रामपुर-चंदौली के पाँच बोरा कारखानों के मजदूरों के आन्दोलन की आंशिक जीत
आतंक और असुरक्षा के साये में जीने को मजबूर हैं भयंकर शोषण के शिकार हजारों मजदूर

बिगुल संवाददाता

प्रदेश के चन्दौली जिले के रामनगर औद्योगिक क्षेत्र में भी देश के दूसरे हिस्सों की तरह श्रम कानूनों का कोई मतलब नहीं है। मजदूर 12-14 घण्टे काम करके मुश्किल से जीने लायक कमा पाते हैं। मालिकों की गुण्डागर्दी और आतंकराज के सामने वे बिल्कुल निहत्थे हैं। पूरे इलाके में कोई यूनियन नहीं है। मजदूर नेताओं के नाम पर चुनावी पार्टियों से जुड़े कुछ दलाल नेता भर हैं। इलाके में करीब 70-75 छोटे और मध्‍यम दर्जे के कारखानों में हजारों मजदूर काम करते हैं। पहले यह क्षेत्र बनारस जिले में आता था लेकिन अब नये जिले चन्दौली का भाग है। दोनों शहरों से दूर बेहद पिछड़े इलाके में होने के कारण मजदूरों की कठिनाइयाँ और बढ़ जाती हैं।

ऐसे में प्लास्टिक की बोरियाँ बनाने वाले पाँच कारखानों के मजदूरों के आन्दोलन से यहाँ के उद्योगपतियों में तो खलबली मच गयी लेकिन मजदूरों के बीच उत्साह की लहर दौड़ गयी। फिलहाल मालिकों की संगठित ताकत के आगे मजदूरों को बहुत कम पर सन्तोष करके आन्दोलन वापस लेना पड़ा है, लेकिन इस छोटी-सी लड़ाई ने इस अंधेरे प्रदेश के ग़रीब मेहनतकशों को उम्मीद की किरण दिखा दी है। न्यूनतम मजदूरी, काम के घण्टे आठ करने, जॉब कार्ड, ई.एस.आई. कार्ड जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए नीलकमल, मिथिला, वाराणसी, लोलार्क और विनायक पॉलीटेक्स नाम के बोरा कारखानों में पिछले एक अक्टूबर को हड़ताल शुरू हो गयी थी। इन सभी कारखानों में लम्बे समय से मजदूरों में असन्तोष भीतर ही भीतर सुलग रहा था। गोरखपुर में चले बोरा कारखानों के मजदूरों के लम्बे आन्दोलन की खबरें यहाँ पहुँचने के बाद यहाँ भी अपने हक के लिए आवाज उठाने की बात मजदूरों के भीतर चल पड़ी थी। गोरखपुर में आन्दोलन चला रहे ”संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा’ की ओर से पूर्वांचल के मजदूरों के नाम जारी अपील के करीब 1000 पर्चे कुछ मजदूरों ने यहाँ लाकर बाँटे भी थे।

मजदूरों के बीच फैलती आन्दोलन की सुगबुगाहट की भनक पाकर मालिकों ने सितम्बर में खुद ही काम के घण्टे आठ करने की घोषणा कर दी थी। लेकिन एक अक्टूबर से उन्होंने फिर से काम के घण्टे 12 कर दिये जिससे मजदूर भड़क उठे। विरोध करने पर सुपरवाइजर ने कह दिया कि जिसे 12 घण्टे काम करना है वे रुकें, बाकी बाहर चले जायें। आन्दोलन की शुरुआत एकदम स्वत:स्फूर्त ढंग से बिना किसी तैयारी के हुई थी। एक तारीख से छिटपुट कामबन्दी शुरू हो गयी थी लेकिन 3 अक्टूबर से इसने जोर पकड़ लिया। एक फैक्टरी में काम पूरी तरह बन्द हो गया, बाकी 4 में भी धीरे-धीरे असर फैल रहा था। मजदूरों के बुलावे पर गोरखपुर से संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा की ओर से तपीश मैंदोला और उदयभान के रामनगर पहुँचने के बाद से आन्दोलन ने गति पकड़ ली और चार कारखानों में काम पूरी तरह बन्द हो गया। एक अन्य कारखाने के भी करीब आधे मजदूर आन्दोलन के साथ आ गये। नीलकमल मिल के गेट पर रोज मजदूरों की मीटिंग होनी शुरू हो गयी। कारखाना कमेटियों का गठन किया गया और आन्दोलन को संगठित रूप देने तथा मजदूरों द्वारा आपस में जनवादी तरीके से तालमेल एवं फैसले लेने के तौर-तरीके लागू करने की कोशिशें शुरू की गयीं। हालाँकि कारखानों में काम बन्द होते ही पड़ोसी जिलों तथा बिहार से आकर काम करने वाले मजदूरों की अच्छी-खासी संख्या घर चली गयी थी, फिर भी फैक्टरी गेट पर रोज 300-400 मजदूर इकट्ठा होते थे। 6 अक्टूबर को करीब 400 मजदूरों ने प्रदर्शन करके श्रम प्रवर्तन अधिकारी को ज्ञापन दिया जिसमें न्यूनतम मजदूरी और काम के घण्टे 8 करने की माँगें मुख्य थीं।

दूसरी तरफ आन्दोलन को संगठित रूप लेते देख इलाके के सारे उद्योगपति एकजुट होकर इसे तोड़ने की कोशिशों में जुट गये। वैसे तो गोरखपुर के संगठनकर्ताओं के पहुँचने से पहले ही स्थानीय अख़बारों में ऐसे बयान छपने लगे थे कि यह आन्दोलन ”बाहरी तत्वों” की शह पर चलाया जा रहा है, लेकिन बाद में यह सिलसिला और तेज हो गया। उद्योगपतियों ने जिलाधिकारी और मण्डलायुक्त से मिलकर शिकायत की कि इस आन्दोलन के पीछे ”अस्थिरता फैलाने की साजिश” है, आदि-आदि।

धयान देने की बात है कि यह पूरा क्षेत्र बेहद पिछड़ा हुआ है। जिला मुख्यालय चन्दौली यहाँ से काफी दूर है। जिला मुख्यालय पहुँचने में मजदूरों को कम से कम एक घण्टा लग जाता है। कमिश्नर कार्यालय वाराणसी में है और अखबारों, टीवी चैनलों आदि के कार्यालय भी वहीं हैं। स्थानीय स्तर पर जो पत्रकार हैं वे प्राय: मालिकों के दलाल की भूमिका निभाते हैं। बनारस भी यहाँ से एक घण्टे की दूरी पर है। मालिकों के लिए अपनी गाड़ियों में तेजी से दोनों जगह पहुँच जाना मुश्किल नहीं है, मगर प्रशासन के सामने अपनी शिकायतें रख पाना मजदूरों के लिए बेहद कठिन है। क्षेत्रीय उद्योगपतियों के संगठन के प्रमुख आर.के. चौधरी का यहाँ इस कदर दबदबा कायम है कि अगर कभी किसी कम्पनी ने यहाँ 8 घण्टे काम का नियम लागू किया और मजदूरों को कुछ बेहतर वेतन दिया तो किसी-न-किसी तरह उसे बन्द करवा दिया गया। इनके मजदूर विरोधी रवैये का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इलाके के एकमात्र सिनेमा हाल को इन्होंने यह कहकर बन्द करवा दिया कि मजदूर अगर पिक्चर देखेगा, तो काम क्या करेगा।

फैक्टरी एरिया से लगे पटनवा, गोरखपुर, देवरिया आदि गाँवों में यहाँ के ज्यादातर मजदूर रहते हैं। करीब 2 किमी. दूर मिर्जापुर जिले की सीमा है, उधर के कुछ गाँवों की भी अच्छी-खासी आबादी इधर काम करने आती है। मालिकों के इशारे पर इनमें से कुछ गाँवों के मुखियाओं ने मीटिंग करके ऐसी बातें फैलानी शुरू कर दीं कि बाहरी नेताओं को हटाया जाये। गाँवों में स्थानीय और बाहरी मजदूरों का भेद पैदा करके फूट डालने की कोशिश भी शुरू हो गयी। लेकिन मजदूर एकजुट रहे।

इसके साथ ही तमाम चुनावबाज पार्टियों के नेता भी अपनी-अपनी रोटी सेंकने के लिए लगातार मजदूरों के पास पहुँच रहे थे और तरह-तरह से आश्वासन दे रहे थे। मालिकों के दलाल कुछ मजदूरों को ललचाकर तोड़ने- फोड़ने के काम में जुटे हुए थे। चूँकि यह आन्दोलन एकदम स्वत:स्फूर्त ढंग से शुरू हुआ था और मजदूरों के बीच संगठनबद्धता और आपसी तालमेल की अब भी कमी थी, इसलिए मालिकों को इन कोशिशों में कुछ कामयाबी भी मिल गयी। इसी का फायदा उठाकर वे पुलिस की मदद से 11 अक्टूबर को जबरन एक समझौता करवाकर आन्दोलन खत्म कराने में सफल हो गये।

इलाके का थानेदार सपा शासन में मुलायम सिंह यादव का खास रहा बताया जाता है और एनकाउण्टर स्पेशलिस्ट के रूप में कुख्यात है। 11 अक्टूबर को वह अचानक पुलिस फोर्स के साथ फैक्टरी गेट पर पहुँचा और बिगुल मजदूर दस्ता के साथियों को जीप में बैठाकर कुछ दूर ले गया। उसके बाद उसने फैक्‍ट्री गेट पर मिल मालिकों को बुलाकर आनन-फानन में मजदूरों के सामने समझौते की घोषणा करा दी। इसके अनुसार मजदूरों की मजदूरी 10 प्रतिशत बढ़ायी जायेगी और सभी मजदूरों को कम्पनी का आई-कार्ड दिया जायेगा। तालमेल की कमी और नेताओं की गैर-मौजूदगी से फैले भ्रम तथा पुलिसिया आतंक के कारण अधिकांश मजदूर तो उसी समय फैक्टरी में चले गये लेकिन करीब 60-70 मजदूर डटे रहे। मजबूरन पुलिस को ‘बिगुल’ के साथियों को वापस लेकर आना पड़ा। मजदूरों के बीच यह फैसला किया गया कि फिलहाल यहाँ की स्थिति में इस समझौते को मानकर आन्दोलन समाप्त करने के सिवा कोई चारा नहीं है। अब पूरी तैयारी के बाद संगठित तरीके से संघर्ष छेड़ना होगा। मालिकान साम-दाम-दण्ड-भेद से किसी तरह मजदूरों को झुकाने में कामयाब हो गये लेकिन इस हार से मिले सबकों से सीखकर मजदूरों ने भविष्य की निर्णायक लड़ाई के लिए कमर कसकर तैयारी शुरू कर दी है।

बिगुल, अक्‍टूबर 2009


 

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