सीरिया: साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और इस्लामी कट्टरपन्थ, दोनों को नकारना होगा जनता की ताक़तों को!

शिशिर

सीरिया में जारी गृहयुद्ध अब क़रीब दो वर्ष पूरे करने वाला है। सीरिया के शासक बशर अल असद की दमनकारी तानाशाह सत्ता के ख़िलाफ़ जनविद्रोह की शुरुआत वास्तव में अरब विश्व में दो वर्ष पहले शुरू हुए जनउभार के साथ ही हुई थी। इस जनविद्रोह ने मिस्र और ट्यूनीशिया में तानाशाह सत्ताओं को उखाड़ फेंका। हालाँकि किसी इंक़लाबी मज़दूर पार्टी की ग़ैर-मौजूदगी में इन देशों में जो नयी सत्ताएँ आयीं उन्होंने जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया और वे साम्राज्यवाद के प्रति समझौतापरस्त रुख़ रखती हैं। लेकिन एक बात तय है कि अरब में उठे जनविद्रोह ने साम्राज्यवादियों की नींदें उड़ा दी हैं। अमेरिकी और यूरोपीय साम्राज्यवादी जानते हैं कि जनता की क्रान्तिकारी चेतना का जिन्न एक बार बोतल से निकल गया तो वह कभी भी ख़तरनाक रुख़ अख्त़ियार कर सकता है। इसलिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने इन जनविद्रोहों को कुचलने की बजाय उनका समर्थन करके उन्हें सहयोजित करने का क़दम उठाया है। मिस्र और ट्यूनीशिया में काफ़ी हद तक यह साम्राज्यवादी साज़िश कामयाब भी हुई है। अल असद की सत्ता के खि़लाफ़ जो जनविद्रोह शुरू हुआ था, शुरू में अमेरिका ने उसे समर्थन नहीं दिया था और असद से कुछ सुधार लागू करने के लिए कहा था ताकि यह जनविद्रोह किसी बड़े परिवर्तन की तरफ न बढ़े। लेकिन जल्द ही उसने असद की सत्ता को ख़त्म करने की नीति को खुले तौर पर अपना लिया। दो वर्षों से जारी सीरियाई गृहयुद्ध में क़रीब 8,000 लोग मारे जा चुके हैं और इससे कहीं ज़्यादा विस्थापित हो चुके हैं। अमेरिका विद्रोहियों का समर्थन करके सीरिया में एक ऐसा नियन्त्रित सत्ता परिवर्तन चाहता है जो कि उसके हितों के अनुकूल हो।

असद की सत्ता को गिराने की वकालत करने के पीछे अमेरिका के कई और मकसद भी हैं। इस समय अमेरिकी साम्राज्यवाद को मध्य-पूर्व में जिस सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, वह है ईरान। अमेरिका और इज़रायल के साम्राज्यवादी हितों के लिए ईरान सबसे बड़ा रोड़ा है। मध्य-पूर्व में जिस ताक़त का लम्बे समय से ईरान के साथ दोस्ताना सम्बन्ध है वह है सीरिया की अल असद की सरकार। सीरिया और ईरान की मित्रता अमेरिका के लिए चिन्ता का विषय है। ईरान ने हालिया वर्षों में अपनी सैन्य ताक़त को बढ़ाया है। उसने इराक़ से अमेरिकी फौजों के हटने के साथ वहाँ अपनी पकड़ बना ली है। ईरान में शिया मुस्लिम कट्टरपन्थियों का शासन है। इराक़ में शिया आबादी बहुसंख्या में है। ईरान इराक़ के शिया मुसलमान कट्टरपन्थियों के साथ अपने सम्बन्धों के ज़रिये इराक़ में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। साथ ही, सीरिया भी शिया बहुल देश है और वहाँ असद की सत्ता ईरान की पुरानी सहयोगी रही है। ये दोनों ताक़तें लेबनान में हिज़बुल्ला की हर तरह से मदद कर रही हैं और सभी जानते हैं कि इज़रायल और अमेरिका के सबसे बड़े दुश्मनों में से हिज़बुल्ला एक है, जिसने कि इज़रायली ज़ियनवादियों को कुछ वर्ष पहले ही लेबनान से खदेड़ा था। ईरान, सीरिया और हिज़बुल्ला का गठजोड़ अमेरिकी मंसूबों के लिए बेहद ख़तरनाक बनता जा रहा है। साथ ही, यह गठजोड़ फिलिस्तीनी संगठन हमास के साथ भी सम्बन्ध स्थापित कर रहा है।

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इन्हीं कारणों से अमेरिका सीरिया में असद की सत्ता को गिराना चाहता है, जो ईरान के लिए एक बड़ा झटका हो सकता है। लेकिन उसके लिए समस्या यह है कि सीरिया की सेना काफ़ी संगठित और उन्नत है। और ईरान की सैन्य शक्ति तो पूरे मध्य-पूर्व में इस समय सबसे ज़्यादा है। हिजबुल्ला के पास भी प्रतिबद्ध योद्धाओं की एक सेना है। ऊपर से रूस खुले तौर पर किसी भी अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप का विरोध कर रहा है। चीन भी उसे समर्थन दे रहा है। अमेरिका और रूस के धड़ों के बीच साम्राज्यवादी अन्तरविरोध के कारण असद अमेरिकी हस्तक्षेप से बचा हुआ है और जनविद्रोह का बर्बर दमन कर रहा है। ऐसे में अमेरिका के लिए स्थिति काफ़ी जटिल हो गयी है।

अमेरिका की दक्षिणपन्थी पत्रिका फ़ॉरेन अफ़ेयर्स ने हाल में लिखा कि ईरान वैश्विक साम्राज्यवाद और पूँजीवाद को कोई चुनौती नहीं देना चाहता। न ही सीरिया का विश्व साम्राज्यवाद से कोई बैर है। लेकिन मध्य-पूर्व में ये दोनों ही सत्ताएँ अमेरिकी हितों के लिए अच्छी नहीं हैं। सीरिया और ईरान हिजबुल्ला और हमास को हथियार दे रहे हैं और हर प्रकार की अमेरिका विरोधी ताक़तों के हाथ मज़बूत कर रहे हैं। इज़रायल की गुप्तचर एजेंसी के भूतपूर्व निदेशक इफ्रेम हलेवी ने न्यूयॉर्क टाइम्स में हाल ही में लिखा कि सीरिया में अमेरिका को सैन्य हस्तक्षेप करके असद की सत्ता को गिरा देना चाहिए क्योंकि इससे मध्य-पूर्व में ईरान अपने एकमात्र बड़े सहयोगी को खो देगा और उसके बाद ईरान पर हमला करना आसान हो जायेगा और पूरा शक्ति सन्तुलन अमेरिका और इज़रायल के पक्ष में आ जायेगा। अमेरिकी हुक्मरान भी समझ रहे हैं कि ईरान के बढ़ते प्रभाव और ख़ास तौर पर इराक़ की राजनीति में उसकी बढ़ती पकड़ पूरे मध्य-पूर्व में अमेरिकी प्रभुत्व के लिए इस समय सबसे बड़ा ख़तरा हैं। लेकिन इराक़ और अफगानिस्तान में दाँत खट्टे होने के बाद अमेरिका किसी सीधे सैन्य हस्तक्षेप में उतरने से डर रहा है और इसकी बजाय सीरिया में विद्रोहियों को मदद करने के रास्ते पर सोच रहा है। लेकिन अगर वह ऐसा करता है तो रूस असद की सत्ता को सैन्य मदद करेगा। ऐसे में, अमेरिका के लिए स्थिति और भी ख़राब हो जायेगी। इसलिए अमेरिका को इस समय इस समस्या के समाधान का कोई रास्ता नहीं समझ में आ रहा है।

लेकिन यह भी सच है कि ईरान और सीरिया में जो ताक़तें सत्ता में हैं, वे स्वयं भी शिया इस्लामिक कट्टरपन्थी ताक़तें हैं। ये स्वयं प्रतिक्रियावादी ताक़तें हैं और अपने-अपने देशों में इन्होंने जनता के जनवादी हक़ों का दमन किया है, मज़दूर शक्तियों का दमन किया है और ये भी उन देशों के पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करती हैं। मध्य-पूर्व में जो टकराव अभी जारी है वह साम्राज्यवादी शक्तियों और धार्मिक कट्टरपन्थियों के बीच है। सीरिया के जनविद्रोह के नेतृत्व को किसी भी क़ीमत पर इन दोनों से अलग रहते हुए अपनी माँगों और लक्ष्यों को इन दोनों से अलग रखना होगा। लीबिया में जारी जनविद्रोह में वहाँ के विद्रोही संगठन ने गद्दाफ़ी को न हरा पाने के कारण साम्राज्यवादियों से मदद लेना स्वीकार कर लिया था और उसकी क़ीमत आज तक लीबिया की जनता चुका रही है, जहाँ इस समय अराजकता, ग़रीबी और भुखमरी का राज क़ायम है। सीरिया की जनता को यह लड़ाई अपने बूते पर लड़नी होगी, बिना किसी साम्राज्यवादी ताक़त या धार्मिक कट्टरपन्थी ताक़तों की ओर झुके हुए।

इस पूरे प्रकरण ने यह भी दिखला दिया है कि अरब जनता की मुक्ति का रास्ता किसी भी किस्म की सर्वइस्लामी एकता से नहीं हो सकता है। ग़ौरतलब है कि सीरिया में अमेरिकी हस्तक्षेप में मदद करने का काम करने वालों में सऊदी अरब और कतर के शाहों की सत्ताएँ भी हैं, जो कि सुन्नी कट्टरपन्थी हैं। हमेशा की तरह इन दोनों देशों के सुन्नी कट्टरपन्थियों ने शिया देशों में अमेरिकी साम्राज्यवाद का हर सम्भव तरीक़े से समर्थन किया है। अभी कुछ महीनों पहले ही बहरैन में जनविद्रोह को कुचलने के लिए सऊदी अरब के शाह की सेनाओं ने ज़बर्दस्त दमन किया था। इस प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप के चलते बहरैन में जनविद्रोह को कुचल दिया गया और बहरैन के शासकों की सत्ता क़ायम रही। उसी प्रकार तुर्की में अर्दोगान की सत्ता भी खुले तौर पर अमेरिका की मदद कर रही है। वह सीरिया की सेना में अन्दर से बग़ावत करवाने की तैयारी कर रही है। मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड और सलाफियों की सरकार के प्रमुख मुसावी ने भी अपने देश की जनता को धोखा देते हुए फिलिस्तीन की जनता के साथ ग़द्दारी की और फिलिस्तीन के मसले पर अमेरिकी-इज़रायली साम्राज्यवाद की मदद की है। इन देशों की जनता को भी यह बात अब समझ में आ रही है कि मुस्लिम कट्टरपन्थ की ज़मीन पर खड़ा होकर कभी भी साम्राज्यवाद का मुकाबला नहीं किया जा सकता है। वास्तव में, इन देशों में जनवादी सत्ताओं के ख़िलाफ़ 1950 से लेकर 1970 के दशक तक मुस्लिम कट्टरपन्थ और आतंकवाद को खड़ा करने का काम स्वयं अमेरिकी साम्राज्यवाद ने ही किया था। उससे पहले इन देशों में इस प्रकार का मुस्लिम कट्टरपन्थ यदि था भी तो बेहद कमज़ोर था। इन देशों में ऐसी ताक़तों को अमेरिका ने पैसे और हथियार देकर खड़ा किया था, ताकि वहाँ वह सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद के प्रभाव को फैलने से रोक सके और इन देशों में अस्तित्व में आई स्वतन्त्र रैडिकल पूँजीवादी सत्ताओं का पतन करा सके, जो कि उसके साम्राज्यवादी हितों की पूर्ति में बाधा पैदा कर रही थीं। अफगानिस्तान में इसी सोच को लेकर तालिबान को खड़ा किया गया था। और इसी सोच को लेकर मध्य-पूर्व में अलक़ायदा को खड़ा करने का काम भी अमेरिका का ही था। जाहिर है, ऐसी ताक़तें हमेशा अमेरिका के नियन्त्रण में नहीं रहतीं और बाद में इन ताक़तों के नेतृत्व में बैठे लोगों की अपनी महत्वाकांक्षाएँ पैदा हो गयीं। नतीजतन, ये ही संगठन अमेरिका के लिए भस्मासुर बन गये। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इन ताक़तों का चरित्र जनपक्षधर है। अरब विश्व में अभी इन ताक़तों को कुछ हिस्सों में जनता का आंशिक समर्थन इसलिए मिल रहा है कि यह जनता साम्राज्यवाद से बेइन्तहाँ नफ़रत करती है, और कुछ जगहों पर जनता को यही ताक़तें अमेरिकी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड़ती हुई दिखाई पड़ रही हैं। लेकिन ये ताक़तें निहायत ही मौक़ापरस्त होती हैं, और अपने फ़ायदे के लिए ये साम्राज्यवादी ताक़तों के सामने घुटने भी टेक देती हैं, जैसा कि मिस्र के मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ हुआ है। दुनिया में जनता ने कहीं भी साम्राज्यवाद का सफलता से मुकाबला धार्मिक कट्टरपन्थ की ज़मीन पर खड़े होकर नहीं किया है और न ही कभी कर सकती है। इसका कारण यह है कि ये दोनों दानवी शक्तियाँ एक ही सिक्के की दो पहलू हैं। एक-दूसरे के अस्तित्व के लिए ज़रूरी हैं और एक दूसरे की पूरक हैं। इसलिए हमारे देश में भी मुसलमान आबादी को यह समझना चाहिए कि सर्वइस्लामी एकता जैसी कोई चीज़ आज दुनिया में सम्भव नहीं है और साम्राज्यवाद-पूँजीवाद का मुकाबला जनता केवल क्रान्तिकारी कम्युनिज़्म की ज़मीन पर खड़ा होकर किया जा सकता है। इसके अलावा कोई तीसरा रास्ता नहीं है। अरब विश्व के पिछले पाँच दशकों के इतिहास ने बार-बार यही साबित किया है। जनता की मुक्ति का रास्ता किसी भी किस्म के धार्मिक कट्टरपन्थ से नहीं जाता। यह सिर्फ़ और सिर्फ़ वर्ग चेतना के रास्ते से जाता है, और इसका मकसद केवल एक ही हो सकता है – एक इंक़लाबी मज़दूर सत्ता!

 

मज़दूर बिगुलफरवरी  2013

 


 

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