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देशभर में लगातार जारी है जातिगत उत्पीड़न और हत्याएँ

जुझारू संघर्ष मेहनतकश दलितों को ही खड़ा करना होगा और इस लड़ाई में उन्हें अन्य जातियों के ग़रीबों को भी शामिल करने की कोशिश करनी होगी। ये रास्ता लम्बा है क्योंकि जाति व्यवस्था के हज़ारों वर्षों के इतिहास ने ग़रीबों में भी भयंकर जातिगत विभेद बनाये रखा है पर इसके अलावा कोई अन्य रास्ता भी नहीं है। जातिगत आधार पर संगठन बनाकर संघर्ष करने की बजाय सभी जातियों के ग़रीबों को एकजुट कर जाति-विरोधी संगठन खड़े करने होंगे तभी इस बदनुमा दाग से छुटकारा पाने की राह मिल सकती है।

नपुंसक न्याय-व्यवस्था से इंसाफ़ माँगते-माँगते खैरलांजी के भैयालाल भोतमांगे का संघर्ष थम गया

संवेदनशुन्य हो चुकी जुल्मी न्याय व्यवस्था तक भोतमांगे की आवाज़ व वेदना जीवन के आख़ि‍र तक भी नहीं पहुँच पायी। इस हत्याकाण्ड में गाँव के बहुत सारे लोगों का हाथ होने के बावजुद सिर्फ़ 11 लोगों पर मुक़दमा चलाया गया। भण्डारा न्यायालय ने इनमें से तीन आरोपियों को मुक्त कर दिया, दो को उम्रकैद व छह को फाँसी की सज़ा सुनायी। बाद में उच्च न्यायालय ने फाँसी की सज़ा को भी उम्रकैद में बदल दिया।

विकास के नाम पर मुम्बई में ग़रीबों की झोपड़ियाँ बनायी जा रही है निशाना

अमीरों के कारख़ानों के लिए कौड़ियों के दाम ज़मीन देने वाली सरकारें ग़रीबों से उनके रहने की कुछ गज ज़मीन छीनने के लिए जिस तरह के हथकण्डे अपनाती है वो अपने आप में इस मुनाफ़ाखोर व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ बताता है। मुम्बई जैसे शहरों में रहने वाले ग़रीबों को अगर अपने लिए आत्मसम्मान की जि़न्दगी हासिल करनी है तो उन्हें सिर्फ़ अपनी झोपड़ी बचाने के लिए ही नहीं बल्कि इस पूरी व्यवस्था को बदलने के बारे में सोचना होगा।