चीन में मज़दूरों का बढ़ता असन्तोष

श्‍वेता

समाजवाद की खाल ओढ़े हुए चीन के पूँजीवादी शासकों की तमाम कोशिशों के बावजूद वहाँ मज़दूरों के बढ़ते आन्दोलनाें की ख़बरें अब बाहर लोगों तक पहुँचने लगी हैं।

चीन की एक संस्था ‘चाइना लेबर बुलेटिन’ के अनुसार वर्ष 2015 में चीन में मज़दूरों की करीब 2774 हड़तालें एवं विरोध प्रदर्शन हुए जो वर्ष 2014 (1379 हड़तालें) की तुलना में लगभग दो गुना और वर्ष 2011 (185 हड़तालें) की तुलना में 13 गुना बढ़ चुकी हैं। इन हड़तालों में से एक-तिहाई हड़तालें मुख्‍य रूप से मैन्‍युफेक्‍चरिंग और निर्माण क्षेत्र में मालिकों द्वारा वेतन न दिए जाने पर संगठित हुई थी। चीन के श्रम मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2015 में करीब 10 लाख 56 हज़ार औद्योगिक विवाद सामने आये। अभी इस वर्ष अकेले जनवरी माह में ही 503 हड़तालें एवं औद्योगिक विवाद सामने आ चुके हैं। ये हड़तालें मुख्‍यत: मालिकों द्वारा मज़दूरों को वेतन न दिए जाने, कारखानों में तालाबंदी और छंटनी, मालिकों द्वारा मजदूरों के लिए मौजूद श्रम कानूनों के प्रावधानों को लागू न करने के खिलाफ़ संगठित हो रही है। यूं तो चीन की सरकार द्वारा वर्ष 1995 में श्रम कानूनों में संशोधन करके वेतन प्राप्‍त करने का अधिकार, काम के दौरान आराम और अत्‍याधिक ओवरटाइम न कराए जाने के प्रावधान शामिल किये गये थे, पर जैसा कि हम सभी जानते है कि ये कानून महज़ कागज़ों की शोभा बढ़ाने और मेहनतकशों को भ्रमित करके उनकी आँखों में धूल झोंकने के लिए बनाए जाते है।

चीन में अप्रैल माह में एक फैक्ट्री के बाहर जुटे हड़ताली मज़दूर और पुलिस बल

चीन में अप्रैल माह में एक फैक्ट्री के बाहर जुटे हड़ताली मज़दूर और पुलिस बल

ग़ौरतलब है कि चीन के सबसे बड़े मैन्‍युफेक्‍चरिंग क्षेत्र ग्वाङडोंग में ही अकेले वर्ष 2015 के पहले ग्यारह माहों में बेहतर वेतन, पिछले बकाया वेतन और सामाजिक सुरक्षा, यूनियन गठित करने आदि माँगों को लेकर 300 से अधिक हड़तालें हुई थी। इसके अलावा ये हड़तालें जियाङसु, शाङडांग, हेनान प्रांत आदि में भी हुई। यहाँ यह भी बताते चले कि वर्ष 2010 में गवाङडोंग प्रांत में  स्थित फॉक्सकान कम्‍पनी में एक मज़दूर की आत्महत्या के बाद मज़़दूरों की हड़ताल शुरू हुई जो जल्द ही होंडा और टोयोटा जैसी कम्पनियों के मज़दूरों  तक फैल गयी। चीन में मज़दूरों के बीच मौजूदा हालातों के प्रति व्याप्‍त आक्रोश का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी जनवरी माह में निङजि़या प्रांत में एक मज़दूर ने एक निर्माण कम्‍पनी के ठेकेदार द्वारा वेतन न दिए जाने पर एक बस में आग लगा दी।

आज चीन में मज़दूरों के इन हालातों के लिए मुख्यत: पूँजीवाद की विश्‍वव्यापी मंदी जि़म्मेदार है जिसने मालों की माँग और खपत में भारी गिरावट पैदा कर दी है। परिणामस्वरूप पूँजीपतियों ने औद्योगिक उत्पादन में भारी कमी करना शुरू कर दिया है जिसका ख़ामियाज़ा वैश्विक पैमाने पर मेहतनकशों को अपना रोज़गार गँवाकर भुगतना पड़ रहा है। चीन भी इस परिघटना से अछूता नहीं है। ग़ौर करने लायक तथ्‍य यह भी है कि आने वाले समय में चीन में ये हालात और अधिक बिगड़ने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। चीन की सरकार की नीतियों के अनुसार आने वाले दिनों में चीन में कोयले और स्‍टील के 20 लाख मज़दूरों की छंटनी की जायेगी। यहाँ यह भी बताते चले कि यह छंटनी मुख्‍यत: सरकारी उपक्रमों के लिए प्रस्‍तावित है। वैसे वर्ष 2013 से लेकर अब तक कोयला क्षेत्र में पहले ही 8 लाख 90 हज़ार मज़दूरों की छंटनी की जा चुकी है। इसके अलावा मज़दूरों की छंटनी सीमेंट, ग्‍लास और पोत-निर्माण के क्षेत्रों में भी किये जाने का प्रस्‍ताव है।

चीन में मज़दूर अपने इन हालातों के खि़लाफ़ निरंतर संघर्षरत है और अपनी माँगों को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं। यहाँ यह भी जानना दिलचस्‍प होगा कि चीन में केवल सरकारी नियंत्रण के तहत काम करने वाली ‘ऑल चाइना फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन्स’ को ही सरकार द्वारा कानूनी मान्यता हासिल है। पूँजीपतियों की खि़दमत में लगी यह ट्रेड यूनियन किसी भी रूप में मज़दूरों के हितों का प्रतिनिधत्व नहीं करती और यही कारण है कि मज़दूरों को  इस ट्रेड यूनियन पर राई-रत्ती भी भरोसा नहीं है। चीन की सरकार ने मज़दूरों के स्वतंत्र यूनियन बनाने के किसी भी प्रयास पर रोक लगा रखी है। मज़दूरों को अपनी पहलकदमी पर संगठित करने वाले मज़दूर कार्यकर्ताओं के प्रति सरकार का रुख़ इसी बात से समझा जा सकता उन्‍हें पुलिस द्वारा प्रताडि़त किया जाता है, गि़रफ्तार किया जाता है, उनके खि़लाफ़ व्यक्तिगत कुत्सा प्रचार भी किया जाता है जिसमें चीन की मीडिया बढ़-चढ़कर भूमिका निभाती है। कुछ मामलों में तो कार्यकर्ताओं को राष्ट्रीय मीडिया पर मज़दूरों को संगठित करने के अपने प्रयासों के लिए माफी तक माँगने को बाध्य किया जाता है।

चीन में मज़दूरों की बढ़ती वर्ग चेतना और उसके परिणामस्वरूप तीखे होते वर्ग संघर्ष से चीन की सरकार कितनी ख़ौफ़ज़दा है इसे इस बात से समझा जा सकता है कि चीन की सरकार का नेतृत्व करने वाली तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टी ने हाल ही में ‘सौहार्दपूर्ण श्रम संबंधों का संविधान’ नामक नीतिगत दस्तावेज़ प्रस्तुत किया है ताकि मज़दूरों के बढ़ते आक्रोश पर पानी की कुछ छींटे डालकर उसे शांत किया जा सके। यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि चीन की नामधारी कम्युनिस्ट पार्टी का मज़दूरों के हितों से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। वर्ष 1976 में माओ की मृत्यु के बाद हुए पूँजीवादी पुर्नस्थापना के बाद से ही इस पार्टी ने पहले छिपे रूप में और बाद में खुले तौर पर पूँजीवाद की राह पकड़ ली और पूँजीपतियों की खि़दमत में लगकर उनकी पार्टी बन कर रह गयी। बहरहाल मज़दूरों के प्रति अपने रवैये से यह नामधारी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी खुद को रोज़-बरोज़ नंगा कर रही है और साथ ही साथ मज़दूरों के आक्रोश का भी केंद्र बन रही है। चीन में मज़दूरों के बढ़ते आक्रोश की लपटें इस बात का सबूत है कि मज़दूर वर्ग पूँजीवाद द्वारा उस पर बरपाये कहर को चुपचाप नहीं सहेगा, उसके खि़लाफ़ लगातार संघर्ष करता रहेगा। हालाँकि यह बात भी उतनी ही सच है कि मज़दूरों के ऐसे तमाम स्वत: स्‍फूर्त विद्रोह अपने आप क्रांति में परिवर्तित नहीं होंगे, यह तो क्रांतिकारी विचारधारा और क्रांतिकारी पार्टी के तहत मज़दूर वर्ग के संगठित होने पर ही संभव है।

मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2016


 

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