‘ऑड-इवेन’ जैसे फ़ॉर्मूलों से महानगरों की हवा में घुलता ज़हर ख़त्म नहीं होगा 
पूँजीवाद में प्रदूषण की समस्या का समाधान संभव ही नहीं

श्‍वेता

दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली में 1 से 15 जनवरी के बीच लागू की गयी ऑड-इवन पॉलीसी सुर्खियों में छायी रही। दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा बढ़ते वायु प्रदूषण स्तर को रोकने के लिए 21 दिसम्बर तक राज्य और केन्द्र सरकारों को योजना बनाये जाने का आदेश दिया गया था जिसके तहत केजरीवाल सरकार ने दिल्ली में ऑड-इवन पॉलीसी को पंद्रह दिनों तक कार्यान्वित करने की योजना बनाई। इस योजना के तहत ऑड (विषम) संख्याओं वाले वाहन सोमवार, बुधवार एवं शुक्रवार को और इवन (सम) संख्याओं वाले वाहन बाकी बचे हुए दिन सड़कों पर दौड़ सकते थे जबकि रविवार को दोनों संख्याओं वाले वाहनों को सड़क पर उतरने की छूट दी गयी।

फोटो साभार - इण्डियन एक्‍सप्रेस

फोटो साभार – इण्डियन एक्‍सप्रेस

ग़ौरतलब है कि पिछले कुछ समय से लगातार अलग-अलग हलकों से बढ़ते वायु प्रदूषण को लेकर चिंताएँ प्रकट की जा रही हैं और इसे रोकने के लिए कई कवायदों का दौर भी चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश के अनुसार दिल्ली में 10 साल पुराने वाहनों के आवागमन और 2000 सीसी से अधिक के डीज़ल वाहनों के रजिस्ट्रशन को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया जाना, एन जी टी द्वारा दिल्ली में सभी प्रकार के डीज़ल वाहनों के रजिस्ट्रेशन पर रोक के आदेश और दिल्ली व आसपास के इलाकों में 10 साल पुराने डीज़ल व 15 साल पुराने पेट्रोल वाहनों पर प्रतिबंध इन कवायदों की चंद मिसालें हैं।

प्रदूषण की समस्या वाकई एक विकराल समस्या बनकर खड़ी हो चुकी है और अब मानव जीवन का असित्तव ही दांव पर लग गया है। बहरहाल, आइए इसे कुछ आँकड़ों से समझने की कोशिश करें। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्लू एच ओ) की 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 20 अत्याधिक प्रदूषित शहरों में से 13 शहर भारत के पाये गए थे। इन 20 शहरों की फेहरिस्त में से दिल्ली सबसे प्रदूषित शहर था। ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट’ नामक एक संस्था की वर्ष 2015 की रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली में प्रदूषण का स्तर डब्लू एच ओ द्वारा प्रस्तावित मानक से 12 गुणा अधिक पाया गया है। यही नहीं दिल्ली में प्रतिवर्ष प्रदूषण जनित बीमारियों से 10,000 से 30,000 मौतें हो जाती हैं। भारत के पैमाने पर प्रतिवर्ष प्रदूषण से होने वाली इन मौतों का आँकड़ा 6 लाख 45 हज़ार है। ज़ाहिर है यह आँकड़े प्रदूषण की समस्या की भयावहता को समझाने के लिए पर्याप्त होंगे। इन हालातों में यह जानना दिलचस्प होगा कि दिल्ली सरकार द्वारा प्रदूषण के स्तर को कम करने के लिए की जाने वाली ऑड- इवन कवायद कितनी कारगर साबित हो सकती है! वैसे तो गौर करने लायक तथ्य यह भी है कि केजरीवाल सरकार द्वारा लागू की जाने वाली यह कोई अनूठी योजना नहीं है। ऐसे प्रयास पहले भी कई देशों में लागू किए जा चुके हैं जो विफल साबित हुए हैं। वर्ष 1989 में मेक्सिको शहर में इसी प्रकार की ही एक योजना लागू की गयी थी जिसके अंतर्गत हर वाहन को सप्ताह के किसी एक दिन सड़क पर चलने से प्रतिबंधित किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि लोगों ने अतिरिक्त वाहन खरीदने शुरू कर दिए ताकि हर रोज़ वे अपने वाहन का इस्तेमाल कर सकें जो नये नियम के कारण संभव नहीं हो पा रहा था। चीन के बीजिंग शहर में 2008 के ऑलमपिक्स खेलों के आसपास इसी प्रकार की कसरतें की गयी। हालाँकि लोगों ने वहाँ पर भी एक गाड़ी के बावजूद दूसरी गाड़ी खरीदी जिसकी वजह से कारों की खरीद में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी। यही नहीं, इस नियम से बचने के लिए फर्जी नम्बर प्लेट भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किये जाने लगे।

Delhi4इन उदाहरणों से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि प्रदूषण को कम करने के नाम पर ऑड-इवन जैसी नीम हकीमी कवायदें भले ही कुछ समय तक बेहद चुस्ती से लागू होती हुई नज़र आ भी जाएं पर अनुभव बताते हैं कि लम्बे दौर में ऐसे प्रयास विफल ही साबित हुए हैं और इनकी विफलता का कारण विकास के पूँजीवादी मॉडल में मौजूद हैं। पूँजीवादी राज्य व्यवस्थाएँ सार्वजनिक परिवहन की सेवाओं को लगातार सिकोड़ती जाती है और इस तरह निजी वाहनों को बढ़ावा देकर ऑटोमोबाइल सेक्टर में लगी पूँजी के हित में अपनी चाकरी बजाती हैं। अगर देश की राजधानी का ही उदाहरण लें तो दिल्ली में प्रतिदिन 1500 नए वाहनों का पंजीकरण किया जाता है। वर्ष 2000-01 में जहाँ प्रति हज़ार व्यक्ति वाहनों की संख्या 244 थी वहीं 2014-15 तक आते-आते यह संख्या 487 हो गयी। 2015 तक दिल्ली में कुल वाहनों की संख्या 88,27,431 थी जिसमें से 64.36 प्रतिशत मोटरसाइकलें और स्कूटर, 31.61 प्रतिशत कारें और जीप, टैक्सी और ऑटो दोनों एक-एक प्रतिशत और बसें केवल 0.22 प्रतिशत थी। वर्ष 2000-01 में बसों की संख्या जहाँ 41,483 थी वहीं 2014-15 तक यह संख्या 19,729 पहुँच गयी। निजी वाहनों के उत्पादन से ऑटोमोबाइल सेक्टर में होने वाले मुनाफ़े का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2013-14 में इस सेक्टर का कारोबार तीन लाख करोड़ रूपये से अधिक था। इसी से जुड़े तेल उद्योग में होने वाले अकूत मुनाफे का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2013-14 में अकेले ‘इंडियन ऑयल’ का सालाना कारोबार साढ़े चार लाख करोड़ से अधिक था। विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्ष 2040 तक पेट्रोलियम उत्पादों की माँग में ढ़ाई गुणा की बढ़ोतरी होगी जिससे इस कारोबार में लगने वाली पूँजी, उससे होने वाला मुनाफ़ा तथा वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।  मुनाफ़ा पैदा करने के एकमात्र मक़सद से संचालित पूँजीवादी उत्पादन तंत्र स्वयं स्फूर्त गति से निरंतर प्रकृति को नष्ट करता ही रहेगा इसलिए ऑड-इवन या उस जैसी कोई भी कवायद पूँजीवाद द्वारा प्रकृति के विनाश को रोकने में असमर्थ है।

मज़ेदार बात यह है कि पूँजीवाद मुनाफे की हवस के चलते प्रकृति की तबाही तो करता ही है और फिर इस तबाही से नये मुनाफे पैदा करने की नई तरकीबें भी निकाल लेता है। मसलन, चीन में हवा को जानलेवा हदों तक ज़हरीला बना देने के बाद अब वहाँ पूँजीपतियों ने लोगों को ताज़ा हवा बेचने का धंधा शुरू कर दिया है। ‘वॉयटेलिटी एयर’ नाम की कम्पनी ताज़ा व स्वच्छ हवा को बोतलों और कैनों में बंद करके माल बनाकर चीन में बेच रही हैं। शुद्ध हवा के एक कनस्तर की कीमत 3036 रूपये है! वैसे एयर फिल्टर का कारोबार भारत में जिस तेज़ी से बढ़ा रहा है उसे देखते हुए आश्चर्य नहीं कि जल्द ही भारतीय पूँजीपति भी शुद्ध हवा की बोतलें बेचने के धंधे में उतर आएं और आम जनता को शुद्ध हवा बेचने लगें।

कुछ लोग अकसर इस भ्रम का शिकार रहते है कि कानूनों को सही तरीके से लागू करके पूँजीपतियों पर लगाम कसी जा सकती है और वे अपनी बात के समर्थन में प्राय: यूरोप और अमेरिका का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। हालाँकि हालिया घटनाक्रम उनके इस भ्रम को तोड़ने के लिए काफी है। ‘वॉक्सवैगन’ नाम की कम्पनी ने यूरोप में उत्सर्जन कानूनों से बच निकलने के लिए गाडियों में ऐसे साफ्टवेयर लगाये जो प्रदूषण जाँच के दौरान तो उत्सर्जन को सामान्य स्तर पर दिखलाता था पर वास्तव मे बाकी समय उन गाडि़यों का उत्सर्जन स्थापित मानकों से 40 गुणा अधिक होता था। पूँजीपति वर्ग जब अपने मुनाफ़े पर ख़तरा मंडराता देखता है तब अपनी ही राज्य व्यवस्था द्वारा बनाये गए कानूनों की धज्जियां उड़ाने में उसे ज़रा भी हिचक नहीं होती है।

यह महज़ एक ख़ामख्याली है कि पूँजीवाद के दायरे के भीतर प्रदूषण की समस्या का हल संभव है। माल उत्पादन और मुनाफ़े की मानवद्रोही व्यवस्था मानव जीवन की बर्बादी का सबब तो बनती ही है साथ ही तात्कालिक मुनाफे की अंधी हवस में वह प्रकृति को भी अपना शिकार बनाती है। मुनाफे की इसी तात्कालिकता के चलते पूँजीपति उर्जा के तमाम वैकल्पिक स्रोतों में पूँजी निवेश नहीं करता है जबकि विज्ञान प्रकृति के अनुकूल उर्जा स्रोतों और उनका दोहन करने वाली तकनीकों की खोज पहले ही कर चुका है। यह बिल्कुल संभव है कि उद्योगों में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकों को इस कदर बदल दिया जाय कि हर किस्म के प्रदूषण को न्यूनतम स्तरों तक लाया जा सके लेकिन माल उत्पादन की वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था यह होने नहीं देगी। ज़ाहिर है कि प्रदूषण की समस्या को हल करने की दिशा में तो केवल एक मानवकेंद्रित व्यवस्था ही आगे बढ़ सकती है।


मज़दूर बिगुल
, जनवरी 2016


 

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