1984 के ख़ूनी वर्ष के 30 साल
अब भी जारी हैं योजनाबद्ध साम्प्रदायिक दंगे और औद्योगिक हत्याएँ

गुरप्रीत

1984 anti sikh riots delhi

1984 के सिख विरोधी दंगे

1984 के ख़ूनी वर्ष को 30 साल बीत चुके हैं। उस वर्ष दिल्ली के सिक्ख जनसंहार और भोपाल गैस काण्ड के रूप में भारतीय समाज पर लगे दो ज़ख़्म आज तक रिस रहे हैं। नवम्बर 1984 में, इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद सोची-समझी साज़िश के अन्तर्गत दिल्ली की सड़कों पर सरेआम हज़ारों सिक्खों को बर्बर ढंग से क़त्ल किया गया, औरतों का बलात्कार किया गया, बच्चों समेत अनेक लोगों को यातनाएँ देकर जलाया गया और भारी तोड़-फोड़, आगज़नी और लूटमार की गयी। उसी वर्ष की 2 दिसम्बर की रात को भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारख़ाने से 40 टन ज़हरीली गैस रिसी जिसने 7 किलोमीटर के घेरे में आने वाले इलाक़े को अपनी चपेट में ले लिया। इसमें करीब 20,000 लोग मारे गये और 6 लाख के करीब प्रभावित हुए। जो घायल हो गये, भयानक बीमारियों का शिकार हो गये और आते कई वर्षों तक यातनाओं से भरी मौत मरते रहे और कईयों की तो आने वाली पीढ़ियाँ भी अपंग और जन्मजात बीमारियों का शिकार होकर पैदा होने के लिए अभिशप्त हो गयीं।

भोपाल गैस काण्‍ड

भोपाल गैस काण्‍ड

इन दोनों क़त्लेआमों में पहली साझा बात यह थी कि दोनों के पीछे ही राजनीतिक-आर्थिक हित छिपे हुए थे जिसमें से पहले हत्याकाण्ड को साम्प्रदायिक रंगत दी गयी तो दूसरे को एक आकस्मिक औद्योगिक हादसा कह मुँह फेरने की कोशिश की गयी। दूसरी साझा बात यह कि दोनों एक या कुछ दिनों में घटे दुखदायी हादसे नहीं थे, बल्कि दोनों धारावाहिक घट रहे घटनाक्रमों के अंग थे। अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए कांग्रेस ने पंजाब को साम्प्रदायिक आग में झोंका। कई वर्ष पंजाब ने अपने सीने पर आतंकवाद, दहशतगर्दी और राजनैतिक अत्याचार का सन्ताप झेला। हज़ारों घरों के चिराग चिता की आग बनकर जले जिस पर पूँजीवादी राजनीतिज्ञों, अफ़सरशाही, नौकरशाही और मूलवादी ताक़तों ने अपनी ख़ूब रोटियाँ सेंकीं। हज़ारों नौजवानों को सरकारी दमन या साम्प्रदायिक ताक़तों ने निगल लिया और लाखों परिवारों की ज़िन्दगी बद से बदतर बना दी। पंजाब का वह दौर किसी को भूला नहीं, दिल्ली में सिक्ख जनसंहार उसी दौर की ही निरन्तरता थी। इस तरह, ख़ास तौर पर पंजाब की, आम जनता ने न सिर्फ़ 1984 का एक हत्याकाण्ड बरदाश्त किया बल्कि उन्होंने कई क़त्लेआमों की लड़ी में दहशत के अँधेरे में कई साल गुज़ारे।

इसी तरह भोपाल हत्याकाण्ड भी देश के करोड़ों मज़दूरों, मेहनतकशो की बर्बर लूट, उन को पशुओं से बुरे जीवन स्तर पर जीने के लिए मजबूर करने और उनके ख़ून के आखि़री कतरे तक को निचोड़कर आलीशान महल बनाने की उस परिघटना का अंग था जो आज भी मौजूद है। भोपाल हत्याकाण्ड की नींव तो काफ़ी पहले तब ही रखी जा चुकी थी, जब एक अमरीकी और 8 भारतीय पूँजीपतियों के साझा वाले इस कारख़ाने को पहले तो सरकार ने पिछड़ी तकनीक होने के बावजूद लगाने की मंजूरी दी। फिर इसमें ज़हरीली गैस निश्चित मात्र से कई गुना ज़्यादा भण्डार करके रखी जाने लगी। मुनाफ़े के भूखे इन पूँजीपतियों ने इस गैस को ठण्डा रखने के लिए ज़रूरी प्रणाली बन्द कर दी और दुर्घटना की चेतावनी देने वाला हूटर भी बन्द कर दिया। एक अख़बार ने तो एक साल पहले ही ऐसे हादसों की सम्भावना की भविष्यवाणी भी की थी। इसी का नतीजा हुआ कि रातो-रात 20,000 धड़कते मानवीय दिल ख़ामोश कर दिये गये।

Anti sikh riots 1984दोनों क़त्लेआमों में साझा तीसरा और अहम नुक्ता बनता है क़ानून और इंसाफ के नाम पर हुआ तमाशा, जिसने भारतीय न्यायपालिका को क़दम-क़दम पर नंगा किया। दोनों क़त्लेआमों में सरकार से इंसाफ़ की आस रखना लोगों के लिए गिद्धों के घौंसले में से मांस ढूँढ़ना साबित हुआ। सिक्ख हत्याकाण्ड के मुख्य दोषी सज्जन कुमार, भजनलाल बिश्नोई, जगदीश टाइटलर, हरकिशन लाल भगत जैसे कांग्रेसी नेता थे। इस हत्याकाण्ड को तब राजीव गांधी ने यह बयान देकर वाजिब ठहराया था कि “जब कोई बड़ा वृक्ष गिरता है, तो धरती तो काँपती ही है।” उसने सरेआम बेगुनाह सिक्खों के हत्याकाण्ड को वाजिब ठहराया और तब ही यह भी स्पष्ट हो गया कि राजनैतिक शह पर हुए इस हत्याकाण्ड में इन कांग्रेसी नेताओं को कोई सज़ा नहीं होने वाली। बाद में उक्त बयान देने वाला राजीव गांधी देश का प्रधानमन्त्री बना और इसी तरह भजन लाल, सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर, हरकिशन लाल भक्त आदि जैसे बाक़ी दोषी भी कांग्रेस पार्टी में ऊँचे पदों पर विराजमान रहे हैं। इस हत्याकाण्ड का मुद्दा अदालत में गया तो तारीख़ पर तारीख़ का तमाशा शुरू हुआ, साल दर साल लोग इन्साफ़ की आशा में अदालतों में भटकते रहे, कुछ गवाह मुकरते रहे, कुछ लापता होते रहे और कुछ मरते रहे, और दूसरी तरफ़ कातिल खुलेआम घूमते रहे। वे बार-बार निर्दोष करार देकर बरी किये गये और पीड़ित इन्साफ़ की उम्मीद में ऊपर वाली अदालतों का दरवाज़ा खटखटाते रहे और चुनाव के मौसम को देखते हुए संसद में भी यह मुद्दा बार-बार उठता रहा। परन्तु लोगों के हाथ हर बार निराशा ही पड़ी। भारतीय न्यायपालिका का दोगलापन देखो कि इसने कांग्रेसी नेताओं को “सबूतों की कमी” की “मजबूरी” के बहाने तो निर्दोष कहकर बरी कर दिया परन्तु इसने पिछले साल ही अफ़जल गुरू को सबूतों की कमी के बावजूद “देश के लोगों के जज़्बात की सन्तुष्टि” की “मजबूरी” में फाँसी भी दे दी। मगर इसी “मजबूरी” के आधार पर सज्जन कुमार, जगदीश टाइलर समेत गुजरात दंगों के दोषी मोदी और अमित शाह जैसों को भी फाँसी देनी चाहिए।

भोपाल गैस काण्ड में भी इन्साफ़ के नाम पर यही तमाशा हुआ। जब भोपाल की सड़कें लाशों से और अस्पताल घायलों से भरे पड़े थे तो भारत सरकार यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वारेन एण्डरसन को बेशर्मी से मान-सम्मान के साथ अमरीका भेजने में लगी हुई थी। एण्डरसन को भोपाल पहुँचते ही गिरफ्तार कर लिया गया था, परन्तु छह घण्टों में ही उसकी न सिर्फ़ जमानत हो गयी, बल्कि सरकार के विशेष हवाई जहाज़ द्वारा उसे दिल्ली ले जाया गया जहाँ से उसे उसी दिन अमरीका भगा दिया गया। उसके बाद वह कभी अदालत में उपस्थित ही नहीं हुआ। भारतीय राजनीतिज्ञ अभी तक इसको “लोगों का गुस्सा भड़कने के डर से उठाया ज़रूरी क़दम” कहकर अपने गुनाह छुपाने की असफल कोशिश कर रहे हैं। बाद में इस मामले में भी तारीख़ों, गवाहों के मुकरने और सबूतों की कमी का चक्र शुरू हुआ। 1996 में तो भारत के पूर्व मुख्य जज जस्टिस अहमदी ने इस पूरे मामले को एक मामूली सड़क हादसे के बराबर बनाकर यूनियन कार्बाइड के खि़लाफ़ दोषों को बेहद हल्का बना दिया था। तभी यह स्पष्ट हो गया था कि अगर दोषियों को सज़ा मिली भी तो वह अधिक से अधिक 2 साल की जमानती कैद ही हो सकती है। बाद में हुआ भी यही और इस हत्याकाण्ड से 26 वर्ष बाद जून 2010 में भोपाल की एक अदालत ने यूनियन कार्बाइड के 8 पूँजीपतियों को सिर्फ़ दो-दो वर्ष की सज़ा सुनाकर छोड़ दिया और उपर से दो घण्टों के भीतर ही उनकी जमानत भी हो गयी और वह हँसते हुए घर चले गये। जबकि इसका मुख्य दोषी वारेन एण्डरसन फिर कभी भारत सरकार के हाथ नहीं आया और वह इस हत्याकाण्ड के बाद 30 साल विलासिता भरी ज़िन्दगी जीने के बाद इसी वर्ष चल बसा।

भारतीय न्यायपालिका के चेहरे से लोकतन्त्र और जनवाद का मुखौटा उतारते यही दो मुक़दमे नहीं हैं।  हमारे समाज का पूरा आर्थिक और राजनैतिक ढाँचा ही लूट और मुनाफ़ाखोरी पर टिका हुआ है। यहाँ सरकारें, अदालतें, क़ानून, पुलिस, फ़ौज सब पूँजीपतियों, धनाढ्यों की चाकरी और आम लोगों को लूटने और पीटने के लिए हैं। हर चीज़ की तरह यहाँ न्याय भी बिकता है। पुलिस थाने, कोर्ट-कचहरियाँ सब व्यापार की दुकानें हैं जो नौकरशाहों, अफ़सर, वकीलों और जजों के भेस में छिपे व्यापारियों और दलालों से भरी हुई हैं। आप क़ानून की देवी के तराजू में जितनी ज़्यादा दौलत डालोगे उतना ही वह आपके पक्ष में झुकेगी। इन दो मामलों के अलावा भी हज़ारों मामले इसी बात की गवाही देते हैं। बहुत से पूँजीपति और राजनीतिज्ञ बड़े-बड़े जुर्म करके भी खुले घूमते फिरते हैं, क़त्ल और बलात्कार जैसे गम्भीर अपराधों के दोषी संसद में बैठे सरकार चलाते हैं और करोड़ों लोगों की किस्मत का फ़ैसला करते हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ ही केन्द्र और अलग-अलग राज्यों में करीब आधे राजनीतिज्ञ अपराधी हैं, असली संख्या तो कहीं और ज़्यादा होगी। कभी-कभार मुनाफ़े की हवस में पागल इन भेड़ियों की आपसी मुठभेड़ में ये अपने में से कुछ को नंगा करते भी हैं तो वह अपनी राजनैतिक ताक़त और पैसे के दम पर आलीशान महलों जैसी सहूलियतों वाली जेलों में कुछ समय गुज़ारने के बाद जल्दी ही बाहर आ जाते हैं। ए. राजा, कनीमोझी, लालू प्रसाद यादव, जयललिता, शिबू सोरेन, बीबी जागीर कौर, बादल जैसे इतने नाम गिनाये जा सकते हैं कि लिखने के लिए पन्ने कम पड़ जायें।

जब हम इतिहास की किसी घटना की बात कर रहे होते हैं तो हम उसके बहाने मौजूदा समय पर भी टिप्पणी कर रहे होते हैं। यहाँ इन दोनों क़त्लेआमों की बात दुहराने का कारण यह है कि यह सब अभी भी बेरोक-टोक चल रहा है। राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए लोगों की साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काना, जाति, धर्म और क्षेत्र के नाम पर लोगों में फूट डालना अभी ख़त्म हुआ नहीं बल्कि बढ़ता जा रहा है। इसमें हिन्दू कट्टरपन्थी और फासीवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सबसे आगे है। इसके द्वारा 1992 में बाबरी मस्जिद गिराया जाना, 2002 में मोदी की शह पर गुजरात में मुसलमानों का हत्याकाण्ड, 2007 में उड़ीसा हत्याकाण्ड और पिछले दो वर्षों में उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फ़रनगर समेत कई जगहों पर दंगे किसी से छिपे नहीं हुए। मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद तो ये संघी गुण्डे और भी खूँखार बन गये हैं और अपने संघी मंसूबों को पूरा करने के लिए उन्होनें लोगों में और ज़्यादा व्यापक रूप से अपनी संस्थाओं का जाल बिछाना शुरू किया हुआ है। पंजाब (जहाँ उनके पहले कभी पैर नहीं जमे) में भी वह कई स्थानों पर हथियारबन्द पैदल मार्च कर चुके हैं और शहरों, कस्बों और गाँवों में शाखाएँ चलाकर किशोर मन में अपना साम्प्रदायिक ज़हर भरने में लगे हुए हैं। इनके अलावा दूसरे धर्मों, सम्प्रदायों की कट्टरपन्थी ताक़तें भी अपनी ताक़त के मुताबिक़ लोगों को आपस में लड़ाने और बाँटने की पूरी कोशिश करने में लगी हैं। देशभर में डेरों के विवाद, गद्दियों के विवाद और अलग-अलग सम्प्रदायों के लोगों में आपसी टकराव की हर साल अनेकों ही घटनाएँ सामने आती ही रहती हैं जिनकी गिनती करना मुश्किल है।

दूसरी तरफ़ भोपाल हत्याकाण्ड की तरह देशभर के औद्योगिक मज़दूरों से लेकर हर तरह के मेहनतकश, कामगार, अर्ध-मज़दूरों तक सभी भयानक लूट और दमन का शिकार हैं। काम के स्थानों पर सुरक्षा प्रबन्धों की कमी, हादसे होना, मज़दूरों का अपाहिज होना या जान खो बैठना अभी भी आम बात है, जिनमें न तो कोई मुआवज़ा मिलता है और न ही प्रशासन में कोई सुनवाई होती है। ऊपर से काम के स्थानों पर बुरे व्यवहार, रिहाइश के घटिया स्थान (जहाँ पानी, सफ़ाई, सीवरेज, सेहत, शिक्षा जैसी बुनियादी सहूलियतें भी न के बराबर ही होती हैं) आदि इनकी ज़िन्दगी और भी कठिन बना देते हैं। सूचना तकनीक, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ समेत बड़ी कम्पनियों में अपेक्षाकृत बेहतर तनख़्वाहें पर काम कर रहे युवाओं की हालत भी कोई बहुत अलग नहीं, उनके साथ भी बुरा व्यवहार, अपमानित किये जाना, काम का ज़रूरत से अधिक बोझ, काम के घण्टे सीमित न होना, नौकरियों से निकाले जाने का डर और किसी समय भी काम पर बुलाया जाना – उनके लिए परेशानी और बेचैनी का कारण बना रहता है। मोदी सरकार ने आते ही इनकी मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। भारतीय और विदेशी पूँजीपतियों के मुनाफ़े और हितों को ध्यान में रखते हुए श्रम क़ानूनों में बड़े स्तर पर मज़दूर विरोधी सुधार करके यह मेहनतकश आबादी को संविधान से मिलते छोटे-मोटे अधिकारों पर भी कटार चला रही है। ऐसी हालत में मेहनतकश जनता के मानवीय अधिकारों तथा जीने के अधिकारों का छीने जाना, उनकी लूट, दमन और हादसों के खि़लाफ़ कोई क़ानूनी कार्यवाही कर सकना असम्भव होता जा रहा है।

आज यह समझने की ज़रूरत है कि ’84 के क़त्लेआमों के लिए न तो अदालतों से कोई इन्साफ़ मिलने वाला है और न ही एक कट्टरपन्थी ताक़त के खि़लाफ़ दूसरी कट्टरपन्थी ताक़त बनाने, सत्ता के दमन के खि़लाफ़ दमन के दूसरे रूपों को उभारने से ही कुछ होने वाला है। ज़रूरत इस बात की है कि एक तरफ़ व्यापक मेहनतकश, मज़दूर आबादी को आर्थिक, संवैधानिक और राजनैतिक हितों के लिए संघर्ष करते हुए एकजुट किया जाये और इसके साथ-साथ जनता में मौजूद पिछड़ी कदरों-क़ीमतों, विचारों, अन्ध-विश्वासों के खि़लाफ़ लड़ा जाये, उनको धर्म, जाति, फिरके आदि तुच्छ बँटवारों से ऊपर उठकर व्यापक एकता बनाने के लिए शिक्षित किया जाये और हर तरह की फासीवादी, मूलवादी और कट्टरपन्थी ताक़तों के विरुद्ध व्यापक प्रचार मुहिमें चलायी जायें, उनके लोगों को बाँटने और आपस में लड़ाने के मंसूबों को लोगों में नंगा किया जाये और इस लड़ाई को इस पूरे पूँजीवादी ढाँचे के ख़ात्मे की दिशा में आगे बढ़ाया जाये। यही ’84 के क़त्लेआमों के पीड़ितों के साथ सही इन्साफ़ होगा, उनमें जान खो चुके लोगों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी और यही एकमात्र रास्ता है जिससे हम भविष्य में ’84 जैसे मंज़र फिर दुहराये जाने से बच सकेंगे।

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2014


 

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