तुम्हारे सदाचार की क्षय

राहुल सांकृत्यायन

राहुल सांकृत्यायन सच्चे अर्थों में जनता के लेखक थे। वह आज जैसे कथित प्रगतिशील लेखकों सरीखे नहीं थे जो जनता के जीवन और संघर्षों से अलग-थलग अपने-अपने नेह-नीड़ों में बैठे कागज पर रोशनाई फि़राया करते हैं। जनता के संघर्षों का मोर्चा हो या सामंतों-जमींदारों के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ़ किसानों की लड़ाई का मोर्चा, वह हमेशा अगली कतारों में रहे। अनेक बार जेल गये। यातनाएं झेलीं। जमींदारों के गुर्गों ने उनके ऊपर कातिलाना हमला भी किया, लेकिन आजादी, बराबरी और इंसानी स्वाभिमान के लिए न तो वह कभी संघर्ष से पीछे हटे और न ही उनकी कलम रुकी।

दुनिया की छब्बीस भाषाओं के जानकार राहुल सांकृत्यायन की अद्भुत मेधा का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं, साहित्य की अनेक विधाओं में उनको महारत हासिल थी। इतिहास, दर्शन, पुरातत्व, नृतत्वशास्त्र, साहित्य, भाषा-विज्ञान आदि विषयों पर उन्होंने अधिकारपूर्वक लेखनी चलायी। दिमागी गुलामी, तुम्हारी क्षय, भागो नहीं दुनिया को बदलो, दर्शन-दिग्दर्शन, मानव समाज, वैज्ञानिक भौतिकवाद, जय यौधेय, सिंह सेनापति, दिमागी गुलामी, साम्यवाद ही क्यों, बाईसवीं सदी आदि रचनाएं उनकी महान प्रतिभा का परिचय अपने आप करा देती हैं।

राहुल जी देश की शोषित-उत्पीड़ित जनता को हर प्रकार की गुलामी से आजाद कराने के लिए कलम को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते थे। उनका मानना था कि ”साहित्यकार जनता का जबर्दस्त साथी, साथ ही वह उसका अगुआ भी है। वह सिपाही भी है और सिपहसालार भी।“

राहुल सांकृत्यायन के लिए गति जीवन का दूसरा नाम था और गतिरोध मृत्यु एवं जड़ता का। इसीलिए बनी-बनायी लीकों पर चलना उन्हें कभी गंवारा नहीं हुआ। वह नयी राहों के खोजी थे। लेकिन घुमक्कड़ी उनके लिए सिर्फ़ भूगोल की पहचान करना नहीं थी। वह सुदूर देशों की जनता के जीवन व उसकी संस्कृति से, उसकी जिजीविषा से जान-पहचान करने के लिए यात्रएं करते थे।

समाज को पीछे की ओर धकेलने वाले हर प्रकार के विचार, रूढ़ियों, मूल्यों-मान्यताओं-परम्पराओं के खिलाफ़ उनका मन गहरी नफ़रत से भरा हुआ था। उनका समूचा जीवन व लेखन इनके खिलाफ़ विद्रोह का जीता-जागता प्रमाण है। इसीलिए उन्हें महाविद्रोही भी कहा जाता है। जनता के ऐसे ही सच्चे सपूत महाविद्रोही राहुल सांकृत्यायन की एक पुस्तिका ‘तुम्हारी क्षय’ बिगुल के पाठकों के लिए हम धारावाहिक रूप से प्रकाशित कर रहे हैं। राहुल की यह निराली रचना आज भी हमारे समाज में प्रचलित रूढ़ियों के खिलाफ़ समझौताहीन संघर्ष की ललकार है।       -सम्पादक

व्यभिचार

सद्-आचार अर्थात श्रेष्ठ पुरुषों का आचार। श्रेष्ठ किसे कहते हैं? क्या श्रेष्ठ की कोटि में उस गरीब की गिनती हो सकती है जो ईमानदारी से की गयी अपनी कमाई को खाने का हक न रखकर दाने-दाने को मुहताज है? नहीं, श्रेष्ठ से मतलब है पुराने-नये राजा, राजऋषि, बड़े-बड़े राजाओं के पुरोहित और गुरु-ऋषि-मुनि; जिन्होंने कि सदाचार-प्रतिपादक शास्त्र और स्मृतियाँ बनायी हैं। श्रेष्ठ से मतलब है पीर-पैगम्बर, मूसा दाऊद से, जो कि खुद राजा या शासक थे, अथवा किसी दूसरे तरीके से बहुत जन-धन के स्वामी बन गये थे। ऐसे “श्रेष्ठ” पुरुषों का चाल-व्यवहार तो दुनिया का सदाचार बना हुआ है। उनके सदाचार भी एक तरह के नहीं हैं। कहीं सोलह-सोलह हजार स्त्रियाँ कृष्ण और दशरथ जैसे सदाचारियों के यहाँ बतलायी जाती हैं। सुलेमान, दाऊद तथा दूसरे सामीय पैगम्बर भी इस बारे में बहुत “उदार” थे। आज भी हमारे यहाँ वाजिद अली शाहों की कमी नहीं है। अभी हाल ही में एक महाराजा मरे हैं जो कि इस बारे में दूसरे वाजिद अली शाह थे। सच तो यह है कि यदि धनिक ही हमारे सदाचार के आदर्श माने जायें, तो ऐसे सदाचार का तो न रहना ही भला है। एक पुरुष एक स्त्री के रहते दो-दो, चार-चार और अधिक विवाह भी कर सकता है, तो भी हिन्दू और इस्लाम धर्म के अनुसार उसके सदाचारी होने में कोई शंका नहीं उठ सकती, लेकिन इन धर्मों के अनुसार इसी स्वतन्त्रता को लेकर यदि कोई स्त्री एक साथ दो पति रखे तो वह दुराचार हो जायेगा। आिखर दुनिया में ऐसे भी देश हैं जहाँ एक स्त्री का एक साथ कई पति रखना जरा भी अनुचित नहीं समझा जाता। तिब्बत में यह प्रथा आम है। वहाँ शायद ही कोई स्त्री मिलेगी जिसके अनेक पति न हों और, यह बात तो हमारे पुराने इतिहास में भी मिलती है। पाँच पति रखने पर भी द्रौपदी भारत की प्रातःस्मरणीय पंचकन्याओं में से थी। आखिर इसमें सदाचार है क्या? बहुत से देश हैं जहाँ पुराने समय से आज तक बहुपति-विवाह, बहुपत्नी-विवाह विहित समझा गया है और बहुत से ऐसे देश हैं जहाँ बहुपत्नी-विवाह, को उतना ही अनुचित समझा जाता है जितना कि बहुपति-विवाह को। यूरोप, अमेरिका, जापान ऐसे ही देशों में हैं। न्याय की दृष्टि से देखने पर तो यह साफ मालूम पड़ता है कि यदि एक स्त्री के अनेक पति होना खराब है, तो एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ होना भी उतना ही खराब है। आजकल के जीवित प्रधान धर्मों में कोई भी ऐसा नहीं है जो सिर्फ एक पति-विवाह और एक पत्नी-विवाह को ही उचित ठहराता हो तथा दोनों तरह के बहुविवाहों का निषेध करता हो।

लेकिन यह यौन सदाचार सिर्फ बाहरी बात है। भीतर देखने पर तो हालत और भी वीभत्स मालूम देती है। हर एक धनी और शक्तिशाली व्यक्ति पुराने समय से आज तक विवाहिता स्त्रियों के अतिरिक्त भी अनेक दासियाँ और रखेलियाँ रखता आया है और वेश्यावृत्ति तो लक्ष्मी की शोभा समझी जाती है। यदि पुरुष उतनी ही चंचलता दिखलाये तो वह मर्द-बच्चा कहलाकर बच जाता है, लेकिन ‘वेश्या’ शब्द का लांछन सिर्फ स्त्री पर लगता है। बचपन से हर एक व्यक्ति तथा चिरकाल से हमारा समाज ऐसे वातावरण में पलता चला आया है जिसमें पुरुष के लिए सदाचार की जो कसौटी कायम है, उस पर जब स्त्री को तौलने लगते हैं, तो हम आश्चर्य करते हैं। दुनिया भर में ‘सदाचार’-‘सदाचार’ चिल्लाया जा रहा है। हिन्दुस्तानियों को यह नहीं समझना चाहिए कि इसका ठेका सिर्फ उन्हीं को मिला है। यूरोप, अमेरिका, एशिया सभी मुल्कों में इस पर जोर दिया जाता है, धर्म और ईश्वर पर विश्वास रखने वाले तो खास तौर से इसके लिए जमीन-आसमान एक करते हैं। लेकिन साथ ही सदाचार का जितना कम पालन धर्मानुयायी और ईश्वर-भक्त करते हैं, जितनी अवहेलना उनके यहाँ इस नियम की होती है, उतनी और जगह नहीं। रूस से धर्म और ईश्वर का राज उठ गया है, लेकिन आप दुनिया में सिर्फ वही एक देश पायेंगे जहाँ से वेश्यावृत्ति एकदम उठ गयी है। क्या हमारे देश में ऐसे सदाचार की खिल्ली उड़ाने वाले सबसे ज्यादा हिन्दू-तीर्थ और हिन्दू-मठ नहीं हैं? अयोध्या में चले जाइये और वहाँ के बड़े से बड़े अवतारी भगवद्भक्त और सिद्ध-महात्मा को ले लीजिये, उनके बारे में भी पूछ लीजिये कि जिन्हें मरे अभी कुछ ही साल हुए हैं। मालूम होगा, सदाचार के सम्बन्ध में कैसे-कैसे वीभत्स काण्ड वहाँ होते हैं। ये स्थान स्वाभाविक ही नहीं, अस्वाभाविक व्यभिचार के सबसे बड़े अड्डे हैं। बाहर से जाने वाली भोली-भाली जनता, जिन पर तप, ब्रह्मचर्य, सदाचार की साक्षात मूर्ति समझकर अपना तन-मन-धन वारती है, वे हैं जघन्य कामुकता के साक्षात अवतार। ऐसे आदमियों के मुँह से ब्रह्मचर्य और सदाचार के लम्बे-लम्बे उपदेश सुनकर तो हठात कहना पड़ता है – निर्लज्जता, तेरा बेड़ा गर्क हो। साधु-संन्यासियों के इस विषय के क्रियात्मक विचार उससे बिल्कुल ही दूसरे हैं, जैसेकि वे उनके श्रीमुख से निकलते हैं। भारत में कितनी ही धर्म-मण्डलियाँ गुप्त व्यभिचार में आसानी पैदा करने के लिए कायम हुई हैं; कितने ही भगवद्भवन और भजनाश्रम लोगों की आँखों में धूल झोंकने को स्थापित हुए हैं। चाहे युक्त प्रान्त में घूमिये, चाहे गुजरात में; चाहे पंजाब को देखिये, चाहे बंगाल को; चाहे नेपाल को जाइये, चाहे मद्रास को, सभी के घर में मिट्टी का चूल्हा है, सभी नागनाथ-साँपनाथ बराबर हैं। सदाचार में जो जितना ही पतित है, वह उतना ही अधिक सुन्दर लच्छेदार शब्दों में उस पर व्याख्यान दे सकता है। नगरों और देशों के दृष्टान्त देने की आवश्यकता नहीं। जहाँ आप हैं, वहीं घरों और चहारदीवारियों के भीतर सभ्यता और दिखावे के बाहरी लिबास को हटाकर देखिये। आपको मालूम होगा कि ब्रह्मचर्य और सदाचार के नियम जितने ही कड़े बनाये गये हैं, उतनी ही आसानी से उन्हें तोड़ा जाता है। हमारे एक महान राजनैतिक नेता का ब्रह्मचर्य पर बड़ा जोर है; लेकिन पास में, उनकी छाया में, उनके बड़े-बड़े अनुयायियों ने जिस प्रकार बराबर उन्हें तोड़ने में ही उन नियमों का पालन किया है, उससे तो यही मालूम होता है कि जब बाँध से बूँद भर पानी का रुकना सम्भव नहीं, तो ऐसे बाँध की जरूरत ही क्या?

राहुल फाउण्‍डेशन, लखनऊ द्वारा राहुल का ये संकलन एक पुस्तिका की शक्‍ल में भी प्रकाशित हुआ है जिसे इस लिंक से खरीदा जा सकता है - http://janchetnabooks.org/product/tumhari-kshay/

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सदाचार के सम्बन्ध में दरअसल “मानसि अन्यत्-वचसि अन्यत्‍” का पक्का अनुयायी हमारा समाज दिख पड़ता है। भीतर की सारी पोल को देखते हुए कितनी तन्मयता के साथ हम आपस में इसकी धार्मिक चर्चा करते हैं? उस वक्त मालूम होता है कि हमारे समाज में कोई उसकी अवहेलना करने वाला है ही नहीं! या, हम किसी दूसरे जगत में बैठकर वार्तालाप कर रहे हैं। निश्चय ही हम लोग जब वास्तविक स्थिति पर विचार करते हैं, तब मालूम होता है कि हमारे समाज में ब्रह्मचर्य और सदाचार एक भारी ढकोसले से बढ़कर कोई महत्त्व नहीं रखता। ताज्जुब होता है कि हजारों बरसों से हमारे समाज ने ऐसी आत्मवंचना का धुआँधार प्रचार करके कौन-सा लाभ समझा है? ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’ – के अनुसार बल्कि जितनी ही शताब्दियाँ बीतती गयीं उतना ही हमारे सदाचार का तल नीचे गिरता गया है –  परिमाण में नहीं, उसमें तो देशकाल-भेद से कोई अन्तर नहीं पड़ा, हाँ, जुगुप्सित प्रक्रिया में।

जिन देशों में स्त्रैण सम्बन्ध पर हल्के नियन्त्रण रखे गये हैं, वहाँ के लोग इस विषय में ज्यादा अनुकरणीय आचरण रखते हैं। नियमों और निर्बन्धों की अधिकता सिर्फ दूसरों की आँख में धूल झोंकने के लिए हमें अधिक निपुण बनाने में सफल हुई है। रोमन-कैथोलिक जैसे कितने ही धर्म ऐसे अपराधों की स्वीकृति के लिए बहुत जोर देते हैं। वहाँ गृहस्थ स्त्री-पुरुष, साधु-साधुनी किसी माननीय व्यक्ति के सामने समय-समय पर अपने अपराधों को स्वीकार करते हैं। शायद यह प्रथा इसलिए चलायी गयी कि “बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेय।” लेकिन परिणाम क्या होता है? पहले एक-दो बार अपराध-स्वीकृति में जो थोड़ा संकोच होता है, वह भी पीछे जाता रहता है मानस-शास्रवेत्ता ठीक कहते हैं कि अपूर्ण स्त्रैण इच्छाएँ और भी उग्र रूप धारण कर मनुष्य के अन्तस्तल में मौके की ताक में पड़ी रहती हैं। धर्मों ने सबसे ज्यादा जोर जिस पर दिया है, उसकी इस प्रकार से सार्वदेशिक, सार्वकालिक, सार्वजनीन अवहेलना देखकर तो यही कहना पड़ता है कि इस ढोंग, इस बकवास से फायदा क्या?

हमारे देश के एक बड़े आदमी हैं। धर्म पर वह अपनी बड़ी भारी अनुरक्ति दिखलाते हैं। भगवान का नाम लेते-लेते गदगद होकर नाचने लगते हैं और ऐसे प्रदर्शन में काफी रुपया खर्च करते रहते हैं। उनकी हालत यह है कि जिस वक्त बड़े वेतन वाले पद पर थे, तब कभी रिश्वत बिना लिये नहीं छोड़ते थे और स्त्रियों के सम्बन्ध में तो मानो सभी नियमों को तोड़ देने के लिए भगवान की ओर से उन्हें आज्ञा मिली है।

एक प्रातःस्मरणीय राजर्षि को मरे अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं। उनकी भगवद्भक्ति अपूर्व थी। सबेरे ईश्वर-भक्ति पर एक पद बनाये बिना वह चारपाई से उठते न थे और पूजा-पाठ में उनके घण्टों बीत जाते थे। लेकिन, दूसरी ओर हाल यह था कि अपने नगर और राज्य में जहाँ किसी सुन्दरी का जैसे ही पता लगा कि जैसे हो उसे मँगवाकर ही छोड़ते थे।

एक तरुण विधवा रानी थीं। उनके पास बड़ी भारी जायदाद थी। एक बड़े तीर्थ में भगवद्-चरणों में लवलीन हो अपना दिन काटती थीं। धार्मिक-उत्सव, पूजापाठ में खुलकर रुपया खर्च करती ही थीं, साथ ही उनके यहाँ बहुत से विद्यार्थियों को भी रखकर भोजन दिया जाता था। रानी साहिबा अपनी आँख से देखकर विद्यार्थी को भर्ती होने देती थीं और तरुण विद्यार्थी रात-रात भर पार्थिव पूजा में उनकी सहायता करते थे। अत्यन्त वृद्धा होने पर भी उनकी अपार काम-पिपासा में कोई अन्तर नहीं आया।

एक बड़े भारी हिन्दू धर्म के नेता और विष्णु के साक्षात अवतार महात्मा की बात है। उन्होंने हिन्दू-धर्म के प्रचार और रक्षा के लिए बहुत विशाल आयोजन किया। उसमें भारत के बड़े-बड़े राजा, सेठ-साहूकार शामिल थे। धार्मिक जगत में जितनी उनकी धाक रही, उतनी कम ही किसी की होगी। लेकिन उनकी भीतरी लीला को देखिये तो मालूम होगा कि रासलीला करने के लिए साक्षात कन्हैया ही अवतार लेकर चले आये हैं। सुन्दरी विधवाओं पर आपका खास तौर से अनुराग रहता है।

एक और महाराज रहे हैं जिनकी शास्त्रीय विद्वता, धर्म-परायणता, दान और सदाचार की धाक सारे भारत पर रही है। लेकिन भीतर से उपासना, कुमारी-पूजा आदि धार्मिक अनुष्ठानों के नाम पर वह अपनी सभी वासनाओं की पूर्ति के लिए स्वतन्त्र थे और ऐसे धार्मिक पुरुष से परिवार वाले लोग बहुत बचकर रहना चाहते थे।

मद्यपान

शराब की मुमानियत संसार के कई प्रधान धर्म करते हैं। इस्लाम भी अपने को इसका जानी दुश्मन कहता है। शराब पीना भारी दुराचार माना जाता है। लेकिन धनिकों में पिछले तेरह सौ साल के भीतर कितनों ने इस नियम की पाबन्दी की है? बहुत जगह तो शराब की दुकानों के मालिक मुसलमान हैं। जिस वक्त मुसलमानी सल्तनतों ने शराब के खिलाफ कड़ी-कड़ी सजाएँ मुकर्रर की थीं, उस वक्त भी धनी लोगों को शराब पीने में बाधा नहीं होती थी। हिन्दुओं में भी कितने ही सम्प्रदाय मद्यपान को महापाप समझते हैं। लेकिन कितनी जातियाँ हैं जिनके धनिक उससे बचे हुए हैं? ब्राह्मण, बनिया, राजपूत, जिस किसी के पास खर्च करने के लिए इफरात पैसा है, बेखटके पीता है; और जात वाले टुक-टुक ताकते रह जाते हैं। शराब के पीछे लाठी लेकर फिरने वाले महात्माजी के अनुयायियों में भी कितने बड़े-बड़े महापुरुष हैं जो भीतरी तौर से इसके बारे में अपने गुरू से भारी मतभेद रखते हैं, चाहे मद्य-निषेध की व्यवस्था देने में वह किसी से पीछे रहनेवाले न भी हों।

असत्य

सत्य-भाषण की ओर धर्म और समाज जोर दे रहा है; और मैं मानता हूँ कि वह उतना मुश्किल नहीं है, यदि समाज में अधिक कृत्रिमता न हो; तो यह सत्यभाषण भी आजकल कितना कठिन काम है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। इस कठिनाई की जवाबदेही है अधिकतर हमारे समाज की वर्तमान बनावट पर, जिसमें सत्यवक्ता के लिए स्थान नहीं है। हमारी राजनीतिक संस्थाएँ असत्य-प्रचार के सबसे बड़े अड्डे हैं। झूठ का प्रयोग होता है लोगों को धोखा देने में। अपने स्वार्थ के लिए झूठ बोलकर दूसरों को धोखा देना हर एक राष्ट्र और राजनीतिज्ञ अपना परम कर्तव्य समझता है। राजनीतिक कोश में मानो झूठ बोलना पाप में गिना नहीं जाता। हमारे धर्म और समाज का सत्यभाषण पर इतना जोर व्यर्थ है, जब दूसरी ओर वही व्यक्तियों को झूठ बोलने के लिए मजबूर करता है। स्कूल में एक लड़का दवात तोड़ देता है। यदि वह तोड़ना स्वीकार करता है, तो उसे दण्ड और भर्त्सना सहने के लिए मजबूर होना पड़ता है और झूठ बोल देता है तो साफ छूट जाता है। मारपीट और दूसरे अपराधों में भी झूठ बोलने वाले ही नफे में रहते हैं, फिर कौन सत्य बोलकर दण्ड भोगने के लिए तैयार होना चाहेगा? ईमानदारी से काम करके आजकल पेट भर खाना मिलना मुश्किल है। सच बोलकर लोगों की मैत्री प्राप्त करना असम्भव है। इसलिए तो आदमी झूठ बोलने पर उतारू होता है। आजकल की बड़ी-बड़ी सम्पत्तियाँ, बड़े-बड़े पद, ऊँचे-ऊँचे सम्मान झूठ बोलने की निपुणता के लिए पारितोषिक हैं; कहने के सदाचार और हैं, करने के और। जब तक सारे समाज के सम्बन्ध में यह बात है, एक अकिंचन व्यक्ति अपने को कैसे उससे बचा सकता है? कितनी ही जंगली जातियाँ हैं जो पूँजीवादी सभ्यता और संस्कृति में इससे नीची समझी जाती हैं, लेकिन उनमें झूठ बहुत कम देखा जाता है। इसका मतलब है कि यह सभ्यता और संस्कृति उन्नत होकर हमारे समाज को सत्य के सम्बन्ध में और नीचे ले जाती है। हमारे समाज ने ढोंग, आत्मवंचना को जितना ही अधिक आश्रय दिया है, उतना ही हर एक व्यक्ति अपने विचारों को स्वतन्त्रतापूर्वक प्रकट करने में असमर्थ है, समाज का हर एक व्यक्ति अपने लिए तो नहीं चाहता, लेकिन दूसरे को जैसे हो तैसे धोखा देकर अपना काम बनाना चाहता है। किसी का किसी के ऊपर पूरी तरह से विश्वास नहीं, इसका परिणाम हो रहा है – स्त्री पुरुष को वंचित करना चाहती है और पुरुष स्त्री को; पिता पुत्र को धोखा देना चाहता है और पुत्र पिता को। आखिर इस प्रकार की वंचना, अराजकता का जिम्मेवार कौन है?  हमारा समाज।

चोरी-रिश्वत

पुराने जमाने में चोरी के लिए लोगों का हाथ काट दिया जाता था, जान ले ली जाती थी। आजकल सजाएँ कुछ हल्की हैं, लेकिन तब भी समाज की दृष्टि में चोरी भारी पाप समझी जाती है। उसके लिए सख्त कानून और जबरदस्त जेलखाने बने हैं। सरकार लाखों रुपया पुलिस पर खर्च करती है। बड़ी-बड़ी तनख्वाहें पाने वाले जज और मैजिस्ट्रेट इसके लिए नियुक्त किये गये हैं। लेकिन क्या इससे यथेष्ट रोकथाम है? जिन लोगों को चोरी बन्द करने का काम मिला है, यदि वे खुद वही काम करते हों, तो उनके किये चोरी कैसे बन्द होगी? पुलिस चोरों को पकड़ने और चोरी रोकने के लिए अपने को जिम्मेवार समझती है, लेकिन चौकीदार और कान्सटेबल ही नहीं, थानेदार, इन्सपेक्टर और ऊपर के अफसर तक हाथ गरम कर देने पर तरह दे देते हैं। सभी लोग जानते हैं कि सौ में नब्बे थानेदार रिश्वत लेते हैं, देहात में किससे यह बात छिपी हुई है? पुलिस कुछ चोरों को पकड़-पकड़कर जेल में भेजती जरूर है, लेकिन क्या कभी किसी ने यह हिसाब लगाया है कि कितने असली अपराधियों को उसने रुपया लेकर छोड़ दिया? जनता की सरकार के कायम होने पर भी हम पुलिस के इस रवैये में कोई फर्क नहीं देखते। जब तक इस तरह रिश्वत का बाजार गर्म है, तब तक चोरी कैसे रुक सकती है? खयाल करने की बात है कि जिन लोगों को अपने परिवार की परवरिश के लिए काफी रुपया हर महीने मिल जाता है, यदि वे अवैध आमदनी से हाथ हटाना नहीं चाहते तो भूख की पीड़ा से पीड़ित होकर चोरी करने वाले अपने को कैसे रोक सकेंगे?

जेलों में अपराधी चालचलन सुधारने के लिए भेजे जाते हैं। किसी समय दण्ड का अभिप्राय यन्त्रणा से अपराधी को भयभीत करना था, लेकिन आज की सभ्यता की दुनिया सजा और जेल को सुधार करने का मौका देना समझती है। इन जेलों की क्या हालत है? कैदी जाकर वहाँ देखता है कि छोटे सिपाही से लेकर सुपरिण्टेण्डेण्ट तक कैदियों के भाग में से कुछ न कुछ जरूर अपने इस्तेमाल में लाते हैं। तीन मन चावल में आधा मन निकाल लिया जाता है। आटे में चोकर और मिट्टी भी डाल दी जाती है। अच्छी तरकारियाँ अफसरों की डालियों के लिए सुरक्षित रक्खी जाती हैं और मामूली तरकारी में से भी अच्छा भाग दूसरे ले जाते हैं और कैदियों के हिस्से में सिर्फ घास और पत्ता पड़ता है। तेल, दूध, घी, गुड़ – सभी खाद्य वस्तुओं में इस तरह की लूट है। सिगरेट और तम्बाकू को वर्जित कर सरकार कैदियों को संयम का पाठ पढ़ाना चाहती है, लेकिन उसका परिणाम सिर्फ इतना ही है कि पैसे वाले कैदियों को ये चीजें कुछ महँगी पड़ती हैं। वस्तुतः जिस कैदी के पास रिश्वत देने के लिए पैसा है, उनके लिए जेल में सब तरह का प्रबन्ध हो जाता है। इस तरह के वातावरण में खाक सुधार होगा?

तुम्हारे न्याय की क्षय

हमेशा से न्याय करने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। समाज और उसके नेता धनिकों की तरफ से गरीबों पर कितना अन्याय होता है, इसके बारे में हम कह आये हैं! दुनिया की सरकारें कितना न्याय कर रही हैं, इसे जरा देखना है। आजकल की सरकारें न्यायालय और कानून बनाने पर बहुत ध्यान देती हैं और कहा जाता है कि यह सब इसीलिए कि जिसमें सबको न्याय पाने में सुभीता हो। लेकिन क्या गरीबों को न्याय पाने का सुभीता है? जिस वक्त न्यायालय नहीं थे, सिर्फ पंचायतें थीं; जिस वक्त कानून नहीं थे, सिर्फ व्यवहार-बुद्धि निर्णायक थी, जिस समय वकील नहीं थे, हर आदमी अपना वकील था – उस वक्त गरीब के लिए न्याय पाना अधिक आसान था! कानून न्याय समझने में आसानी नहीं पैदा करते, बल्कि भारी भ्रम पैदा करने का काम देते हैं; उनके कारण स्पष्ट बात भी अस्पष्ट हो जाती है। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि कानून अवलम्बित है व्यवहार-बुद्धि – कामन सेन्स – पर। किन्तु आजकल तो उसका काम व्यवहार-बुद्धि को निकम्मा बना देने का है। सूक्ष्म प्रतिभाएँ जो समाज के हित के काम को कर सकती थीं, आज बाल की खाल उतारती कानून के अर्थ का अनर्थ करने में तत्पर हैं। झूठे मुकदमे को सच्चा और सच्चे को झूठा करने में ही अच्छे वकील की तारीफ है। आये दिन, दिन-दहाड़े हम सफेद को काला और काले को सफेद होते देखते हैं।

कानून और न्यायालय धनी के विरुद्ध गरीब को न्याय देने में कितने असमर्थ हैं, इसके लिए दूर के दृष्टान्त की जरूरत नहीं। भारत के हर एक गाँव में इसके अनेक उदाहरण मिलेंगे। मामूली अपराध की तो बात ही क्या, खून तक पचा लिए जाते हैं। जमींदार या धनी के इशारे पर आदमी मारा गया। धनी आदमी ने रुपयों का तोड़ा खोलकर डाक्टर के सामने रख दिया। डाक्टर समझता है, दस बरस में जो कमायेंगे, वह सामने रखा है, घर आयी लक्ष्मी को ठुकराना नहीं। लिख देता है – दिल कमजोर था, चोट साधारण थी, आदि, और, मामला दूसरे से दूसरा हो जाता है। बहुत बार तो लाश को ले जाकर तुरन्त जला दिया जाता है और फिर भय और प्रलोभन से गवाहियाँ अपने पक्ष में बना ली जाती हैं। अक्सर गरीब आदमी अदालत तक नहीं जाते। अगर धनियों द्वारा किए गये तीन खून किसी थानेदार को मिल जायें तो उसका भाग्य ही खुल जाये। वह इतना रुपया जमा कर ले कि उसकी नौकरी चली भी जाये तो भी वह जिन्दगी भर चैन की बंशी बजाता रहेगा।

बिहार के एक बड़े जमींदार की बात है। उन्हें लाखों की आय है जिसे एक जाली बिल के जरिये उनके बाप ने उनके लिए प्राप्त किया। उस वक्त वे बिल्कुल तरुण थे। एक स्वजातीय गरीब लड़का उनके पास रहा करता था। एक दिन किसी बात से नाराज तरुण जमींदार ने उस लड़के पर पिस्तौल दाग दी। लड़का वहीं ढेर हो गया। लाश फुँकवा दी गयी और थाने के दारोगा को बुलाकर एक भारी रकम उनके सामने पेश की गयी। उस रुपये की राशि को देखकर थानेदार की आँखें चमक उठीं। पीछे वही थानेदार असहयोग में नौकरी से इस्तीफा दे राष्ट्रीय युद्ध में शामिल हो गये थे। बहुत वर्षों तक हम दोनों साथ काम करते थे। वह बतलाते थे कि कैसे रात को उन्होंने मृत लड़के के बाप के गाँव में जाकर वहाँ उसके सम्बन्धियों को पट्टी पढ़ायी। किस प्रकार ऊपर और नीचे के अफसरों में रुपये बाँटकर कानून और न्याय को अँगूठा दिखाया। खून हुआ है, इसकी खबर तक अदालत में नहीं पहुँचने पायी। जिस तरुण ने अपने साथ खेलने वाले लड़के को इस तरह पिस्तौल का निशाना बनाया, वह साधारण अपराधी दिमाग का व्यक्ति नहीं हो सकता है। यदि वह गरीब घर में पैदा हुआ होता, तो खून के कारण फाँसी पड़ने से यदि वह बच भी जाता, तो उसका स्थायी निवास प्रान्त के बड़े-बड़े जेलखानों में जन्मजात अपराधियों में तो जरूर होता, लेकिन आज वह व्यक्ति प्रान्त के बड़े प्रभावशाली धनिक अगुवों में है।

एक-दूसरे धनी जमींदार की बात है। वह अपने रोब-दाब के लिए पास-पड़ोस के बहुत से गाँवों में मशहूर थे। कहने को तो हिन्दुस्तान में अंग्रेजों का राज है, लेकिन जहाँ तक उनकी जमींदारी का सम्बन्ध था, अंग्रेजी शासन का नम्बर उनके बाद आता था। मामूली मारपीट ही नहीं, बड़े-बड़े मुकदमों तक का फैसला वे जुर्माने लेकर कर दिया करते थे और किसकी शामत आती कि उनके फैसले के खिलाफ थाने तक भी जाने की हिम्मत करता। उनके गाँव में एक आदमी ने एक मैना पाला था। मैना आदमी की बात बोलता था। इसकी खबर जमींदार साहब को लगी। झट मैना माँग लाने को आदमी भेजा गया। गरीब ने दुनिया के अनुभव से बहुत शिक्षा नहीं ली थी। अपने प्रिय पालतू पशु-पक्षी में आदमी का पुत्रवत स्नेह हो जाता है। उसी स्नेह से अन्धा होकर उसने मैना को देना नहीं चाहा। यह खबर जब जमींदार को मिली तो वह आग बबूला हुआ। तुरन्त उसने एक पहलवान सिपाही उसे मारकर मैना छीन लाने के लिए भेजा। सचमुच गरीब को जान से खत्म कर मैना को पकड़ मँगाया गया। मुकदमा अदालत तक गया तो जरूर, लेकिन जमींदार साहब को एक दिन की हवालात तक की हवा खाने की नौबत न आयी।

मगह प्रान्त – पटना-गया जिलों – के जमींदार अपने अत्याचार के लिए सारे बिहार में प्रसिद्ध हैं। वहाँ के एक जमींदार का संकल्प था कि जहाँ तक हो सके, उनकी जमींदारी में किसी किसान के नाम काश्तकारी न लगने पाये। वह अपने हर गाँव में झूठे मुकदमे चला, मारपीट और दूसरे जरियों से लोगों को तंग करके उन्हें काश्तकारी से इस्तीफा देने को मजबूर करते थे। उनके एक गाँव – जिसका नाम अब दूर तक प्रसिद्ध हो गया है – के प्रायः सभी किसान काश्तकारी से हाथ धोकर जमींदार के शिकमी रैयत बन चुके थे। उस गाँव में एक किसान का घर था जिसके पास खाने-पीने के लिए काफी खेत और धन था और परिवार में कई काम करने वाले जवान व्यक्ति भी थे। जमींदार को इस परिवार को परास्त करने में कई बार मुँह की खानी पडी़। इस पर उसने प्रतिज्ञा की कि उस परिवार को तबाह करके उसके घर पर रेंड़ न बोआएँ तो नाम नहीं। अबकी बार किसी दूसरे गाँव से एक मरणासन्न आदमी लाकर उस गाँव में मरवाया गया और उस परिवार के व्यक्तियों पर खून का मुकदमा चलाया गया। डाक्टर ने रिपोर्ट दी कि जान-बूझकर सही-सलामत आदमी का खून किया गया है। पुलिस ने “प्रत्यक्षदर्शी” गवाहों के बयान लिये। घर के सभी सयाने पुरुष जेल में बन्द कर दिये गये। मुकदमा लड़ने में घर की सम्पत्ति स्वाहा हो गयी। आदमियों को लम्बी-लम्बी कैद की सजाएँ हुईं। घर में सिर्फ स्त्रियाँ रह गयी थीं और उनमें से भी अधिकांश भूख और बीमारी के कारण कुछ ही वर्षों में चल बसीं। मकान मरम्मत के बिना गिर पड़ा और उसके ऊपर बोये रेंड़ को कुछ साल बाद मैंने खुद अपनी आँखों देखा।

यह है आज के कानून की करामात और आज के न्याय का नमूना।

न्याय सस्ता और सुलभ नहीं है, बल्कि जबर्दस्त शत्रु के मुकाबिले में वह दुनिया की सबसे महँगी चीज है। वह इतनी खर्चीली चीज है कि धनी आदमी हारते-हारते भी गरीब को उजाड़ देता है। बिना स्टाम्प का पैसा दिये तो गरीब अदालत में दर्खास्त भी नहीं दे सकता। और, फिर, स्टाम्प ही तो काफी नहीं है? वहाँ चाहिए वकील और मुख्तार को फीस, पेशकार और सरिस्तेदार को नजराना, अर्दली और चपरासी को भेंट। जबर्दस्त प्रतिद्वन्द्वी बड़े-बड़े वकीलों को बड़ी-बड़ी फीस देकर रख लेता है। यदि तुमने किसी टुटपुँजिया वकील को खड़ा किया तो बने मुकदमे के भी बिगड़ जाने की सम्भावना हो जाती है। घर, जमीन बेचो, जेवर बन्धक रक्खो, जैसे भी हो रुपया खर्च कर मुकदमे की पैरवी करो। अगर मुकदमा दीवानी में है और एक ही है तो फौजदारी मुकदमों की तो संख्या निर्धारित नहीं की जा सकती। मार-पीट, चराई आदि के कई मुकदमे साथ ही साथ फौजदारी अदालत में भी चल रहे हैं। मुन्सिफ के यहाँ से यदि फैसला पक्ष में हुआ तो सब-जज के यहाँ अपील हुई। वहाँ से भी यदि किस्मत ने मदद की तो हाईकोर्ट और इसके बाद प्रीवी कौंसिल। फौजदारी मुकदमे अलग चल रहे हैं। यदि हर इजलास में खर्च करने के लिए तुम्हारे पास रुपया नहीं है तो तुम्हारी जीत भी हार में बदल जाती है।

यह तो हुआ तब जबकि हाकिम लोग ईमानदार हों, लेकिन आजकल के हाकिमों में कितने हैं जो जल्द से जल्द धनी बनना पसन्द नहीं करते? जिसे ढाई सौ माहवार तनख्वाह मिलती है, वह भी चाहता है पास में मोटर रखना, वह भी चाहता है कि वह और उसकी स्त्री शाहाना ठाठ में रहे, उसके लड़के-लड़कियाँ शाहजादों-शाहजादियों के कान काटें; उसके महल में राजमहल का समाँ दिखायी पड़े, उत्सव और त्यौहारों में वह शाहखर्ची का जबर्दस्त सबूत दे सके; बच्चों के पढ़ाने-लिखाने में खर्चीले से खर्चीले स्कूल और कालेजों की तलाश करे; ब्याह-शादी में बडे़-बड़े तिलक-दहेज दे और दोनों हाथों अशर्फियाँ लुटाये; उसकी पार्टी में बड़े से बड़े हाकिम और रईस शामिल हों जिनके लिए देशी और विलायती सब तरह के सुन्दर से सुन्दर भोजन परोसे जायें। आजकल के हमारे हाकिमों की जब ये हार्दिक लालसाएँ हैं, तो रुपये की चमचमाहट उन्हें क्यों न अपनी ओर आकर्षित करेगी? अगर किसी को रिश्वत लेने में संकोच होता है तो या तो इसलिए कि वह कम है अथवा भेद छिपा लेने में कठिनाई होगी। अनौचित्य के खयाल से रिश्वत से बाज आने वाले लोग बहुत मुश्किल से मिलते हैं। जिलों के छोटे-मोटे अधिकारियों की तो बात ही छोड़ दीजिये। हाईकोर्ट के जज तक रिश्वत लेते पाये गये हैं और इसे मुकदमा लड़ने वाली जनता खूब जानती है। छोटे और बड़े लाटों तक को घुड़दौड़ के घोड़े, कीमती हार तथा दूसरी बड़ी-बड़ी भेंटों को देकर अपना काम बनाया गया है। एक रियासत के खिलाफ कई जबर्दस्त प्रमाण जमा हो गये थे। रिकार्ड के अधिकारी को इकट्ठा कुछ लाख रुपये दे दिये गये और दूसरे दिन देखा गया कि वे सारे प्रमाण गायब हैं।

राज तो आजकल है थैली का। शासन पर अनुशासन उसका है जिसके पास धन है। कानून बनाने वाले वे ही हैं जिनके पास तोड़ें हैं। इंग्लैण्ड के थैली वाले हिन्दुस्तान के मालिक हैं। वे कभी ऐसा कानून बनने देना पसन्द नहीं करते जिससे कि उनकी थैली पर हाथ पड़ने पाये। देश और विदेश में यातायात के साधन जहाज और रेलें इसी दृष्टि से संचालित की जाती हैं। भारत की रेलों का एक अलग महकमा बना दिया है, यह खयाल करके कि कहीं भारतीय राजनीतिज्ञों का दबाव उस पर न पड़ने लगे। कानूनों की भरमार है। हर साल हमारे देश में सैकड़ों कानून बनते और सुधरते रहते हैं। लेकिन वह इसलिये नहीं कि मनुष्य ईमानदारी से कमाई अपनी सम्पत्ति का अपने आप उपभोग कर सके। इनका मतलब सिर्फ इतना ही है कि कैसे धनिकों के हित के लिए चलते इस शासन की सहायता के लिए कुछ और काबिल-दिमाग आदमी खरीदे जा सकते हैं? कैसे कुछ और चिल्लाने वाली जमातों का मुँह बन्द किया जा सकता है? काबिल दिमागों को सरकारी बड़े-बड़े पदों पर सिर्फ इसलिये नहीं नियुक्त किया जाता कि वे अपनी योग्यता से जनता को फायदा पहुँचायें, बल्कि इसलिए कि वे चिरकाल से स्थापित स्वार्थों को अक्षुण्ण बनाये रखने में सहायता करें। सभी जानते हैं कि सरकारी नौकरियों में लोग बड़ी-बड़ी तनख्वाहों और स्थायी जीविका के लिए दौड़ते हैं। यदि सरकारी धन को इन्साफ के साथ वितरण करना ही है तो उसके बड़े हकदार हैं, गरीबों की सन्तानें। लेकिन हम क्या देखते हैं? गरीबों की सन्तानों के लिए तो पहले पढ़ना ही मुश्किल है, पढ़-लिखकर योग्यता प्राप्त करने पर भी बड़ी नौकरियों के लिए अपेक्षित सिफारिशें वे जमा नहीं कर सकतीं। परिणाम यह हो रहा है कि हर तरह की बड़ी-बड़ी नौकरियों में लखपतियों-करोड़पतियों, बड़े-बड़े जमींदारों और राजा-नवाबों के लड़के भरे पड़े हैं। आई.सी.एस., आई.पी.एस., आई.एम.एस. आदि अधिकारियों की सूची को उठाकर देखिये तो मालूम होगा कि देश के धनी, जमींदारों, महाजनों और प्रभावशाली राजनीतिज्ञों के लड़के ही हैं। पिता लाखों का मालिक है, एक रियासत का बड़ा मन्त्री है और लड़का सरकार के एक विभाग का सेक्रेटरी। अखिल भारतीय सरकारी अफसरों में ही नहीं, प्रान्तीय बड़ी-बड़ी नौकरियों में भी उन्हीं को जगह मिली है जिनमें अधिकांश के पास जीविका के अन्यत्र स्वतन्त्र साधन हैं। जब सरकार के चलाने वाले ये बड़े-बड़े कर्मचारी धनिक श्रेणी से आये हैं तो धनी गरीब के मामले में वे अपनी श्रेणी के स्वार्थ के विरुद्ध काम करेंगे, यह कब सम्भव हो सकता है? अंग्रेज-अधिकारियों के बारे में पिछले डेढ़ सौ बरसों का तजरबा हमें बताता है कि जहाँ काले गोरे का सवाल होता है, वहाँ वे न्याय को ताक पर रख देते हैं। कितने ही निरपराध भारतीय अंग्रेजों की ठोकरों और गोलियों के शिकार हुए हैं, लेकिन कितने मुकदमों में खूनी को फाँसी की सजा हुई है? साहेब की ठोकर से मरे आदमी की तिल्ली, डाक्टरी जाँच से, बढ़ी पायी गयी। यही न्याय का अभिनय हम धनी और गरीब के मामले में न्यायाधीश के पद पर आरूढ़ धनिकों की सन्तानों द्वारा किया जाता देखते हैं। जमींदारों और किसानों, मजदूरों और मिल-मालिकों के झगड़े में जो कड़ुवा तजरबा हमें मिल रहा है, उससे मालूम हो रहा है कि उनकी सहानुभूति हमेशा धनिकों की ओर रहती है। मारपीट और बलवे की तैयारी सबसे जबर्दस्त जमींदारों की ओर से होती है। अपनी जीविका के छिन जाने के भय से किसान शान्तिमय तरीके से उसका विरोध करते हैं। लेकिन सभी जगह देखा जाता है कि पुलिस और मजिस्ट्रेट किसान को ही अपराधी ठहराते हैं और उन्हीं के ऊपर दफा  107 या दफा 144 की कार्रवाई की जाती है आँखों से साफ देखा जाता है कि जमींदार ने बलवा करने में कोई कसर उठा नहीं रखी तो भी उसके एक आदमी को भी कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ती।

एक जगह का हमें ताजा तजरबा हैं जमींदारों ने पीढ़ियों से जोतते आते किसानों से उनके खेत को छीनना चाहा। किसान सोचने लगे कि यदि खेत निकल जायेंगे तो बाल-बच्चे जियेंगे कैसे? उन्होंने मार खाकर भी खेत छोड़ना नहीं चाहा। जमींदार ने थाने में रिपोर्ट लिखवायी। किसान की रिपोर्ट को थानेदार लिखना नहीं चाहते थे। थानेदार ने जमींदार के पक्ष में होकर कुछ किसानों पर शान्तिभंग का आरोप करके मजिस्ट्रेट को लिख दिया। फौजदारी अदालत को अपना फैसला कब्जे को देखकर देना चाहिए। मजिस्ट्रेट को जमींदार की बातों से सच्चाई का पता लग गया। किसान चिल्लाते ही रह गये कि चलकर देख लिया जाये, खेत पर कब्जा हमारा है। दो सौ-चार सौ बीघे जोतनेवाला आदमी चौथाई और पचइयाँ एकड़ में अलग-अलग फसल नहीं बोयेगा। लेकिन मजिस्ट्रेट को वहाँ जाने की जरूरत नहीं मालूम पड़ी, उसने झट उन पर दफा 144 लगा दिया। ऊपर के अफसर ने भी बार-बार प्रार्थना करने पर भी, खेत को देखना पसन्द न किया और मजिस्ट्रेट के फैसले को बहाल रखा। सब तरफ से न्याय का रास्ता बन्द देखकर किसानों ने शान्तिमय सत्याग्रह की शरण ली। दिन मुकर्रर हुआ। पुलिस और हाकिमों को मालूम था कि जमींदार की तरफ से मारपीट की जबर्दस्त तैयारी हो रही है। वे यह भी जानते थे कि किसान हर हालत में शान्त रहना चाहते हैं। उनको यह भी मालूम हो चुका था कि जमींदार के हाथी इस युद्ध में खास तौर से भाग लेने के लिए तैयार किये जा रहे हैं। निश्चित दिन पर हाथियों के साथ कई सौ आदमी लाठी-गँड़ासे लिये एकत्र हुए। किसानों की ओर सिर्फ थोड़े-से निहत्थे सत्याग्रही। जनता को खास तौर से बहुत संख्या में न आने के लिए कहा गया था। किसान सिर्फ ग्यारह खेतों की तरफ बढ़ते हैं। हाथियों और लट्ठधारी जवानों को लेकर जमींदार सत्याग्रहियों पर हमला करने के लिए खेत पर पहुँचता है। पुलिस की अधिक संख्या का वहाँ पता नहीं। गिरफ्तारी के बाद जब सत्याग्रही पुलिस की हिरासत में थे, तब जमींदार के आदमी ने एक सत्याग्रही पर लाठी-प्रहार किया। सिर से खून की धार बहने लगती है। प्रहार करने वाला आदमी उस वक्त गिरफ्तार कर लिया जाता है, लेकिन थोड़ी देर बाद सरकारी अधिकारी उसे छोड़ देते हैं। अन्धा भी देखकर कह सकता था कि मारपीट की सारी तैयारी जमींदार की ओर से हुई थी। लेकिन उसके एक भी आदमी को न तो पकड़ा जाता है और न उसे वैसा करने से रोका जाता है। उसके लठैत सरकार की ओर से कानून को अपने हाथ में ले लेने के लिए आजाद छोड़ दिये गये थे।

एक-दूसरे जमींदार का किस्सा है जो बतलाता है कि धनिकों के सामने न्याय और कानून की कितनी दुर्गति होती है। वे नहीं चाहते थे कि किसानों को अपने खेत में काश्तकारी का हक मिले। बहुत दिनों से किसान खेत जोतते आ रहे थे। सर्वे में लाख कोशिश करने पर भी काश्तकारी लग ही गयी। जमींदार ने मामले-मुकदमे और जोर-जुल्म की तैयारी की। किसान जानते थे कि इतने जबर्दस्त जमींदार से लड़ने में उजड़ जायेंगे, इसलिए अधिकांश ने जा-जाकर अपने इस्तीफे की रजिस्टरी कर दी। मैंने पुलिन्दे के पुलिन्दे उन रजिस्टरी-शुदा इस्तीफों को देखा है और देखते वक्त मैं सोच रहा था कि इन गरीबों के लिए न्याय क्या माने रखता है? यदि जरा भी न्याय पाने का उन्हें भरोसा होता तो अपनी और अपनी सन्तानों की जीविका के साधन इन खेतों से वे इस्तीफा क्यों देते?

जुए को कानून के खिलाफ समझा जाता है। लेकिन घुड़दौड़ की बाजी क्या है। चूँकि उसमें बादशाह तक के घोड़े शामिल होते हैं, इसलिए घुड़दौड़ का जुआ हलाल है। और बड़ी-बड़ी लाटरियाँ क्या जुआ नहीं हैं? छोटे-मोटे जुए तो पुलिस की संरक्षकता में अक्सर होते हैं। बड़े-बड़े जुओं के संरक्षण का भार तो राज्य के सूत्रधारों के कन्धे पर है। यही न्याय है? आश्चर्य!


 

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