Category Archives: आपदाएँ

कोरोना महामारी और लॉकडाउन: ज़िम्मेदार कौन है? क़ीमत कौन चुका रहा है?

दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही है। ये शब्द लिखे जाने तक 9 लाख 20 हज़ार से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं, जिनमें से क़रीब 80 हज़ार मौतें भारत में हुई हैं। दुनिया में अब तक लगभग 3 करोड़ लोग कोरोना वायरस से संक्रमित हो चुके हैं, जिनमें से 2 करोड़ 10 लाख ठीक हो गये हैं। भारत में कुल संक्रमित लोगों की संख्या अब तक 48 लाख पार कर चुकी है, जिनमें से क़रीब 38 लाख लोग ठीक हुए हैं। हालाँकि जो लोग ठीक हो रहे हैं उनमें से भी बहुतों को कई तरह की गम्भीर परेशानियाँ हो जा रही हैं।

साल-दर-साल बाढ़ की तबाही : महज़ प्राकृतिक आपदा नहीं मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था का कहर!

आज़ादी के बाद के 71 वर्षों के दौरान बाढ़ के नाम पर खरबों रुपये की लूट भले ही हुई हो, लेकिन इसकी तबाही कम करने और लोगों के जान-माल के बचाव के वास्तविक इन्तज़ाम बहुत कम हुए हैं। शुरू में नदियों के किनारे तटबन्ध बनाये जाने से नदी किनारे के इलाक़ों में बाढ़ का ताण्डव कुछ कम हुआ लेकिन बेलगाम पूँजीवादी विकास के कारण कुछ ही वर्षों में बाढ़ पहले से भी ज़्यादा भयंकर होकर तबाही मचाने लगी। जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई, नदियों के किनारे बेरोकटोक होने वाले निर्माण-कार्यों, गाद इकट्ठा होने से नदियों के उथला होते जाने, बरसाती पानी की निकासी के क़ुदरती रास्तों के बन्द होने, शहरी नालों आदि को पाट देने जैसे अनेक कारणों ने न केवल बाढ़ की बारम्बारता बढ़ा दी है, बल्कि शहरों में होने वाली तबाही को पहले से कई गुना बढ़ा दिया है। पूँजीवादी विकास की अन्धी दौड़ के चलते अब शहर भी बाढ़ों से बचे नहीं रहते। पहले की तरह अब बाढ़ सिर्फ़ गाँवों में ही नहीं आती बल्कि शहरों को भी अपनी चपेट में ले लेती है। पूँजीवाद गाँव और शहर के बीच के भेद को इसी तरह मिटाता है!

वाराणसी में फ्लाईओवर गिरने से कम से कम 20 लोगों की मौत

वस्तुतः इन घटनाओं की आम वजह सरकार, अफ़सरों और ठेकेदार की लूट की हवस है। तमाम सूत्रों से पता चला कि सेतु निगम ने इस पुल का काम मन्त्रियों के क़रीबियों को बाँटा जिस पर 14% कमीशन लिया गया। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि सेतु निगम (यही संस्था इस पुल का निर्माण कर रही है) के प्रबन्ध निदेशक राजन मित्तल का इस हादसे के बाद बयान आया कि पुल आँधी की वजह से गिरा। यह वही व्यक्ति है जिस पर पहले भी भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं, और इसके खि़लाफ़ जाँच के आदेश भी हुए हैं। लेकिन भाजपा सरकार ने न सिर्फ़ इस आदमी को सेतु निगम का अध्यक्ष बनाया, बल्कि इसे उत्तर प्रदेश निर्माण निगम का अतिरिक्त भार भी सौंप दिया। इतना ही नहीं, हादसे के बाद गिरे हुए कंक्रीट के बीम को उठाने के लिए सेतु निगम ने कम्प्रेशर क्रेन तक उपलब्ध नहीं करवायी, जिस वजह से बचाव का काम बहुत देर से शुरू हो पाया और इसी वजह से कई जानें जो बच सकती थी, वे नहीं बचायी जा सकीं।

आँधी-तूफ़ान से हुई जानमाल की भयंकर क्षति

आँधी-तूफ़ान अपने आप में जानलेवा नहीं होते। आँधी-तूफ़ान में जान गँवाने वाले ज़्यादातर लोग किसी इमारत, घर या दीवार के ढहने से या फिर पेड़ के गिरने से मरते हैं। इस बार की आँधी में भी ज़्यादा मौतें उन लोगों की हुईं जिनके घर कच्चे थे। कुछ लोग बिजली के टूटे तार के करेण्ट से भी मरते हैं। बिजली गिरने से मरने वाले लोग भी ज़्यादातर इसलिए मरते हैं क्योंकि वे उस समय पानी भरे खेतों में काम कर रहे होते हैं। प्राकृतिक परि‍घटनाओं पर भले ही मनुष्य का नियन्त्रण न हो परन्तु उन परिस्थितियों पर निश्चय ही मनुष्य का नियन्त्रण है जो इन मौतों का प्रत्यक्ष कारण होती हैं।

पूँजीवादी खेती, अकाल और किसानों की आत्महत्याएँ

देश में सूखे और किसान आत्महत्या की समस्या कोई नयी नहीं है। अगर केवल पिछले 20 सालों की ही बात की जाये तो हर वर्ष 12,000 से लेकर 20,000 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। महाराष्ट्र में यह समस्या सबसे अधिक है और कुल आत्महत्याओं में से लगभग 45 प्रतिशत आत्महत्याएँ अकेले महाराष्ट्र में ही होती हैं। महाराष्ट्र में भी सबसे अधिक ये विदर्भ और मराठवाड़ा में होती हैं।

भूकम्प से मची तबाही से पूँजीवाद पल्ला नहीं झाड़ सकता

जिन कोठरी-नुमा घरों में मेहनतकश आबादी को रहना पड़ता है, उन्हें बनाते समय किसी तरह के भूकम्प-निरोधक दिशानिर्देशों पर अमल नहीं किया जाता। यही वजह है कि भूकम्प या ऐसी ही किसी और आपदा के समय जान-माल का सबसे अधिक नुक़सान मेहनतकश आबादी का ही होता है। दूसरा, सभी बुनियादी सुविधाओं के कुछ ही शहरों तक सीमित रहने के चलते, ऐसी आपदाओं के समय देहात और दूर-दराज़ के लोगों के पास कोई आसरा नहीं होता, जिससे वे मदद की उम्मीद कर सकें। इसी असमान और अनियोजित विकास के कारण प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली तबाही कई गुणा बढ़ जाती है।

उत्तराखण्डः दैवी आपदा या प्रकृति का कोप नहीं यह पूँजीवाद की लायी हुई तबाही है!

पूँजीवादी विकास के मॉडल के तहत पर्यावरण की परवाह न करते हुए जिस तरह अंधाधुंध तरीक़े से सड़कें, सुरंगें व बाँध बनाने के लिए पहाड़ियों को बारूद से उड़ाई गईं, उसकी वजह से इस पूरे इलाक़े की चट्टानों की अस्थिरता और बढ़ने से भूस्ख़लन का ख़तरा बढ़ गया। वनों की अंधाधुंध कटाई और अवैध खनन से भी पिछले कुछ बरसों में हिमालय के इस क्षेत्र में भूस्खलन, मृदा क्षरण और बाढ़ की परिघटना में बढ़ोत्तरी देखने में आयी है। यही नहीं इस पूरे इलाक़े में पिछले कुछ वर्षों में हिमालय की नदियों पर जो बाँध बनाये गये या जिन बाँधों की मंजूरी मिल चुकी है उनसे भी बाढ़ की संभावना बढ़ गई है