ब्रिस्बेन में जी20 शिखर सम्मेलन में विश्व पूँजी के मुखियाओं का “चिन्‍तन-शिविर”
साम्राज्यवादी संकट के समय में सरमायेदारी के सरदारों की साज़िशें और सौदेबाज़ियाँ और मज़दूर वर्ग के लिए सबक

सम्‍पादक मण्‍डल

g20-modiबीते 14-15 नवम्बर के सप्ताहान्त में ऑस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन शहर में नौवाँ जी20 शिखर सम्मेलन हुआ। जी20 सम्मेलन में दुनिया के बीस सबसे शक्तिशाली देशों के मुखिया इकट्ठा होते हैं और विश्व पूँजीवादी व्यवस्था की सेहत और बेहतरी के बारे में मगजपच्ची करते हैं। साथ ही, वे आपसी झगड़ों और विवादों पर भी सिर लड़ाते हैं। इस बार जी20 सम्मेलन के एजेण्डा में वैश्विक संकट और बिगड़ते पर्यावरणीय सन्तुलन को सबसे ऊपर रखा गया था। सम्मेलन ख़त्म होने पर विश्व के बीस बड़े पूँजीवादी देशों के प्रमुखों या उनके प्रतिनिधियों ने एक साझा बयान भी जारी किया। इस बयान को पढ़कर ही लग जाता है कि वैश्विक संकट और पर्यावरण के बारे में उनकी चिन्ताओं की जड़ में और कुछ नहीं बल्कि पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा और साम्राज्यवाद के हित हैं। इस पर हम आगे बात रखेंगे, लेकिन पहले इस सवाल पर साफ़ नज़र हो लेना चाहिए कि भारत में हम मज़दूर भला जी20 शिखर सम्मेलन के बारे में क्यों चिन्तित हों?

हम मज़दूर जी20 शिखर सम्मेलन के बारे में दिमाग़ क्यों खपायें?

आपके मन में यह प्रश्न उठना लाज़िमी है कि भारत से लगभग 10 हज़ार मील दूर ऑस्ट्रेलिया देश के ब्रिस्बेन शहर में अगर दुनिया की 20 बड़ी आर्थिक ताक़तों के मुखिया इकट्ठा हुए हों तो हम इसके बारे में क्यों सोचें? हम तो अपनी ज़िन्दगी के रोज़मर्रा की जद्दोजहद में ही ख़र्च हो जाते हैं। तो फिर नरेन्द्र मोदी दुनिया के बाक़ी 19 बड़े देशों के मुखियाओं के साथ क्या गुल खिला रहा है, हम क्यों मगजमारी करें? लेकिन यहीं पर हम सबसे बड़ी भूल करते हैं। वास्तव में, हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हमें जिन परेशानियों का सामना करना पड़ता है, वे वास्तव में यहाँ से 10 हज़ार मील दूर बैठे विश्व के पूँजीपतियों के 20 बड़े नेताओं की आपसी उठा-पटक से करीबी से जुड़ी हुई हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि नरेन्द्र मोदी द्वारा श्रम क़ानूनों को बरबाद किये जाने का कुछ रिश्ता दुनिया के साम्राज्यवादियों की इस बैठक से भी हो सकता है? क्या आपने सोचा है कि अगर कल को आपको आटा, चावल, दाल, तेल, सब्ज़ि‍याँ दुगुनी महँगी मिलती हैं, तो इसका कारण जी20 सम्मेलन में इकट्ठा हुए पूँजी के सरदारों की आपसी चर्चाओं में छिपा हो सकता है? क्या आपको इस बात का अहसास है कि अगर कल सरकारी स्कूल बन्द होते हैं या उनकी फ़ीसें हमारी जेब से बड़ी हो जाती हैं तो इसके पीछे का रहस्य जी20 में बैठे सरमायेदारों के सरदारों की साज़िशों में हो सकता है? क्या हमने कभी सोचा था कि अगर कल बचा-खुचा स्थायी रोज़गार भी ख़त्म हो जाता है और मालिकों और प्रबन्धन को हमें जब चाहे काम पर रखने और काम से निकाल बाहर करने का हक़ मिल जाता है तो इसमें जी20 में लुटेरों की बैठक का कोई योगदान हो सकता है? सुनने में चाहे जितना अजीब लगे, मगर यह सच है!

आज अगर नरेन्द्र मोदी श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर रहा है, सरकारी कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त कर रहा है, बची-खुची पब्लिक सेक्टर कम्पनियों को औने-पौने दामों पर निजी हाथों में सौंप रहा है, क़ीमतें बढ़ा रहा है और मज़दूरों के हर आन्दोलन का खुलेआम दमन करवा रहा है, तो इसका कारण यह है कि नरेन्द्र मोदी देशी और विदेशी पूँजी की सेवा में दिलोजान से लगा हुआ है और जी20 सम्मेलन में भी उसने देशी-विदेशी पूँजी के सामने हम मज़दूरों को लूटने-खसोटने का खुला न्यौता रखा है; मोदी ने देशी-विदेशी पूँजी से वायदा किया है कि भारत में हमें गुलाम बनाकर मुनाफ़ा पीटने के रास्ते में जितनी बाधाएँ हैं, वे ख़त्म कर दी जायेंगी! साथ ही, मोदी ने ऑस्ट्रेलिया में कोयला खदानों का ठेका अपने ‘करीबी मित्र’ अदानी को दिलावाया। मोदी ने भारतीय पूँजीपति वर्ग की बढ़ती ताक़त को भी दुनिया के पूँजीवादी मुखियाओं के सामने पेश किया और उसके लिए विश्व पैमाने पर मज़दूरों की लूट में अधिक हिस्से की माँग की।

हम मज़दूरों को यह समझना होगा कि आज पूँजी का भूमण्डलीकरण हो चुका है और वह दुनिया के पैमाने पर आपस में जुड़ चुकी है। ऐसे में, विश्व पूँजीवाद के मुखिया दुनिया के किसी भी कोने में इकट्ठा होकर अपने आर्थिक संकट का बोझ हम पर डालने, हमारी छँटनी करने, तालाबन्दी करने, महँगाई बढ़ाने की योजना बनाते हैं तो उसका असर हमें सीधे अपने गली-मुहल्लों में, राशन की दुकान पर, और बच्चे के स्कूल की बढ़ती फ़ीसों में दिखलायी पड़ेगा। हमें इन लुटेरों की सौदेबाज़ियों और साज़िशों पर निगाह रखनी चाहिए। ये लुटेरे दुनिया के पैमाने पर इकट्ठा होकर हमें लूटने की अपनी रणनीति बनाते हैं। ऐसे में, क्या लूटे जाने की इनकी रणनीति की हम उपेक्षा कर सकते हैं? क़तई नहीं! इसलिए मज़दूरों को देश और दुनिया के पैमाने की राजनीति में दिलचस्पी लेनी चाहिए, उसे समझना चाहिए और उसके बरक्स मज़दूर वर्ग की रणनीति के बारे में भी सोचना चाहिए और वक़्तन-ज़रूरतन उसे बदलना चाहिए। और यही कारण है कि हमें पिछले महीने जी20 शिखर सम्मेलन में दुनिया की 20 प्रमुख पूँजीवादी आर्थिक शक्तियों के प्रधानों की कारगुज़ारियों को समझने की ज़रूरत है।

ब्रिस्बेन जी20 शिखर सम्मेलन में बढ़ते साम्राज्यवादी संकट पर लुटेरों की बेअसर मगज़पच्ची

जी20 में ओबामा, एंजेला मर्केल, डेविड कैमरून, टोनी एबट, स्टीफ़न हार्पर से लेकर नरेन्द्र मोदी, ज़ी जिनपिंग, पुतिन, दिल्मा रूसफ़ जैसे साम्राज्यवादी दिग्गज इकट्ठा हुए। जैसाकि उम्मीद की जा सकती थी, उनके एजेण्डे पर सबसे प्रमुख था मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट से कराह रहे साम्राज्यवाद को राहत का कुछ इन्तज़ाम करना। ग़ौरतलब है कि विश्व पूँजीवाद 1970 के दशक से ही लगातार मन्द मन्दी में पड़ा हुआ था और 2007 से इस मन्द मन्दी ने एक महामन्दी का रूप ले लिया है। यह मन्दी 1930 की मन्दी से ज़्यादा गहरी और ढाँचागत साबित हो रही है और तमाम कोशिशों के बावजूद जाने का नाम नहीं ले रही है। आखिर इस मन्दी के पीछे क्या कारण हैं?

यह साम्राज्यवादी मन्दी आखिर है क्या?

इस मन्दी के पीछे कारण है निजी मुनाफ़े पर टिकी हुई समूची पूँजीवादी व्यवस्था। यह एक ओर मज़दूरों को निचोड़-निचोड़कर सामानों और सेवाओं का अम्बार लगाती जाती है, तो वहीं दूसरी ओर यह आबादी के सबसे बड़े हिस्से, यानी कि मेहनतकश वर्ग को रोज़-ब-रोज़ ज़्यादा ग़रीब बनाती जाती है। नतीजा यह होता है कि एक तरफ़ बाज़ार मालों से पट जाते हैं और दूसरी तरफ़ उन्हें ख़रीदने के लिए पर्याप्त ख़रीदार नहीं होते। यही पूँजीवादी संकट का मूल है: “अतिउत्पादन”। यह वास्तव में अतिउत्पादन नहीं होता, बल्कि सिर्फ़ इसलिए अतिउत्पादन होता है क्योंकि वस्तुओं और ज़रूरतमन्द लोगों के बीच निजी मुनाफ़े की दीवार खड़ी होती है। वरना उत्पादन की कोई भी मात्र अतिउत्पादन नहीं हो सकती, यदि समाज बराबरी और न्याय पर आधारित हो। लेकिन एक पूँजीवादी समाज में उत्पादन की कोई भी मात्र “अतिउत्पादन” हो सकती है। जब पूँजीवादी व्यवस्था 1850 के दशक से लेकर 1960 के दशक के अन्त तक कई बार अतिउत्पादन के संकट का शिकार हुई तो फिर इसने इस मन्दी से निपटने के लिए एक नायाब तरीक़ा निकाला: वित्त पूँजी के ज़रिये उपभोक्ताओं को सूद पर क़र्ज़़ देना और उन्हें सामान ख़रीदने के लिए प्रोत्साहित करना। 1960 के दशक के बाद क़र्ज़़ देकर ख़रीदारी करवाने की सोच पूरी दुनिया की वित्तीय पूँजी के सरदारों द्वारा लागू की जाने लगी। उन्हें उम्मीद थी कि इससे अतिउत्पादन का संकट भी दूर होगा और सूद के ज़रिये क़र्ज़़ पर कमाई भी होगी। लेकिन एक समय ऐसा आया जब कि क़र्ज़़ का सूद देने लायक पैसे भी बहुसंख्यक जनता के पास नहीं बचे। एक तरफ़ क़र्ज़ देने के लिए विशालकाय पूँजी के अम्बार इकट्ठा हो गये, तो वहीं दूसरी ओर एक विशालकाय दरिद्र आबादी का निर्माण हो गया। इसके बाद, वित्तीय पूँजीपतियों ने ग़रीब से ग़रीब आदमी को भी बेहद ज़्यादा सूद पर क़र्ज़़ देने की रणनीति अपनायी ताकि उसकी पूँजी बाज़ार में घूमती रहे, घर न बैठे। क्योंकि जब पूँजी बाज़ार में घूमती नहीं और पहले से ज़्यादा पूँजी नहीं पैदा करती तो फिर वह ख़त्म होती है। यानी कि पूँजी का गुब्बारा फूलते जाने (और अन्ततः फट जाने) या फट जाने के लिए अभिशप्त होता है! 2007 में अमेरिका में यही हुआ। ढेर सारे ऐसे लोगों को अमेरिकी बैंकों ने कार व घर आदि खरीदने के लिए क़र्ज़़ दिया जोकि क़र्ज़़ की पहली किश्त चुकाने की स्थिति में भी नहीं थे। नतीजतन, क़र्ज़़ लेने वाली बड़ी आबादी क़र्ज़़ का ब्याज़ तक नहीं दे पाये और डिफ़ाल्ट कर गये। अमेरिकी बैंकों ने ऐसे असफल हो चुके क़र्ज़़ों की लेनदारी का अधिकार दुनिया के अन्य बैंकों को भी बेच रखा था। लिहाज़ा हुआ ये कि जब अमेरिकी जनता के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से ने क़र्ज़़ का ब्याज़ तक चुका पाने में असमर्थता घोषित कर दी, तो बैंकों का पैसा कारों और घरों में फँस गया। ऐसे में, बैंकों के पास अपने खातेदारों को देने के लिए पैसे नहीं बचे; यहाँ तक कि अपने कर्मचारियों को देने के लिए भी पैसे नहीं बचे। नतीजतन, दुनिया के सबसे बड़े बैंक दीवालिया होकर औंधे मुँह गिरने लगे। इस तरह से वित्तीय पूँजी के मुनाफ़े के लालच और सट्टेबाज़ी के चलते 2007 में वैश्विक आर्थिक संकट की शुरुआत हुई। इसके बाद, दुनियाभर की सरकारों ने हम मज़दूरों की मज़दूरी घटाकर, हमारे लिए चलायी जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं में कटौती करके, हमारे स्कूलों को बन्द करके और हमारी खानों-खदानों को पूँजीपतियों को बेचकर इन लालची बैंकों को अरबों डॉलर और रुपयों के ‘पैकेज’ दिये। इन बैंकों ने इन पैकेजों का इस्तेमाल भी जुआ खेलने, सट्टेबाज़ी करने और नक़ली तेज़ी के बुलबुले फुलाने में किया। परिणामतः संकट और बढ़ता गया। हर बार दुनियाभर की सरकारों ने इस संकट का बोझ मज़दूर वर्ग पर डाला। कैसे? छँटनी और तालाबन्दी करके, श्रम अधिकार छीनकर, पूँजीपतियों को कर से छुटकारा देकर और हमें करों से लादकर, महँगाई बढ़ाकर! अभी भी यही प्रक्रिया जारी है।

जी20 सम्मेलन में इस साम्राज्यवादी मन्दी का साम्राज्यवादियों ने क्या “समाधान” निकाला?

हालिया जी20 शिखर सम्मेलन में जब विश्व पूँजीवाद के 20 मुख्य नेता एकत्र हुए तो भी विश्व पूँजीवाद भयंकर संकट का शिकार है। यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था 2008 से लगातार चौथी बार मन्दी का शिकार है; अमेरिकी अर्थव्यवस्था सुधार के तमाम दावों के बावजूद मन्दी से उबर नहीं पा रही है, जापान तो पिछले ढाई दशक से मन्दी से ठीक से कभी उबर ही नहीं पाया है। वहीं दूसरी ओर दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थाएँ जैसेकि चीन, भारत और ब्राज़ील भी संकटग्रस्ट हैं। एक ऐसे समय में जी20 के नेताओं ने अपने साझा बयान में यह दावा किया कि वे 2018 तक जी20 देशों के कुल उत्पादन को 2.1 प्रतिशत तक बढ़ायेंगे! साथ ही वे वैश्विक अर्थव्यवस्था में 2 ट्रिलियन (खरब) डॉलर का इज़ाफ़ा करेंगे! इसके अलावा, उन्होंने लाखों रोज़गार पैदा करने का भी दावा किया! लेकिन जब उन्होंने बताया कि ऐसा वे कैसे करेंगे, वैसे ही यह साफ़ हो गया कि एक बार भी बढ़ते हुए वैश्विक संकट का बोझ हम मज़दूरों पर डाला जायेगा। उनका दावा है कि संकट को दूर करने के लिए ‘संरचनागत सुधारों’ की ज़रूरत है। संरचनागत सुधारों का क्या अर्थ है? संरचनागत सुधारों का अर्थ यह है कि अब हमें श्रम क़ानूनों के तहत औपचारिक तौर पर भी जितने अधिकार मिलते थे वे एक-एक करके छीन लिये जायेंगे, क्योंकि जहाँ कहीं भी हम संगठित होकर लड़ते हैं वहाँ-वहाँ पूँजीपतियों को ये अधिकार देने पड़ जाते थे जो कि उनके मुनाफ़े के लिए और प्रतिस्पर्द्धा में टिके रहने के लिए घातक सिद्ध होता था। मोदी सरकार ने यह काम शुरू भी कर दिया है। दूसरा अर्थ है पूँजीपतियों को श्रम क़ानूनों के अतिरिक्त भी अन्य सभी क़ानूनी विनियमनों की बाधाओं से मुक्त करना। मिसाल के तौर पर, पहले मालिकों को कारख़ाने लगाने के लिए कई प्रकार के वायदे करने पड़ते थे, जैसेकि कारख़ाने के भीतर सुरक्षा के इन्तज़ाम रखने, पर्यावरण के लिए ‘क्लियरेंस’ लेना, कर अदायगी करना, कारख़ाना बन्द करने से पहले सरकारी इजाज़त लेना, आदि। लेकिन अब ‘धन्धा करने को आसान बनाने और धन्धा बन्द करने को भी आसान बनाने’ के लिए नरेन्द्र मोदी ने (जिनकी रगों में व्यापार का ख़ून दौड़ रहा है!) इन सारी बाधाओं को दूर करना शुरू कर दिया है। तीसरा अर्थ यह है कि पूँजीपतियों को कारख़ाना, शॉपिंग मॉल, सिनेमा हॉल या कोई भी धन्धा लगाने के लिए लगभग मुफ्त की ज़मीन, मुफ्त का पानी, मुफ्त की बिजली, और 0 प्रतिशत ब्याज़ दर पर क़र्ज़़ और आने वाले कई वर्षों तक करों से छूट की व्यवस्था करना। ‘संरचनागत सुधारों’ का चौथा अर्थ है देश के ऊपर के 20 प्रतिशत अमीर वर्गों पर से प्रत्यक्ष कर का बोझ धीरे-धीरे घटाते जाना (जोकि पहले से ही काफ़ी कम था!) ताकि ये वर्ग अधिक से अधिक ख़रीदारी करें और ख़रीदारी कर-करके पूँजीवाद के मवाद फेंकते फोड़ों पर नोटों की पट्टी लगा दें। वहीं दूसरी ओर, देश की 80 फ़ीसदी आबादी पर अप्रत्यक्ष करों व अन्य शुल्कों का बोझ लगातार बढ़ाते जाना, जिससे कि महँगाई लगातार बढ़ती जा रही है। और ‘संरचनागत सुधारों’ का पाँचवाँ अर्थ है सरकार द्वारा “ख़र्च कम करने” के नाम पर अपनी सारी ज़िम्मेदारियों से पीछे हटते जाना! पूँजीपतियों के फ़ायदों के लिए तो सरकार अपने ख़र्च को लगातार बढ़ा रही है, लेकिन जनता के स्कूल, अस्पताल, डिस्पेंसरी, राशन, बिजली, पानी प्रदान करने के ख़र्च उसे खल रहे हैं और वह उसे लगातार घटाने की बात कर रही है। सवाल यह है कि सरकार जनता को ये मूलभूत अधिकार नहीं देती तो आखिर ऐसी सरकार को बने रहने का क्या हक़ है? अगर कोई व्यवस्था जनता को ये जीवन की बुनियादी ज़रूरतें नहीं देती तो उसे बने रहने का क्या अधिकार है? लेकिन जी20 के नेताओं के ‘संरचनागत सुधार’ का यही अर्थ है – जनता के मुँह से आख़ि‍री निवाला छीनकर भी पूँजीपतियों की तोंदों को चमकीला बनाये रखना! वैश्विक संकट से निकलने का यही रास्ता सोचा है इन लुटेरों के सरदारों ने: जनता के तन से सूत का आख़ि‍री तिनका भी खींचकर पूँजीपतियों को गहराते संकट के भँवर में डूबने से बचाओ! लेकिन हम जानते हैं कि ‘डूबते को तिनके का सहारा’ केवल मुहावरे में मिलता है, असलियत में नहीं!

पूँजी की आर्थिक तानाशाही = पूँजी की राजनीतिक तानाशाही

अपने हर ऐसे क़दम के साथ और अपनी सट्टेबाज़ी द्वारा पैदा किये गये संकट का बोझ मेहनतकश वर्ग पर डालने की हर साज़िश के साथ विश्व पूँजीवाद दुनिया के तमाम कोनों में मज़दूरों और आम घरों से आने वाले छात्रों-युवाओं के आन्दोलनों और विद्रोहों को न्यौता दे रहा है। उसके पास और कोई रास्ता बचा भी नहीं है। यही कारण है कि दुनियाभर में पूँजीपतियों ने इफ़रात पैसा ख़र्च करके फासीवादियों, मज़दूरों के धुर विरोधी दक्षिणपन्थियों और तानाशाहों को सत्ता में बिठाना शुरू कर दिया है। चाहे ऑस्ट्रेलिया हो या भारत, यूनान हो या स्पेन, फ़्रांस हो या ब्रिटेन: हर जगह पूँजीपतियों ने ऐसे तानाशाहों को सत्ता में बिठा दिया है या बिठाने की मुहिम पुरज़ोर तरीक़े से चला रखी है जो कि जनता के उबलते गुस्से को कुचलने के लिए दमन की मशीनरी को चाक-चौबन्द कर रहे हैं। मोदी के सत्ता में आते ही यह काम संघी गुण्डों को खुला हाथ देकर किया गया है। देश के तमाम इलाक़ों में अल्पसंख्यकों पर हमलों में मोदी के सत्ता में आने के बाद ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है। एक तरफ़ संघी गुण्डे मज़दूर वर्ग पर हमले बढ़ा रहे हैं, वहीं वे मज़दूर वर्ग को धर्म, जाति या नस्ल के आधार पर बाँट भी रहे हैं। हमारा ध्यान उनकी इस साज़िश पर न जाये इसके लिए पाकिस्तान के साथ युद्धोन्माद को भड़काया जा रहा है। यह बात दीगर है कि पाकिस्तान की संकटग्रस्त नवाज़ शरीफ़ सरकार को भी इस अन्धराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद की उतनी ही ज़रूरत है, जितनी की मज़दूर वर्ग को पूरी तरह कुचल देने की तैयारी कर रहे साम्प्रदायिक फासीवादी मोदी को है। लुब्बेलुबाब यह कि संकट के दौर में जहाँ दुनियाभर का पूँजीपति वर्ग आर्थिक कट्टरपन्थ के छोर तक पहुँच रहा है, तो वहीं यह आर्थिक कट्टरपन्थ उसे राजनीतिक कट्टरपन्थी बनने को भी बाध्य कर रहा है। दूसरे शब्दों में, अगर आज भारत में मोदी, ऑस्ट्रेलिया में एबट, ब्रिटेन में कैमरून जैसे धुर दक्षिणपन्थी और मज़दूर वर्ग के दुश्मनों को पूँजीपति वर्ग ने सत्ता में पहुँचाया है तो इसका कारण यह है कि आर्थिक संकट के दौर में तानाशाही और फासीवाद पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत है। हम मज़दूरों को पूँजी की यह पूरी जंजालनुमा रणनीति समझनी होगी। अपने औद्योगिक क्षेत्रों में, अपने मुहल्लों में और अपने देश में भी, हम अपने हक़ों और हितों की लड़ाई तभी लड़ सकते हैं।

जी20 में साम्राज्यवादियों के बीच ज़बरदस्त कुत्ताघसीटी साम्राज्यवादियों के बढ़ते आपसी अन्तरविरोधों की निशानी है

जी20 सम्मेलन में मज़दूर वर्ग के बदन से ख़ून का आख़ि‍री कतरा भी निचोड़ लेने की रणनीति बनाने में जहाँ साम्राज्यवादियों के बीच सहमति नज़र आयी, वहीं दुनियाभर में सस्ते श्रम और प्राकृतिक संसाधनों की लूट में हिस्सेदारी को लेकर वे आपस में वैसे ही लड़-झगड़ रहे थे, जैसेकि म्युनिसिपैलिटी के कूड़ेदान पर कुत्ते आपस में दाँत निकाल-निकालकर झगड़ते हैं! जी हाँ! हम ज़रा भी बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बता रहे। साम्राज्यवादी कुत्तों का सबसे शक्तिशाली समूह था अमेरिका की अगुवाई वाला समूह। अमेरिकी साम्राज्यवादी गिरोह के जितने सदस्य थे, वे इस सम्मेलन में सीधे तौर पर रूस और घुमा-फिराकर चीन के हितों पर चोट करने में लगे हुए थे। हुआ यह है कि पिछले दो दशकों में चीन और रूस दुनियाभर में अमेरिकी साम्राज्यवादी दादागीरी के लिए ख़तरा बनकर उभरे हैं। अपने देश में मौजूद सस्ते श्रम और सस्ते संसाधनों के बूते रूसी और चीनी पूँजी अमेरिकी-ब्रिटिश वर्चस्व को चुनौती दे रही है। साथ ही, रूस व चीन की धुरी ने अपने इर्द-गिर्द उभरती वैश्विक ताक़तों का एक ताना-बाना खड़ा किया है, जिसे ‘ब्रिक्स’ (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका) कहा जा रहा है। ‘ब्रिक्स’ के देश पूँजी का अपना भण्डार बना रहे हैं, एक-दूसरे से डॉलर के साथ ही अन्य मुद्राओं में भी व्यापार कर रहे हैं, और साथ ही इनके पास प्राकृतिक संसाधन बड़ी मात्रा में मौजूद हैं। ये ऐसे देश नहीं हैं जिन पर अमेरिकी साम्राज्यवादी सीधे सैन्य हमला कर सकते हों। जब उनकी हालत अफगानिस्तान और इराक़ तक में ख़राब हो गयी तो फिर रूस या चीन से युद्ध का ख़याल भी उन्हें डर से कँपा देता होगा। लेकिन साम्राज्यवाद मुनाफ़े की हवस में कहाँ तक जा सकता है, इसके बारे में अन्तिम तौर पर भी कुछ नहीं कहा जा सकता है।

साम्राज्यवादियों के बीच कुत्ताघसीटी के प्रमुख मुद्दे क्या थे?

इस जी20 सम्मेलन में साम्राज्यवादियों की कुत्ताघसीटी के दो प्रमुख केन्द्र विवाद का मुद्दा बने रहे– एक तो यूक्रेन है, जोकि पहले सोवियत संघ का ही हिस्सा था, लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस से अलग हो गया था। अलग होने के बाद भी यूक्रेन समेत सोवियत संघ के अन्य घटक देशों पर रूस का ही आर्थिक व राजनीतिक प्रभाव था। अब अमेरिका व ब्रिटेन इस प्रभाव क्षेत्र को ख़त्म कर अपना प्रभाव क्षेत्र बनाना चाहते हैं। लेकिन रूस ऐसा होने नहीं दे रहा है और यह अमेरिका, ब्रिटेन और साथ ही यूरोपीय संघ के प्रमुख देशों जर्मनी व फ़्रांस के लिए काफ़ी चिड़चिड़ा देने वाला अनुभव है। ऐसे में, अमेरिकी गिरोह ने रूस पर काफ़ी धौंस-पट्टी जमाने की कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हो पाये। उल्टे रूस ने ही अपने राष्ट्रपति के साथ एक विशाल सैन्य बेड़ा ऑस्ट्रेलिया की सीमा पर पड़ने वाले अन्तरराष्ट्रीय समुद्र में भेजकर अपनी हेकड़ी दिखला दी। पुतिन के आने से पहले कनाडा के राष्ट्रपति, ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री और अमेरिका के राष्ट्रपति ने पुतिन के ख़ि‍लाफ़ काफ़ी बयानबाज़ी की, लेकिन बाद में जी20 सम्मेलन में पुतिन की मौजूदगी में उनके मिजाज़ बदले हुए नज़र आये। यहाँ तक कि पुतिन ने ख़ुद कहा कि ऑस्ट्रेलिया में उनके लिए बेहद शिष्ट और मित्रतापूर्ण माहौल था। इसके बाद पुतिन ने पूरे सम्मेलन तक मौजूद रहना भी ज़रूरी नहीं समझा और बीच में ही चले गये। यह बाक़ी जी20 में वर्चस्व रखने वाली अमेरिकी धुरी के लिए यह सन्देश था कि ‘मैं तुम्हें कुछ नहीं समझता’!

रूस ने सीरिया के मुद्दे पर भी अमेरिका को सीधा सैन्य हस्तक्षेप करने से रोक रखा है। अब इस्लामिक स्टेट के कट्टरपन्थियों को कुचलने के नाम पर अमेरिका प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप करने की फिराक में है, लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं है। इसका कारण यह है कि सीरिया की जनविरोधी असद सरकार और ईरान रूस-चीन धुरी के नज़दीक हैं और अमेरिका इस गठजोड़ पर हमला करने का कोई अवसर गँवाना नहीं चाहता। लेकिन पुतिन रूस के लिए एक मँझा हुआ पूँजीवादी- साम्राज्यवादी रणनीतिकार साबित हो रहा है और अमेरिका की हर चाल को बेअसर कर रहा है। मध्य-पूर्व में रूस बेहद चुप्पी के साथ और सधे हुए क़दमों से अपने असर को बढ़ा रहा है। यह लेख लिखे जाने के समय ही यह ख़बर आयी कि इस्लामिक स्टेट के उग्रवादियों के ख़ि‍लाफ़ ईरान ने हवाई हमले किये हैं। ये हमले वास्तव में ईरान द्वारा अमेरिकी हमलों की सहायता नहीं हैं, बल्कि सीरिया और इराक़ पर ईरानी प्रभाव को बढ़ाने की कवायद थे। मध्य-पूर्व में चीन भी आर्थिक रास्तों से तेज़ी से घुस रहा है। साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि इस पूरे क्षेत्र में भी अमेरिकी वर्चस्व आने वाले समय में बिना प्रतिद्वन्‍द्वियों के नहीं होगा।

उसी प्रकार चीन ने अमेरिकी धुरी की परवाह न करते हुए एशिया- प्रशान्त क्षेत्र के देशों के लिए एक अलग अवसंरचना निवेश बैंक (यानी, अर्थव्यवस्था के बुनियादी ढाँचे के निर्माण में निवेश के लिए बैंक) बनाने का प्रस्ताव रखा, जिस पर अमेरिकी धुरी ने काफ़ी नाक-भौं सिकोड़ा। इसका कारण यह था कि अगर चीन के नेतृत्व में ऐसा बैंक एशिया प्रशान्त क्षेत्र के देशों को क़र्ज़़ देने लगता है, तो फिर अमेरिकी वर्चस्व वाले अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक का वित्तीय वर्चस्व निश्चित तौर कमज़ोर पड़ेगा। इसका कारण यह भी है कि आने वाले समय में विश्वभर में होने वाले निवेश का सबसे बड़ा हिस्सा एशिया प्रशान्त क्षेत्र में ही होने वाला है, क्योंकि वहीं पर विश्वभर के पूँजीपतियों को सस्ते संसाधन और सस्ती श्रम शक्ति मिलने वाली है। ऐसे में, अमेरिकी धुरी के लिए यह ज़रूरी था कि ऐसे बैंक बनने के प्रस्ताव पर वह ठण्डा रुख़ दिखलाये। चीन और रूस को परिधि पर धकेलने के तमाम प्रयासों के बावजूद रूस-चीन धुरी ने अमेरिकी पार्टनरों में ही तोड़-फोड़ मचा दी। मिसाल के तौर पर, चीन ने ऑस्ट्रेलिया के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया है। ऑस्ट्रेलिया ने नागरिक उपयोग के लिए भारत और चीन को यूरेनियम बेचने को स्वीकृति दी है और साथ ही रूस तक को यूरेनियम बेचने से उसने कोई इंकार नहीं किया है। उसी प्रकार ऑस्ट्रेलिया ने भारत के पूँजीपति घराने अदानी को अपने देश में कोयले की खानों का ठेका दिया है। इसलिए अगर कुल मिलाकर देखें तो अमेरिकी धुरी उभरती हुई रूस-चीन धुरी के विरुद्ध कोई विशेष सफलता हासिल नहीं कर पायी। जहाँ तक यूरोपीय संघ का प्रश्न है, उसकी हालत धोबी के कुत्ते के जैसी हो गयी है। रूस-चीन धुरी के साथ वह सीधा बैर नहीं मोल लेना चाहती है, क्योंकि रूस की प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम के भण्डार से उसे काफ़ी कुछ मिलता है और उसकी कई भावी उम्मीदें भी हैं। इसके अलावा, चीन की अर्थव्यवस्था के साथ न सिर्फ़ अमेरिकी अर्थव्यवस्था नाभिनालबद्ध हो चुकी है, बल्कि स्वयं यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था भी चीनी आयात पर काफ़ी हद तक निर्भर होने लगी है।। लेकिन साथ ही वह तमाम ऐतिहासिक कारणों, डॉलर पर निर्भरता और अमेरिका पर सैन्य निर्भरता के कारण यूरोपीय संघ अमेरिका के साथ रहने को भी मजबूर है। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि यह गठजोड़ स्वाभाविक नहीं है और आने वाले समय में टूट भी सकता है। कुल मिलाकर, आराम से कहा जा सकता है कि विश्व के साम्राज्यवादी समीकरणों में बदलाव आने की प्रक्रिया धीमी गति से ही सही, लेकिन जारी है। एकछत्र अमेरिकी वर्चस्व तो पहले ही टूट चुका है, लेकिन अभी भी अमेरिका ही सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति है। लेकिन उसकी शक्ति ढलान पर है, यह भी सच है। पर्यावरण के प्रश्न पर भी ये बदलते समीकरण नज़र आ रहे थे। साम्राज्यवादी देशों के बीच खींचतान नज़र आयी। पर्यावरण को बचाने और उसमें हो रहे विनाशकारी परिवर्तनों के अनुसार मानवता को अनुकूलित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के एक फ़ण्ड के निर्माण के प्रस्ताव को साम्राज्यवादी देशों ने तवज्जो ही नहीं दी। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री टोनी एबट (जोकि सबसे मूर्ख राष्ट्र-प्रमुखों की प्रतिस्पर्द्धा में जॉर्ज बुश जूनियर और नरेन्द्र मोदी जैसे दिग्गजों को कड़ी टक्कर दे रहे हैं!) ने यहाँ तक कह दिया कि यह प्रस्ताव ‘पर्यावरणवाद के मुखौटे में समाजवाद’ है! समाजवाद के प्रति डर साम्राज्यवादियों में इस कदर समाया हुआ है (समाजवाद की मृत्यु के तमाम दावों के बावजूद) कि उनके मुनाफ़े की रफ्तार को धीमा करने वाला कोई सुधारवादी प्रस्ताव भी उन्हें ‘समाजवादी’ प्रतीत होता है! आगे बढ़ने से पहले यह भी स्पष्ट कर दें कि अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्व को चुनौती देने वाली रूस-चीन धुरी भी स्वयं साम्राज्यवादियों का ही गिरोह है और अपने-अपने देशों के भीतर मज़दूरों को लूटने और कुचलने में ये देश कहीं भी अमेरिकी धुरी के देशों से पीछे नहीं हैं। साथ ही, जिन देशों में इनका असर ज़्यादा है, वहाँ भी इन्होंने जनता को दबाने में कोई रू-रियायत नहीं बरती है। वास्तव में, इन धुरियों के बीच का झगड़ा साम्राज्यवादी डाकुओं के बीच का झगड़ा है। इनमें से किसी एक के जीतने पर या हावी होने पर हमें ताली बजाने की कोई ज़रूरत नहीं है। सवाल यह है कि इनके बीच के अन्तरविरोधों के गहराने और इनके बीच के समीकरणों के बदलने का हमारे लिए क्या अर्थ है? क्या इनके मद्देनज़र हमें भी अपनी तैयारियों के लिए कुछ नतीजे निकालने चाहिए?

साम्राज्यवादी अन्तरविरोध  तीखे होने और साम्राज्यवाद के वैश्विक समीकरणों के बदलने के मज़दूर वर्ग के लिए निहितार्थ

साम्राज्यवाद के बदलते आपसी समीकरणों का हम मज़दूरों के लिए क्या कोई अर्थ है? बिल्कुल है! इतिहास गवाह है कि जब भी साम्राज्यवादियों के बीच लूट में हिस्सेदारी को लेकर झगड़ा बढ़ा है, जब भी उनके बीच के अन्तरविरोध गहराये हैं, जब भी साम्राज्यवाद के वैश्विक समीकरणों में कोई बड़ा बदलाव आया है, तो वह शान्तिपूर्ण तरीक़े से नहीं आया है। साम्राज्यवाद के संकटों ने ही पहले और दूसरे विश्वयुद्ध को जन्म दिया। नया लुटेरा गिरोह के सरदार की उपाधि पुराने सरदार से लड़कर ही जीतता है, यह उसे कभी पुराना सरदार तोहफ़े में नहीं देता है। साम्राज्यवादी डाकुओं पर भी यह बात पूरी तरह से लागू होती है। इसीलिए सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक लेनिन ने कहा था कि साम्राज्यवाद का अर्थ है युद्ध। यह सच है कि आज तीसरे विश्वयुद्ध की गुंजाइश कम है। इसका पहला कारण तो यह है कि उपनिवेशवाद का ज़माना चला गया और उस रूप में उपनिवेशों की फिर से बँटवारे की लड़ाई पूरी दुनिया के पैमाने पर नहीं लड़ी जा सकती है। दूसरा कारण यह है कि आणविक हथियारों का जखीरा आज दुनिया के कई साम्राज्वादी देशों के पास है। हर धुरी के पास अच्छी-ख़ासी तादाद में ऐसे हथियार मौजूद हैं। ऐसे में, हालाँकि साम्राज्यवादी पागलपन अपवादस्वरूप स्थितियों में और क्रान्तिकारी शक्तियों की अनुपस्थिति में किसी भी हद तक जा सकता है और आणविक युद्ध के ज़रिये मानवता का विनाश भी कर सकता है, लेकिन इसकी गुंजाइश बेहद कम है। यह भी एक कारण है कि आज पहले दो विश्वयुद्धों की तरह कोई तीसरा विश्वयुद्ध नहीं होगा। तीसरा कारण यह है कि साम्राज्यवादियों ने भी इतिहास से सबक़ लिया है कि हर ऐसा व्यापक विश्वयुद्ध कई देशों में क्रान्ति की परिस्थितियाँ तैयार करता है। पहले विश्वयुद्ध ने रूस में समाजवादी क्रान्ति की परिस्थितियाँ तैयार कीं, तो दूसरे विश्वयुद्ध में फासीवादी धुरी की हार ने एक ओर चीन को तो दूसरी ओर पूरे पूर्वी यूरोप को लाल कर दिया। आज साम्राज्यवादी ऐसे किसी टकराव से बचना चाहते हैं जोकि पूरे विश्व के पैमाने पर हो और विश्व के कई देशों में समाजवादी क्रान्ति की ज़मीन को तैयार करे। इन तीन कारणों से आज तीसरे विश्वयुद्ध की गुंजाइश बेहद कम है।

लेकिन साम्राज्यवाद का अर्थ आज भी युद्ध है। अब ये युद्ध विश्वयुद्ध का रूप न भी लें, तो साम्राज्यवादी युद्ध के कुछ वैश्विक मंच निर्मित होंगे। मिसाल के तौर पर, अभी ऐसा एक मंच मध्य-पूर्व और यूक्रेन बने हुए हैं जहाँ पर साम्राज्यवादी धुरियों के बीच के अन्तरविरोध सान्द्र होकर इकट्ठे हो गये हैं। साथ ही सैन्य युद्ध न होने के बावजूद, दक्षिणी और दक्षिणी-पूर्वी यूरोप के पिछड़े पूँजीवादी देश भी साम्राज्यवादियों के बीच के अन्तरविरोधों के एक जगह एकत्र होने की निशानी हैं। यूरोप की ज़मीन पर साम्राज्यवादी युद्ध साम्राज्यवाद के लिए बहुत ज़्यादा ख़तरनाक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि वहाँ की जनता की राजनीतिक चेतना का स्तर अच्छा-ख़ासा विकसित है और उसके क्रान्तिकारी राजनीतिकरण की ओर तेज़ी से बढ़ने की सम्भावना काफ़ी ज़्यादा है। इसलिए वहाँ खुले सैन्य युद्ध की बजाय साम्राज्यवादियों ने एक अन्दरूनी प्रच्छन्न युद्ध छेड़ रखा है। यूनान, स्पेन, पुर्तगाल और इटली में ये साम्राज्यवादी लगातार फासीवादी ताक़तों को वित्तपोषण व अन्य सहायता दे रहे हैं, ताकि जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों के ख़ि‍लाफ़ एक अघोषित युद्ध चलाया जा सके। लेकिन मध्य-पूर्व में हालात बेहद भयंकर हैं और खुले युद्ध जैसे हैं। यही कारण है कि मिस्र और ट्यूनीशिया में, सीरिया और जॉर्डन में रह-रहकर जनविद्रोह हो रहे हैं। यही कारण है कि सीरिया के कुर्द मज़दूर न सिर्फ़ धार्मिक कट्टरपन्थियों से लोहा ले रहे हैं, बल्कि साम्राज्यवाद से भी लोहा ले रहे हैं। ये जनविद्रोह दिखला रहे हैं कि साम्राज्यवादी पतली रस्सी पर चल रहे हैं। ये जनविद्रोह दिखला रहे हैं कि युद्ध हमेशा की तरह क्रान्ति की सम्भावना से सम्पन्न परिस्थितियों को जन्म देते हैं। लेकिन साथ ही, इन जनविद्रोहों के कुचल दिये जाने ने यह भी सिद्ध किया है कि जनविद्रोह स्वयं क्रान्ति में तब्दील नहीं होते। क्रान्ति के लिए संगठन और विचारधारा की ज़रूरत होती है। यानी मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्ति के विज्ञान से लैस मज़दूर वर्ग की एक हिरावल पार्टी।

आनेवाले समय में साम्राज्यवाद का बढ़ता संकट हमारे देश में भी राजनीतिक व सामरिक संकट पैदा कर सकता है। ऐसे में, मज़दूरों की बग़ावतें होंगी, छात्रों-युवाओं के आन्दोलन होंगे, ग़रीब किसान सड़कों पर उतरेंगे! लेकिन क्या ये बग़ावतें ख़ुद-ब-ख़ुद मज़दूर क्रान्ति और मज़दूर सत्ता की ओर जा सकती हैं? कभी नहीं! आनेवाला समय उथल-पुथल भरा होगा! आनेवाला समय विद्रोहों का समय होगा! लेकिन समाजवाद की घड़ी को समाजवाद में तब्दील करने के लिए हमारे पास मज़दूर वर्ग की एक तपी-तपायी, क्रान्तिकारी, हिरावल पार्टी होनी चाहिए। इसके बग़ैर, समाजवाद की घड़ी बीत जायेगी और हमारी सज़ा होगी – युद्ध, तबाही, फासीवाद! साम्राज्यवाद के बढ़ते अन्तरविरोधों को समझना इसीलिए ज़रूरी है कि हम अपने आज के कार्यभार को समझ सकें। मिस्र में पिछले चार-पाँच वर्षों में ही कई बार क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ आयीं, लेकिन मार्क्सवाद-लेनिनवाद की वैज्ञानिक विचारधारा से लैस मज़दूर वर्ग की एक हिरावल पार्टी की ग़ैर-मौजूदगी में उसे क्रान्ति में तब्दील नहीं किया जा सका। ऐसी ही स्थिति कुछ अन्य देशों में भी दुहरायी गयी। साम्राज्यवाद पतली रस्सी पर ज़रूर चल रहा है, लेकिन यह बिना धक्के के नहीं गिरने वाला है। उसे गिराने के लिए बल की ज़रूरत है; बल लगाने के लिए बल लगाने वाली संगठित शक्ति की ज़रूरत है; बल लगाने वाली संगठित शक्ति को यह पता होना चाहिए बल कैसे और किस दिशा में लगाना है। यही हमारी आज की ज़रूरत है। यही हमारा आज का कार्यभार है – क्रान्ति के विज्ञान की समझदारी को हासिल करना! इस समझदारी के आधार पर मज़दूर वर्ग की एक क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी का निर्माण करना!

 

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2014


 

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