चीन का एवरग्रान्दे संकट : पूँजीवाद के मुनाफ़े की गिरती दर के संकट की अभिव्यक्ति

– अन्तरा घोष

चीन के रियल एस्टेट बाज़ार में पैदा हुआ हालिया संकट पूँजीवाद की बुनियादी समस्या यानी लाभप्रभता के संकट का ही लक्षण है। इससे चीन की राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था को ‘कुछ विचलनों के साथ समाजवादी अर्थव्यवस्था’, या ‘किसी क़िस्म की संक्रमणशील अर्थव्यवस्था’ होने के चलते इसे आर्थिक संकटों से मुक्त मानने वाली धारणा निर्णायक तौर पर ध्वस्त हो गयी है। चीन की प्रमुख रियल एस्टेट कम्पनी एवरग्रान्दे के साथ अन्य रियल एस्टेट कम्पनियों का ब्याज़ भर सकने और लाभांश दे सकने की अक्षमता के चलते दिवालिया होने ने यह सिद्ध किया है कि चीन एक पूँजीवादी देश ही है, जिसकी संशोधनवादी सामाजिक फ़ासीवादी क़िस्म की पूँजीवादी राज्यसत्ता के कारण अपनी एक विशिष्टता है।
मौजूदा संकट आम तौर पर चीनी अर्थव्यवस्था में और विशिष्ट तौर पर चीनी रियल एस्टेट सेक्टर में सट्टेबाज़ी के बुलबुले के फूटने के कारण पैदा हुआ है। पहला लक्षण चीन की सबसे बड़ी रियल एस्टेट कम्पनी एवरग्रान्दे के द्वारा उसकी नक़दी पर भारी दबाव, यानी देनदारी के संकट पैदा होने की सूचना देने के रूप में सामने आया। एवरग्रान्दे की मूल कम्पनी 3333 एचके के शेयर नीचे जाने शुरू हुए और कम्पनी के संस्थापक चेअरमैन ज़ू जियाइन ने चेअरमैन के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। ब्याज़ भुगतान की अक्षमता के कारण दिवालिया होने के ख़तरे से रियल एस्टेट क्षेत्र पूरे चीनी बाज़ार का सरदर्द बन गया।
फ़ैन्तासिया होल्डिंग, साइनिक होल्डिंग, चाइना प्रोपर्टीज़ ग्रुप, आदि जैसी रियल एस्टेट कम्पनियों ने भी ब्याज़ देनदारियों का समय-सीमा में भुगतान कर पाने में अक्षमता ज़ाहिर की। चूँकि चीनी सम्पत्ति डेवलपर्स पूरे एशिया में सबसे ऊँची क़ीमतों के बॉण्ड बाज़ार में हिस्सेदार हैं इसलिए इस सेक्टर में दिवालियेपन की स्थिति एक दिवालियेपन की श्रृंखला को जन्म दे सकती है और पूरे विश्व बाज़ार को बर्बादी पर लाकर खड़ा कर सकती है।
उपरोक्त स्थिति बड़े स्तर पर चीनी सम्पत्ति बाज़ार में अनियंत्रित सट्टेबाज़ी का और उससे पैदा हुए वित्तीय बुलबुले का नतीजा है। इस सट्टेबाज़ी के उन्माद का क्या कारण है? वही जो हर जगह पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में होता है! मार्क्स ने डेढ़ सौ साल पहले ही बताया था कि यह “पूँजी का आधिक्य” ही होता है जिसे सट्टेबाज़ी में लगाया जाता है और “पूँजी का हर आधिक्य” वह आधिक्य है जिसे कम-से-कम मुनाफ़े की औसत दर पर निवेश नहीं किया जा सकता है। जब उत्पादक गतिविधि में निवेश में मुनाफ़ा नहीं मिलता तो पूँजीपति वर्ग उसे सट्टेबाज़ी में लगाकर आनन-फ़ानन में मुनाफ़ा कमाने का प्रयास करता है।
कई तथाकथित मार्क्सवादी अर्थशास्त्रियों जैसे कि डेविड हार्वी भी यह तर्क देते रहे हैं कि नवउदारवाद के पीछे एक कारण अति-वित्तीयकरण है, यानी सट्टेबाज़ी है। इस मूल्यांकन के चलते ही वे राज्य द्वारा वित्तीय क्षेत्र को नियंत्रित करने तथा श्रम और पूँजी के बीच एक नयी कल्याणकारी कीन्सवादी ‘न्यू डील’ के नुस्ख़े की वकालत करते हैं। हालाँकि वे यह नहीं समझ पाते कि सट्टेबाज़ी का उन्माद पूँजीपतियों की मनोगत इच्छा का नतीजा नहीं है। असल में यह उत्पादक क्षेत्र के मुनाफ़े के संकट का नतीजा है जिससे पूँजी का अति-संचय तथा आम तौर पर अतिउत्पादन पैदा होता है, जिसमें संकट का मुख्य कारण उत्पादन के साधनों का अतिउत्पादन होता है। इसी के नतीजे के तौर पर सट्टेबाज़ी पैदा होती है। दूसरे शब्दों में, सट्टेबाज़ी अपने आप में संकट को पैदा नहीं करती बल्कि वह स्वयं मुनाफ़े की गिरती दर के संकट का परिणाम होती है।
चीनी पूँजीवाद के संकट को रोकने के लिए ही चीनी संशोधनवादी राजकीय पूँजीपति वर्ग ने वित्तीय सेक्टर व रियल एस्टेट सेक्टर के विनियमन की शुरुआत पिछले वर्ष की थी। इसे देखकर ही तमाम “मार्क्सवादी” और त्रॉत्स्कीपन्थियों ने इसे ‘नियोजन की ओर वापसी’, ‘माओ की ओर वापसी’, चीनी आर्थिक व्यवस्था में ‘देंग से अधिक माओ को मिलाना’ कहा। चीन की संशोधनवादी पार्टी और राज्य अन्य सामान्य पूँजीवादी राज्यों की तुलना में अपनी अधिक सापेक्षिक स्वायत्ता के चलते ही चीनी पूँजीपति वर्ग को तात्कालिक तौर पर अनुशासित कर पा रहा है जिसके ज़रिए वह पूँजीवादी संकट के लक्षणों को दबाने का प्रयास रहा है। लेकिन ऐसा भी वह तात्कालिक तौर पर ही कर सकता है, स्थायी तौर पर नहीं क्योंकि पूँजी की अपनी गति होती है।
यह संकट लम्बे समय से सतह के नीचे सुलग रहा था। इस साल के ही जून माह में चीनी रियल एस्टेट की कम्पनियों का इण्टेरस्ट कवरेज रेशियो बेहद कम हो चुका था। इण्टरेस्ट कवरेज रेशियो एक कम्पनी पर कर और ब्याज़ से पहले कुल आय का ब्याज़ सेवा देनदारी से अनुपात है। यानी ब्याज़ सेवा देनदारी बढ़ने पर यह अनुपात गिरता जाता है। यही गिरता अनुपात चीन की संशोधनवादी पार्टी को पूँजीवादी बीमारी के लक्षणों से वाक़िफ़ करा रहा था। इस कारण ही चीन की संशोधनवादी पार्टी ने निजी पूँजीपति वर्ग को अनुशासित करने का प्रयास किया जिसका एक उदाहरण अलीबाबा कम्पनी के मालिक और चीन के सबसे बड़े पूँजीपतियों में से एक जैक मा की ‘पुनर्शिक्षा’ थी, जो कुछ दिनों पहले चीनी राज्य द्वारा विनियमन और नियंत्रण की अवहेलना करने वाली बातें बोल रहे थे!
चीनी संकट का तात्कालिक कारण चीनी रियल एस्टेट कम्पनियों की सट्टेबाज़ बिक्री का आम रवैया था। यानी ये कम्पनियाँ उपभोक्ताओं को मकान बनने से पहले ही बेच देती थीं। इस राशि के इतर भी ये कम्पनियाँ तमाम वित्तीय उपकरणों को बेचकर भी पूँजी को जुटाती थीं। यह प्रक्रिया कुण्डलाकार गति में बढ़ती है और इस प्रक्रिया में ही सट्टेबाज़ी बढ़ती है और वित्तीय बुलबुला फूलता जाता है।
यह तबतक फूलता रहता है जबतक कि समाज में औसत आमदनी अच्छी होती है और अर्थव्यवस्था सापेक्षिक तौर पर बेहतर होती है, यानी मुनाफ़े की दर अभी कमोबेश स्वस्थ होती है। इस सट्टेबाज़ धोखाधड़ी की योजना को तब तक एक आर्थिक मॉडल के तौर पर सभी के द्वारा लागू भी किया जाता है। परन्तु लाभप्रभता के संकट का नियम एक प्राकृतिक नियम की तरह काम करता है और जब उसके परिणाम संकट के रूप में सामने आते हैं, तो ऊपर से स्वस्थ दिख रही अर्थव्यवस्था अचानक धड़ाम से औंधे मुँह गिरती है। मुनाफ़े की दर गिरती है, उत्पादक निवेश में कमी आती है, रोज़गार में कमी आती है, व्यापक जनता की औसत कमाई में कमी आती है, नक़द का प्रवाह रुकता है, आर्थिक संकट गहराता और सट्टेबाज़ी का बुलबुला फूट जाता है। चीन में भी ऐसा ही हुआ। नतीजतन, अकेले एवरग्रान्दे के ही 800 से अधिक अधूरे प्रोजेक्ट हैं और 12 लाख लोग अभी अपने सपने के मकान में प्रवेश करने का इन्तज़ार कर रहे हैं, क्योंकि जिस चार-सौ-बीस स्कीम ने उन्हें ये सपना बेचा था, उसका कबाड़ा निकल गया।
हमें यह भी समझना होगा कि रियल एस्टेट का बूम और उसमें सट्टेबाज़ी का उन्माद कैसे पैदा हुआ। चीनी संशोधनवादी पार्टी द्वारा चुने गये विकास के मॉडल में निजी पूँजी को लगातार ज़्यादा से ज़्यादा खुला हाथ दिया गया। पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बाद 1978 में शुरू हुई इस प्रक्रिया को 1980 के मध्य में और 1990 के दशक में अभूतपूर्व संवेग प्राप्त हुआ। इस दौरान औद्योगिक विकास व शहरीकरण पर ज़ोर दिया गया। संशोधनवादी पार्टी ने पूँजीवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने की प्रक्रिया में ही मज़दूर वर्ग और मेहनतकश किसानों को राजनीतिक तौर पर विसंगठित किया गया और मज़दूरों के सामूहिक किसानों के कम्यूनों व अन्य संस्थाओं के भंग होने के साथ ही उनके अधिकारों को भी छीना गया। मज़दूरों और आम जनता पर सामाजिक फ़ासीवादी नियंत्रण ने राजकीय और साथ ही निजी पूँजीवाद को छूट दी ताकि वह कार्यशक्ति का कुशल नियंत्रण कर सके तथा सस्ता श्रम लूट सके।
इस प्रकिया ने द्रुत और अराजक गति से शहरीकरण किया और एक बड़ी शहरी औद्योगिक कार्यशक्ति तथा ठीक-ठाक संख्या में मध्यवर्ग को निर्मित किया। 2011 तक शहरीकरण की दर 50 फ़ीसदी थी, जो कि पिछले साल बढ़कर 60 फ़ीसदी हो गयी। शहरीकरण ने रियल एस्टेट सेक्टर में मुनाफ़ा कमाने का मौक़ा दिया। चीनी राज्य ने भी इस सेक्टर के निजी पूँजीपतियों को खुला हाथ दिया। राजकीय आवास की व्यवस्था की जगह रियल एस्टेट पूँजीपतियों द्वारा निजी आवास का मॉडल खड़ा हुआ। इस तरह इस सेक्टर में बड़े स्तर पर सट्टेबाज़ निवेश हुआ। सट्टेबाज़ी के उन्माद में खाता-पीता मध्यवर्ग ही नहीं बल्कि निम्न मध्यवर्ग से लेकर कुशल मज़दूर वर्ग का एक हिस्सा तक शामिल है। वे मकानों को रहने के लिए नहीं बल्कि केवल आने वाले वक़्त में ऊँची क़ीमत पर बेचने के लिए ख़रीदते हैं यानी सट्टेबाज़ निवेश करते हैं। इस वजह से निर्मित हो रहे सट्टेबाज़ी के बुलबुले से चिन्तित होते हुए चीनी संशोधनवादियों के वर्तमान सरगना ज़ी जिनपिंग ने कहा कि ‘मकान रहने के लिए हैं सट्टेबाज़ी के लिए नहीं’। हालाँकि यह चीनी संशोधनवादी पार्टी की ही नीतियों का नतीजा है कि इस सेक्टर में सट्टेबाज़ी शुरू हुई। ख़ुद चीनी संशोधनवादी पार्टी के नौकरशाहों ने सट्टेबाज़ी में जमकर भागीदारी की और नोट पीटे। स्थानीय सरकार और केन्द्रीय सरकार के अहलकार पूँजीवादी कम्पनियों को बेहद सस्ते दामों पर वाणिज्यिक ज़मीन मुहैया करवा रहे थे। इस कारण आवासीय सम्पत्ति की आपूर्ति कम हुई। इसे राज्य द्वारा भी सचेतन तौर पर कम रखा गया। नतीजतन, आवासीय सम्पत्ति की बेहद ऊँची क़ीमतों से न सिर्फ़ निजी पूँजी को बल्कि राजकीय पूँजीपति वर्ग को बेहद ऊँचा लाभ मिलता है। रियल एस्टेट सेक्टर चीनी अर्थव्यवस्था का 13 फ़ीसदी बनता है। यह 1995 में केवल 5 प्रतिशत था। स्थानीय सरकारों पर क़रीब 10,000 अरब डॉलर का ऋण था और निजी रियल एस्टेट के डेवेलपरों को ज़मीन की ऊँचे दामों पर सट्टेबाज़ बिकवाली उनके लिए ऋण का ब्याज़ चुकाने का प्रमुख स्रोत है। इस प्रकार सट्टेबाज़ी के बुलबुले के अचानक फूटने के साथ पूरी अर्थव्यवस्था ढलान पर जा सकती है।
ज़मीन की ऊँची क़ीमतों के चलते रियल एस्टेट डेवेलेपरों ने अधिक से अधिक ऋण लेकर अधिक से अधिक ज़मीनें बटोरीं। एवरग्रान्दे व अन्य रियल एस्टेट कम्पनियों ने उन्मादपूर्ण वित्तीय विस्तार के लिए न सिर्फ़ उपभेगताओं को मकान बनने से पहले बेचे बल्कि गिरवी बॉण्ड अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में भी बेचे। यह बिल्कुल 2007-2008 में अमरीकी सबप्राइम संकट का तात्कालिक कारण बने वित्तीय उपकरण ‘कोलैटरल डेब ऑब्लिगेशन’ की ही तरह था।
मुख्य सवाल यह है कि यह सट्टेबाज़ी का बुलबुला निर्मित ही क्यों हुआ? अपने आप में रियल एस्टेट बाज़ार में तेज़ी या बूम अनिवार्यत: सट्टेबाज़ी के बुलबुले को पैदा नहीं करती है या कहें कि इस आकार के बुलबुले को पैदा नहीं करती है। इसके पीछे कारण चीनी अर्थव्यवस्था में पूँजी के मुनाफ़े की दर का गिरना और श्रम की उत्पादकता का थमना था। श्रम की बढ़ती उत्पादकता गिरते मुनाफ़े की दर के संकट को केवल तात्कालिक तौर पर टाल सकती है, जबकि अतिरिक्त मूल्य की दर पूँजी के आवयविक संघटक के बढ़ने की दर से अधिक रफ़्तार से बढ़े। लेकिन ऐसा केवल तात्कालिक तौर पर कुछ समय के लिए सम्भव होता है और चीनी अर्थव्यवस्था में यह भी नहीं हो पाया क्योंकि उत्पादकता की दर ठहरी हुई है या घट रही है। वास्तव में, यह संकट चीनी उत्पादक अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की गिरती दर का संकट था जिसने आम तौर पर वित्तीय पूँजी के बुलबुले को और विशिष्ट तौर पर रियल एस्टेट क्षेत्र में वित्तीय पूँजी के बुलबुले को जन्म दिया, जिसे अन्तत: फूटना ही था और फिर इस संकट और भी ज़्यादा गम्भीर रूप में प्रकट होना ही था।
चीन की विकास की कहानी ख़ासतौर पर नयी सहस्राब्दी में रियल एस्टेट क्षेत्र में सट्टेबाज़ निवेश पर निर्भर थी। इस क्षेत्र की विकास दर 2000-01 में 8 प्रतिशत से 2020-21 तक जीडीपी का 20 प्रतिशत हो गयी। अगर हम इस क्षेत्र की गणना को हटा दें तो हम पायेंगे कि उत्पादक क्षेत्रों में और ख़ास तौर पर मैन्युफ़ैक्चरिंग में निवेश की दर घटती जा रही है। संकट का मूल कारण मुनाफ़े की गिरती दर का संकट ही था। यह मार्क्स के मुनाफ़े के दर के गिरने की प्रवृत्ति के नियम को ही एक बार फिर से सही सिद्ध करता है। मौजूदा संकट ने उन तमाम अहमकों के भ्रम को दूर कर दिया जो चीनी अर्थव्यवस्था को ‘पूँजीवाद और समाजवाद के बीच संक्रमणशील अवस्था’ बता रहे थे, जो कि संकट से मुक्त थी!
लेकिन एक कारक है जो चीनी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को अन्य पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं से अलग करता है और वह है एक संशोधनवादी सामाजिक फ़ासीवादी राज्यसत्ता और पार्टी की मौजूदगी। यह पूँजीवादी राज्य ही है परन्तु एक संशोधनवादी पूँजीवादी राज्य है जिसका चरित्र सामाजिक फ़ासीवादी है। यह इसे अन्य खुले तौर पर पूँजीवादी देशों से कुछ मायनों में अलग करता है। सभी बुर्जुआ राज्यों की पूँजीपति वर्ग से सापेक्षिक स्वायत्तता होती है क्योंकि पूँजीवादी राज्य का ही समूचे पूँजीपति वर्ग के सामान्य दीर्घकालिक वर्ग हितों का सामूहिकीकरण करना होता है। इसलिए बुर्जुआ राज्यसत्ता पूँजीपति वर्ग के किसी एक धड़े की कठपुतली नहीं होती, हालाँकि वह आम तौर पर बड़े पूँजीपति वर्ग के हितों को अक्सर प्राथमिकता देती है। हर पूँजीवादी राज्यसत्ता इस रूप में अलग-अलग मात्रा में वैयक्तिक पूँजीवादी हितों से स्वायत्तता रखती है ताकि समूचे पूँजीपति वर्ग के सामान्य दूरगामी हितों को संगठित कर सके। लेकिन संशोधनवादी पूँजीवादी राज्यसत्ता की सापेक्षिक स्वायत्ता इसके विशिष्ट इतिहास की वजह से और भी अधिक है। यह श्रम पर नियंत्रण के साथ-साथ पूँजी को भी अधिक कुशलता से अनुशासित करती है। चीनी संशोधनवादी राज्य की यह विशिष्टता व वैश्विक अर्थव्यवस्था में इसकी अवस्थिति इसे ऐसे संकट की स्थितियों से उभरने का तात्कालिक तौर पर ही सही, मगर कौशल प्रदान करती है। तात्कालिक तौर पर इसलिए क्योंकि श्रम के दमन और पूँजी को अनुशासित कर पाने के उन्नत कौशल ही इसके लिए गम्भीर सामाजिक और राजनीतिक संकट की ज़मीन भी तैयार करता है। ऐसे संकट का नतीजा कई सम्भावित रूप ले सकता है, जिसमें एक रूप सोवयित संघ के बिखरने का भी हो सकता है।
चीनी सामाजिक फ़ासीवादी राज्य इस संकट से अधिक कुशलता से निपट सकने की क्षमता का प्रतिबिम्बन चीनी अर्थव्यवस्था में कुल ऋण के बड़े हिस्से का आन्तरिक ऋण के रूप में मौजूद होने के रूप में भी होता है। यह आन्तरिक ऋण भिन्न स्थानीय सरकारों से लेकर राजकीय बैकों व केन्द्रीय बैंकों का है। अगर हम इस ऋण को हटा दें तो कॉरपोरेट पूँजीवादी घरानों और तमाम लोगों पर ऋण अन्य उन्नत पूँजीवादी देशों के मुक़ाबले काफ़ी कम है। चीन पर डॉलर में बाह्य ऋण बेहद कम है। यह कुल जीडीपी का 15 प्रतिशत है। साथ ही वर्षों से निर्यात-आधारित विकास के मॉडल के चलते चीन विश्व का प्रमुख ऋणदाता है। दुनिया पर कुल ऋण का 6 प्रतिशत अकेले चीन का है। इस वजह से ही चीन का डॉलर और यूरो का भण्डार उसपर बाह्य त्रण से अधिक है। यह आर्थिक स्थिति भी चीनी संशोधनवादी राज्य व पार्टी को तात्कालिक तौर पर संकट पर क़ाबू पाने की विशेष क्षमता देती है, लेकिन केवल तात्कालिक तौर पर।
चीनी सरकार की समस्या यह है कि कुल मिलाकर बढ़ता हुआ ऋण पूरी अर्थव्यवस्था के लिए अन्ततोगत्वा प्रमुख ख़तरा बन जायेगा। ऋण के इस पहाड़ से निजात पाने का एकमात्र तरीक़ा उत्पादक क्षेत्र में उत्पादकता व लाभप्रभता को बढ़ाना तथा अनुत्पादक वित्तीय सट्टेबाज़ी को नियंत्रण में रखना होगा। पहले काम में मौजूदा परिस्थिति में ढाँचागत सीमाएँ हैं और दूसरे तरीक़े से वित्तीय दिवालियापन होता है जिससे मुनाफ़ा तेज़ी से कम हो जाता है और निजी पूँजीवादी उपक्रमों में निवेश की दर गिरती है। संशोधनवादी राज्य केवल तात्कालिक तौर पर लगाये गये अंकुशों के साथ संकट को अस्थायी रूप से नियंत्रित करने का प्रयास कर सकता है। राज्य आधारित विकास के अपने अन्तरविरोध हैं और यह चीन द्वारा अपनाये जा चुके पूँजीवादी फ़्रेमवर्क के दायरे में हमेशा नहीं चल सकता है। यह चीनी संशोधनवादी पार्टी और राज्य के लिए ‘क्या करें क्या न करें’ की स्थिति है। यह इस स्थिति को फ़िलहाल महज़ तात्कालिक तौर पर नियंत्रित कर सकता है। लेकिन यह अन्तरविरोध तात्कालिक निदानों और आनन-फ़ानन में उठाये गये कुछ विनियमन के क़दमों से नहीं सुलझाया जा सकता है। आने वाले वक़्त में यह बेहद गम्भीर रूप लेगा।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2021


 

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