गोरखपुर के संगठित मज़दूरों के नाम
साथियो, आगे बढ़ो…

टी.एम. अंसारी, लुधियाना

जुलाई महीने का बिगुल पढ़कर बड़ी खुशी हुई। गोरखपुर के एकजुट मज़दूरों के संघर्ष की शानदार जीत यह दर्शाती है कि निराशा के इस दौर में मज़दूरों के संघर्ष की नयी शुरुआत हो रही है। संघर्ष के अलावा और कोई चारा नहीं है।

मैं एक टेक्सटाइल मज़दूर हूँ। मज़दूर संगठन में काम कर चुका हूँ। इसलिए अपने कुछ अनुभव मैं गोरखपुर के मजदूर साथियों के साथ साझा करना चाहता हूँ।

सन् 1995-96 में मैं महाराष्ट्र के उपनगर में काम करता था जिसे उल्हास नगर के नाम से जाना जाता है। यहाँ पर मज़दूरों ने यूनियन के नेतृत्व में लम्बी लड़ाई लड़कर कई तरह के अधिकार हासिल किये। काम तो हम लोगों का पीस रेट पर ही था। मज़दूरों ने पीस रेट भी दुगुना कराया, बोनस-फ़ण्ड सर्विस आदि अधिकार भी हासिल किये, लेकिन यह ज़्यादा समय तक नहीं चल पाया। छठा साल बीतते-बीतते सब कुछ बिखर गया। कारण बाज़ार की प्रतिस्पर्धा, कम्पीटीशन।

हमारे शहर से चालीस किलोमीटर की दूरी पर एक शहर भिवण्डी था जो टेक्सटाइल इण्डस्ट्रीज़ का गढ़ है। उस शहर में कपड़े के अलावा और कोई कारोबार नहीं है। इस शहर के मज़दूरों को कोई सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है। कारख़ानों में श्रम क़ानून लागू नही हैं। इसलिए यहाँ के पूँजीपतियों को उत्पादन पर लागत ख़र्च कम आता है और हमारे शहर के पूँजीपतियों को रेट भी बढ़ाकर देना था, कई तरह के श्रम क़ानून लागू थे। इसलिए उनके उत्पादन पर लागत ज़्यादा आती थी लेकिन उत्पादन बेचने का बाज़ार दोनों का एक था – कालबा देवी। जिसकी लागत ज़्यादा आती थी उसका माल महँगा होता था; जिसकी कम आती थी उसका माल सस्ता होता था। जब बाज़ार में ऐसी हालत हो कि एक ही क्वालिटी का माल हो और एक महँगा हो एक सस्ता तब तो ज़ाहिर है ग्राहक सस्ता माल ही ख़रीदेगा। ऐसे में हमारे शहर का पूँजीपति कितने समय तक टिकता।

पूँजीपति का काम मुनाफ़ा कमाना है, समाज सेवा नहीं। जब उसका मुनाफ़ा नहीं बचेगा तो फ़ैक्ट्री क्यों चलायेगा। आख़िर उन्होंने फ़ैक्ट्रियों को बन्द कर दिया। यूनियन नेताओं ने जैसा कहा, उस तरह मज़दूरों का हिसाब कर दिया। सारे कारख़ानों को उठाकर भिवण्डी शहर में लगा दिया। जहाँ ये आज भी चल रहे हैं।

जब मज़दूर ऐसे हालात से गुज़रता है तो बहुत निराश हो जाता है। कुछ लोग तो अपनी बर्बादी का ज़िम्मेदार यूनियन को मानने लगते हैं। जहाँ तक मैं मानता हूँ कि इस हार की ज़िम्मेदारी शीर्ष नेताओं और मज़दूर संगठनकर्ताओं की बनती है। हमारे शहर के नेता और संगठनकर्ता अपने शहर की लड़ाई जीतकर चुपचाप तमाशा देखते रहे। मज़दूरों के फ़ण्ड से ऐश करते रहे। उन्हें लगा यथास्थिति ऐेसे ही बनी रहेगी। उन्होंने संगठन को फैलाने की कोशिश नहीं की। अगर हमारे संगठनकर्ता भिवण्डी शहर के मज़दूरों को गोलबन्द करके अपने आन्दोलन में शामिल करवाते उन्हें भी वह अधिकार दिलवाते जो हमारे शहर के मज़दूरों को मिलता था तो दोनों शहर के पूँजीपतियों की लागत समान होती और बाज़ार भाव भी समान होते।

यूनियन के टूटने और बिखरने का एक कारण यह भी रहा कि प्रदेश स्तर पर या देश स्तर पर इसको फैलाने की कोशिश नहीं की गयी। जब किसी एक या दो कारख़ानों में मज़दूर एकजुट संघर्ष करके जीत हासिल करते हैं तब तो संगठन और संगठनकर्ताओं का फ़र्ज़ और बढ़ जाता है कि पूरे शहर में फैलाव करते हुए प्रदेश स्तर पर लाया जाये। अगर ऐसा न किया गया तो शायद गोरखपुर के मज़दूर भी उसी हालात से गुज़रेंगे जिस हालात से हमारे शहर के मज़दूर गुज़रे थे। गोरखपुर के जिन कारख़ानों में यूनियन बनी है, उनमें जिस तरह का उत्पादन होता है वैसा उत्पादन करने वाले गोरखपुर के आसपास के इलाक़ों में तमाम कारख़ाने होंगे। उसी तरह का उत्पादन पूर्वांचल के कई शहरों में होता होगा। इस उत्पादन को बेचने का बाज़ार लगभग सभी लोगों का एक ही होगा।

अगर गोरखपुर के संगठित मज़दूरों को बचाना है तो ज़रूरी है इस तरह के सभी कारख़ानों में यूनियन बनायी जाये। संगठन का विस्तार प्रदेश से लेकर पूरे देश में फैलाया जाये। तभी सफलता हासिल की जा सकती है।

हमारी तरफ़ से मज़दूर साथियों के लिए एक गीत –

ओ मज़दूर साथी निकलो बनके संघर्ष के सिपाही,
लोग देखेंगे अरमान से अपनी शक्ति ऊँची आसमान से।
पैसे वालों से न डरना ख़ूब मेहनत से लड़ना,
जीत होगी अपनी शान से अपनी शक्ति ऊँची आसमान से।
रो-रो करके दुखड़ा अपना जग को कब तक सुनाओगे,
जंग लड़ोगे हिम्मत से तब हक़ अपना पाओगे।
तुम हिम्मत न छोड़ो सबको संगठन से जोड़ो,
जीत होगी अपनी शान से अपनी शक्ति ऊँची आसमान से।
साथ में लेकर मज़दूरों को यूनियन हमने बनायी है,
दर्द जो समझे मज़दूरों का वह मज़दूरों का भाई है।
तुम इतना समझना कभी आपस में न लड़ना,
हमको लड़ना है धनवान से अपनी शक्ति ऊँची आसमान से।
ख़ून चूसकर मज़दूरों का, बंगला बड़ा बनाया है,
जिस स्तम्भ पर टिका है बंगला, मज़दूर ही इसका पाया है।
इस पाये को हटा दो इस बंगले को गिरा दो,
बाहर कर दो इस मकान से अपनी शक्ति ऊँची आसमान से।
आज तुम देखो मज़दूरों ने ख़ुद को कितना गिराया है,
मज़दूरी के बदले देखो इसने थप्पड़ खाया है।
तुम आज फ़ैसला कर लो ख़ुद से ये वादा कर लो
बदला लोगे थप्पड़ की जबान से अपनी शक्ति ऊँची आसमान से।

बिगुल, सितम्‍बर 2009


 

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