आपस की बात
मजदूर एकता ज़ि‍न्दाबाद

आनन्द, गुड़गाँव

यह बात आज हम लोग शायद न मान पायें मगर सच यही है कि लूट, खसोट व मुनाफे पर टिकी इस पूँजी की व्यवस्था में उम्रदराज लोगों का कोई इस्तेमाल नहीं है। और पूँजी की व्यवस्था का यह नियम होता है कि जो माल(क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था में हर व्यक्ति या रिश्ते-नाते सब माल के ही रूप होते हैं) उपयोग लायक न हो उसे कचरा पेटी में डाल दो। हम अपने आस-पास के माहौल से दिन-प्रतिदिन यह देखते होंगे कि फलाने के माँ-बाप को कोई एक गिलास पानी देने वाला भी नहीं जबकि उनके चार-चार लड़के हैं। फलाने के कोई औलाद नहीं और वो इतने गरीब है कि उनका बुढ़ापा जैसे-तैसे घिसट-घिसट कर ही कट रहा है। फलाने के लड़के नहीं है मगर लड़की व दामाद ने तीन-तिकड़म कर सम्पत्ति‍ पर कब्जा करके माँ-बाप को सड़क पर ला दिया। तमाम भीख माँगने वाले वे लोग (अब पूरे देश का आंकड़ा तो नहीं पता मगर 2010 में जब देश की राजधानी दिल्ली में कामनवेल्थ गेम हुए थे तो दिल्ली सरकार ने राजधानी को साफ व स्वच्छ दिखाने के लिए दिल्ली से 60,000 गरीबों, फुटपाथ पर सोने वालों व भिखारियों को खदेड़ा था) जो अपनी जिन्दगी की गाड़ी चलाने के लिए आत्मसम्मान तक गिरवी रखकर भीख माँगकर जिन्दा रहते है, उन सब की कोई न कोई कहानी होती है। मतलब कि‍ पूँजीवादी समाज में अब उनका कोई उपयोग नहीं है। अब सरकार ने तो ऐसे कोई वृद्धालय या अनाथालय खोले नहीं जिसमें भारत के करोड़ों दुखियारे बुजुर्गों का भरण-पोषण हो सके।

तमाम उम्रदराज लोग जिनकी उम्र 50 या 55 साल के ऊपर है। वो इन ऊपर लिखी समस्याओं से परेशान होकर मगर अपने आत्मसम्मान को बचाकर मेहनत-मज़दूरी करके, जिन्दगी से संघर्ष करके गर्व के साथ इंसान की जिन्दगी जीना पसन्द करते हैं। वे शहरों का रास्ता देखते और फैक्ट्र‍ियों में मेहनत-मज़दूरी करके अपनी जिन्दगी जीना चाहते हैं। वो आते है शहरों में फैक्टरी इलाकों में चक्कर लगाते है मगर कुछ ही जगहों को छोड़कर अधिकतर जगह उन्हें काम नहीं मिलता और जहाँ काम मिलता भी है वहाँ बहुत कम मज़दूरी पाते हैं, लगातार 12-14 घण्टे ड्यूटी करते हैं, बस जैसे-तैसे जिन्दगी काटते और सामाजिक समस्याओं व बीमारियों से ग्रस्त होकर जल्द ही मर जाते है। ऐसा मत सोचिएगा कि ये समस्याऐं शायद कुछ विशेष लोगों को आती होंगी। नहीं ये समस्याऐं पूरे मज़दूर वर्ग की हैं, हम सब की है और आने वाला हमारा भविष्य यही है। जब तक यह लूट और खसोट की व्यवस्था बनी रहेगी तब तक हम सब यूं ही तिल-तिल कर मरते रहेगें। तो क्यों न हम मिलकर एक प्रयास करें, संगठित हो और एकजुट होकर खत्म कर दे इस व्यवस्था को और बनाऐ एक बेहतर दुनिया जिसमें एक इंसान,  इंसान की तरह जी सके।

 

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर 2014

 


 

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