विकास के नाम पर मुम्बई में ग़रीबों की झोपड़ियाँ बनायी जा रही है निशाना 

बबन ठोके

ये कहानी किसी एक शहर की, एक राज्य की या एक देश की नहीं है। हर बड़े शहर में पहले मज़दूरों से कमरतोड़ काम लिया जाता है, उन्हें यहाँ-वहाँ रहने की जगह बनाने दी जाती है। अक्सर वो जगहें इतनी ख़राब, बंजर या दलदली होती है कि मज़दूरों को उसे रहने लायक बनाने में ही सालों लग जाते हैं। जब एक बार शहर चमक जाता है, मज़दूरों की वहाँ ज़रूरत नहीं रहती तो फिर विकास का बहाना बनाकर उनकी झोपड़ियों को तोड़ दिया जाता है।

प्रतीकात्‍मक फोटो

यही आजकल मुम्बई के कलीना में स्थित अम्बेडकरनगर के निवासियों के साथ हो रहा है। यहाँ लगभग 250 झोपड़ियाँ है और इनमें रहने वाले लोग यहाँ लगभग 25 साल से रह रहे हैं। ज़्यादातर लोग यहीं आसपास के घरों, ऑफि़सों में बर्तन धोने, सफ़ाई करने, खाना बनाने जैसे मेहनत-मशक्कत वाले काम करते हैं। पिछले कई दिनों से मुम्बई महानगर पालिका द्वारा वहाँ झोपड़ी तोड़ने की कोशिशें हो रही हैं। 10 जनवरी को भी आनन-फानन में बिना कोई नोटिस दिये कुछ झोपड़ि‍याँ तोड़ी गयीं। इस दौरान वहाँ बिजली भी नहीं रोकी गयी जिसके परिणामस्वरूप तोड़ी जा रही झोपड़ियों में हुए शॉर्ट सर्किट से भयंकर आग लग गयी व कई झोपड़ियाँ जलकर राख हो गयी। लोगों के क़ीमती घरेलु सामान जल गये, महत्वपूर्ण क़ागज़ात जैसे बच्चों की मार्कशीट आदि भी आग की भेंट चढ़ गये।

लोगों का कहना है कि इस इलाक़े के प्रभावशाली लोग यहाँ दुकानें व मॉल बनवाना चाहते हैं जिसके लिए उनकी रहने की जगहों को निशाना बनाया जा रहा है। इसमें शिवसेना के स्थानीय नगरसेवक भी शामिल है। इलाक़े के लोगों ने अदालत में मुक़दमा भी दर्ज करवाया है जिसमें कोर्ट ने मुम्बई महानगर पालिका को आदेश दिया कि सभी प्रभावित लोगों का स्थानीय पुनर्वसन होना चाहिए व जब तक ऐसा ना हो, तब तक झोपड़ियाँ नहीं तोड़ी जानी चाहिए। पर महानगरपालिका के कर्मचारी इनका पुनर्वसन किसी दूरदराज के इलाक़े में करना चाहते हैं। पहले इसके लिए मानखुर्द का लल्लूभाई कम्पाउण्ड तय किया गया था पर बाद में लोगों के विरोध के चलते निरस्त कर दिया गया। अब पुनर्वसन चेंबुर के माहूल गाँव में करने की कोशिश हो रही है। इस इलाक़े में कई कैमिकल फै़क्टरियाँ हैं व साथ ही ये वर्तमान जगह से काफ़ी दूर है जिसकी वजह से लोग वहाँ जाना नहीं चाहते। लोगों का कहना है कि अगर वो किसी दूरदराज के इलाक़े में चले जायेंगे तो उनका रोज़गार छुट जायेगा व उनके सामने भुखों मरने की नौबत आ जायेगी। पर महानगर पालिका लोगों की तकलीफ़ों, आँसुओं से कहाँ पिघलने वाली है। पालिका के आकाओं को ये जगह ख़ाली चाहिए और इसके लिए वो कोई भी रास्ता अपनाने को तैयार है। पालिका के कर्मचारी बीच-बीच में आकर लोगों का सामान घर से बाहर फेंक देते है और घर तोड़ने की कोशिश करते हैं। जब लोग विरोध करते हैं तो उन्हें पुलिस का डर दिखाकर चुप करवा दिया जाता है। पुलिस वाले लोगों से गाली-गलौच करते हैं, पीटते हैं व इस तरह ये सुनिश्चित करते हैं कि किसी भी तरह ये जगह ख़ाली करवायी जा सके। स्थानीय लोग इस गुण्डागर्दी के ि‍ख़लाफ़ एकजुट भी हो रहे हैं।

अमीरों के कारख़ानों के लिए कौड़ियों के दाम ज़मीन देने वाली सरकारें ग़रीबों से उनके रहने की कुछ गज ज़मीन छीनने के लिए जिस तरह के हथकण्डे अपनाती है वो अपने आप में इस मुनाफ़ाखोर व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ बताता है। मुम्बई जैसे शहरों में रहने वाले ग़रीबों को अगर अपने लिए आत्मसम्मान की जि़न्दगी हासिल करनी है तो उन्हें सिर्फ़ अपनी झोपड़ी बचाने के लिए ही नहीं बल्कि इस पूरी व्यवस्था को बदलने के बारे में सोचना होगा।

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2017


 

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