भाजपा देशभर में त्योहारों का इस्तेमाल कर रही है साम्प्रदायिक नफ़रत फैलाने में

प्रसेन

मशहूर जनकवि गोरख पाण्डेय ने 1978 में साम्प्रदायिक दंगों पर एक कविता लिखी थी – “इस बार दंगा बहुत बड़ा था/ख़ूब हुई थी ख़ून की बारिश/अगले साल अच्छी होगी/फ़सल/मतदान की”। यह उस समय की कविता है जबकि फ़ासीवादी ताक़तें अभी शासन-सत्ता की मशीनरी पर क़ाबिज़ नहीं थी। हालाँकि उस समय भी संघ परिवार द्वारा जनता के बीच साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का ज़हर नित-निरन्तर भरा जा रहा था। लेकिन आज सत्ता पर क़ाबिज़ होने और प्रशासन मशीनरी में अपने आन्तरिक पैठ के ज़रिये फ़ासीवादी ताक़तें साम्प्रदायिक माहौल की निरन्तरता और उसे उन्मादपूर्ण बनाने के लिए जिस तरह से त्योहारों को उपकरण की तरह इस्तेमाल कर रही है, वह अभूतपूर्व है।

कुम्भ, होली, रामनवमी, ईद, नवरात्रि आदि अवसरों और त्योहारों को देश की जनता अपनी-अपनी आस्था के मुताबिक़ मनाती रही है। इन त्योहारों में हिन्दू और मुसलमानों के बीच खाने-पीने का लेन-देन और मेल-मिलाप होता रहा है। लेकिन भाजपा और संघ परिवार पिछले कुछ सालों से इन त्योहारों को हिन्दू-मुस्लिम आबादी के बीच साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के उपकरण में बदलने की साज़िश में लगे हुए हैं। 

अगर केवल इस साल कुम्भ, होली, रामनवमी और ईद जैसे अवसरों और त्योहारों पर होने वाली घटनाओं को देखा जाये तो बात स्पष्ट हो जायेगी। सबसे पहले महाकुम्भ को लें। मोदी और योगी सरकार ने इस अवसर को फ़ासीवादी प्रचार के ‘दिव्य और भव्य’ कार्यक्रम में तब्दील कर दिया। अल्पसंख्यक आबादी के विरुद्ध उनके कुम्भ में आने को लेकर तरह-तरह की चेतावनियाँ और धमकियों के ज़रिये साम्प्रदायिक उन्माद का माहौल बनाया गया। प्रयागराज के सभी तेरह अखाड़ों ने योगी से माँग की कि मुसलमानों और मुसलमान कारोबारियों को मेला क्षेत्र में न आने दिया जाये नहीं तो सनातन संस्कृति और परम्परा दूषित हो जायेगी। इस पर योगी का बयान था कि कलुषित मानसिकता और विचारधारा वाले मेला क्षेत्र में न आयें, तभी अच्छा होगा। योगी ने कहा कि बहुत साल पहले बहुत से लोगों ने इस्लाम अपना लिया था, उनकी कुछ पीढ़ियाँ आज भी सनातन में विश्वास रखती हैं। स्पष्ट है कि यह चेतावनी किसके लिए थी!

इसी तरह 31 दिसम्बर को नासिर नामक आईडी से कुम्भ में बम धमाका करने की धमकी को ‘हिन्दुओं’ के ख़िलाफ़ जिहाद के रूप में पेश किया गया। बाद में पता चला कि यह आयुष नाम के व्यक्ति की आईडी थी जो आरएसएस से जुड़ा हुआ है। इसी तरह जूना अखाड़ा: ‘विश्वासघात से उबरना’, ‘सनातन धर्म की आरक्षित सेना….जिसने मुगलों को चौंका दिया’ नामक थीम से मुगलों के ख़िलाफ़ युद्धों में इनकी भागीदारी के बारे में बताकर मेला क्षेत्र में प्रचारित किया गया।

होली को भी साम्प्रदायिक रंग देने की पूरी कोशिश की गयी। सम्भल में एक पीस कमेटी की बैठक के दौरान (इस बार होली और अलविदा की नमाज़ एक ही दिन थी) मुस्लिम पक्ष की माँग थी कि होली के दौरान शासन-प्रशासन इस तरह की व्यवस्था करे कि दोनों पक्षों यानी हिन्दू-मुस्लिम में कोई तनाव की परिस्थिति न आये। इसी पीस कमेटी की बैठक में सीओ अनुज चौधरी ने कहा कि होली साल में एक बार आती है और जुमे की नमाज़ 52 बार। जिसको रंग खेलना हो और जिसकी हिम्मत रंग लगवाने की हो वही बाहर निकले अन्यथा घर के अन्दर ही रहें और घर पर ही नमाज़ पढ़ें। उनके इस बयान पर मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि अनुज चौधरी एक पहलवान हैं और एक पहलवान की भाषा में ही उन्होंने समझाया है। इसी तरह अलीगढ़ में भी ऐसे ही प्रयास हिन्दूवादी संगठनों द्वारा किये गये। यहाँ भाजपा सांसद सतीश गौतम ने इसमें बढ़-चढ़कर भूमिका निभायी। दरअसल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इस बार हिन्दू छात्रों ने कॉलेज के एक हॉल में होली मनाने की अनुमति माँगी। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पहले भी होली मनायी जाती थी। जो छात्र अपने घर नहीं जाते थे वे हॉस्टल आदि में होली मनाते थे। विश्वविद्यालय प्रशासन इस पर विचार कर रहा था लेकिन इसी बीच भाजपा सांसद और करणी सेना ने इस मामले को साम्प्रदायिक रंग देना शुरू कर दिया। भाजपा सांसद सतीश गौतम ने तो होली खेलने से रोकने वालों को ऊपर पहुँचाने की धमकी तक दे डाली। हालाँकि विश्वविद्यालय ने होली खेलने के लिए एक हॉल दे दिया लेकिन तब तक गोदी मीडिया द्वारा लोगों में यह साम्प्रदायिक प्रचार खूब भरा गया कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय होली खेलने देने के ख़िलाफ़ है। सम्भल, शाहजहाँपुर, बरेली और अलीगढ़ जैसे जिलों में तो क़रीब 200 मस्जिदों को होली की पूर्व संध्या पर तिरपाल से ढक दिया गया था। ज़ाहिरा तौर पर यह पूरी स्थिति हिन्दू-मुस्लिम के बीच के अलगाव को बढ़ाने वाली ही थी।     

इसी तरह ईद के अवसर का भी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ाने में इस्तेमाल किया गया। उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने ईद के अवसर पर सड़कों और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर और अपने घरों की छतों पर नमाज पढ़ने के लिए इकट्ठा होने पर रोक लगा दी। हरियाणा में भाजपा सरकार ने ईद को राजपत्रित अवकाश की सूची से हटाकर प्रतिबन्धित अवकाश की श्रेणी में डाल दिया।

रामनवमी के अवसर का तो भाजपा पिछले कई सालों से साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाने के लिए व्यापक इस्तेमाल कर रही है। स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि इस आयोजन में बड़े-बड़े सैकड़ों जुलूस देशभर में निकाले जाते हैं जो तलवारों, बन्दूकों और त्रिशूलों से लैस होकर, मुस्लिम इलाक़ों और मस्जिदों के सामने से मार्च करते हैं। कई बार प्रशासन द्वारा तय किये गए रूट को जानबूझकर तोड़कर मुस्लिम इलाक़ों से जुलूस निकाला जाता है। जुलूस में मुस्लिम इलाक़ा आते ही जानबूझकर मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत भरे नारे लगाये जाते हैं और मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा के आह्वान वाले धार्मिक गाने बजाये जाते हैं।

अभी हाल ही में ‘सेण्टर फ़ॉर स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एण्ड सेक्युलरिज़्म’ के कार्यकर्ता-शोधकर्ता इरफ़ान इंजीनियर और नेहा दाभाड़े की पुस्तक ‘वेपनाइज़ेशन ऑफ़ हिन्दू फेस्टिवल्स’ आयी है। यह पुस्तक हिन्दू त्योहारों, विशेष रूप से रामनवमी के इर्द-गिर्द होने वाली हिंसा के मद्देनज़र केन्द्रित है। यह पुस्तक तथ्यों से दिखाती है कि किस तरह त्योहारों के उत्सव को मुस्लिम समुदाय के लिए डराने वाला और आक्रामक बना दिया गया है, जिसके कारण ज़्यादातर हिंसा और ध्रुवीकरण होता है।

यह पुस्तक वर्ष 2022-2023 में विशेष रूप से रामनवमी के त्यौहारों के उत्सव के हिस्से के रूप में धार्मिक जुलूसों द्वारा भड़काई गयी हिंसा की गहन जाँच पर आधारित है। पुस्तक में शामिल हिंसा हावड़ा और हुगली (2023), सम्भाजी नगर (2023), वडोदरा (2023), बिहारशरीफ़ और सासाराम (2023), खरगोन (2022), हिम्मत नगर और खम्बात (2022) और लोहरदगा (2022) से सम्बन्धित है।

इस पुस्तक की भूमिका में इरफ़ान इंजीनियर बताते हैं, “यहाँ तक ​​कि कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों का एक छोटा समूह ‘धार्मिक जुलूस’ के रूप में अल्पसंख्यक आबादी वाले इलाक़ों से गुज़रने पर ज़ोर दे सकता है और राजनीतिक तथा अपमानजनक नारे लगाकर, हिंसक गीत और संगीत बजाकर कुछ युवाओं को उकसा सकता है और उम्मीद करता है कि प्रतिक्रिया में उन पर पत्थर फेंके जायें। इसके बाद राज्य अल्पसंख्यक समुदाय के बड़ी संख्या में सदस्यों को गिरफ़्तार करके और बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के कुछ दिनों के भीतर उनके घरों और सम्पत्तियों को ध्वस्त करके बाकी काम कर देगा।” मध्य प्रदेश सरकार के एक मन्त्री ने तो यहाँ तक कहा कि जुलूस पर पत्थर फेंके गए, जो मुस्लिम परिवारों से आए थे, इसलिए इन परिवारों को पत्थरों में बदल दिया जाना चाहिए।

रामनवमी के अवसर पर इस बार महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, कर्नाटक, बिहार, गुजरात राज्यों से इस तरह की कई घटनाएँ हुईं। महाराष्ट्र के सम्भाजीनगर, पश्चिम बंगाल के डलखोला और कर्नाटक के हासन में साम्प्रदायिक टकराव में लोगों की जानें तक गयीं। 

रामनवमी समेत तमाम हिन्दू त्योहारों पर संघ परिवार व उसके विभिन्न आनुषंगिक संगठनों की अगुवाई में, प्रशासन की मूक या प्रत्यक्ष सहमति से चलती गाड़ियों या रास्ते में विभिन्न जगह डीजे के ज़रिए बहुत भोंडे और भद्दे मुस्लिम विरोधी गीत बजाये जाते हैं। जानबूझकर मस्जिदों के सामने या मुस्लिम इलाक़ों को टारगेट किया जाता है। मुस्लिमों को उकसाया जाता है कि वो कुछ करें ताकि तोड़-फोड़, आगजनी की स्थिति पैदा की जा सके और पूरे माहौल को साम्प्रदायिक बनाया जा सके। इस बीच जो हिन्दू-पॉप गाने त्योहारों पर रास्ते में या जुलूस में बजाये जा रहे हैं उनमें कुछ गीतों के बोल इस तरह हैं-‘बुलडोज़र में दबकर मर गए जो आस्तीन के साँप रहे हैं, बुलडोज़र बाबा चाँप रहे हैं’, ‘पाकिस्तान में भेजो या क़त्लेआम कर डालो, आस्तीन के साँपों को न दुग्ध पिलाकर पालो’, ‘टोपी वाला भी सर झुकाकर जै श्री राम बोलेगा’, ‘सुन लो मुल्लो पाकिस्तानी, गुस्से में हैं बाबा बर्फानी’, ‘जो छुएगा हिन्दुओं की बस्ती को, मिटा डालेंगे उसकी बस्ती को’ आदि। इस बार रामनवमी के मौक़े पर बंगाल और बिहार के भागलपुर, औरंगाबाद, समस्तीपुर और मुंगेर इलाकों में हुए झड़पों में इस तरह के गानों की एक महती भूमिका रही है। इन मौकों पर इकट्ठी भीड़ का फ़ायदा उठाकर मुस्लिम दुकानों, घरों या मस्जिदों पर जबरिया भगवा झण्डा आदि लगाने से भी उकसाने की कोशिश होती है। जब झड़प होती है तो तुरन्त मीडिया और प्रशासन हिन्दुओं के पक्ष में आ जाता है। मीडिया द्वारा व्यापक आबादी में एकतरफ़ा शोर मचाया जाता है कि हिन्दुओं के जुलूस पर मुस्लिमों ने पत्थर फेंके आदि आदि। उसके बाद फ़र्ज़ी मुक़दमों, बुलडोज़र से घर गिराने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।  

कुणाल पुरोहित द्वारा लिखी पुस्तक ‘एच-पॉप’ में इस बात पर प्रकाश डाला है कि किस तरह हिन्दू-पॉप गानों द्वारा मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलायी जा रही है। यह पुस्तक दिखाती है कि किस तरह हिन्दुत्ववादी पॉप सितारे विशेष रूप से उत्तर भारतीय परिदृश्य में तीव्र नफ़रत फैला रहे हैं। हज़ारों गाने देशभर के कलाकारों और छोटे-मोटे स्टूडियो द्वारा लगातार बनाये जाते हैं। इन गानों के ज़रिये विभिन्न सामयिक और ऐतिहासिक मुद्दों पर हिन्दुत्ववादी कट्टर रुख़ को सरल शब्दों, और उन्मादी बीट्स के ज़रिए लोगों में लोकप्रिय बना दिया जाता है। हर चीज़ के लिए एक गाना है : श्रोताओं को ‘हिन्दू राष्ट्र’ के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करना – हिन्दुओं के लिए एक राष्ट्र; आतंकवादी हमलों के बाद नग्न राष्ट्रवाद और ज़ेनोफ़ोबिया को भड़काकर मोदी सरकार का बचाव और प्रशंसा करने के लिए गाने; साथ ही कश्मीर की संवैधानिक स्वायत्तता को रातों-रात छीनने और हज़ारों लोगों को नज़रबन्द करने जैसे विवादास्पद कार्यों की प्रशंसा करने वाले गाने भी हैं। हिन्दुओं के ख़िलाफ़ एक “गुप्त इस्लामी जनसांख्यिकीय षड्यन्त्र” के विरुद्ध गाने हैं, ‘लव जिहाद’ के ख़िलाफ़ चेतावनी देने वाले गाने हैं। ऐसे गाने हैं जो मस्जिदों की जगह मन्दिर बनाने का आह्वान करते हैं, ऐसे गाने हैं जो पाकिस्तान को मिटा देने का आह्वान करते हैं, ऐसे गाने हैं जो मुसलमानों को निशाना बनाते हैं और उनके ख़िलाफ़ हिंसा की धमकी देते हैं, ऐसे गाने हैं जो हिन्दुओं को ‘जागने’ का आह्वान करते हैं, उन्हें अपने धर्म पर गर्व करने के लिए कहते हैं।

इसी तरह नवरात्रि पर दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि जगहों पर विश्व हिन्दू परिषद और संघ के अन्य आनुषंगिक संगठनों द्वारा मुस्लिमों की मीट की दुकानें बन्द करवायी गईं। कई जगहों पर लगने वाले मेलों या बाज़ार में अवैध तरीक़े से लोगों का आधार कार्ड चेक किया गया। मुस्लिम होने पर उसकी दुकान हटवा दी गयी या बन्द करवा दी गयी। 

इन सारे तथ्यों और घटनाओं से आसानी से समझा जा सकता है कि फ़ासीवादी ताक़तें किस तरह से त्योहारों का साम्प्रदायिक उन्माद की निरन्तरता बनाये रखने के लिए उपकरण के तौर पर इस्तेमाल कर रही हैं।

इसका कारण बहुत साफ़ है। फ़ासीवादी ताक़तें जब सत्ता में नहीं होती हैं तो अपने हिंस्र साम्प्रदायिक प्रचार के अलावा वे अपनी सदाचारी, साफ़-सुथरी, राष्ट्र-सेवक, गरीब का दुख-दर्द समझने वाली नकली छवि गढ़ते हैं। लेकिन जब फ़ासीवादी ताक़तें सत्ता में होती हैं तो इनके भयंकर भ्रष्टाचारी, मज़दूर-विरोधी, पूँजीपरस्त चेहरे पर पड़ा रामनामी दुपट्टा हटने लगता है। भाजपा के सत्ता में आने के बाद से पीएम केयर घोटाला से लेकर, इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाला, विद्युत वितरण अनुबन्ध में अडानी को मालामाल करने जैसे दर्जनों घोटाले सामने आ चुके हैं। छात्रों-युवाओं को रोज़गार देने का झाँसा देने वाली मोदी सरकार के कार्यकाल में रोज़गार सृजन की दर ऋणात्मक हो चुकी है। बेरोज़गारी पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। पक्की नौकरियों को या तो ख़त्म किया जा रहा है या फिर ठेके/संविदा के हवाले किया जा रहा है। कर्मचारियों के हक़ों पर नये-नये हमले जारी हैं। मज़दूरों के मेहनत की लूट पर श्रम-क़ानूनों से जो पहले थोड़ी-बहुत सुरक्षा मिलती भी थी उसे बहुत योजनाबद्ध तरीक़े से मोदी सरकार द्वारा ख़त्म किया जा चुका है या किया जा रहा है। मोदी सरकार द्वारा लाये गये चार ‘नये लेबर कोड’ के ज़रिये मज़दूरों के काम के घण्टों को क़ानूनी तौर पर बढ़ाकर 12 घण्टे करने की योजना है। मँहगाई चरम पर है और जन-कल्याणकारी योजनाओं में किया जा रहा खर्च हर बार के बजट में घटाया जा रहा है। पूँजीपतियों को छूट दी जा रही है जबकि जनता पर टैक्स का बोझ बहुत ज़्यादा बढ़ा दिया गया है।  

कुल मिलाकर, मुनाफ़े की घटती दर से बिलबिलाये पूँजीपति वर्ग की सेवा में मोदी सरकार पूरी मुस्तैदी से डटी हुई है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि मेहनतकश जनता को मोदी द्वारा दिखाये गये सब्ज़बाग की पोलपट्टी बहुत तेज़ी से खुलती जा रही है। जनता में असन्तोष बढ़ रहा है। ऐसी स्थिति में जनता का ध्यान असली समस्याओं से हटाने के लिए त्योहारों का इस्तेमाल कर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को निरन्तरता में बनाये रखना भाजपा व संघ परिवार की फ़ासीवादी राजनीति की ज़रूरत है। त्योहारों में बड़े पैमाने पर खर्च कर सरकारी मशीनरी व संघ के आनुषंगिक संगठनों के ज़रिये इसको अमल में लाया जा रहा है। मेहनतकश जनता को फ़ासीवादी भाजपा व संघ परिवार की इस साज़िश से सावधान रहते हुए अपने असली माँगों पर लामबन्द होना होगा और फ़ासीवादी ताक़तों के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का जवाब अपनी वर्गीय एकता से देना होगा। 

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2025


 

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