आपस की बात
मज़दूरों की क़ब्रगाह बनता दिल्ली-सोनीपत हाइवे

जीतू, शिवपुरी कालोनी, सोनीपत

राष्ट्रमण्डल खेलों को ध्यान में रखते हुए जब दिल्ली को पेरिस बनाने के चक्कर में केन्द्रीय दिल्ली के चप्पे-चप्पे को चमकाया जा रहा है। जगह-जगह पर सड़क पार करने के लिए सबवे तथा पुलों का निर्माण किया जा रहा है। टी.वी. तथा रेडियो पर जमकर प्रचार किया जा रहा है कि सब लोग सबवे तथा पुल का इस्तेमाल करें या सुरक्षित चलें, सुरक्षित चलायें वग़ैरह वग़ैरह। तो साफ़ पता चलता है कि यहाँ रह रहे खाये-पिये-अघाये पैसों वालों के लिए सरकार कितनी चिन्तित है?

परन्तु वही दिल्ली से सोनीपत की तरफ़ गुज़रने वाले हाइवे पर जहाँ हर दिन कोई न कोई मज़दूर धन-पशुओं की तेज़ रफ़्तार से आती कारों या बस और सामानों से भरे ट्रकों के नीचे रौंदा जाता है तो इसकी तरफ़ किसी का ध्यान नहीं जाता है।

ज्ञात हो कि सोनीपत की तरफ़ जाते समय मज़दूरों का आवास हाइवे के बायीं ओर पड़ता है। जहाँ भारी संख्या में बाहरी मज़दूर किराये पर रहते हैं। फ़ैक्ट्री का मुख्य इलाक़ा सड़क के दायीं ओर है। सड़क के इस पार से 5000-7000 मज़दूर प्रतिदिन हाइवे पार करके दिल्ली तथा दिल्ली बॉर्डर से मज़दूर सोनीपत में स्थित कुण्डली के इलाक़े में काम करने जाते हैं। हाइवे को पार करने के लिए सड़क के नीचे से न तो कोई सबवे है न ही ऊपर से कोई पुल। रेड लाइट भी बहुत कम है।

सुबह के समय जब मज़दूरों को काम पर पहुँचने की जल्दी होती है क्योंकि फ़ैक्ट्री में 5 मिनट भी लेट पहुँचने पर आधा दिन की दिहाड़ी काट ली जाती है। तो उन्हें तेज़ रफ़्तार से गुज़रने वाले गाड़ियों के रेले को गुज़रने का इन्तज़ार करना पड़ता है। ज्यों ही सड़क थोड़ी ख़ाली दिखती है वैसे ही मज़दूर लपककर सड़क पार करने लगते हैं। फिर उन्हें पतले से डिवाइडर पर खड़े होकर उस पार गाड़ियों के रेले को गुज़र जाने का इन्तज़ार करना पड़ता है। समय पर पहुँचने की जल्दी में आये दिन मज़दूर तेज़ रफ़्तार से आती गाड़ियों के नीचे कुचले जाते हैं। बुजुर्ग मज़दूर महिलाएँ इस तरह की दुर्घटनाओं का अधिक शिकार होती हैं।

प्रवासी मज़दूर होने के चलते, इनके दुर्घटनाग्रस्त होने पर कई बार ऐसा भी होता है कि स्थानीय लोगों द्वारा जान-पहचान न होने के कारण पुलिस वाले इधर-उधर फ़र्ज़ी कार्रवाई करके लाश को लावारिस तक घोषित कर देते हैं और हाइवे पर चलने वाली गाड़ियों को हरी झण्डी दिखा देते हैं ताकि बड़ी-बड़ी गाड़ियों में सवार धन-पशुओं को देर न हो जाये।

इस तरह, सहज ही समझा जा सकता है कि “विकास” के दावे की पीछे की सच्चाई क्या है? और सड़क, पुल, सबवे, तथा हर तरह के सामान बनाने वाले मज़दूरों के हिस्से में क्या आया है?

 

बिगुल, फरवरी 2009

 


 

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