(अर्द्ध)कुम्भ : भ्रष्टाचार की गटरगंगा और हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद के संगम में डुबकी मारकर जनता के सभी बुनियादी मुद्दों का तर्पण करने की कोशिश

अविनाश

इलाहाबाद में सरकार द्वारा लगातार तारीख़ बढ़ाते रहने के बाद कुम्भ आख़ि‍रकार अब ख़त्म हो गया। चीज़ों के नाम बदलने में माहिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने हर 6 साल में एक बार लगने वाले ‘अर्द्धकुम्भ’ को ‘कुम्भ’ और हर 12 साल में एक बार लगने वाले ‘कुम्भ’ को ‘महाकुम्भ’ का नाम देकर आने वाले चुनावों के मद्देनज़र भीड़ जुटाकर अपना चेहरा चमकाने की कोशिश की थी। इस बार का कुम्भ एक धार्मिक आयोजन से ज़्यादा सरकारी आयोजन था। वैसे किसी बुर्जुआ लोकतान्त्रिक राज्य को न तो कोई धार्मिक आयोजन करना चाहिए और न ही उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। राज्य की ज़िम्मेदारी केवल प्रशासनिक व्यवस्था सँभालना है। लेकिन यहाँ तो भाजपा सरकार कुम्भ के आयोजक की भूमिका में थी और कुम्भ के बहाने हिन्दू धर्मावलम्बियों के इस जमघट में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, संस्कार भारती और वनवासी कल्याण आश्रम आदि कैम्प लगाकर, हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल करके, नुक्कड़ नाटक, और विभिन्न माध्यमों से अपने हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक एजेण्डे का खुलकर बेरोकटोक प्रचार कर रहे थे।

बढ़ती बेरोज़गारी, छात्रों-कर्मचारियों, मज़दूरों-किसानों के आन्दोलनों से बेनकाब होती मोदी-योगी सरकार के पास वोट की फ़सल को सींचने के लिए कुम्भ, राममन्दिर, हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर बँटवारे को और तीखा करने, राष्ट्रवाद, सेना और युद्धोन्माद के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। यही कारण है कि मोदी सरकार ने लगभग चार हज़ार तीन सौ करोड़ रुपये का बजट कुम्भ की तैयारियों के नाम पर होम कर दिया। कहने को इलाहाबाद में खूब निर्माण कार्य हुआ लेकिन इसमें इतना ज़बदस्त और दिव्य भ्रष्टाचार हुआ है क‍ि कुम्भ ख़त्म होते-होते जगह-जगह सड़कें टूटनी शुरू हो गयी हैं। यही हाल कुम्भ के नाम पर कराये गये अन्य कामों का भी है।

नेताओं-अफ़सरों-ठेकेदारों ने भ्रष्टाचार की इस गटरगंगा में जमकर गोते लगाये हैं और इतना ”पुण्य” कमाया है कि उनकी कई पीढ़ि‍याँ तर जायेंगी।

अब इसकी सफलता के प्रचार में करोड़ों फूँक दिये जायेंगे। लेकिन इसी इलाहाबाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हॉस्टल निर्माण के लिए सरकार के ख़ज़ाने में पैसा नहीं है। केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने के लगभग 19 साल बाद भी 26000 छात्रों में से केवल 3601 छात्रों के लिए हॉस्टल उपलब्ध है। जबकि केन्द्रीय विश्वविद्यालय के मानक के हिसाब से कम से कम 15,600 छात्रों के लिए हॉस्टल होना ही चाहिए। हॉस्टल न मिलने और बाहर का ख़र्च न उठा सकने के कारण बहुत से छात्र अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर पूँजीपतियों की कम्पनियों में हड्डियाँ गलाने चले जाते हैं, तो बहुत से छात्र आत्महत्या तक के क़दम उठा रहे हैं। अभी हाल ही में रजनीकान्त नाम के एक छात्र ने हॉस्टल नहीं मिलने और प्रशासन के तानाशाहीपूर्ण रवैये के कारण आत्महत्या कर ली थी। इसी इलाहाबाद में जनवरी और फ़रवरी के महीने में लगभग 10 छात्र बेरोज़गारी और अन्य कारणों से आत्महत्या कर चुके हैं, लेकिन सत्ता में बैठे हत्यारों को यह नज़र नहीं आ रहा है क्योकि वे इससे वोट की फ़सल तैयार नहीं कर सकते है।

लूट और मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था में करुणा और भावनाएँ भी बाज़ार और वर्ग के हिसाब से तय होती है। जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नज़दीक आ रहा है वैसे-वैसे नरेन्द्र मोदी और उनके सरकार के मन्त्रियो की भी भावनाएँ आम जनता, ग़रीबों, मज़दूरों आदि के प्रति वोट के लिए भभकती जा रही है, जिसका स्पष्ट उदाहरण कुम्भ में मोदी द्वारा सफ़ाई कर्मचारियों का पैर धोने की घटना है। यही सफ़ाईकर्मी पिछले लम्बे समय से उचित वेतन के लिए संघर्षरत हैं, वेतन बढ़ाना तो दूर इनके साथ संघर्ष कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता हेमन्त चौधरी और अंशु मालवीय को क्राइम ब्रांच ने सरकार के इशारे पर गिरफ़्तार कर लिया, बाद में सामाजिक संगठनों के दबाव के कारण मजबूरी में उन्हें छोड़ना पड़ा। सवाल यह उठता है कि पाँच सालों से सरकार चला रहे मोदी ने सफ़ाई कर्मचारियों के लिए क्या किया। हाथ से मैला उठाने व सर पर ढोने की प्रथा ख़त्म की? महानगरों की गहरी-पक्की-ज़हरीली नालियों की गन्दगी में सफ़ाईकर्मियों का सदेह उतरना बन्द हुआ? मशीनों, ऐप और स्वचालित यन्त्रों के प्रेमी-प्रचारक प्रधानमन्त्री ने क्या ऐसी एक मशीन भी मँगवायी या लगवायी, जिससे सफ़ाईकर्मियों को सीवरेज में उतरने की ज़रूरत न पड़े? सफ़ाईकर्मियों के वेतन-भत्तों पर, उनकी सुरक्षा पर, उनके बच्चों की शिक्षा पर कोई एक योजना भी बनी? क्या ऐसा कोई अध्ययन भी हुआ कि सफ़ाईकर्मियों तक आरक्षण का लाभ कितना पहुँचा है? अगर इसका जवाब ना में है तो यह सहज ही समझा जा सकता कि पाँव पखारने के पीछे मोदी की मंशा क्या थी? असल में आम मज़दूरों, किसानों, ग़रीबों और छात्रों-नौजवानों में आधार खो चुकी भाजपा हर प्रकार के तीन तिकड़म से अपने वोट बैंक को सुरक्षित करना चाहती है और उसी दिशा में यह भी एक स्टण्ट से ज़्यादा और कुछ नहीं था।

कुम्भ के नाम पर पूरे इलाहाबाद का भगवाकरण कर दिया गया है। भारतीय संस्कृति (जिसमें कबीर, दादू, रैदास, आदि शामिल नहीं हैं) को पुनर्जागृत करने के नाम पर गंजेड़ी-नशेेड़ी नागा बाबाओं, सामन्ती सामाजिक सम्बन्धों को गौरवान्वित करती हुई तस्वीरों और संघ से जुड़े तमाम फ़ासिस्टों की तस्वीरों से पूरे इलाहाबाद को रंग दिया गया है, जो आम जनता के बीच इस बात को स्थापित कर रहा है कि हर समस्या का समाधान अतीत में और हिन्दुत्व में है और अपने इस मिशन में संघी एक हद तक सफल भी हो रहे हैं। (ज्ञात हो कि सिर्फ़ पेण्टिंग के लिए 100 करोड़ रुपये ख़र्च किये गये जिसमें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रों के लिए कम से कम चार नये हॉस्टलों का निर्माण किया जा सकता था) धर्म संसद के ज़रिये राम मन्दिर निर्माण के मुद्दे को संघ और विहिप ने ज़ोर-शोर से उठाने की कोशिश की, ये अलग बात है कि जनता से मिली ठण्डी प्रतिक्रिया के कारण बीच में ही उसे छोड़ देना पड़ गया। राम मन्दिर का मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जिसे संघ वालों ने पिछले ढाई दशक से ज़्यादा समय से एक शुद्ध राजनीतिक मुद्दे में बदलकर भाजपा के लिए राजनीतिक लाभ की ख़ूब फ़सल काटी है। जगह-जगह बड़े-बड़े एलर्इडी स्क्रीन लगाकार संघ एक तरफ़ तो हिन्दुत्व के ज़हर को फैला रही है तो वही दूसरी तरफ़ योगी-मोदी इसे भाजपा के प्रचार के लिए मंच के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। देश के तथाकथित चुनावबाज़ कम्युनिस्ट पार्टियाँ अभी भी फ़ासिस्टों को चुनाव के रास्ते हराने का गुलाबी सपना देख रही हैं और जगह-जगह चुनावी गँठजोड़ में अपनी पूरी ताक़त ख़र्च कर रहे हैं। आने वाले समय में इतिहास इन तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियों से भी वाजिब हिसाब लेगा। 

शुरू होने से पहले ही कुम्भ ने आम जनता की रोटियों पर डाका शुरू कर दिया था, गंगा-सफ़ाई के नाम पर कानपुर में स्थित तक़रीबन 400 टेनरियों यानी चमड़े की फै़क्टरियो को तीन महीने (15 दिसम्बर से 15 मार्च तक के लिए) उत्तर प्रदेश सरकार के निर्देशानुसार बिना किसी शिफ़्ट‍िंग के बन्द कर दिया गया जिसकी वज़ह से इनमें काम करने वाले लगभग 10 लाख से ज़्यादा मज़दूर बेरोज़गार हो गये और उनके सामने रोज़ी-रोटी का संकट पैदा हो गया। गंगा को 100 प्रतिशत साफ़ करने के वादे के साथ सत्ता में आयी भाजपा सरकार ने इसके लिए एक अलग ही मन्त्रालय बना दिया और नमामि गंगे योजना के तहत गंगा की सफ़ाई के नाम पर कई सौ करोड़ रुपये आवंटित भी किये गये। गंगा साफ़ न होने की दशा में जल समाधि लेने वाली उमा भारती ने अपना मुँह सी लिया है। गंगा की सफ़ाई तभी सम्भव है जब हरिद्वार से लेकर कलकत्ता तक की सभी फ़ैक्टरियों से निकलने वाले कचरे को बिना शोधित किये गंगा में प्रवाहित करने पर रोक लगायी जाये। लेकिन यह इस पूँजीवादी व्यवस्था में सम्भव ही नहीं है क्योंकि भाजपा, सपा, कांग्रेस, बसपा जैसी सभी बुर्जुआ चुनावी पार्टियों को चुनावी फ़ण्डिंग इन्हीं के मालिकों से होती है। वास्तव में ये पार्टियाँ इन्हीं पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के रूप में काम करती हैं और उनकी मुनाफ़े की दर को बरक़रार रखने के लिए वो हरिद्वार से लेकर कन्नौज, फ़र्रुख़ाबाद, कानपुर, उन्नाव, पटना और कलकत्ता तक फैले इन उद्योगों पर पूँजीवादी व्यवस्था के रहते कोई शिकंजा नहीं कसेंगी। रस्मी तौर पर जनता को फुसलाने के लिए 2-3 महीने के लिए इसको बन्द कर देने से भी आम ग़रीब जनता ही भूखों मरेगी और न बन्द होने की दशा में प्रदूषण फैलेगा तो कैंसर जैसी ख़तरनाक बीमारियों की चपेट में भी सबसे ज़्यादा मज़दूर और निम्न मध्यम वर्ग की ही आबादी आयेगी। वास्तव में मुनाफ़ा केन्द्रित इस व्यवस्था में हर परेशानी आम जनता झेलती है और सारी मलाई पूँजीपति और नेता-मन्त्री खाते हैं।

कुम्भ के इस आयोजन के दौरान संघ और भाजपा अपने आकाओं के लिए धर्म को धन्धे में तब्दील करने की जुगत में लगे हुए थे। मूर्तियों के निर्माण से लेकर एक महीने के लिए गंगा किनारे अस्थाई शहर बसाने के नाम पर धर्म में बाज़ार के लिए पूरी सम्भावना पैदा कर दी थी, जिसमें छुटभइये से लेकर बड़े पूँजी के टुकड़खोरों तक ने पैसा लगाकर ख़ूब कमाई की। इस बार का कुम्भ मुनाफ़ा पैदा करने वाला एक धार्मिक-राजनीतिक आयोजन बन गया था। नागा साधुओं और ढोंगी बाबाओं के लिए बनाये गये टेण्ट सिटी के नाम पर कुम्भ क्षेत्र के आस पास के दर्ज़नों गाँवों, सैकड़ों झुग्गियों को उजाड़ दिया गया। टेण्ट सिटी की इस चकाचौंध ने सैकड़ों लोगों को बेघर कर दिया और दिसम्बर और जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड में लोगों के लिए खुले अासमान के नीचे रात गुज़ारने के अलावा उनके सामने कोई उपाय नहीं छोड़ा गया। स्मार्ट सिटी के नाम पर हज़ारों ठेले-खोमचे वालों को सड़क-किनारे से बेदख़ल कर दिया गया जिससे उनके सामने कमाने-खाने और परिवार पालने तक का संकट पैदा हो गया था।

भाजपा सरकार का चेहरा चमकाने के लिए जिन मज़दूरों को काम पर रखा गया था, उनके साथ सरकार और ठेकेदार दोनों छल कर रहे हैं। कुम्भ के दौरान काम करने वाले सफ़ाई कर्मचारियों के लिए प्रशासन के दबाव के कारण 12 घण्टे की दिहाड़ी 315 प्रतिदिन का तय किया गया था जो पहले 295 रुपये था लेकिन कुम्भ बीतने के बाद भी कुल मिलने वाली रक़म का लगभग 15 प्रतिशत रक़म ही ठेकेदारों ने मज़दूरों को दी है और प्रशासन भी इस मुद्दे पर पूरी तरह चुप्पी साधे बैठा है।

अख़बार इन ख़बरों से पटे रहते थे कि कुम्भ को सुगम बनाने के लिए किस तारीख़ को कितनी हज़ार बसें चलायी जायेंगी, लेकिन जो लोग इस कुम्भ को सुगम बनाने में जुटे हुए थे उनकी ख़बर लेने वाला कोई नहीं था। कुम्भ के मद्देनज़र बनाये गये अस्थाई बेला कछार डिपो पर परिवहन निगम का दफ़्तर और अधिकारियों के लिए आवास की व्यवस्था तो थी लेकिन चालकों और परिचालकों के लिए एक भी टेण्ट मौजूद नहीं था। पीने के पानी के लिए नल तक का इन्तज़ाम नहीं था। कर्मचारियों की एकजुटता की वजह से नल लगा भी तो वो पर्याप्त नहीं था। स्थाई और अस्थाई कर्मचारियों को 150 रुपये रोज़ नगर निगम द्वारा भत्ता देने की बात कही गयी थी लेकिन अभी तक स्थाई कर्मचारियों को केवल 1650 रुपये ही मिले हैं और अस्थाई को तो वो भी नहीं मिला। यही हालत कमोबेश सभी अस्थाई बस डिपो की है। लखनऊ के लिए सड़क को ही डिपो बना दिया गया था यानी उनके लिए ये सब सुविधाएँ नहीं थीं। मतलब यह कि सरकार और ठेकेदारों के लिए भले ही यह सुगम कुम्भ रहा हो लेकिन आम कर्मचारियों के लिए यह कहीं से सुगम नहीं था।

जिनके दम पर सुरक्षित कुम्भ का दम्भ भरते उपमुख्यमन्त्री केशव प्रसाद मौर्य से लेकर योगी-मोदी तक नहीं थक रहे हैं, असल में वही सुरक्षाकर्मी ख़ुद बेहद असुरक्षा में जीने को मजबूर हैं। कुम्भ मेले में सुरक्षा देने के लिए मुम्बई स्थित निजी एजेंसी आरएमबी को ठेका दिया गया था। इस एजेंसी ने सुरक्षा का ठेका कई छोटे-छोटे ठेकेदारों को बाँट दिया। बेरोज़गारी का दंश झेल रहे हज़ारों युवा बिना किसी लिखित कॉन्ट्रैक्ट के ठेकेदारों के मार्फ़त कुम्भ में सुरक्षा देने के नाम पर अपनी सुरक्षा को दाँव पर लगाने को मजबूर हो गये। बेरोज़गार नौजवानों की मजबूरी का फ़ायदा उठाकर ठेकेदारों ने इनसे 24-24 घण्टे तक भी काम लिया और इनको न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं दी गयी। मेले में यात्री निवासों की सुरक्षा में लगी वीरेन्द्र प्रोटेक्शन फोर्स नाम की एजेंसी ने 24 घण्टे काम के लिए 14500 रुपये महीने के आश्वासन देकर नौजवानों को काम पर रखा था, लेकिन सेक्टर 6 स्थित यात्री निवास में काम कर रहे सुरक्षाकर्मियों को 11 जनवरी से 20 फ़रवरी तक की अवधि में 500 से 1000 रुपये तक ही मिले हैं।

विदेशी सैलानियों की तस्वीरें, दिव्य कुम्भ की जगमग और चमकते विज्ञापनों, बड़े-बड़े मठाधीशों के चकाचौंध भरे फ़ाइव स्टार पण्डालों, सरकारी विज्ञापनों, नेताओं-मन्त्रियों की डुबकियों, नागा बाबाओं के चमत्कार और हिन्दुत्व के प्रचार के नीचे इस कुम्भ में इंसानियत की कराहती आवाज़ों को दबा दिया जा रहा है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2019


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments