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पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (तीसरी किश्त)

कम्यून के जीवनकाल में ही कार्ल मार्क्‍स ने लिखा था : ”यदि कम्यून को नष्ट भी कर दिया गया, तब भी संघर्ष सिर्फ़ स्थगित होगा। कम्यून के सिद्धान्त शाश्वत और अनश्वर हैं, जब तक मज़दूर वर्ग मुक्त नहीं हो जाता, तब तक ये सिद्धान्त बार-बार प्रकट होते रहेंगे।” मजदूरों की पहली हथियारबन्द बग़ावत और पहली सर्वहारा सत्ता की अहमियत बताते हुए मार्क्‍स ने कहा था, ”18 मार्च का गौरवमय आन्दोलन मानव जाति को वर्ग-शासन से सदा के लिए मुक्त कराने वाली महान सामाजिक क्रान्ति का प्रभात है।”

पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (दूसरी किश्त)

जब मज़दूर आन्दोलन ने काफ़ी अनुभव हासिल कर लिया और मज़दूर वर्ग ज्यादा अच्छी तरह संगठित हो गया तभी एक ऐसा वैज्ञानिक सिद्धान्त सामने आया जो मानवता को मुक्ति की सही राह पर ले जा सकता था। इस सिद्धान्त ने दिखाया कि अब तक का सामाजिक विकास किन मंज़िलों से होकर हुआ है और समाज विकास की सबसे ऊँची मंज़िल कम्युनिज्म तक जाने का रास्ता क्या होगा। इस सिद्धान्त के सृजक थे मज़दूर वर्ग के महान नेता कार्ल मार्क्‍स और फ्रेडरिक एंगेल्स। जर्मनी में जन्मे इन दो अद्भुत प्रतिभाशाली व्यक्तियों ने नौजवानी की शुरुआत में ही अपने आपको तन-मन से क्रान्तिकारी संघर्ष के लिए समर्पित कर दिया। मार्क्‍स और एंगेल्स ने वैज्ञानिक समाजवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया और सर्वहारा के संघर्ष की कार्यनीति बनायी। उन्होंने कहा, ”सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा और कुछ नहीं है।” मार्क्‍सवाद ने दिखाया कि सर्वहारा सबसे क्रान्तिकारी वर्ग है और यह निजी मालिकाने की समूची व्यवस्था को नष्ट करने के संघर्ष में सारे मेहनतकश अवाम की अगुवाई करेगा। लेकिन यह नया सिद्धान्त दुनिया को बदलने वाली ज़बर्दस्त ताक़त तभी बन सकता था जब वह जनता के दिलो-दिमाग़ पर छा जाये।

पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (प्रथम किश्त)

शुरुआती दौर में जब मज़दूरों ने अपनी माँगों के लिए हड़ताल करना शुरू किया तो उनके पस ऐसा कोई संगठन नहीं होता था जो हड़ताल के दौरान पैदा होने वाली एकजुटता को आगे भी क़ायम रख सके। मज़दूर वर्ग की सभी संस्थाएँ और संघ ग़ैर-क़ानूनी माने जाते थे इसलिए मज़दूरों ने गुप्त सोसायटियाँ बनाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे इनकी संख्या और सक्रियता बढ़ती चली गयी। मज़दूरों के संघर्ष के कारण आख़िरकार इंग्लैण्ड की सरकार को 1824 में उन क़ानूनों को रद्द करना पड़ा जो संगठन बनाने को प्रतिबन्धित करते थे। इसके बाद जल्दी ही उद्योग की प्रत्येक शाखा में ट्रेड-यूनियनें बन गयीं जो बुर्जुआ वर्ग के अत्याचार और अन्याय से मज़दूरों को बचाने का काम करने लगीं। उनके उद्देश्य थे : सामूहिक समझौते से मज़दूरी तय कराना, मज़दूरी में यथासम्भव बढ़ोत्तरी कराना, कारखानों की प्रत्येक शाखा में मज़दूरी का समान स्तर क़ायम रखना। ऐसी कई यूनियनों ने मिलकर राष्ट्रीय स्तर पर मज़दूरों को एकजुट करने के प्रयास भी शुरू कर दिये। यूनियनों के संघर्ष के तरीके थे — हड़ताल, फिर हड़ताल तोड़ने वाले मज़दूरों का मुक़ाबला करना और यूनियन से बाहर रहने वाले मज़दूरों को शामिल होने के लिए राज़ी करना। यूनियनों की कार्रवाइयों से मज़दूरों की चेतना और संगठनबद्धता बहुत तेज़ी से बढ़ने लगी।

बिगुल पुस्तिका – 5 : मेहनतकशों के खून से लिखी पेरिस कम्यून की अमर कहानी

मेहनतकशों के खून से लिखी पेरिस कम्यून की अमर कहानी फ्रांस की राजधानी पेरिस में इतिहास में पहली बार 1871 में मज़दूरों ने अपनी हुकूमत क़ायम की। हालांकि पेरिस कम्यून सिर्फ 72 दिनों तक टिक सका लेकिन इस दौरान उसने दिखा दिया कि किस तरह शोषण-उत्पीड़न, भेदभाव-गैरबराबरी से मुक्त समाज क़ायम करना कोरी कल्पना नहीं है। पेरिस कम्यून की पराजय ने भी दुनिया के मजदूर वर्ग को बेशकीमती सबक सिखाये। पेरिस कम्यून का इतिहास क्या था, उसके सबक क्या हैं, यह जानना मज़दूरों के लिए बेहद ज़रूरी है। यह पुस्तिका इसी जरूरत को पूरा करने की एक कोशिश है। पुस्तिका में संकलित लेख ‘नई समाजवादी क्रान्ति का उद्घोषक बिगुल’ और क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों की पत्रिका ‘दायित्वबोध’ से लिये गये हैं।

मेहनतकशों के खून से लिखी पेरिस कम्यून की अमर कहानी

पेरिस कम्यून में शामिल मेहनतकशों ने राजकाज चलाकर, बेहद महत्वपूर्ण व मौलिक फ़ैसले लेकर अपार सर्जनात्मकता का परिचय दिया था। यदि उनका मार्गदर्शन करने वाली सही विचारधारा से लैस एक क्रान्तिकारी पार्टी होती तो यह प्रयोग आगे बढ़ सकता था। पर अपने छोटे से जीवन में भी कम्यून ने यह तो साबित ही कर दिखाया कि पुरानी दुनिया को खाक में मिलाने के बाद व्यापक मेहनतकश अवाम की सामूहिक शक्ति और सामूहिक मेधा एक नई दुनिया का भी ढांचा खड़ा कर सकती है, एक नये जीवन का भी ताना-बाना बुन सकती है।

नई मज़दूर क्रान्ति की राह भी रौशन करती रहेगी पेरिस कम्यून की मशाल !

आज के समय में पेरिस कम्यून के आदर्श और मॉडल को याद करना विशेष प्रासंगिक है। समाजवादी क्रान्तियों की फ़ौरी पराजय और खासकर, पूंजीवाद की खुली बहाली के बाद, जब से पूरी दुनिया में निजीकरण-उदारीकरण का शोर मचा हुआ है, तब से मजदूर आन्दोलन के नेतृत्व पर काबिज सामाजिक जनवादी और तरह-तरह के बुर्जुआ सुधारवादी भी यह कहने लगे हैं कि इन घोर मजदूर-विरोधी नीतियों को स्वीकारने के अतिरिक्त मजदूर वर्ग के पास और कोई चारा नहीं है। समाजवाद और क्रान्ति का तो जैसे उन्होंने नाम ही भुला दिया है। उनके अनुसार, मजदूर वर्ग का लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा “कल्याणकारी राज्य” के बुर्जुआ मॉडल को पूरी तरह तोड़े जाने से बचाना है, सब्सिडी और रियायतों में कटौती को रोकना है और अपने ही भाइयों की छंटनी और रोजगार में कटौती की शर्तों पर अपनी तनख्वाहें बढ़वाना है।