असम के 40 लाख से अधिक लोगों से भारतीय नागरिकता छिनी
हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकतावादियों, क्षेत्रवादियों, नस्लवादियों, अन्ध-राष्ट्रवादियों की साजि़शों का शिकार हुए बेगुनाह लोग

भारतीय राज्य ने असम के 40 लाख से अधिक लोगों से भारतीय नागरिकता छीन ली है। वे अब क़ानूनी तौर पर किसी देश के नागरिक नहीं रहे! गुज़री 31 जुलाई (2018) को असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (रा.ना.र.) यानी एनआरसी का अन्तिम मसविदा जारी किया गया है। इसमें दर्ज होने के लिए 3.29 करोड़ निवेदन दिये गये थे। उनमें से सिर्फ़ 2.89 करोड़ निवेदन ही माने गये हैं। जिन निवेदनों को नहीं माना गया, उन चालीस लाख से अधिक लोगों में बहुसंख्या मुसलमानों की है, जबकि हिन्दू भी इस सूची में काफ़ी संख्या में शामिल हैं। भारतीय राज्य के मुताबिक़ ये लोग ”विदेशी” हैं। दशकों ही नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से भारत में रहते आये परिवारों के ये लोग भारतीय पूँजीवादी राजनीति की घिनौनी साजि़शों के चलते पराये बना दिये गये हैं। ये लोग हिन्दुत्ववादी धार्मिक कट्टरपन्थ, अन्ध-राष्ट्रवाद, क्षेत्रवाद, नस्लवाद की चक्की में पिस रहे हैं।

सबसे अधिक, रा.ना.र. बंगाली मुसलमानों के खि़लाफ़ है और यह आरएसएस/भाजपा की सभी मुसलमानों के खि़लाफ़ चलायी जा रही साम्प्रदायिक नफ़रत फैलाने की मुहिम का हिस्सा है। अगले वर्ष के शुरू में होने जा रहे लोकसभा चुनावों से आधा वर्ष पहले रा.ना.र. का जारी किया जाना स्पष्ट रूप में इस साम्प्रदायिक मुहिम के सहारे हिन्दू वोट बैंक पक्का करने व बढ़ाने की केन्द्र सरकार पर क़ाबिज़ हिन्दुत्ववादी कट्टरपन्थी भाजपा की घिनौनी साजि़श है। कोई कह सकता है कि रा.ना.र. का काम तो सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुआ है। यहाँ यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी का अर्थ केन्द्र व राज्य सरकार का इस काम पर असर या दख़ल का न होना नहीं है। दूसरी बात, न्यायपालिका को आरएसएस/भाजपा काफ़ी हद तक अपनी मुट्ठी में कर चुकी है।

असम में बंगाली भाषाई (चाहे वे भारतीय हों या बंगलादेशी) लोगों के खि़लाफ़ क्षेत्रवादी/नस्लवादी नफ़रत लम्बे समय से फैलाई जाती रही है और इसका लाभ असम गण परिषद (एजीपी), बोडोलैण्ड पीप्लज़ फ़्रण्ट (बीपीएफ़़), भाजपा व कांग्रेस जैसी पार्टियाँ और उलफ़ा जैसे आतंकवादी संगठन लेते रहे हैं। भाजपा/आरएसएस की हमेशा से कोशिश रही है कि इस नफ़रत को मुसलमानों तक केन्द्रित कर दिया जाये। भाजपा ने सन् 2016 के असम विधानसभा चुनाव से पहले यह वादा किया था कि जितने भी ”विदेशी” हिन्दू बंगाली है, उन्हें भारतीय नागिरकता दी जायेगी, कि हिन्दुओं का भारत में हमेशा स्वागत किया जायेगा लेकिन बंगाली मुस्लिमों और अन्य विदेशी मुसलमानों को भारत से बाहर निकाला जायेगा। बंगलादेश, पाकिस्तान व अफ़ग़ानिस्तान से भारत आये हिन्दुओं को भारतीय नागरिकता देने सम्बन्धी एक बिल भी संसद में लटका हुआ है। हिन्दू बंगालियों को नागरिकता देने की वायदे करके भाजपा ने ख़ूब वोटें हासिल कीं। और असम में भाजपा, एजीपी, बीपीएफ़़ आदि पार्टियों के अवसरवादी गठबन्धन की सरकार बनी। इस अवसरवादी गठबन्धन ने हिन्दू बंगालियों को नागरिकता देने के वादों का भी फ़ायदा उठाया और उनके सहित बंगाली मुसलमानों को भारतीय न मानने और सभी बंगालियों को असम से बाहर निकालने के क्षेत्रवादी-नस्लवादी नारों का भी फ़ायदा उठाया। भाजपा के मन्त्री और अन्य नेता सरेआम प्रचार करते हैं कि हिन्दू बंगालियों को असम में रहने दिया, ताकि असम में हिन्दुओं की बड़ी बहुसंख्या बनी रहे। वे क्षेत्रवादी-नस्लवादी पार्टियों को इसके लिए मना रहे हैं कि सिर्फ़ बंगाली मुसलमानों को ही बंगलादेश भेजने की बात करें। इसके लिए एक हद तक सहमति बनती भी जा रही है। भविष्य में ऊँट किस करवट बैठता है, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इतना पक्का है कि असम में मुसलमानों के खि़लाफ़ उनके धर्म, भाषा, क्षेत्र, नस्ल के आधार पर आने वाले समय में दमन काफ़ी बढ़ेगा। हिन्दू बंगालियों को भी बड़े स्तर पर दमन का सामना करना पड़ेगा। असम में अन्य राज्यों से आये लोगों पर भी दमन बढ़ेगा।

असम में इतने बड़े स्तर पर लोगों को विदेशी क़रार दिये जाने से जो स्थिति बनी है, उसका असर सिर्फ़ इन ही व्यक्तियों और उनके परिवारों तक ही सीमित नहीं बल्कि इससे असम में अशान्ति के जो गम्भीर हालात पैदा हो गये हैं, उसके चलते असम के बाक़ी लोग भी बड़े स्तर पर प्रभावित हो रहे हैं और होंगे। समूचे देश में ही साम्प्रदायिक, क्षेत्रवादी, अन्ध-राष्ट्रवाद की नफ़रत की आग और भड़केगी जिसका सबसे अधिक फ़ायदा हिन्दुत्ववादी फासीवादी आरएसएस/भाजपा को मिलेगा। पूरे देश में भाजपा ‘विदेशी मुसलमानों को बाहर निकालने’ के मुद्दे का फ़ायदा उठा रही है। इसके नेता भड़काऊ बयान दे रहे हैं। तेलंगाना से भाजपा विधायक टी.राज. सिंह लोथ ने 31 जुलाई को भड़काऊ बयान देते हुए कहा कि बंगलादेशी और रोहंगिया मुसलमान अगर भारत छोड़कर नहीं जाते, तो उन्हें गोली मार दी जानी चाहिए। मेघालय में आतंकवादी संगठनों ने ग़ैरक़ानूनी चेकपोस्टें बना कर बंगाली दिखने वाले हरेक व्यक्ति से नागरिकता से जुड़े दस्तावेज़़ माँगने शुरू कर दिये हैं। अरुणाचल प्रदेश में प्रवासियों के खि़लाफ़ 14 दिन का अभियान चलाया गया है। मणिपुर में सन् 1951 के आधार पर नागरिकों की सूची तैयार करने की बात कही जा रही है। बंगालियों के खि़लाफ़ इन राज्यों में नफ़रत भड़काने की मुहिम तेज़ हो गयी है।

सन् 1947 में लोगों ने बँटवारे का सदमा झेला। लाखों लोग मारे गये, बेघर कर दिये गये। पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा बंगलादेश) और भारत की सरहद की तरफ़ भी यही कुछ हुआ। बड़ी संख्या में हिन्दू बंगालियों को भारत की तरफ़ आना पड़ा और मुसलमानों को पूर्वी पाकिस्तान की तरफ़ आना पड़ा। बहुत से लोगों की ज़मीन-जायदाद, रिश्तेदार दूसरी तरफ़ रह गये। उनका सरहद से इधर-उधर आना-जाना जारी रहा। सन् 1951 में असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बना। इसमें उस समय तक असम में रह रहे लोगों का नाम दर्ज हुआ और उन्हें भारतीय नागरिक माना गया। लेकिन इसके बाद भी लोगों का आना-जाना जारी रहा। 25 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान से तोड़कर बंगलादेश बना दिया गया। इससे पहले और बाद में बंगलादेश में बने गम्भीर हालात के चलते बहुत से बंगाली मुसलमानों और हिन्दुओं को भारत में प्रवास करना पड़ा। इनमें से अधिकतर लोग बहुत ग़रीब थे। वे भारत में कोई ”गड़बड़” करने या ”अन्दरूनी सुरक्षा को ख़तरा पैदा करने” नहीं आये थे, बल्कि रोज़ी-रोटी कमाने व यहाँ बसने आये थे। भारत सरकार ने भी उन्हें इधर आने से नहीं रोका, क्योंकि यहाँ पूँजीवादी व्यवस्था को सस्ते मज़दूरों की ज़रूरत थी।

असमियता ने नाम पर प्रवासियों के खि़लाफ़, जिनमें बंगलादेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल आदि राज्यों से आये हिन्दू व मुसलमान शामिल हैं, नफ़रत तो काफ़ी पहले से ही फैलायी जा रही थी। सन् 1961 में सिलचर में बंगाली विरोधी क़त्लकाण्ड हुआ। बराक घाटी में बंगाली भाषी मूल निवासियों की बड़े पैमाने पर हत्याएँ हुईं। उन्हें अपनी मातृभाषा बंगला छोड़ने पर मज़बूर किया गया। नेल्ली व सिलापाथोर के ग़ैरअसमिया निवासियों पर भी अत्याचार हुए। उलफ़ा नाम के नस्लीय आतंकवादी संगठन ने ग़ैर-असमिया लोगों के खि़लाफ़ बड़े स्तर पर हिंसा की। छः वर्ष यानी सन् 1979 से 1985 तक असम में ”बाहरी लोगों” के खि़लाफ़ बड़े स्तर पर आन्दोलन चला। माँग की गयी कि असम से बाहरी लोगों को बाहर निकाला जाये, ख़ासकर बंगालियों को बंगलादेश भेजा जाये जो चाहे मुसलमान हों चाहे हिन्दू। सन् 15 अगस्त 1985 में असम के नस्लवादी संगठन आॅल असम स्टूडेण्टस यूनियन (आसू) व केन्द्र की राजीव सरकार के बीच समझौता हुआ। इस समझौते को असम समझौते के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के मुताबिक़ जो भी लोग 24 मार्च 1971 तक भारतीय नागरिकता का सबूत देते हैं, उन्हें भारतीय माना जाये, बाकि़यों को बंगलादेश भेजा जायेगा। सन् 1951 के राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को अपडेट करने की बात कही गयी। साथ ही यह भी बेहद जनविरोधी समझौता हुआ कि सन् 1961 से 1971 के बीच बंगलादेश से असम आने वाले व्यक्तियों को न तो वोट डालने का अधिकार होगा, न यहाँ ज़मीन-जायदाद ख़रीदने का। सन् 2005 में सरकार ने रा.ना.र. अपडेट करने का फ़ैसला किया। असम समझौते के 40 वर्ष बाद! चार दशक से भी अधिक भारत में रहने वाले लोग भी इसके लिए विदेशी हैं! यह सरासर बेइंसाफ़ी है।

हमारा मानना है कि भारत में बसे सभी लोग भारतीय नागरिकता के हक़दार है। भारत की जनसंख्या बढ़ने के कारण अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ने व अन्दरूनी सुरक्षा को ख़तरा आदि बातें सिर्फ़ नफ़रत पैदा करने के लिए व बुनियादी मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने के लिए किया जाना वाला कुत्साप्रचार है।

रा.ना.र. तैयार करने में इससे सम्बन्धित नियम-क़ानूनों की भी घोर उल्लंघना की गयी है, ताकि अधिक से अधिक बंगाली ख़ासकर मुसलमान इससे बाहर रखे जायें। नागरिकता साबित करने के लिए ग्राम पंचायत द्वारा मिले दस्तावेज़़ों में से आधे के क़रीब माने ही नहीं गये जबकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश था कि ये माने जाने चाहिए। अगर बैंक खाते और दसवीं की अंक-पत्री में किसी का नाम अलग-अलग ढंग से लिखा गया है तो भी उसे ग़ैर-भारतीय बना दिया गया। अगर जन्म प्रमाणपत्र और अन्य किसी दस्तावेज़ में लिखे नाम में कोई फ़र्क़ है तो भी उसे ग़ैर भारतीय माना गया। किसी अन्य राज्य से पढ़ी और असम में विवाहित स्त्री भी ग़ैर-भारतीय। कम्प्यूटर सिस्टम ने ग़लत ढंग से जानकारी का डाटा उठा लिया तो ग़ैर भारतीय। कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ लोगों से अफ़सर ढंग से बात ही नहीं करते थे और उन्हें अफ़सरों के सामने अपना पक्ष पेश करने के लिए किसी की मदद भी नहीं लेने दी जाती थी। नतीजा यह है कि परिवार में सभी का नाम है, लेकिन पिता या दादा का नहीं है। किसी जगह पति-पत्नी का नाम है बच्चों का बाहर कर दिया गया है। असम में सरकारी नौकरी कर रहे, रिटायर हो गये ऐसे भी लोग ग़ैर भारतीय ठहरा दिये गये, क्योंकि उन्होंने पढ़ाई किसी अन्य राज्य से की थी। ग़रीबों, आम जनता की तो सुनी ही कहाँ जानी थी, हालात ये हैं कि पूर्व राष्ट्रपति फ़रूख़दीन के परिवार के सदस्यों और विधायकों तक के नाम रा.ना.र. में से ग़ायब हैं!

बवाल होने के बाद कहा जा रहा है कि रा.ना.र. का अभी मसविदा ही जारी किया गया है, कि सूची से बाहर रह गये लोगों को एक और अवसर दिया जायेगा। लोगों को शिकायतें दर्ज कराने, अन्य दस्तावेज़ जमा करने, जाँच-पड़ताल करने का एक और अवसर दिया गया है। इसके लिए एक महीना रखा गया है। (चालीस लाख लोग और एक महीना!)। मान लीजिए, इनमें से लाख-दो लाख या 10-20 लाख लोग भी रा.ना.र. सूची में शामिल कर लिये जाते हैं, तो भी शेष का क्या बनेगा?! उधर बंगलादेश सरकार ने भी कह दिया है कि भारत में उनका कोई नागरिक नहीं है। वैसे अगर बंगलादेश कुछ लोगों को लेने के लिए तैयार हो भी जाये तो दशकों से भारत में रह रहे लोगों को उजाड़ना किसी भी तरह इंसाफ़ नहीं है। नागरिकता से वंचित लोगों को भारत में वोट का अधिकार नहीं होगा। उन्हें किसी जनकल्याण योजना का लाभ नहीं मिलेगा, उनका अपनी सम्पत्ति पर अधिकार ख़त्म हो जायेगा। उन्हें बड़े स्तर पर निशाना बनाया जायेगा। इसकी भी काफ़ी सम्भावना है कि उन्हें जेलों में डाल दिया जाये।

इन लोगों का क्या बनेगा इसका अन्दाज़ा उन लोगों की हालत से लगाया जा सकता है, जिन्हें असम में विदेशियों की शि‍नाख़्त के लिए बनायी गयी विशेष अदालतों द्वारा विदेशी घोषित किया गया है। 1985 से लेकर अब तक 85 हज़ार से भी अधिक लोगों को विदेशी घोषित किया जा चुका है। इनमें मुसलमान भी है और हिन्दू भी। मर्द भी और स्त्रियाँ भी। ऐसे लोग जो गिरफ़्तार किये गये हैं उन्हें जेलों में ही बनाये गये शरणार्थी शिविरों में रखा गया है। इन शिविरों की हालत जेलों से भी बुरी है। रिहाई की कोई उम्मीद इन्हें नज़र नहीं आती।

जनवादी अधिकार संगठनों व मान अधिकार कार्यकर्ताओं के यहाँ जाने की रोक लगायी गयी है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अल्पसंख्यकों के विशेष निरीक्षक रहे हर्ष मन्दर द्वारा इन जेलों का दौरा किया गया था और एक रिपोर्ट तैयार की गयी थी। इस रिपोर्ट के सुझावों पर सरकार द्वारा कोई कार्रवाई न किये जाने से ख़फ़ा होकर उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया था और रिपोर्ट सार्वजनिक कर दी थी। उन्होंने एक लेख में लिखा है कि ”ये नज़रबन्दी कैम्प मानवीय सिद्धान्तों के लिहाज़ से और क़ानूनी पक्ष से भी, एक डरावनी तस्वीर पेश करते हैं”। इन शिविरों में बन्द किये गये अधिकतर लोगों को कोई क़ानूनी मदद तक नहीं दी जा रही। अदालतों ने इनका पक्ष तक नहीं सुना है। बलात्कार व क़त्ल जैसे संगीन अपराधों तक के मामलों में बचाव के लिए क़ानूनी मदद दी जाती है, लेकिन ये लोग बिना कोई अपराध किये जेलों में सड़ रहे हैं।

इन लोगों को सिर्फ़ इसलिए बन्द किया हुआ है क्योंकि वे क़ानूनी नोटिस जारी होने पर अदालत के सामने पेश नहीं हुए। लोगों का कहना है कि उन्हें नोटिस मिले ही नहीं। इन्हें अपने परिवार के सदस्यों से भी कम ही मिलने दिया जाता। आम जेलों में क़ैदी को सैर करने, काम करने, खुले में आराम करने आदि की छूट होती है, लेकिन इन नज़रबन्द लोगों को दिन में भी बैरकों से बाहर नहीं निकाला जाता। पति-पत्नी और छः वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों को अपने माता-पिता से अलग रखा जा रहा है। पिछले समय में ट्रम्प सरकार द्वारा ग़ैरक़ानूनी बच्चों को उनके माता-पिता से अलग कर देने का काफ़ी बवाल मचा था। लेकिन असम के इन नज़रबन्दी शिविरों के नाम पर चल रही जेलों में लम्बे समय से यही कुछ हो रहा है। कई लोग कई-कई वर्षों से अपने जीवनसाथी को नहीं मिल पाये हैं। बीमारी, विवाह आदि अवसरों पर उन्हें पैरोल भी नहीं मिलती, क्योंकि पैरोल तो सिर्फ़ भारतीय नागरिकों को ही मिल सकती है। अन्तरराष्ट्रीय व भारतीय क़ानूनों की भी यहाँ धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। अन्तरराष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़ प्रवासियों को जेल में अपराधियों की तरह बन्द करके नहीं रखा जा सकता और उनके परिवारों से अलग नहीं किया जा सकता।

असम में जो रहा है, वह भारतीय पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतों के मुताबिक़ है। बड़े स्तर पर मुस्लिमों और अन्य अल्पसंख्यकों के खि़लाफ़ नफ़रत भड़काना, क्षेत्र-नस्ल-जाति-भाषा-धर्म आधारित फूट डालना, अन्ध-राष्ट्रवाद भड़काना, जनता का ध्यान वास्तविक मुद्दों से हटाकर ग़ैर-मुद्दों की तरफ़ ले जाना, इसकी ज़रूरत है। इस काम के लिए पूँजीपति वर्ग ने आरएसएस/भाजपा को सबसे आगे किया हुआ है। अन्य सभी साम्प्रदायिक-क्षेत्रवादी-नस्लवादी पार्टियाँ -संगठन इसी ज़रूरत के मुताबिक़ ही काम कर रहे हैं।

हर इंसाफ़पसन्द व्यक्ति को इस दमन-अत्याचार के खि़लाफ़ आवाज़़ बुलन्द करनी चाहिए। पूँजीपति वर्ग की चुनावी पार्टियों और संगठनों के ज़रिये यह समस्या हल नहीं हो सकती। इसका हल सिर्फ़ यह है कि जनता को उसके बुनियादी मुद्दों पर संगठित किया जाये ताकि जनता देश-धर्म-जाति-क्षेत्र-भाषा-नस्ल के आधार पर आपस में लड़ने की जगह पूँजीपति वर्ग के खि़लाफ़ बुनियादी मुद्दों पर संघर्ष करे, जनता को आपस में बाँटने-लड़ाने, देश-धर्म-जाति-क्षेत्र-नस्ल आदि के अाधार पर होने वाले अन्याय-दमन के खि़लाफ़ संघर्ष कर सके। अन्तिम रूप में, समाजवादी क्रान्ति के ज़रिये क़ायम हुआ मज़दूर वर्ग का राज ही देश-धर्म-जाति-नस्ल-भाषा-नस्ल के नाम पर हो रहे दमन-अत्याचार-अन्याय का ख़ात्मा कर सकता है, क्योंकि तब इसकी ज़रूरत ही नहीं रहेगी। इसलिए वर्गीय एकता और संघर्ष के लिए ज़ोरदार कोशिशें करना ही आज वक़्त की ज़रूरत है।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2018


 

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