नशे की ख़ुराक बाँट रहे पूँजीपतियों के मीडिया के मुक़ाबले जनता का वैकल्पिक मीडिया खड़ा करना होगा

– वृषाली

भारतीय मीडिया ने यूँ तो पिछले कुछ वर्षों में ज़्यादा खुले तौर पर पूँजीपतियों के दलाल के रूप में ख़ुद को स्थापित कर ही दिया है। लेकिन 2020 की कोरोना महामारी के दौर में भी जिस तरीक़े से भारतीय मीडिया ने अपना चरित्र जगज़ाहिर किया है उसके क्या ही कहने! कोविड-19 महामारी ने पूँजीवादी समाज के अमानवीय चेहरे को बेपर्द कर दिया है।


यूँ तो कोविड-19 की ख़बरें साल 2020 के शुरुआत में ही वैश्विक स्तर पर जगह बना चुकी थीं। लेकिन भारत सरकार के साथ-साथ दलाल गोदी मीडिया ने इस ख़बर के प्रति आँखें मूँद रखी थीं। 22 मार्च के एकदिवसीय जनता कर्फ़्यू के दौरान भारत में कोविड-19 के 360 मामले थे। 24 मार्च को अव्यवस्थित व अनियोजित तरीक़े से देशभर में लगाये गये लॉकडाउन ने आम जनता और ख़ास तौर पर मज़दूर आबादी को अनिश्चितता के अँधेरे में धकेल दिया। लेकिन सरकार और पूँजीपतियों की दलाल गोदी मीडिया ने प्रधानमंत्री के कहे का पालन करते हुए उन तमाम नकारात्मक ख़बरों को आमजन के बीच से ही ग़ायब कर दिया जो उनकी ज़िन्दगी से ताल्लुक़ात रखती थीं। सड़कों पर मीलों पैदल चल घर लौट रहे मज़दूरों की ख़बरें हों या कोविड के मोर्चे पर सुरक्षा किट की कमी का मुद्दा हो, गोदी मीडिया ने इन ख़बरों को अपने ‘बाज़ार’ में कोई जगह दी ही नहीं। कोविड-19 महामारी की रोकथाम के हर मोर्चे पर फ़ेल मोदी सरकार की आलोचना की ऐसे मीडिया से क्या ही उम्मीद की जाये जो खुलेआम जनता में भ्रम फैलाने के लिए झूठी ख़बरों के प्रचार-प्रसार में भी कोई कसर नहीं छोड़ती।
कोरोना के मामले को भी रिपोर्ट करने में तब्लीगी जमात के नाम पर साम्प्रदायिक रंग दिया गया। इस दौरान शाहीन बाग़, विपक्ष विरोधी, पाकिस्तान व चीन विरोधी, भाजपा सरकार की जय-जयकार के प्राइम टाइम कार्यक्रम लगभग हर बड़े कॉरपोरेट मीडिया की प्राथमिकता बने रहे। जब देशभर में लाखों मज़दूर पैदल ही घर जाने के लिए चल पड़े तो भी शुरू में टीवी चैनलों ने इसे कवर नहीं किया। जब बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया में उनकी तस्वीरें छा गयीं तब जाकर टीवी पर मज़दूरों की चर्चा आयी। उसमें भी कई टीवी चैनलों ने मज़दूरों को ही दोष देना और उसे साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश जारी रखी।
बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह की आत्महत्या के बाद फ़िलहाल गोदी मीडिया के पास लम्बे समय तक के लिए काफ़ी मसाला है। पिछले कुछ हफ़्तों से भारतीय मीडिया इस आत्महत्या की गुत्थी ‘सुलझाने’ में ऐसी जी जान से लगी हुई है कि अब रोज़गार, आर्थिक संकट और कोविड-19 के मामलों में शीर्ष पर खड़े भारत के लिए इनके पास ‘व्यर्थ’ समय नहीं है।

गोदी मीडिया की प्राथमिकता : कुछ आँकड़ों की ज़ुबानी

यूँ तो दलाल गोदी मीडिया की क़िस्सागोई अगर शुरू की जाये तो इसका कोई अन्त नहीं होगा, फिर भी चन्द आँकड़ों से देखते हैं कि गोदी मीडिया ने महामारी के दौरान क्या गर्द मचायी है।


● क्रूरदर्शन (सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म) द्वारा जुटाये गये आँकड़ों के मुताबिक़ 24 से 28 अगस्त के एक हफ़्ते के बीच गोदी मीडिया के लिए प्रमुख मुद्दे ये रहे :-
बॉलीवुड : 18 बहसें, विपक्ष-विरोधी : 7 बहसें, धर्म-आधारित : 3 बहसें, पाकिस्तान विरोधी : 3 बहसें, दिल्ली हिंसा : 2 बहसें, चीन-विरोधी : 1 बहस, एनईईटी, जेईई परीक्षा सम्बन्धी : 1 बहस।
● चन्द शीर्ष वफ़ादार (पूँजीपतियों के प्रति) मीडिया घरानों द्वारा आयोजित बहसें :-
15 जून से 15 अगस्त के दो महीनों के बीच रिपब्लिक भारत, आज तक, न्यूज़ 18, ज़ी न्यूज़ व न्यूज़ नेशन ने कुल 387 बहस आयोजित कीं जिनमें से केवल 1 बहस कोरोना महामारी के सम्बन्ध में थी।
● 31 मार्च से 1 मई के बीच रिपब्लिक भारत पर सबसे वफ़ादार अर्नब गोस्वामी के डिबेट शो (पूछता है भारत) की कुल 60 बहसों में तब्लीगी जमात : 18, शाहीन बाग़ : 4, विपक्ष विरोधी : 13, मोदी की जय-जयकार : 5, पालघर मॉबलिंचिंग : 8 (फ़ेक न्यूज़), बांद्रा प्रवासी मज़दूर : 2 (साम्प्रदायिक रंग), बाबा रामदेव : 1
जुलाई 2020 में अर्नब गोस्वामी के भारत द्वारा पूछे गये मुख्य सवाल – राम मन्दिर : 5, सुशांत सिंह आत्महत्या मामला : 5, विकास दूबे एनकाउण्टर : 5, कश्मीर : 3, चीन : 3, राजस्थान सरकार: 2, पाकिस्तान : 1, धर्म-आधारित : 1, पालघर मॉबलिंचिंग : 1
● 12 मार्च से 31 जुलाई के बीच ज़ी न्यूज़ की 275 मुख्य बहसें – विपक्ष विरोधी : 69, धर्म आधारित : 51, चीन सम्बन्धी : 32, तब्लीगी जमात : 24, पाकिस्तान : 18, लॉकडाउन : 17, मोदी सरकार की जय-जयकार : 16, कोरोना : 10, विकास दूबे : 9, सुशांत सिंह : 5, कश्मीर : 4, शराब की बिक्री : 3, कनिका कपूर : 3, प्रवासी मज़दूर : 3, उत्तर प्रदेश में जुर्म : 2, अमिताभ बच्चन : 2, डॉक्टरों पर हमले : 2, बिहार/असम/दिल्ली बाढ़ : 2, कोटा में फँसे छात्र : 1, पिज़्ज़ा डिलीवरी : 1, निर्भया : 1
● न्यूज़ 18 के अमीश देवगन द्वारा ‘आर-पार’ जुलाई के मुख्य मुद्दे – विपक्ष विरोधी : 5, राजस्थान सरकार : 5, राम मन्दिर : 4, चीन : 2, विकास दूबे : 2, धर्म-आधारित : 2, सुशांत सिंह आत्महत्या : 1, राफेल : 1, कश्मीर : 1
इनके अलावा टीवी 9 भारतवर्ष ने तो भीष्म प्रतिज्ञा ले रखी है कि साम्प्रदायिक मुद्दों और फ़ासीवादी प्रचार-प्रसार के अलावा कोई ख़बर ही नहीं दिखानी है! लव जिहाद, कोरोना जिहाद के बाद बड़े परिश्रम से इन्होंने ‘यूपीएससी जिहाद’ का कीड़ा खोज निकाला था, हालाँकि इस बार इनके मन्सूबों पर पानी फेर दिया गया है।
आज भारत में 48 लाख से ज़्यादा कोरोना के मामले व 79,000 से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं। यही नहीं पहले से ही डूब रही अर्थव्यवस्था को महामारी ने और गम्भीर बना दिया है। आज मोदी सरकार धड़ल्ले से सरकारी नौकरियों को ख़त्म कर रही है व निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। बेरोज़गारी चरम पर है और मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए दो वक़्त की रोटी जुटाना भारी पड़ रहा है। लेकिन भारतीय मीडिया के पास इन मुद्दों के लिए अपने ‘प्रायोजित’ प्राइम टाइम में वक़्त और जगह दोनों न के बराबर हैं।
भारतीय मीडिया से हम निष्पक्ष पत्रकारिता की कोई उम्मीद नहीं कर सकते। हिटलर के प्रचार मंत्री जोसेफ़ गोएबल्स ने कहा था कि मीडिया वह वाद्ययन्त्र है जिसे सरकार बजाती है। सरकार किसकी? पूँजीपतियों की! ज़ाहिरा तौर पर मीडिया भी पूँजीपति वर्ग के भाड़े का टट्टू और कलमघसीट है! भारत के तमाम बड़े मीडिया घरानों के शेयर बड़े पूँजीपतियों के हाथ में हैं जो किसी न किसी चुनावबाज़ पार्टी से सीधा ताल्लुक़ात रखते हैं। मीडिया ओनरशिप मॉनिटर द्वारा तैयार की गयी एक रिपोर्ट भारतीय मीडिया के चरित्र को बख़ूबी उजागर करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार 2017 तक टेलीविज़न की 183 मिलियन (64 %) घरों तक पहुँच बन चुकी है।

चन्द प्रमुख न्यूज़ चैनलों के मालिकाने पर एक नज़र

● रिपब्लिक टीवी के अधिकतम शेयर ख़ुद अर्नब गोस्वामी व उनकी पत्नी के पास हैं। रिपब्लिक के सह-संस्थापक राजीव चन्द्रशेखर भाजपा सदस्य हैं व फ़िलहाल राज्य सभा में पदस्थ हैं।
● ज़ी न्यूज़ का स्वामित्व एस्सेल ग्रुप के सुभाष चन्द्रा के पास है। सुभाष चन्द्रा 2014 में भाजपा के सहयोग से हिसार, हरियाणा से राज्यसभा सांसद चुने गये थे। ज़ी न्यूज़ ने ही नोटबन्दी के बाद 2000 के नोट में ‘चिप’ डाले जाने की धमाकेदार ख़बर चलायी थी।
● नेटवर्क 18 के स्वामी और प्रधानमंत्री के क़रीबी मुकेश अम्बानी 16 न्यूज़ चैनलों के मालिक हैं।
● न्यूज़ 24 का स्वामित्व अनुराधा प्रसाद के पास है जो काँग्रेस के राज्यसभा सदस्य राजीव शुक्ला की पत्नी हैं व भाजपा के केन्द्रीय सूचना एवं प्रचार मंत्री रविशंकर प्रसाद की बहन हैं।
● आजतक के ज़्यादा शेयर अरुण पूरी व कुमा मंगलम बिड़ला के बीच बँटे हुए हैं।
क्षेत्रीय न्यूज़ चैनलों में राजनीतिक रुझान और खुले तौर पर सामने आता है। मसलन ओडिसा टीवी का स्वामित्व पांडा परिवार के हाथों में है। बैजयंत जय पांडा भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और प्रवक्ता हैं। वहीं असम के न्यूज़ लाइव की स्वामी रिंकी बहुजन शर्मा असम के भाजपा सरकार के कैबिनेट मंत्री की पत्नी हैं।
प्रिण्ट मीडिया की बात करें तो चार नाम प्रमुख हैं। देश भर में कुल पाठकों में चार मुख्य अखबार – दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, अमर उजाला व दैनिक भास्कर की 76.45 % हिस्सेदारी है। दैनिक जागरण के सम्पादकीय निदेशक महेन्द्र मोहन गुप्ता समाजवादी पार्टी की ओर से पूर्व राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं। जागरण प्रकाशन का 60.63 % हिस्सा गुप्ता परिवार के अधीनस्थ है। देश में दूसरे सबसे ज़्यादा लोकप्रिय अख़बार हिन्दुस्तान का स्वामित्व शोभना भारतीय के पास है, जो उद्योगपति श्याम सुन्दर भारतीय की पत्नी व के.के. बिरला की पुत्री हैं।
मीडिया पूँजीवादी समाज में मालिकों के शासन के वर्चस्व को बनाये रखने का एक अहम साधन है। मीडिया के सहयोग से पूँजीपति वर्ग लोगों के बीच सहमति का निर्माण करता है और पूँजीपति वर्ग के पक्ष में राय तैयार करने का काम करता है। हालाँकि मीडिया की कथित स्वायत्तता व निष्पक्षता का भेद खुलना शुरू हो गया है। अन्य तमाम संस्थाओं की तरह ही मीडिया की भी वर्ग पक्षधरता है – पूँजीपति वर्ग के प्रति! मीडिया पूँजीपति वर्ग के ही विचारों व संस्कृति का प्रचारक-प्रसारक होता है। हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स ने कहा था कि मीडिया को मेरे नियंत्रण में दे दो और मैं किसी भी देश को सुअरों के झुण्ड में तब्दील कर दूँगा।

जनता के वैकल्पिक मीडिया के सामने चुनौतियाँ

कॉरपोरेट मीडिया के विकल्प के तौर पर आज बेशक सोशल मीडिया (जैसे – फ़ेसबुक, व्हाट्सएेप, ट्विटर इत्यादि) के संस्तरों पर कई मीडिया चैनलों ने अपनी जगह बनायी है। इनमें से कई मीडिया चैनल जनता के आर्थिक सहयोग से ही चल रहे हैं। लेकिन सोशल मीडिया की अपनी कुछ सीमाएँ भी हैं। सबसे बड़ी बात, सोशल मीडिया की पहुँच आन्तरिक संस्तरों तक नहीं है। दूसरे, सोशल मीडिया भी पूँजीवादी समाज के ढाँचे में ही आता है। ऐसे में सोशल मीडिया पर नियंत्रण रखना सत्ताधारी वर्ग के लिए कोई बड़ी बात नहीं। हाल फ़िलहाल में ही भारत की फ़ेसबुक अधिकारी अँखि दास के भाजपा से जुड़े तार चर्चा में हैं।
ज़ाहिरा तौर पर आज नये सिरे से देश स्तर पर जन मीडिया को खड़ा करने की ज़रूरत है। पूँजीपतियों के भाड़े के टट्टुओं के ख़िलाफ़ जनता का क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया खड़ा करना आज मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के लिए एक बड़ी चुनौती है। आज क्रान्तिकारी साहित्य के अलावा, क्रान्तिकारी अख़बार, पत्र-पत्रिकाएँ, जन-नाट्य व गायन टोलियों की पहुँच देश के हर कोने में पहुँचानी होगी। इस प्रोजेक्ट में अवैतनिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों इत्यादि की अहम भूमिका होगी।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल-सितम्बर 2020


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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