अमेरिका के फ़ास्ट फ़ूड कामगारों का संघर्ष

श्वेता

fight for 15आमतौर पर लोग इस भ्रम के शिकार होते हैं कि विकसित पश्चिमी देशों में ख़ूब ख़ुशहाली है, वहाँ ग़रीबी का नामोनिशान नहीं है और कामगारों के जीवन की परिस्थितियाँ भी काफ़ी बेहतर हैं। लेकिन अमेरिका के हालिया कामगार संघर्षों के बारे में जानना अपने आप में इस भ्रम को तोड़ने के लिए काफ़ी है। गत 15 अप्रैल को अमेरिका में ‘फ़ाइट फ़ॉर 15 डॉलर’ (‘15 डॉलर के लिए संघर्ष करो’) आन्दोलन के इर्द-गिर्द एक दिवसीय विरोध प्रदर्शन संगठित किया गया। यह आन्दोलन मुख्यतः मैकडोनाल्ड सहित अन्य फ़ास्ट फ़ूड कामगारों के संघर्ष से शुरू हुआ, हालाँकि 15 अप्रैल को हुए प्रदर्शन में फ़ास्ट फ़ूड कामगारों सहित वाल्मार्ट कम्पनी एवं अन्य रिटेल कम्पनियों के कामगार, एयरपोर्ट कामगार, घरेलू कामगार व बच्चों की देखरेख में लगे कामगार भी बड़ी संख्या में शामिल हुए।

समय में थोड़ा पीछे जाकर देखें तो अमेरिका में ‘फ़ाइट फ़ॉर 15 डॉलर’ आन्दोलन की नींव वर्ष 2012 में तब पड़ी जब नवम्बर माह में मैकडॉनल्ड, सबवे, बर्गर किंग, केएफ़सी जैसी बड़ी फ़ास्ट फ़ूड कम्पनियों के कामगारों ने अपनी माँगों को लेकर न्यूयॉर्क शहर में विरोध प्रदर्शन एवं हड़तालें संगठित कीं। धीरे-धीरे वह आन्दोलन गति पकड़ता हुआ अमेरिका के 200 अन्य शहरों में फैल गया। नतीजतन बीती 15 अप्रैल को अलग-अलग पेशों के क़रीब 60,000 कामगार ‘फ़ाइट फ़ॉर 15 डॉलर’ के बैनर तले विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए। जानकारों की मानें तो अमेरिका में हाल के वर्षों में कम मज़दूरी के खि़लाफ़ कामगारों का यह सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन था।

जैसाकि पहले बताया गया है कि ‘फ़ाइट फ़ॉर 15 डॉलर’ आन्दोलन की शुरफ़आत मुख्यतः फ़ास्ट फ़ूड कामगारों के संघर्ष से हुई। इस संघर्ष में अधिकतर भागीदारी मैकडोनाल्ड कम्पनी के कामगारों की रही। ग़ौरतलब है कि आज मैकडॉनल्ड फ़ास्ट फ़ूड में लगी श्रमशक्ति का सबसे बड़ा नियोक्ता है। इस आन्दोलन में फ़ास्ट फ़ूड कामगारों की मुख्यतः तीन माँगें थीं। पहली, न्यूनतम मज़दूरी को 7.5 डॉलर प्रतिघण्टा से बढ़ाकर 15 डॉलर प्रतिघण्टा यानी दुगुना कर दिया जाये। इसी माँग के कारण यह आन्दोलन ‘फ़ाइट फ़ॉर 15 डॉलर’ के नाम से जाना जाने लगा। दूसरी माँग बेहतर कार्य की परिस्थितियों को लेकर थी। मैकडोनाल्ड सहित अन्य फ़ास्ट फ़ूड कम्पनियों में काम के दौरान कामगारों को या तो अपर्याप्त इंटरवल मिलता है या फिर मिलता ही नहीं है। उन्हें बेहद गरमी में तो काम करना ही पड़ता है, साथ ही साथ उनके कार्यस्थल हवादार न होने की वजह उनकी कार्य परिस्थितियाँ और कठिन हो जाती हैं। कामगारों की तीसरी माँग थी कि उन्हें बिना किसी हस्तक्षेप के यूनियनीकृत होने का अधिकार मिलना चाहिए। यूनियन के अभाव में कोई दबाव न बन पाने की स्थिति में मैकडोनाल्ड जैसी कम्पनियाँ अक्सर ही अपनी ज़िम्मेदारी से आसानी से पल्ला झाड़ लेती हैं। कम्पनी नियोक्ताओं की तानाशाही का आलम तो यह है कि कामगारों को ख़रीदारों से सामान की बिक्री-ख़रीद सम्बन्धी बातचीत के अलावा अन्य किसी भी प्रकार का संवाद स्थापित करने की सख़्त मनाही है।

कामगारों द्वारा यूनियनीकृत होने के अधिकार की माँग को रखना इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि मैकडोनाल्ड में केवल 10 प्रतिशत कामगार ही सीधा कम्पनी मालिकान के तहत काम करते हैं। बाक़ी 90 प्रतिशत तो कम्पनी के फ़्रेंचाइजियों में काम करते हैं जहाँ उनके लिए अपनी माँगों को मनवाना बेहद मुश्किल हो जाता है। यही नहीं, अक्सर ही वेतन बढ़ोतरी और सामाजिक सुरक्षा से जुड़े हुए लाभ भी ग़ैर-फ़्रेंचाइजी में काम करने वाले कामगारों के एक छोटे से हिस्से तक ही सीमित रह जाते हैं। उदाहरण के लिए, हाल ही में मैकडोनाल्ड ने ग़ैर-फ़्रेंचाइजी कामगारों के वेतन में 1 डॉलर की बढ़ोतरी की जबकि उसकी फ़्रेंचाइजियों में काम करने वाले 6-5 लाख कामगार इस बढ़ोतरी से पूरी तरह वंचित रह गये।

बहरहाल, ‘फ़ाइट फ़ॉर 15 डॉलर’ के तहत होने वाले अमेरिकी फ़ास्ट फ़ूड कामगारों के संघर्ष की परिणति चाहे जीत हो या हार, यहाँ महत्वपूर्ण यह नहीं है। यह आन्दोलन इस ओर इशारा कर रहा है कि कामगारों के असन्तोष के सीमित विस्फोटों से पश्चिमी विकसित देश भी अछूते नहीं हैं। ये तमाम विस्फोट पूँजीवाद की संरचना में मौजूद अन्तरविरोधों एवं उनसे उत्पन्न संकटग्रस्तता की ही अभिव्यक्ति हैं।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2015


 

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