मन्दी की मार से करोड़ों मज़दूरों के रोज़गार पर असर
पूँजीपतियों को राहत बाँट रही सरकार के पास मज़दूरों को देने के लिए कुछ भी नहीं

वैश्विक मन्दी शुरू होने के बाद से ही भारत सरकार बार-बार बयान बदलती रही है। पहले तो यही कहा जाता रहा कि मन्दी का भारतीय अर्थव्यवस्था पर कुछ खास असर नहीं होने वाला है, लेकिन जल्दी ही मन्दी के झटकों ने उन्हें रुख बदलने के लिए मजबूर कर दिया। अब सरकार को यह खुले तौर पर स्वीकारना पड़ रहा है कि आने वाला समय अर्थव्यवस्था के लिए काफ़ी मुश्किल साबित होगा और हमें बुरे से बुरे के लिए तैयार रहना चाहिए।

ज़ाहिर है, यह “बुरे से बुरा” वक़्त अमीरों के लिए कुछ ख़ास बुरा नहीं होगा, उनकी पार्टियों में अब भी जाम झलकते रहेंगे, उनके बँगलों के बाहर अब भी नयी-नयी गाड़ियाँ आती रहेंगी और फ़ैशन की चकाचौंध फीकी नहीं पड़ेगी। लेकिन देश के करोड़ों ग़रीब और मेहनतकश लोगों के लिए इसका मतलब होगा बेरोज़गारी, छँटनी, भुखमरी, बच्चों की पढ़ाई छूटना, दवा के बिना बच्चों का मरना, आत्महत्याएँ…

अगर आँकड़ों को देखें तो पता चल जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक मन्दी के समय में उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों के कारण बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। बीमा सेक्टर में 2007 के मुकाबले 2008 में वृद्धि दर 24 प्रतिशत से घटकर 17 प्रतिशत रह गयी। इसके कुछ समय बाद ही देश के सबसे बड़े कार-निर्माता मारुति ने घोषणा की कि उसकी बिक्री में नवम्बर माह में 24 प्रतिशत की गिरावट आयी और अगर यह रुझान जारी रहा तो वह उत्पादन में कटौती कर सकता है। भारतीय सरकार ने छमाही आर्थिक समीक्षा में कहा कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर मन्दी का भारी प्रभाव पड़ सकता है। केरल की सरकार के आँकड़ों से पता चलता है कि मन्दी ने उसकी अर्थव्यवस्था पर गहरी चोट की है। उसका पर्यटन उद्योग गिरावट दर्ज़ कर रहा है। नारियल उद्योग में 32,000 लोग अपनी नौकरियों से हाथ धोने की कगार पर हैं। हथकरघा उद्योग में 20 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है, काजू उद्योग में 18,000 लोग अपनी नौकरियाँ गँवा चुके हैं। 2008 के अन्त तक बैंक, बीमा और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कई लाख नौकरियाँ कम हो चुकी हैं। सामाजिक क्षेत्र की भी स्थिति बुरी है। भारत के पर्यटन उद्योग के एक प्रमुख अंग होटल व रेस्तराँ सेक्टर को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। पर्यटकों के आने की वृद्धि दर मार्च के 14.6 प्रतिशत से घटकर अप्रैल में 9.6 प्रतिशत रह गयी। और अक्टूबर आते-आते यह दर 1.8 प्रतिशत तक पहुँच चुकी थी।

मन्दी के असर का अन्दाज़ा सिर्फ़ आँकड़ों से नहीं लगाया जा सकता। भारत में अनौपचारिक क्षेत्र में उद्योगों का एक विशाल ताना-बाना मौजूद है जिसमें फ़ैक्टरियों और वर्कशॉपों को देखकर कहीं भी ऐसा नहीं लगेगा कि वे वैश्विक असेम्बली लाइन से जुड़ी हुई हैं। लेकिन कुकर, मोटरसाइकिल, स्कूटर से लेकर कम्प्यूटर, जनरेटर व अन्य इलेक्ट्रिक व इलेक्ट्रॉनिक सामानों के पुरज़ों को बनाने का काम इन कारखानों में होता है। ऐसे कारखाने दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से लुधियाना, मुम्बई, अहमदाबाद और सूरत तक के क्षेत्र में फैले हुए हैं जिनमें करोड़ों की संख्या में मेहनतकश आबादी काम कर रही है। अब माँग कम होने के साथ ही उत्पादन में कटौती शुरू हो गयी है और इसी के साथ छँटनी और तालाबन्दी की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी है। इसके अलावा निर्यात के लिए उत्पादन के क्षेत्र में करोड़ों मेहनतकश काम कर रहे हैं। दिसम्बर में आई सरकारी रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत के निर्यात क्षेत्र में 1000 करोड़ रुपये की भारी कमी 2008 के दौरान दर्ज़ की गयी है। अनुमान लगाया जा रहा है कि केवल निर्यात क्षेत्र में एक करोड़ से भी ज़्यादा लोग बेरोज़गार हो जायेंगे। हथकरघा से लेकर छोटी-छोटी उपभोक्ता सामग्रियाँ बनाने वाले तमाम उद्योग और स्वरोजगार प्राप्त श्रमिक तबाह हो रहे हैं।

रिपोर्टों और आँकड़ों की बात छोड़ दें, किसी भी औद्योगिक इलाके में एक चक्कर लगाने से ही अनुमान चल जायेगा कि मज़दूरों के लिए रोज़गार की हालत कितनी गम्भीर है। दिल्ली और इसके आसपास झिलमिल, बवाना, नरेला, बादली, नरैना, ओखला, नोएडा, साहिबाबाद के कारख़ाना गेटों पर लटके रहने वाले ‘हेल्पर चाहिए’ या ‘वर्करों की जरूरत है’ जैसे बोर्ड अब दिखायी नहीं पड़ते।

एक रिपोर्ट के अनुसार घरेलू बाज़ार का आकार भी काफ़ी सिकुड़ गया है। मध्यवर्गीय उपभोक्ता ख़रीदारी में 2008 में 30 प्रतिशत की गिरावट दर्ज़ की गयी है। दूसरी ओर, बड़ी पूँजी वाले खुदरा व्यापार को भी भारी संकट का सामना करना पड़ रहा है और तमाम विशेष आर्थिक क्षेत्रों से खुदरा व्यापार की कम्पनियों ने हाथ खींच लिये हैं। कई शॉपिंग मॉल सूने पड़े हैं और बहुत-सी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की दुकानों के आगे सेल के बोर्ड लटक गये हैं। जाहिर है, इसका असर भी निचले स्तरों के तमाम रोज़गारों पर पड़ेगा।

लेकिन पूँजीपतियों को राहत देने के लिए एक के बाद एक अरबों रुपये की सहायता और रियायतों के पैकेजों की घोषणा करने वाली सरकार के पास मज़दूरों को मन्दी की मार से बचाने के लिए कोई उपाय नहीं है। उनके लिए सिर्फ़ लुभावने वायदे हैं। अगले कुछ महीनों में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। मन्दी और महंगाई का असली कहर  तो उसके बाद जनता पर टूटेगा। मेहनतकशों को अभी से इन हालात से जूझने और संगठित होकर लड़ने की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।

 

 

बिगुल, जनवरी 2009

 


 

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