फ़ैक्टरी-मज़दूरों की एकता, वर्ग-चेतना और संघर्ष का विकास – 2*
(रूसी सामाजिक-जनवादी पार्टी के मसौदा कार्यक्रम की व्याख्या का एक अंश)

– व्ला.इ. लेनिन


(लेनिन ने 1895 में सेण्ट पीटर्सबर्ग के सभी मार्क्सवादी मज़दूर मण्डलों को मिलाकर ‘मज़दूर मुक्ति संघर्ष लीग’ की स्थापना की थी जिसने मज़दूरों के बीच मार्क्सवाद के प्रचार-प्रसार के साथ ही हड़तालों और आन्दोलनों में भी गुप्त रूप से अग्रणी भूमिका निभायी। उस समय तक रूस के कई शहरों में मार्क्सवादी ग्रुप गठित हो चुके थे जिन्हें एकजुट करके लेनिन सर्वहारा वर्ग की एक अखिल रूसी पार्टी बनाना चाहते थे। इसी बीच, दिसम्बर 1895 में ज़ारशाही ने लेनिन को गिरफ़्तार कर लिया। चौदह महीने तक विचाराधीन क़ैदी के रूप में जेल में रखने के बाद उन्हें तीन वर्ष के लिए साइबेरिया निर्वासन का दण्ड सुनाया गया।

जेल और निर्वासन के दौरान लेनिन लगातार सैद्धान्तिक और प्रचारात्मक-आन्दोलनात्मक लेखन करते रहे। जेल में रहते हुए दिसम्बर 1895 से जुलाई 1896 के बीच उन्होंने रूस की सामाजिक-जनवादी पार्टी के कार्यक्रम का एक मसौदा तैयार किया और आम कार्यकर्ताओं तथा मज़दूरों को समझाने के लिए उसकी एक लम्बी व्याख्या भी लिखी। यह सबकुछ उन्होंने दवाइयों की किताब की पंक्तियों के बीच अदृश्य स्याही के रूप में दूध का इस्तेमाल करते हुए लिखा। यह लेनिन का महत्वपूर्ण प्रारम्भिक लेखन है। पार्टी कार्यक्रम के इस प्रस्तावित मसौदे और उसकी व्याख्या का पहले-पहल प्रकाशन 1924 में हो पाया।

यह दस्तावेज़ मज़दूरों और कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के अध्ययन के लिए आज भी बेहद प्रासंगिक है। हम यहाँ ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के लिए उक्त मसौदा पार्टी कार्यक्रम की व्याख्या का एक हिस्सा प्रकाशित कर रहे हैं जिसमें इस प्रक्रिया का सिलसिलेवार ब्योरा दिया गया है कि किस प्रकार कारख़ानों में बड़ी पूँजी का सामना करने के लिए एकता मज़दूर वर्ग की ज़रूरत बन जाती है, और किस प्रकार उनकी वर्ग-चेतना विकसित होती है तथा उसके संघर्ष व्यापक होते जाते हैं। लेनिन ने इस बात पर बल दिया है कि पूँजीपतियों के ख़िलाफ़ मज़दूरों का संघर्ष जब राजनीतिक संघर्ष (राज्यसत्ता के विरुद्ध संघर्ष) बन जाता है, तभी वे अपनी और शेष जनता की मुक्ति की दिशा में आगे डग भर पाते हैं। लेनिन के अनुसार, अपनी राजनीतिक पार्टी के नेतृत्व में एकजुट होकर ही मज़दूर वर्ग अपना यह लक्ष्य हासिल कर सकता है। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त की रूसी फ़ैक्टरियों से आज की फ़ैक्टरियों के तौर-तरीक़े कई मायनों में बदल गये हैं, लेकिन पूँजीवादी शोषण और उसके विरुद्ध मज़दूरों की एकजुटता एवं लामबन्दी का जो चित्र लेनिन ने उपस्थित किया है, उसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। मज़दूरों और मज़दूर कार्यकर्ताओं के लिए इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ का गम्भीर अध्ययन बेहद ज़रूरी है।

(*इस अंश का यह शीर्षक हमारा दिया हुआ है — सम्पादक)


(इस अंश का पहला भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें)

(क) 5. पूँजीपति वर्ग के प्रभुत्व के विरुद्ध संघर्ष इस समय सारे यूरोपीय देशों के मज़दूरों और अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया के मज़दूरों द्वारा भी चलाया जा रहा है। मज़दूर वर्ग की एकता तथा ऐक्यबद्धता एक देश या एक जाति तक सीमित नहीं है; भिन्न-भिन्न देशों की मज़दूर पार्टियाँ सारे संसार के मज़दूरों के हितों तथा लक्ष्यों की पूर्ण अनुरूपता (ऐक्यबद्धता) की ऊँचे स्वर में घोषणा करती हैं। वे संयुक्त कांग्रेसों में परस्पर मिलती हैं, सारे देशों के पूँजीपति वर्ग के सामने एक समान माँगें पेश करती हैं, उन्होंने मुक्ति के लिए प्रयास करने वाले पूरे संगठित मज़दूर वर्ग के अन्तरराष्ट्रीय पर्व (मई दिवस) की स्थापना की है, और इस तरह उन्होंने तमाम जातियों तथा तमाम देशों के मज़दूर वर्ग को मज़दूरों की एक महान सेना में सूत्रबद्ध कर दिया है।

मज़दूरों की एकता एक आवश्यकता है, जिसे यह तथ्य जन्म देता है कि पूँजीपति वर्ग, जो मज़दूरों पर शासन करता है, अपने शासन को एक देश तक सीमित नहीं करता। भिन्न-भिन्न देशों के वाणिज्यिक सम्बन्ध अधिक घनिष्ठ तथा अधिक व्यापक होते जा रहे हैं; पूँजी निरन्तर एक देश से दूसरे देश को पहुँचती रहती है। बैंक, ये विशाल निक्षेपागार, जो पूँजी को एक जगह जमा करते हैं तथा उसे पूँजीपतियों के बीच क़र्ज़ के रूप में बाँटते हैं, राष्ट्रीय संस्थानों के रूप में काम आरम्भ करते हैं और फिर अन्तरराष्ट्रीय संस्थान बन जाते हैं, तमाम देशों की पूँजी जमा करते हैं और उसे यूरोप तथा अमेरिका के पूँजीपतियों के बीच बाँटते हैं, एक ही देश में नहीं वरन कई देशों में एकसाथ पूँजीवादी प्रतिष्ठान स्थापित करने के लिए इस समय विशाल संयुक्त पूँजी कम्पनियाँ संगठित की जा रही हैं; पूँजीपतियों की अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएँ प्रकट हो रही हैं।

पूँजीवादी प्रभुत्व अन्तरराष्ट्रीय है। यही कारण है कि तमाम देशों में अपनी मुक्ति के लिए मज़दूरों का संघर्ष तभी सफल होता है, जब वे अन्तरराष्ट्रीय पूँजी के विरुद्ध संयुक्त रूप से संघर्ष करते हैं। यही कारण है कि पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध संघर्ष में रूसी मज़दूर का साथी ठीक उसी तरह जर्मन मज़दूर, पोलिश मज़दूर, और फ़्रांसीसी मज़दूर है, जिस तरह उसके दुश्मन रूसी, पोलिश और फ़्रांसीसी पूँजीपति हैं। इधर, हाल में विदेशी पूँजीपति अपनी पूँजी बड़ी उत्सुकता से रूस को स्थानान्तरित कर रहे हैं, जहाँ वे अपनी फ़ैक्टरियों की शाखाएँ निर्मित कर रहे हैं तथा नये प्रतिष्ठानों के लिए कम्पनियाँ स्थापित कर रहे हैं। वे इस तरुण देश पर ललचायी दृष्टि से झपट रहे हैं, जहाँ सरकार किसी भी अन्य देश की तुलना में पूँजी के लिए अधिक अनुकूल तथा कहीं अधिक ताबेदार है, जहाँ वे मज़दूरों को पश्चिम से कम संगठित तथा जवाबी संघर्ष करने में कम सक्षम पाते हैं, जहाँ मज़दूरों का जीवन-स्तर कहीं नीचा और इसलिए उनकी मज़दूरी कहीं कम है, इस कारण विदेशी पूँजीपति विशाल, इतने बड़े पैमाने पर मुनाफ़े हासिल करने में समर्थ हैं, जो स्वयं उनके अपने देशों के लिए अभूतपूर्व हैं। अन्तरराष्ट्रीय पूँजी रूस की ओर अपने हाथ फैला चुकी है। रूसी मज़दूर अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर आन्दोलन की ओर हाथ बढ़ा रहे हैं।

(ख) 1. यह कार्यक्रम का सबसे महत्वपूर्ण, सर्वप्रमुख मुद्दा है, क्योंकि यह लक्षित करता है कि मज़दूर वर्ग के हितों की रक्षा के लिए पार्टी का कार्यकलाप तमाम सचेत मज़दूरों का कार्यकलाप क्या होना चाहिए। यह बताता है कि समाजवाद की आकांक्षा, इन्सान द्वारा इन्सान के शोषण का उन्मूलन करने की आकांक्षा को किस तरह बड़े पैमाने की फ़ैक्टरियों द्वारा सर्जित रहन-सहन की अवस्थाओं के कारण उत्पन्न जनान्दोलन के साथ सूत्रबद्ध करना चाहिए।

पार्टी का कार्यकलाप मज़दूरों के वर्ग-संघर्ष को बढ़ावा देना होना चाहिए। पार्टी का कार्यभार मज़दूरों की सहायता के लिए कोई फ़ैशनेबल तरीक़ा गढ़ना नहीं, अपितु अपने को मज़दूर आन्दोलन से जोड़ना, उसमें जागृति लाना, मज़दूरों को उन द्वारा पहले ही आरम्भ किये जा चुके संघर्ष में सहायता देना है। पार्टी का कार्यभार मज़दूरों के हितों की रक्षा करना तथा पूरे मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के हितों का प्रतिनिधित्व करना है। तो फिर मज़दूरों को उनके संघर्ष में यह सहायता किस तरह दी जा सकती है?

कार्यक्रम कहता है कि यह सहायता सर्वप्रथम, मज़दूरों की वर्ग-चेतना का विकास करने के लिए दी जानी चाहिए। हम पहले ही बता चुके हैं कि मालिकों के ख़िलाफ़ मज़दूरों का संघर्ष किस तरह पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ सर्वहारा का वर्ग-संघर्ष बन जाता है।

मज़दूरों की वर्ग-चेतना से तात्पर्य उस बात से स्पष्ट होता है, जो हम इस विषय पर पहले कह चुके हैं। मज़दूरों की वर्ग-चेतना का अर्थ मज़दूरों की यह समझ है कि उनके लिए अपनी अवस्थाएँ सुधारने और अपनी मुक्ति हासिल करने का एकमात्र तरीक़ा यह है कि वे पूँजीपति वर्ग तथा फ़ैक्टरी मालिकों के वर्ग जिन्हें बड़ी फ़ैक्टरियों ने निर्मित किया है, के ख़िलाफ़ संघर्ष करें। इसके साथ ही मज़दूरों की वर्ग-चेतना का अर्थ उनकी यह समझ है कि किसी एक विशेष देश के तमाम मज़दूरों के हित एकसमान होते हैं, कि वे एक ऐसा वर्ग हैं, जो समाज के तमाम अन्य वर्गों से भिन्न है। अन्तत: मज़दूरों की वर्ग-चेतना का अर्थ मज़दूरों की यह समझ है कि अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए उन्हें राज्य के मामलों पर प्रभाव डालने के वास्ते उसी तरह काम करना होगा, जिस तरह ज़मींदार तथा पूँजीपति करते थे तथा अब भी करते जा रहे हैं।

इन सबकी समझ मज़दूर कैसे हासिल करते हैं? यह समझ वे ठीक उस संघर्ष से निरन्तर अनुभव प्राप्त करते हुए हासिल करते हैं जिसे वे मालिकों के ख़िलाफ़ छेड़ना आरम्भ करते हैं, जो अधिकाधिक विकसित, तीक्ष्ण होता जाता है तथा जिसमें बड़ी फ़ैक्टरियों के विकास के साथ-साथ अधिकाधिक संख्या में मज़दूर शामिल होते हैं। एक ऐसा वक़्त था, जब पूँजी के विरुद्ध मज़दूरों की शत्रुता अपने शोषकों के विरुद्ध घृणा की धुँधली भावना में, अपने उत्पीड़न तथा दासता की धुँधली चेतना में तथा पूँजीपतियों से बदला लेने की इच्छा में अभिव्यक्त हुआ करती थी। उस समय संघर्ष मज़दूरों के छुटपुट विद्रोहों में अभिव्यक्त होता था, वे इमारतें ध्वस्त करते थे, मशीनें तोड़ते थे, फ़ैक्टरी के प्रबन्धकों पर हमले करते थे, आदि। वह था मज़दूर वर्ग आन्दोलन का पहला, आरम्भिक रूप। और वह आवश्यक था, क्योंकि पूँजीपति से नफ़रत मज़दूरों में अपनी रक्षा करने की इच्छा पैदा करने की दिशा में सदैव तथा सर्वत्र पहला संवेग है। परन्तु रूसी मज़दूर वर्ग आन्दोलन इस मूल रूप से आगे विकसित हो चुका है।

पूँजीपति के विरुद्ध धुँधली नफ़रत के बजाय मज़दूरों ने मज़दूर वर्ग तथा पूँजीपति वर्ग के हितों के बीच वैर-भाव को समझना आरम्भ कर दिया है। उत्पीड़न की धुँधली भावना की बजाय उन्होंने उन उपायों और तरीक़ो को समझना आरम्भ कर दिया है, जिनके द्वारा पूँजी उनका उत्पीड़न करती है। और वे उत्पीड़न के विभिन्न रूपों के विरुद्ध विद्रोह करने लगे हैं, पूँजीवादी उत्पीड़न पर अंकुश लगाने लगे हैं और पूँजीवादी लालच से अपनी रक्षा करने लगे हैं। पूँजीपतियों से बदला लेने की बजाय वे अब रियायतों के लिए संघर्ष की ओर मुड़ रहे हैं, वे एक के बाद दूसरी माँग को लेकर पूँजीपति वर्ग का सामना कर रहे हैं, कामकाज की बेहतर अवस्थाओं, अधिक मज़दूरी तथा काम के कम घण्टों की माँग कर रहे हैं। प्रत्येक हड़ताल मज़दूरों का सारा ध्यान और उनके सारे प्रयास उन अवस्थाओं के किसी एक ख़ास पहलू पर केन्द्रित करती है, जिनके अन्तर्गत मज़दूर वर्ग रहता है।

प्रत्येक हड़ताल इन अवस्थाओं पर विचार-विमर्श को जन्म देती है, मज़दूरों को उनका मूल्यांकन करने, यह समझने में मदद देती है कि किसी एक विशेष मामले में पूँजीवादी उत्पीड़न किसमें निहित है तथा इस उत्पीड़न का मुक़ाबला करने के लिए किन साधनों का उपयोग किया जा सकता है। प्रत्येक हड़ताल पूरे मज़दूर वर्ग के अनुभव को समृद्ध बनाती है। यदि हड़ताल सफल होती है, तो वह उन्हें बताती है कि मज़दूर वर्ग की एकता कितनी प्रबल शक्ति है तथा वह दूसरों को अपने साथियों की सफलता का उपयोग करने के लिए प्रेरित करती है। यदि वह सफल नहीं होती है, तो उसके परिणामस्वरूप विफलता के कारणों पर विचार-विमर्श होता है, संघर्ष के बेहतर तरीक़ों की तलाश की जाती है। अपनी जीवन्त आवश्यकताओं के लिए, रियायतों के लिए, रहन-सहन की अवस्थाओं में, मज़दूरी और काम के घण्टों में सुधार के लिए संघर्ष की ओर इस संक्रमण का, जो अब पूरे रूस में आरम्भ हो गया है, अर्थ यह है कि रूसी मज़दूर ज़बर्दस्त प्रगति कर रहे हैं, और इसी कारण सामाजिक-जनवादी पार्टी तथा समस्त सचेत मज़दूरों का ध्यान मुख्यतया इस संघर्ष पर, उसे प्रोत्साहन देने पर केन्द्रित होना चाहिए।

मज़दूरों को सहायता उन्हें वे मौलिक आवश्यकताएँ दिखाने में निहित होनी चाहिए जिनकी पूर्ति के लिए उन्हें संघर्ष करना चाहिए, यह सहायता भिन्न-भिन्न श्रेणियों के मज़दूरों की अवस्थाओं के बिगड़ने के लिए ज़िम्मेदार कारकों का विश्लेषण करने, उन फ़ैक्टरी क़ानूनों तथा विनियमों को समझाने में निहित होनी चाहिए, जिनके उल्लंघन (इसके साथ ही पूँजीपतियों की कपटपूर्ण तिकड़मों) के ज़रिये मज़दूरों को बहुधा दुहरी डकैती का शिकार बनाया जाता है। सहायता मज़दूरों की माँगों को अधिक सटीक तथा निश्चित अभिव्यक्ति प्रदान करने में, इन माँगों को सार्वजनिक रूप से पेश करने में, प्रतिरोध के लिए सर्वोत्तम समय चुनने में, संघर्ष की विधि चुनने में, दो विरोधी पक्षों की स्थिति तथा शक्ति पर विचार-विमर्श करने में, इस बात पर विचार-विमर्श करने में निहित होनी चाहिए कि संघर्ष करने का क्या और भी कोई बेहतर तरीक़ा चुना जा सकता है (यह तरीक़ा सीधी कार्रवाई उचित न समझे जाने की दशा में परिस्थितियों पर निर्भर कर सकता है, जैसे फ़ैक्टरी मालिक को चिट्ठी लिखना, इंस्पेक्टर या डॉक्टर के पास पहुँचना आदि)।

हम बता चुके हैं कि इस प्रकार के संघर्ष में रूसी मज़दूरों का संक्रमण उन द्वारा की गयी ज़बर्दस्त प्रगति का द्योतक है। यह संघर्ष मज़दूर वर्ग आन्दोलन को राजपथ पर पहुँचाता (ले जाता) है तथा उसकी आगे की सफलता की निश्चित गारण्टी है। मेहनतकश जनसाधरण इस संघर्ष से सर्वप्रथम, पूँजीवादी शोषण के तरीक़ो को एक-एक कर पहचानना तथा जाँचना, क़ानून के साथ, अपने रहन-सहन की अवस्थाओं के साथ, पूँजीपति वर्ग के हितों के साथ उनका परस्पर सम्बन्ध स्थापित करना सीखते हैं। शोषण के विभिन्न तरीक़ों तथा मामलों की जाँच कर वे समग्र शोषण के महत्व तथा सार को समझना सीखते हैं, पूँजी द्वारा श्रम के शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को समझना सीखते हैं।

दूसरे, इस संघर्ष की प्रक्रिया में मज़दूर अपनी शक्ति परखते हैं, ऐक्यबद्ध होना सीखते हैं, एकता की आवश्यकता तथा महत्व समझना सीखते हैं। इस संघर्ष के फैलने तथा टक्करों की बढ़ती बारम्बारता के फलस्वरूप संघर्ष का अनिवार्यत: विस्तार होता है, एकता की भावना, एकजुटता की भावना का — सर्वप्रथम, एक ख़ास इलाक़े के मज़दूरों में और उसके बाद पूरे देश के मज़दूरों में, पूरे मज़दूर वर्ग में — विकास होता है।

तीसरे, यह संघर्ष मज़दूरों की राजनीतिक चेतना का विकास करता है। मेहनतकश जनसाधरण की रहन-सहन की अवस्था उन्हें ऐसी स्थिति में पहुँचा देती है कि राज्य की समस्याओं पर विचार करने के लिए उनके पास न तो फ़ुरसत होती है (हो भी नहीं सकती) और न मौक़ा। दूसरी ओर, अपनी नित्यप्रति की आवश्यकताओं के लिए फ़ैक्टरी मालिकों के ख़िलाफ़ मज़दूरों का संघर्ष अपने आप और अनिवार्यत: मज़दूरों को राज्य के राजनीतिक प्रश्नों के, इन प्रश्नों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करता है कि रूसी राज्य का किस तरह शासन होता है, क़ानून तथा विनियम कैसे जारी किये जाते हैं और वे किनके हितों की पूर्ति करते हैं।

फ़ैक्टरी में प्रत्येक टक्कर मज़दूरों को लाज़िमी तौर पर क़ानूनों और राजकीय सत्ता के प्रतिनिधियों से भिड़ा देती है। इस सिलसिले में मज़दूर पहली बार “राजनीतिक भाषण” सुनते हैं। पहले, वे, उदाहरण के लिए, फ़ैक्टरी-इंस्पेक्टरों की बात सुनते हैं, जो उन्हें समझाते हैं कि उन्हें धोखा देने के लिए अपनायी गयी तिकड़म उन विनियमों के सही-सही अर्थ पर आधारित है, जिन्हें उपयुक्त सत्ता अनुमोदित कर चुकी है तथा जो मज़दूरों को धोखा देने के लिए मालिक को खुली छूट देते हैं या यह समझाते हैं कि फ़ैक्टरी मालिक के उत्पीड़नकारी क़दम सर्वथा क़ानूनी हैं, क्योंकि वह तो महज़ अपने अधिकारों का उपयोग कर रहा है, उस अमुक क़ानून पर अमल कर रहा है, जिसे राजकीय सत्ता अनुमोदित कर चुकी है तथा जिसका वह कार्यान्वयन सुनिश्चित करती है। इंस्पेक्टरों महाशयों के राजनीतिक स्पष्टीकरणों की परिपूर्ति समय-समय पर मंत्री के और भी कल्याणकारी “राजनीतिक स्पष्टीकरणों” द्वारा की जाती है, जो मज़दूरों को उस “ईसाईसुलभ” प्यार की भावनाओं की याद दिलाता है, जिसे उनसे पाने के लिए फ़ैक्टरी मालिक हक़दार हैं, क्योंकि वे उनके श्रम से करोड़ों की कमाई करते हैं।

आगे चलकर राजकीय सत्ता के प्रतिनिधियों के इन स्पष्टीकरणों तथा इन तथ्यों से, जो बताते हैं कि यह सत्ता किसके हित में काम करती है, मज़दूरों की प्रत्यक्ष जानकारी की परिपूर्ति उन पर्चों या उन अन्य स्पष्टीकरणों द्वारा होती है, जिन्हें समाजवादी जारी करते हैं; फलस्वरूप मज़दूर इस प्रकार की हड़ताल से पूरी राजनीतिक शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। वे मज़दूर वर्ग के विशिष्ट हितों को ही नहीं, वरन राज्य में मज़दूर वर्ग के विशिष्ट स्थान को भी समझने लगते हैं। अत: सामाजिक-जनवादी लोग मज़दूरों के वर्ग-संघर्ष को जो मदद दे सकते हैं, वह यह होनी चाहिए — मज़दूरों को उनके सबसे जीवन्त अधिकारों के लिए संघर्ष में सहायता देकर उनकी वर्ग-चेतना का विकास किया जाये।

जैसाकि कार्यक्रम में कहा गया है, दूसरी क़िस्म की सहायता मज़दूरों के संगठन को बढ़ावा देने के रूप में प्रदान की जानी चाहिए। हमने जिस संघर्ष का अभी-अभी वर्णन किया है वह अनिवार्यत: इस बात का तक़ाज़ा करता है कि मज़दूरों को संगठित किया जाये। संगठन हड़ताल करने, उनका संचालन अत्यधिक सफलता के साथ सुनिश्चित करने, हड़तालियों के समर्थन के लिए धन-संग्रह करने, मज़दूर पारस्परिक सहायता कोषों की स्थापना करने, मज़दूरों के बीच प्रचार करने, पर्चे, सूचना तथा घोषणापत्र वितरित करने, आदि के लिए आवश्यक होता है। संगठन और भी ज़्यादा ज़रूरी है, ताकि मज़दूरों को पुलिस तथा राजनीतिक पुलिस के अत्याचार से अपनी रक्षा करने में सक्षम बनाया जा सके, उनकी नज़रों से मज़दूरों के सारे सम्पर्कों तथा संघों को बचाया जा सके, पुस्तकें, पर्चे तथा अख़बार, आदि पहुँचाने की व्यवस्था की जा सके। इन सब कार्यों में सहायता देना — ऐसा है पार्टी का दूसरा कार्यभार।

तीसरा कार्यभार है संघर्ष के असल ध्येय बताना, अर्थात मज़दूरों को यह समझाना कि पूँजी द्वारा श्रम का शोषण कैसे होता है, किस पर आधारित है, ज़मीन और श्रम के औज़ारों का निजी स्वामित्व कैसे मेहनतकश जनसाधरण को ग़रीबी की ओर ले जाता है, उन्हें अपना श्रम पूँजीपतियों को बेचने के लिए तथा आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद अपने श्रम की सारी अतिरिक्त उपज कैसे मुफ़्त समर्पित करने के लिए बाधित करता है; इसके अलावा यह समझाना कि यह शोषण कैसे अनिवार्यत: मज़दूरों तथा पूँजीपतियों के बीच वर्ग-संघर्ष को जन्म देता है, इस संघर्ष की शर्तें तथा उसके अन्तिम लक्ष्य क्या होते हैं — संक्षेप में, कार्यक्रम में सक्षिप्त रूप में बतायी गयी बातें समझाना।

(ख) 2. मज़दूर वर्ग का संघर्ष राजनीतिक संघर्ष है — इन शब्दों का क्या अर्थ है? इनका अर्थ यह है कि मज़दूर वर्ग राज्य के मामलों पर, राज्य के प्रशासन पर, क़ानून के मसलों पर प्रभाव हासिल किये बिना अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष नहीं कर सकता। इस तरह के प्रभाव की आवश्यकता को रूसी पूँजीपतियों ने बहुत पहले ही समझ लिया था, और हम बता चुके हैं कि वे पुलिस क़ानूनों में सब क़िस्म के निषेधों के बावजूद राजकीय सत्ता पर प्रभाव डालने के हज़ारों उपाय ढूँढने में किस तरह सफल हुए हैं और कैसे यह सत्ता पूँजीपति वर्ग का हित साधन करती है। इसका स्वभावत: यह निष्कर्ष निकलता है कि मज़दूर वर्ग भी राजकीय सत्ता पर प्रभाव हासिल किये बिना अपना संघर्ष नहीं चला सकता, अपनी दशा में कोई स्थायी सुधार तक हासिल नहीं कर सकता।

हम पहले ही कह चुके हैं कि पूँजीपतियों के ख़िलाफ़ मज़दूरों के संघर्ष का अनिवार्य परिणाम सरकार के ख़िलाफ़ संघर्ष होगा तथा स्वयं सरकार मज़दूरों के सामने यह सिद्ध करने के लिए पूरी कोशिश कर रही है कि केवल संघर्ष तथा संयुक्त प्रतिरोध से ही वे राजकीय सत्ता पर प्रभाव डाल सकते हैं। यह चीज़ 1885-86 में रूस में हुई बड़ी-बड़ी हड़तालों ने विशेष स्पष्टता के साथ प्रदर्शित कर दी। सरकार ने मज़दूरों से सम्बन्धित विनियम तुरन्त तैयार करने आरम्भ कर दिये थे। फ़ौरन फ़ैक्टरी कार्यों के बारे में क़ानून जारी किये। वह मज़दूरों की ज़ोरदार माँगों के आगे झुक गयी (उदाहरण के लिए ज़ुर्माने सीमित करने तथा मज़दूरी की ठीक ढंग से अदायगी सुनिश्चित करने के लिए विनियम जारी किये गये थे)। इसी तरह मौजूदा हड़तालों (1896) में फिर सरकार को तत्काल हस्तक्षेप करने के लिए बाध्य किया है और सरकार समझ चुकी है कि गिरफ़्तारियों तथा निर्वासनों तक सीमित रहने से काम नहीं चल सकता, कि फ़ैक्टरी मालिकों के उदात्त आचरण के बारे में मूर्खतापूर्ण उपदेशों से मज़दूरों का मनोरंजन करना उपहासास्पद है (देखें फ़ैक्टरी इंस्पेक्टरों के नाम वित्त मंत्री वित्ते की गश्ती चिट्ठी। वसन्त, 1896)। सरकार ने अनुभव कर लिया है कि “संगठित मज़दूर ऐसी शक्ति हैं जिसे ध्यान में रखना होगा”। इसलिए फ़ैक्टरी क़ानून में संशोधन करने का कार्य पहले ही उसके विचाराधीन है और काम के घण्टे घटाने तथा मज़दूरों को दूसरी अनिवार्य रियायतें देने के प्रश्न पर विचार करने के लिए उसने वरिष्ठ फ़ैक्टरी इंस्पेक्टरों की कांग्रेस सेण्ट पीटर्सबर्ग में बुलायी है।

इस तरह हम देखते हैं कि पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग के संघर्ष को अवश्य ही राजनीतिक संघर्ष होना चाहिए। वस्तुत: यह संघर्ष राजकीय सत्ता पर प्रभाव डालने भी लगा है, राजनीतिक महत्व हासिल कर रहा है। परन्तु मज़दूर वर्ग आन्दोलन ज्यों-ज्यों विकसित होता है त्यों-त्यों मज़दूरों के पास राजनीतिक अधिकारों का सरासर अभाव जिसके बारे में हम पहले ही बता चुके हैं, तथा मज़दूरों द्वारा राजकीय सत्ता पर खुले तथा प्रत्यक्ष रूप में प्रभाव डालने की सरासर असम्भवता स्पष्टतया तथा तीक्ष्णतापूर्वक स्पष्ट होती जाती है तथा अनुभव की जाती है। यही कारण है कि मज़दूरों की सबसे तात्कालिक माँग राज्य के मामलों पर मज़दूर वर्ग के प्रभाव का प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए राजनीतिक स्वतंत्रता की उपलब्धि, अर्थात राज्य के प्रशासन में तमाम नागरिकों की क़ानून (संविधान) द्वारा गारण्टीशुदा सीधी शिरकत, स्वतंत्र रूप से जमा होने, अपने मामलों पर विचार-विमर्श करने, अपनी संस्थाओं तथा अख़बारों के ज़रिये राज्य पर प्रभाव डालने के गारण्टीशुदा अधिकार। राजनीतिक स्वतंत्रता की उपलब्धि “मज़दूरों का जीवन्त कार्यभार” बन जाती है क्योंकि उसके बिना मज़दूरों का राज्य के मामलों पर कोई प्रभाव नहीं होता और न हो सकता है, तथा इस तरह वे अनिवार्यत: अधिकारहीन, अपमानित तथा मूक वर्ग बने रहते हैं। और यदि इस समय भी, जब मज़दूरों ने संघर्ष करना तथा अपनी क़तारों को ऐक्यबद्ध करना आरम्भ ही किया है, सरकार आन्दोलन को और आगे बढ़ाने से रोकने के लिए मज़दूरों को जल्दी-जल्दी रियायतें देने लगी है, तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि जब मज़दूर अपनी क़तारों को पूरी तरह ऐक्यबद्ध कर लेंगे तथा एक राजनीतिक पार्टी के नेतृत्व में एकजुट हो जायेंगे, तो वे सरकार को आत्मसमर्पण करने के लिए बाधित कर सकेंगे, वे अपने लिए तथा पूरी रूसी जनता के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल कर सकेंगे!

दिसम्बर 1895 – जुलाई 1896 के दौरान लिखित।
पहले पहल 1924 में प्रकाशित।
अंग्रेज़ी से अनूदित

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2020


 

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