Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

प्रधानमन्त्री के संसदीय क्षेत्र में बर्बर बलात्कार और न्यायपालिका का दिनोदिन बढ़ता दकियानूसी और स्त्री-विरोधी चरित्र

यह केवल न्यायपालिका का मामला नहीं है। बल्कि आज देश की सभी सर्वोच्च संस्थाओं में फ़ासीवादी घुसपैठ हो चुकी है। फ़ासीवाद अपनी मूल प्रकृति से ही स्त्री विरोधी विचारधारा को खाद पानी देने का काम करता है। जैसा कि वित्तमन्त्री निर्मला सीतारमण और योगी आदित्यनाथ के बयानों से समझा जा सकता है। जहाँ निर्मला सीतारमण का कहना है कि “पितृसत्ता वामपन्थी अवधारणा है।” वहीं योगी का मानना है कि “महिलाओं को स्वतन्त्र या आज़ाद नहीं छोड़ा जा सकता है।” बस योगी जी यह कहना भूल गए कि कुलदीप सिंह सेंगर, आशाराम, रामरहीम जैसे अपराधियों को आज़ाद छोड़ने से देश “विश्वगुरु” बनेगा। फ़ासीवादी शासन में बलात्कारियों के पक्ष में फ़ासिस्टों द्वारा तिरंगा यात्रा निकलने से लेकर आरोपियों को बेल मिलने पर फूल माला से स्वागत करना आम बात बन चुकी है। ऐसे में समाज के सबसे बर्बर, अपराधिक और बीमार तत्वों को अपराध करने की खुली छुट मिल जाती है। यह स्थिति और भी ख़तरनाक तब बन जाती है बुर्जुआ न्याय व्यवस्था बुर्जुआ जनवाद के अतिसीमित प्रगतिशीलता को स्थापित करने की जगह फ़ासिस्टों के हाथ की कठपुतली बन जाय और जनविरोधी-स्त्रीविरोधी बयानों की झड़ी लगा दे। न्यायपालिका के इस प्रकार के बयानों की वजह से समाज में गहराई से पैठी स्त्री विरोधी मानसिकता को फलने-फूलने के लिए खाद पानी मिलेगा। और कालान्तर में स्त्रियों के ख़िलाफ़ होने वाले जघन्य अपराधों के लिए ज़मीन तैयार हो रही है।।

वक़्फ़ क़ानून में नये संशोधनों पर मज़दूर वर्ग का नज़रिया क्या होना चाहिए?

वक़्फ़ सम्पत्तियों के कुप्रबन्धन और उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार के तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। परन्तु वक़्फ़ ही क्यों, सच तो यह है कि इस देश में धर्म-कर्म के नाम पर सभी धर्मों की धार्मिक व धर्मार्थ संस्थाओं ने सम्पत्ति का विशाल अम्बार खड़ा किया हुआ है जिनके प्रबन्धन में भी कोई जवाबदेही या पारदर्शिता नहीं है और इस मामले में हिन्दू धर्म के मन्दिरों, ट्रस्टों आदि में जो अरबों-खरबों का भ्रष्टाचार होता है, उसका तो किसी अन्य धर्म में कोई मुक़ाबला ही नहीं है। ऐसे में केवल इस्लाम धर्म की किसी संस्था में भ्रष्टाचार को लेकर ही अमित शाह के पेट में मरोड़ क्यों उठ रहा है? शाह इतने भोले तो हैं नहीं कि उन्हें यह पता ही न होगा कि इस देश में तमाम मन्दिरों, मठों, गुरुद्वारों, गिरजाघरों और बाबाओं के तमाम आश्रमों ने लोगों की धार्मिक आस्था के नाम पर अकूत सम्पदा इकट्ठी कर रखी है और उनके प्रबन्धन में भी ज़बर्दस्त भ्रष्टाचार होता है। वास्तव में, सबसे ज़्यादा समृद्ध तो तमाम हिन्दू मन्दिरों के ट्रस्ट व बोर्ड आदि हैं, जिनके पास जमा अथाह सम्पत्ति व धन-दौलत पर दशकों से गम्भीर सवाल उठते रहे हैं। इसी प्रकार तमाम गुरुद्वारों व गिरजाघरों और मठों के पास जमा चल व अचल सम्पत्ति का कोई हिसाब नहीं है।

भारतीय न्यायपालिका का जर्जर होता चरित्र

किसी भी देश में पूँजीवादी संकट के गहराने के साथ ही जैसे-जैसे पूँजीवादी जनवाद का स्पेस सिकुड़ता चला जाता है, वैसे-वैसे न्यायपालिका की “निष्पक्षता” का नकाब उतरता चला जाता है। बुर्जुआ राज्यसत्ता जब किसी तरह की बोनापार्टिस्ट किस्म की निरंकुश सत्ता, सैनिक तानाशाही या फ़ासीवादी सत्ता का स्वरूप ग्रहण कर लेती है तो न्यायपालिका सीधे-सीधे सरकारों के निर्देशों पर चलती हुई अपनी सापेक्षिक स्वायत्तता को खो देती है और उसका यह चरित्र जनता की नज़रों में भी काफ़ी हद तक साफ़ हो जाता है। लेकिन इस मामले में फ़ासीवादी सत्ता का व्यवहार बुर्जुआ शासन के अन्य किसी भी आपवादिक निरंकुश रूप से भिन्न होता है। फ़ासीवादी शक्तियाँ अत्यन्त व्यवस्थित ढंग से न्यायपालिका के फ़ासीवादीकरण के काम को नीचे से ऊपर तक अंजाम देती हैं और बार एवं बेंच में अपने कुशल सिपहसालारों को घुसाने का काम करती हैं। भारतीय न्यायपालिका में फ़ासीवादी घुसपैठ की बात तो आज तमाम अधिवक्ताओं, विधिवक्ताओं से लेकर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई रिटायर्ड जज तक कर रहे हैं।

ऑटोमोबाइल सेक्टर के अस्थायी मज़दूरों के सम्मेलन को पुलिस द्वारा बाधित करने की कोशिश!

अस्थायी मज़दूरों के सम्मेलन को बाधित करने के लिए पुलिस द्वारा की गयी कार्रवाई से पता चलता है कि अस्थायी मज़दूरों के एकजुट-संगठित होने के प्रयासों की शुरुआत से पुलिस प्रशासन, कम्पनियों के मालिकान और प्रबन्धन पर असर पड़ रहा है। उनका डर दिखायी दे रहा है। वे किसी भी क़ीमत पर ऑटो सेक्टर के अस्थायी मज़दूरों को एकजुट होने से रोकना चाहते हैं। इससे पता चलता है कि अगर मालिक-प्रबन्धन-प्रशासन को मज़दूरों की कार्रवाई से तक़लीफ़ हो रही है, तो लड़ाई सही दिशा में आगे बढ़ रही है। सम्मेलन के एजेण्डा के बचे हुए कार्यभारों को अगले ही दिन मज़दूरों की ऑनलाइन मीटिंग में सम्पन्न किया गया जिसमें क़रीब 50 साथी शामिल हुए।

मारुति सुज़ुकी के अस्थायी मज़दूरों के प्रदर्शन पर दमन से पुलिस-प्रशासन और मारुति सुज़ुकी प्रबन्धन का गठजोड़ एक बार फिर से नंगा!

आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए ऑटोमोबाइल सेक्टर के सभी मज़दूरों को भी इसमें शामिल करना होगा। हम लोग जानते हैं कि 80-90 प्रतिशत आबादी तमाम अस्थायी मज़दूरों यानी ठेका, अप्रेण्टिस, फिक्सड टर्म ट्रेनी, नीम ट्रेनी, कैज़ुअल, टेम्परेरी मज़दूर आदि विभिन्न श्रेणी के अस्थायी मज़दूर हैं। इनकी भी वहीं माँगे हैं जो मारुति सुज़ुकी-सुज़ुकी के तमाम अस्थायी मज़दूरों की माँगें हैं।

भारतीय संविधान के 75 साल – संविधान का हवाला देकर फ़ासीवाद से मुक़ाबले की ख़ामख्याली फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष के लिए घातक सिद्ध होगी!

“संविधान बचाओ” का नारा अपने आप में इसी व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर हमारे संघर्ष को समाप्त कर देने वाला नारा है। हमें समझना होगा कि फ़ासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में जब हम किसी प्रकार के बुर्जुआ जनवाद की पुनर्स्थापना की बात करते हैं तो वह फ़ासीवाद के विरुद्ध चल रही लड़ाई में बेहद घातक और आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। हमें यह समझना होगा कि फ़ासीवाद का विकल्प किसी किस्म का शुद्ध-बुद्ध बुर्जुआ जनवाद नहीं हो सकता। असल में फ़ासीवाद आज के दीर्घकालिक मन्दी के दौर में एक कमोबेश स्थायी परिघटना बन चुका है। पूँजीवादी संकट आज एक दीर्घकालिक मन्दी का रूप ले चुका है, जो नियमित अन्तरालों पर महामन्दी के रूप में भी फूटती रहती है। आज तेज़ी के दौर बेहद कम हैं, छोटे हैं और काफ़ी अन्तरालों पर आते हैं और अक्सर वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था में तेज़ी के बजाय सट्टेबाज़ वित्तीय पूँजी के बुलबुलों की नुमाइन्दगी करते हैं। ऐसे में, बुर्जुआ वर्ग का प्रतिक्रिया और निरंकुशता की ओर झुकाव, टुटपुँजिया वर्गों के बीच सतत् असुरक्षा और परिणामतः प्रतिक्रिया की ज़मीन लगातार मौजूद रहती है और वर्ग-संघर्ष के ख़ास नाज़ुक मौक़ों पर यह एक पूँजीपति वर्ग व पूँजीवादी राज्य के राजनीतिक संकट की ओर ले जाने की सम्भावना से परिपूर्ण स्थिति सिद्ध होती है।

‘कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है’ पुस्तक से एक अंश

राज्यसत्ता का असली स्वरूप तब सामने आता है जब जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती है और कोई आन्दोलन संगठित होता है। ऐसे में विकास प्रशासन और कल्याणकारी प्रशासन का लबादा खूँटी पर टाँग दिया जाता है और दमन का चाबुक हाथ में लेकर राज्यसत्ता अपने असली खूनी पंजे और दाँत यानी पुलिस, अर्द्ध-सुरक्षा बल और फ़ौज सहित जनता पर टूट पड़ती है। पुलिस से तो वैसे भी जनता का सामना रोज़-मर्रे की जिन्दगी में होता रहता है। पुलिस रक्षक कम और भक्षक ज़्यादा नज़र आती है। आज़ादी के छह दशक बीतने के बाद भी आलम यह है कि ग़रीबों और अनपढ़ों की तो बात दूर, पढ़े लिखे और जागरूक लोग भी पुलिस का नाम सुनकर ही ख़ौफ़ खाते हैं। ग़रीबों के प्रति तो पुलिस का पशुवत रवैया गली-मुहल्लों और नुक्कड़-चौराहों पर हर रोज़ ही देखा जा सकता है। भारतीय पुलिस टॉर्चर, फ़र्जी मुठभेड़, हिरासत में मौत, हिरासत में बलात्कार आदि जैसे मानवाधिकारों के हनन के मामले में पूरी दुनिया में कुख़्यात है।

बढ़ती बेरोज़गारी के शिकार छात्रों-युवाओं पर टूटता फ़ासीवादी कहर – बिहार और उत्तराखण्ड में छात्रों पर बरसी लाठियाँ

फ़ासीवादी भाजपा सरकार छात्रों-युवाओं के लिए काल साबित हुई है। बेरोज़गारी के इस तूफ़ान ने करोड़ों छात्रों के भविष्य को अन्धकारमय बना दिया है। देश में अपराधों का रिकार्ड रखने वाली संस्था एनसीआरबी के आँकड़ों को देखें तो पता चला चलता है कि केवल वर्ष 2022 में 1 लाख 12 हज़ार छात्रों ने आत्महत्या की है। एक तरफ़ बेरोज़गारी जब विकराल रूप लेती जा रही है तो वहीं पर भर्तियों में भी तमाम तरीक़े के नये नियम लागू करके परिक्षाओं में चयन की प्रक्रिया को बेहद जटिल और मुश्किल बनाया जा रहा है। इसका ताज़ा उदाहरण इसी साल सितम्बर में झारखण्ड में हुई उत्पाद सिपाही भर्ती परीक्षा का है जिसमें दौड़ के नियमों में बदलाव करके 60 मिनट में 10 किलोमीटर दौड़ने का प्रावधान किया गया जबकि ये पहले 6 मिनट में 1600 मीटर था। इसका नतीज़ा ये हुआ कि दौड़ने के दौरान ही 12 छात्रों की मौत हो गयी।

भोपाल गैस हत्याकाण्ड के 40 साल – मेहनतकशों के हत्याकाण्डों पर टिका मानवद्रोही पूँजीवाद!!

मुनाफ़े की अन्धी हवस में अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की भारतीय सब्सिडियरी यूसीआईएल चन्द पैसे बचाने के लिए सारे सुरक्षा उपायों को ताक पर रखकर मज़दूरों से काम करवा रही थी। मालूम हो कि नगरनिगम योजना के मानकों के अन्तर्गत भी इस फैक्ट्री को लगाना गलत था लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने यू.सी.सी. का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 1979 तक फैक्ट्री ने काम भी शुरू कर दिया गया, लेकिन काम शुरू होते ही कई दुर्घटनाएँ हुईं। दिसम्बर 1981, में ही गैस लीक होने के कारण एक मज़दूर की मौत हो गई और दो बुरी तरह घायल हो गये। लगातार हो रही दुर्घटनाओं के मद्देनज़र मई, 1982 में तीन अमेरिकी इंजीनियरों की एक टीम फैक्ट्री का निरीक्षण करने के लिए बुलाई गई। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि मशीनों का काफी हिस्सा ख़राब है, एवं गैस भण्डारण की सुविधा अत्यन्त दयनीय है जिससे कभी भी गैस लीक हो सकती है और भारी दुर्घटना सम्भव है। इस रिपोर्ट के आधार पर 1982 में भोपाल के कई अखबारों ने लिखा था कि ‘वह दिन दूर नहीं, जब भोपाल में कोई त्रासदी घटित हो जाए।’ फिर भी न तो कम्पनी ने कोई कार्रवाई की और न ही सरकार ने।

अदालत ने भी माना : आँगनवाड़ीकर्मी हैं सरकारी कर्मचारी के दर्जे की हक़दार!

यह फ़ैसला लम्बे समय से संघर्षरत आँगनवाड़ीकर्मियों के संघर्ष का ही नतीजा है। कर्मचारी के दर्जे की माँग की हमारी लड़ाई को आगे ले जाने के में यह एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगा। ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन’ देश भर की आँगनवाड़ीकर्मियों को इसके लिए बधाई देती है। लेकिन हमें कोर्ट के इस आदेश मात्र से निश्चिन्त होकर नहीं बैठ जाना होगा। देश भर में आन्दोलनरत स्कीम वर्करों के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि किस प्रकार एक स्वतन्त्र और इन्क़लाबी यूनियनें खड़ी की जायें और अलग-अलग राज्यों में बिखरे हुए इन आन्दोलनों को एक सूत्र में पिरोया जाये। आँगनवाड़ीकर्मियों को सरकारी कर्मचारी का दर्जा देने के लिए नीति में ज़रूरी बदलाव केन्द्र सरकार के हाथों में है। इसके लिए केन्द्र सरकार के खिलाफ़ संघर्ष को तेज़ करने और देशभर में आँगनवाड़ीकर्मियों को एकजुट करने की ज़रूरत है।