीं, बल्कि पड़ोसी ‘’दुश्मन देश’’ की कार्रवाइयाँ हैं।

हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के किसानों-मज़दूरों और आम लोगों की आपस में कोई दुश्मनी नहीं है। दोनों देशों की जनता अपने-अपने शासक वर्गों की लूट का शिकार है। दोनों देशों में पूँजीवादी व्यवस्था का संकट लाइलाज बीमारी बन चुका है जिसकी कीमत जनता कमरतोड़ महँगाई और बढ़ती बेरोज़गारी के रूप में चुका रही है। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के विनाशकारी नतीजे दोनों देशों के लोग झेल रहे हैं और आम जनता का बढ़ता असन्तोष बार-बार सड़कों पर फूट रहा है जिससे दोनों के हुक़्मरानों की नींद हराम है। इस स्थिति से जनता का ध्यान भटकाने के लिए सीमा पर तनाव बनाये रखना और अन्धराष्ट्रवाद को हवा देते रहना हिन्दुस्तान-पाकिस्तान दोनों के शासकों के लिए रामबाण नुस्खा रहा है।

पब्लिक सेक्टर के विशाल सामरिक उद्योग तो सेना को कल-पुर्जे़, हथियार आदि सप्लाई करते ही हैं, दुनिया के सभी साम्राज्यवादी देशों की हथियार-निर्माता कम्पनियों से ख़रीदारी करने वाले तीसरी दुनिया के देशों में भारत सबसे आगे है। और अब तो रक्षा क्षेत्र में भी निजी कम्पनियों को भागीदारी करने के दरवाज़े खोल दिये गये हैं। बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की कीमत पर निजी पूँजीपतियों को बढ़ावा दिया जा रहा है जिसकी सबसे नंगी मिसाल राफ़ेल घोटाला है। आज पूरी दुनिया के साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ संकट में हैं। युद्धों में होने वाली तबाही और हथियारों की बिक्री उनके संकट को दूर करने में हमेशा काम आते हैं। ये साम्राज्यवादी गिद्ध भी चाहते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में सैनिक तनाव की आग सुलगती रहे। अगर युद्ध भड़कता है तब तो साम्राज्यवादी गिद्धों की बन आयेगी। दोनों तरफ़ की सरकारें जनता का पेट काटकर जमकर हथियार ख़रीदेंगी और अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैण्ड, जर्मनी के साम्राज्यवादियों को अपना संकट थोड़ा और टालने का मौक़ा मिल जायेगा।

मगर इस सबकी कीमत कौन चुकाता है? शहरी और ग्रामीण मध्य वर्ग और सबसे बढ़कर वह भारी मेहनतकश आबादी जो ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों से भी वंचित है। ‘’देशभक्ति’’ का सम्मोहन मंत्र फूँककर फ़ौजी ख़र्च जुटाने के लिए जनता की नस-नस से ख़ून निचोड़ लिया जाता है। कभी आपने सुना कि किसी पूँजीपति या किसी नेता ने युद्ध के लिए अपने ऐयाशी भरे ख़र्चों में कोई कटौती कर दी हो? फ़िल्मी सितारों और नवधनाढ्यों की शानो-शौकत भरी पार्टियों में कमी आयी हो, उनमें बहने वाली शराब में कोई कटौती हुई हो? नहीं! उल्टे, ये लोग ‘’देशभक्ति’’ को भी तरह-तरह से बेचकर करोड़ों की कमाई करते हैं।

पहले से सरकार भयानक वित्तीय घाटे में दबी हुई है जिसका असली कारण है पूँजीपतियों को दी जाने वाली भारी रियायतें और नेताशाही-अफ़सरशाही की ऐयाशियाँ। चुनाव के ऐन पहले रिज़र्व बैंक से भी 28,000 करोड़ ऐंठ लिये गये हैं। ऐसे में बढ़े हुए फ़ौजी ख़र्च की वसूली के लिए चुनाव के बाद करों का बोझ – ख़ासकर परोक्ष करों का बोझ बढ़ेगा। बचे-खुचे सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को भी देशी-विदेशी पूँजीपतियों को औने-पौने दामों पर बेचकर कुछ खराब जुटाने की कोशिश की जायेगी। स्टील अथॅारिटी ऑफ़ इण्डिया के तीन कारख़ानों को बेचने की घोषणा हो भी चुकी है। लेकिन इतना भी काफ़ी नहीं होगा।

सबसे सही तो यही होता कि सरकार ‘’देशभक्ति’’ से बजबजाते कॉरपोरेट घरानों, दूसरे धनी वर्गों, ‘’देशभक्ति’’ बेचकर मोटी कमाई करने वाले टीवी चैनलों के मालिकों, फ़िल्मी सितारों और जंग-जंग का नारा लगा रहे ख़ुशहाल मध्य वर्ग पर ‘’युद्ध टैक्स’’ या ‘’पाकिस्तान टैक्स’’ लगा देती। लेकिन यह सरकार तो इन्हीं वर्गों की चाकर है। यह भला ऐसा कैसे करेगी? फिर तो यही उपाय बाक़ी बचता है कि सरकार केन्द्रीय आयोजना ख़र्च में पहले से हो रही कटौती की गति को और तेज़ कर दे। इसका सीधा मतलब होगा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, ग़रीबी उन्मूलन, रोज़गार, बिजली उत्पादन, सिंचाई सुविधाओं के विस्तार, कृषि उत्पादकता में वृद्धि, रेल और यातायात सुरक्षा जैसे मदों में और कटौती की जाये। इससे भी जो कसर रह जायेगी, उसे पूरा करने के लिए विदेशी क़र्ज़ का रास्ता है, जिसके लिए साम्राज्यवादी तगड़ी शर्तें रखेंगे और इन क़र्ज़ों को चुकाने के लिए भी जनता की जेब पर ही उाका डाला जायेगा।

यह होगी उस बहुप्रचारित युद्धपिपासु ‘’देशभक्ति’’ की कीमत, जिसे अपने ख़ून का क़तरा-क़तरा निचोड़कर देश की मेहनतकश जनता को चुकाना होगा। इतने तथ्यों से अगर किसी को अन्धराष्ट्रवादी सनक की असलियत न साफ़ हो तो आने वाले दिनों की हक़ीक़त उसे इसका अहसास बख़ूबी करा देगी।

देश काग़ज़ पर बना नक़्शा नहीं होता

क्रान्तिकारी शक्तियों को मज़दूरों-ग़रीब किसानों और तमाम मेहनतकश लोगों को उन सच्चाइयों से वाकिफ़ कराना होगा जो अन्धराष्ट्रवादी, आक्रामक युद्धोन्मादी शोर में डूबकर रह जाती हैं। सरहदों पर आम मज़दूरों-किसानों के बेटों की लाशें गिरती रहती हैं और देश की नहीं बल्कि शासक वर्गों के हितों की हिफ़ाज़त होती रहती है। सत्ता में बैठे लोग बेशर्मी के साथ देश के हितों को पूँजीपतियों के हाथों में बेचते रहते हैं। सरहदों पर जिन आम लोगों के बेटों की लाशें गिरती हैं, उन्हीं के परिवारों को हाड़ गलाकर पूँजीपतियों की तिजोरी भरनी होती है और युद्ध की कीमत भी चुकानी होती है क्योंकि ‘हर वर्दी के नीचे एक किसान है, एक मज़दूर है।’

हमें मेहनतकश जनता को यह बात बतानी ही होगी कि ‘’देश काग़ज़ पर बना नक़्शा नहीं होता’’। देशभक्ति के नाम पर क़ुर्बान उन्हें ही किया जाता है, जो ग़रीबी-महँगाई-बेरोज़गारी से लड़ते-लड़ते रोज़ तिल-तिल करके मरते रहते हैं। फिर उनकी मौतों पर झण्डा लहरा कर, सलामी देकर और परिजनों को चन्द चाँदी के सिक्के थमाकर सरकार हाथ झाड़ लेती है। बहुतों के तो परिजन पेंशन और सरकारी वादों के अमल के लिए भी बरसों तक दर-दर की ठोकरें खाते रहते हैं। कोई भी देश वहाँ रहने वाले आम अवाम से मिलकर बनता है और उसके हितों की पूर्ति ही असली देशभक्ति होती है।

हमें लोगों को बताना होगा कि पूँजीपति वर्ग का राष्ट्रवाद मण्डी में पैदा होता है और देशभक्ति उसके लिए महज़ बाज़ार में बिकने वाला एक माल है। आक्रामक राष्ट्रवाद पूँजीपति वर्ग की राजनीति का एक लक्षण होता है और सभी देशों के पूँजीपति अपनी औकात के हिसाब से विस्तारवादी मंसूबे रखते हैं। अगर इस सरकार को सच्ची देशभक्ति दिखानी ही है तो उसे सभी लुटेरे साम्राज्यवादी देशों की पूँजी ज़ब्त कर लेनी चाहिए और सभी विदेशी क़र्ज़ों को मंसूख कर देना चाहिए जिसके बदले में कई-कई गुना ब्याज ये हमसे वसूल चुके हैं। लेकिन कोई भी पूँजीवादी सरकार भला ऐसा कैसे करेगी!

हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच लड़ाई तो वैसे भी अंग्रेज़ों की दी हुई विरासत है और दोनों देशों के पूँजीपतियों के हित में है कि वे इसे बरकरार रखें। दोनों देशों के पूँजीपतियों की दुश्मनी आपसी हितों के टकराव को लेकर है, पर दोनों ही पहले अपने-अपने देशों की मेहनतकश जनता के दुश्मन हैं जिसे वे लूटते हैं, दबाते-कुचलते हैं और उन्हीं के बेटों को सरहद पर लड़ने के लिए भेजते हैं। आम जनता के बेटों को फ़ौजी नौकरशाहों का ग़ुलाम बनाकर जो सेना तैयार की जाती है, उसका इस्तेमाल देश की जनता के ऊपर भी उस समय बेहिचक किया जाता है, जब वह अपने अधिकार माँगने के लिए उठ खड़ी होती है।

मेहनतकश जनता को यह बताना होगा कि हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के मज़दूरों-किसानों की आपस में कोई दुश्मनी हो ही नहीं सकती। दोनों की लड़ाई ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई, ज़ोरो-ज़ुल्म की जननी पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ है। दोनों को अपने-अपने देशों में पूँजीवाद से लड़ना है। इसी असली जंग पर परदा डालने के लिए सरहदों पर जंग का जुनून पैदा किया जाता है। मेहनतकश जनता को इसी असली लड़ाई के बारे में बताना होगा और इसी की तैयारी करनी होगी।

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2019


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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