शाहाबाद डेयरी के मज़दूरों की ज़िन्दगी के नारकीय हालात

बिगुल संवाददाता

”प्रत्येक बड़े शहर में एक या एक से ज़्यादा मलिन बस्तियाँ होती हैं, जहाँ मज़दूर वर्ग ठुँसा हुआ ज़िन्दगी बिताता है। यह सच है कि ग़रीबी अक़सर अमीरों के महलों की आस-पास की नज़र न आने वाली गलियों में बसती है, लेकिन, आमतौर पर इसके लिए ख़ुशहाल वर्गों की नज़रों से दूर एक अलग जगह दे दी गयी है, जहाँ यह संघर्ष में उलझी रह सके। ये मलिन बस्तियाँ इंग्लैण्ड के प्रत्येक बड़े शहर में लगभग एक ही तरह से व्यवस्थित हैं – शहर के सबसे घटिया हिस्सों में बने सबसे घटिया मकान; अक़सर लम्बी क़तारों में बनी एक या दुमंजि़ली झुग्गियाँ, शायद तहख़ानों को भी रहने के लिए इस्तेमाल में लाते हुए, हमेशा बेतरतीब ढंग से बनी हुईं। दो या तीन कमरों और एक रसोई के ये मकान, लन्दन के कुछ हिस्सों को छोड़कर, पूरे इंग्लैण्ड में मज़दूर वर्ग की सामान्य रिहायश हैं। गलियाँ अक़सर कच्ची, ऊबड़-खाबड़, गन्दी और कचरे से भरी रहती है, जहाँ सीवर या गटर तो नहीं होता है लेकिन सड़ान्ध मारते रुके हुए पानी के गड्ढों की कोई कमी नहीं होती है। इसके अलावा, साफ़ हवा की आवाजाही में पूरे इलाक़े के घटिया और बेतरतीब निर्माण की वजह से रुकावट आती है, और चूँकि एक बेहद छोटे हिस्से में बहुत से इंसान ठुँसे हुए रहते हैं, यहाँ पाये जाने वाले वातावरण की कल्पना आसानी से की जा सकती है। और, अच्छे मौसम में गलियों का इस्तेमाल सुखाने वाली जगह के तौर पर होता है जहाँ गीले कपड़ों से लदे तार एक घर से दूसरे घर तक लटकते रहते हैं।”

ऊपर की पंक्तियों में अगर इंग्लैण्ड का ज़िक्र न हो तो दिल्ली की शाहाबाद डेयरी में एक बार भी जाने वाला व्यक्ति आसानी से यह मान सकता है कि यह विवरण यहीं का है। लेकिन यह उद्धरण मज़दूरों के महान शिक्षक और नेता फ़्रेडरिक एंगेल्स की प्रसिद्ध पुस्तक ‘इंग्लैण्ड में मज़दूर वर्ग की दशा’ से लिया गया है। यह पुस्तक एंगेल्स ने आज से लगभग 175 साल पहले इंग्लैण्ड के मज़दूरों के हालात के बारे में लिखी थी। पूँजीवाद के उदय के साथ ही पैदा हुए मज़दूर वर्ग की ज़िन्दगी के हालात सभी देशों में लगभग एक जैसे ही दयनीय रहे हैं, सिर्फ़ वक़्त का फ़र्क़ हो सकता है। भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देश में मज़दूर वर्ग की जि़न्दगी के हालात और भी बदतर है।

शाहाबाद डेयरी दिल्ली के बाहरी इलाक़े में स्थित एक बस्ती है जहाँ बहुत बड़ी तादाद में मज़दूर आबादी रहती है। यहाँ के मज़दूर आस-पास के औद्योगिक इलाक़ों जैसे शाहाबाद डेयरी, बवाना, नरेला, बादली, जहाँगीर पुरी आदि में काम करते हैं। बस्ती की महिलाएँ कारखानों में काम करने के अलावा आस-पास की मध्यवर्गीय कॉलोनियों में घरेलू कामगार के रूप में काम करती हैं। जैसा कि भारत की हर मज़दूर बस्ती का हाल है, शाहाबाद डेयरी में भी ज़रूरी बुनियादी सुविधाएँ नहीं के बराबर हैं। जिस आबादी की वजह से शहरों की चकाचौंध क़ायम रहती है, वह ख़ुद एक अँधेरी दुनिया में रहने के लिए मजबूर कर दी गयी है।

शाहाबाद डेयरी की सबसे ग़रीब मज़दूर आबादी बस्ती के पीछे के निचले हिस्से में रहने को मजबूर है, जहाँ बड़े-बड़े झीलनुमा गड्ढों में पानी सड़ता रहता है और जिसमें से एक नाला निकलता है। इन गड्ढों के चारों ओर तथा नाले के दोनों तरफ़ मज़दूरों ने किसी तरह जोड़-तोड़ करके अपनी झुग्गियाँ बनायी हुई हैं। बारिश में यहाँ क्या हालत होती है, इसका अन्दाज़ा इस बात से आसानी से लगाया जा सकता है कि नाले का गन्दा पानी घरों में घुस आता है, घरों से बाहर निकल2ना मुहाल हो जाता है, और तरह-तरह की बीमारियाँ फैल जाती हैं। ग़ौरतलब है कि दिल्ली में सबसे ज़्यादा डेंगू के मरीजों की संख्या वाले इलाक़ों में शाहाबाद डेरी भी है।

शाहाबाद डेरी की कुल आबादी लगभग एक लाख है, लेकिन अभी दो साल पहले तक यहाँ कोई सार्वजनिक शौचालय नहीं था जिसकी वजह से लोगों को पास के ख़ाली सुनसान मैदान में खुले में ही शौच जाना पड़ता था। महिलाओं-बच्चियों को अक़सर ना सिर्फ़ छेड़खानी का सामना करना पड़ता था बल्कि बलात्कार जैसी वीभत्स घटनाएँ यहाँ बहुत सामान्य-सी बात थी। शौचालय न होने की वजह से परेशानी का आलम यह था कि माएँ अपने बच्चों को रात में सोते वक़्त खाना या पानी तक नहीं देती थी ताकि रात में शौच जाने से बचा जा सके। नौजवान भारत सभा के नेतृत्व में जब बस्ती के मज़दूरों ने शौचालय बनवाने के लिए जुझारू संघर्ष चलाया तब जाकर सरकार ने सार्वजनिक शौचालय बनवाये, लेकिन ये भी कुल आबादी को देखते हुए नाकाफ़ी हैं।

यहाँ 12वीं कक्षा तक का सिर्फ़ एक सरकारी स्कूल था जिसे 2016 में तब बन्द कर दिया गया था जब यहाँ एक बच्चे की करण्ट लगने से मौत हो गयी थी। और अभी तक उसको दोबारा शुरू नहीं किया गया है। इस स्कूल के बच्चे तीन किलोमीटर से भी ज़्यादा दूर स्थित पुल प्रह्लादपुर के एक स्कूल में ट्रांसफ़र कर दिये गये। इसकी वजह से बहुत से बच्चों ख़ासकर लड़कियों का तो स्कूल जाना ही छूट गया। इसके अलावा यहाँ तीन प्राइमरी स्कूल हैं जिनके हाल इतने बेहाल हैं कि यहाँ एक क्लास में 70-70, 80-80 बच्चे पढ़ते हैं। न तो पानी की कोई सुविधा है और न ही टॉयलेट साफ़-सुथरे हैं। इसके चलते सभी बच्चों को और ख़ासकर छात्राओं को इस वजह से बहुत परेशानी उठानी पड़ती है।

पीने के पानी की बात करे तो हालात और भी भयावह नज़र आते हैं। यहाँ पानी की पाइपलाइन नहीं बिछायी गयी है, इसलिए पीने के पानी की सप्लाई टैंकरों के ज़रिये होती है। आबादी के हिसाब से जितने टैंकर आने चाहिए उसके आधे से भी कम आते हैं। केजरीवाल सरकार के हवाई दावों की सच्चाई यहाँ पता चलती है। केजरीवाल ने चुनाव से पहले दिल्ली की जनता से वादा किया था कि प्रत्येक घर को प्रतिदिन 700 लीटर पानी मिलेगा और जहाँ पानी की लाइन नहीं है वहाँ पाइपलाइन बिछायी जायेगी। हक़ीकत यह है कि हर घर में लोगों ने दो-तीन प्लास्टिक के 20-20 लीटर वाले जार रखे हुए हैं और पानी का टैंकर आने पर वे इन जारों में पानी भरते हैं। ग़ौरतलब है कि टैंकर द्वारा भी लोगों को पानी प्रतिदिन नहीं मुहैय्या कराया जाता है, बल्कि दो दिन में एक बार ही टैंकर आता है। इससे साफ़ है कि हर घर में प्रतिदिन सिर्फ़ 20 लीटर पीने का पानी ही सरकार के द्वारा उपलब्ध कराया जा रहा है।

इस वज़ह से आये दिन पानी को लेकर लोगों के बीच झगडे होते रहते हैं। अभी कुछ दिन पहले ही दिल्ली में वज़ीरपुर के मज़दूर इलाक़े में पानी के टैंकर से पानी पहले लेने के मुद्दे पर झगडा हो गया जिसमें एक बुजुर्ग और उसके बेटे की मौत हो गयी। आपको मध्य वर्ग के बहुत से लोग कहते मिल जायेंगे कि मज़दूर तो होते ही झगड़ालू हैं, बात-बात पर लड़ाई-झगड़ा करने को उतारू रहते हैं। लेकिन अगर वे अपने एसी घरों से बाहर आकर मज़दूरों की ज़िन्दगी के हालात का जायजा लेंगे तो उन्हें पता चल जायेगा कि कैसे यह मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था मज़दूरों को इतनी संघर्षपूर्ण ज़िन्दगी जीने को मजबूर कर देती है कि उन्हें पानी जैसी बुनियादी ज़रूरत के लिए भी लड़ना पड़ता है। लेकिन जिन लोगों के घरों में पाइपलाइन से पानी आता हो और जो उस पानी का इस्तेमाल पीने के लिए ही नहीं बल्कि अपनी गाड़ियाँ धोने और अपने पालतू कुत्तों को नहलाने के लिए भी करते हैं, उनसे इस बात की उम्मीद नहीं की जा सकती।

अन्त में, मज़दूरों की जि़न्दगी के ये भयावह हालात सिर्फ़ शाहाबाद डेयरी में नहीं हैं, बल्कि पूरे भारत में एक जैसे हैं। मुनाफ़े पर टिकी इस आदमखोर पूँजीवादी व्यवस्था में इसके अलावा और कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। 

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2018


 

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