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‘इण्टरनेशनल’ के रचयिता यूजीन पोतिए के 135वें स्मृति दिवस पर लेनिन का लेख

पिछले साल, 1912 के नवम्बर में, फ़्रांसीसी मज़दूर कवि, सर्वहारा वर्ग के प्रसिद्ध गीत, “इण्टरनेशनल” (“उठ जाग, ओ भूखे बन्दी,” आदि) के लेखक यूजीन पोतिए की मृत्यु को हुए पच्चीस वर्ष पूरे हो गये। (उनकी मृत्यु 1887 में हुई थी।) उनके इस गीत का सभी यूरोपीय तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। कोई भी वर्ग चेतन मज़दूर चाहे जिस देश में वह पहुँच जाये, क़िस्मत उसे चाहे जहाँ ढकेलकर ले जाये, भाषा-विहीन, नेत्र-विहीन, अपने देश से दूर कहीं वह चाहे जितना अजनबी महसूस करे – “इण्टरनेशनल” (मज़दूरों के अन्तर्राष्ट्रीय गीत) की परिचित टेकों के माध्यम से वह वहाँ अपने लिए साथी और मित्र ढूँढ़ सकता है।

पेरिस कम्यून: पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (बारहवीं किस्त)

जहाँ कहीं भी मज़दूर इस बहादुराना संघर्ष की कहानी एक बार फिर सुनने के लिए इकट्ठा होंगे ­ एक ऐसी कहानी जो बहुत पहले ही सर्वहारा शौर्य-गाथाओं के ख़ज़ाने में शामिल हो चुकी है ­ वे 1871 के शहीदों की स्मृति को गर्व के साथ याद करेंगे। और साथ ही वे आज के वर्ग संघर्ष के उन शहीदों को भी याद करेंगे जो या तो मार डाले गये या पूँजीवादी देशों के क़ैदख़ानों में अब भी यातना झेल रहे हैं, क्योंकि उन्होंने अपने उत्पीड़कों के ख़िलाफ़ बग़ावत करने की हिम्मत की थी, जैसा कि पेरिस के मज़दूरों ने करीब डेढ़ सौ साल पहले किया था।

पेरिस कम्यून: पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (ग्यारहवीं किस्त)

पूँजीवादी व्यवस्था की सभ्यता और न्याय अपना भयावह रूप तभी प्रकट करते हैं जब उसके ग़ुलाम और जांगर खटाने वाले अपने मालिकों के खि़लाफ़ सिर उठाते हैं। और तब यह सभ्यता और न्याय नग्न बर्बरता और प्रतिशोध के अपने असली रूप में प्रकट होते हैं। मेहनत के फलों को हड़पने वालों और उत्पादकों के वर्ग-संघर्ष के प्रत्येक नये संकट में यह तथ्य और अधिक नग्न रूप में सामने आता है। जून 1848 में मज़दूरों की बग़ावत को कुचलने के लिए पूँजीपतियों के ज़ालिमाना कारनामे भी 1871 के अमिट कलंक के आगे फीके पड़ गये। अपना सबकुछ दाँव पर लगाकर जिस वीरता और शौर्य के साथ पेरिस के स्त्री-पुरुष और बच्चे तक वसार्य-पंथियों के प्रवेश के बाद आठ दिनों तक लड़े, वह इस बात का प्रमाण था कि वे किस ऊँचे लक्ष्य के लिए लड़ रहे थे। दूसरी ओर, वर्साय के फौजियों के नारकीय कृत्य उस सभ्यता की गन्दी आत्मा को प्रतिबिम्बित कर रहे थे जिसके वे भाड़े के नौकर थे।

पेरिस कम्यून: पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (दसवीं किस्त)

1848 की क्रान्ति वह पहला मौक़ा था जब पूँजीपति वर्ग ने यह दिखाया कि जिस क्षण सर्वहारा अपने अलग हितों और अपनी अलग माँगों के साथ एक अलग वर्ग के रूप में खड़े होने का दुस्साहस करेगा, उस समय प्रतिशोध में पूँजीपति किस प्रकार पागलपन और क्रूरता का नंगा नाच दिखा सकते हैं। लेकिन 1871 में पूँजीपतियों ने जैसा वहशीपन दिखाया उसके आगे 1848 बच्चों का खेल था।

पेरिस कम्यून: पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (नवीं किश्त)

पेरिस कम्यून की असफ़लता का निचोड़ निकालते हुए मार्क्स और एंगेल्स ने यह और अधिक स्पष्ट किया कि सर्वहारा वर्ग की सत्ता शस्त्रबल से हासिल होती है और इसी के सहारे कायम रह सकती है। यह तभी कायम रह सकती है जबकि बुर्जुआ वर्ग की सत्ता को ध्वस्त करने के बाद भी उसे सम्भलने का मौका न दिया जाये और उसके समूल नाश के लिए जंग जारी रखी जाये।

पेरिस कम्यून की वर्षगाँठ (18 मार्च) के अवसर पर

सत्ता हासिल करने के बाद सर्वहारा वर्ग को हर सम्भव कोशिश करनी चाहिये कि उसके राज्य के उपकरण समाज के सेवक से समाज के स्वामी के रूप में न बदल जायें। सर्वहारा राज्य के विभिन्न अंगों-उपांगों में काम करने वाले सभी कार्यकर्ताओं के लिए ऊँची तनख़्वाहें पाने और एकाधिक पदों पर एक साथ काम करते हुए एकाधिक तनख्वाहें पाने की व्यवस्था समाप्त कर दी जानी चाहिये, और इन कार्यकर्ताओं को किसी विशेष सुविधा का लाभ नहीं उठाना चाहिए।

पेरिस कम्यून: पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (सातवीं किश्त)

वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्तों पर गठित एक पार्टी का अभाव उन ऐतिहासिक घड़ियों में कम्यून की गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित कर रहा था। इण्टरनेशनल की फ्रांस शाखा सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक हरावल बनने से चूक गयी थी। उसके अन्दर मार्क्सवादी विचारधारा के लोगों की संख्या भी बहुत कम थी। फ्रांसीसी मज़दूरों में सैद्धान्तिक पहलू बहुत कमज़ोर था। उस समय तक ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’,‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष’, ‘पूँजी’ आदि मार्क्स की प्रमुख रचनाएँ अभी फ्रांसीसी भाषा में प्रकाशित भी नहीं हुई थीं। कम्यून के नेतृत्व में बहुतेरे ब्लांकीवादी और प्रूधोंवादी शामिल थे, जो मार्क्सवादी सिद्धान्तों से या तो परिचित ही नहीं थे, या फिर उसके विरोधी थे। आम सर्वहाराओं द्वारा आगे ठेल दिये जाने पर उन्होंने सत्ता हाथ में लेने के बाद बहुतेरी चीज़ों को सही ढंग से अंजाम दिया और आने वाली सर्वहारा क्रान्तियों के लिए बहुमूल्य शिक्षाएँ दीं, पर अपनी राजनीतिक चेतना की कमी के कारण उन्होंने बहुतेरी ग़लतियाँ भी कीं। कम्यूनार्डों की एक बड़ी ग़लती यह थी कि वे दुश्मन की शान्तिवार्ताओं की धोखाधड़ी के शिकार हो गये और दुश्मन ने इस बीच युद्ध की तैयारियाँ मुकम्मिल कर लीं। जैसा कि मार्क्स ने लिखा हैः “जब वर्साय अपने छुरे तेज़ कर रहा था, तो पेरिस मतदान में लगा हुआ था; जब वर्साय युद्ध की तैयारी कर रहा था तो पेरिस वार्ताएं कर रहा था।” दुश्मन का पूरी तरह सफाया न करना, वर्साय पर हमला न करना, और क्रान्ति को पूरे देश में न फैलाना कम्यून वालों की सबसे बड़ी भूल थी और सच यह है कि नेतृत्व में मार्क्सवादी विचारधारा के अभाव के चलते यह गलती होनी ही थी।

पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (छठी किश्त)

आज से 141 वर्ष पहले, 18 मार्च 1871 को फ़्रांस की राजधानी पेरिस में पहली बार मज़दूरों ने अपनी हुक़ूमत क़ायम की। इसे पेरिस कम्यून कहा गया। उन्होंने शोषकों की फैलायी इस सोच को ध्वस्त कर दिया कि मज़दूर राज-काज नहीं चला सकते। पेरिस के जाँबाज़ मज़दूरों ने न सिर्फ पूँजीवादी हुक़ूमत की चलती चक्की को उलटकर तोड़ डाला, बल्कि 72 दिनों के शासन के दौरान आने वाले दिनों का एक छोटा-सा मॉडल भी दुनिया के सामने पेश कर दिया कि समाजवादी समाज में भेदभाव, ग़ैर-बराबरी और शोषण को किस तरह ख़त्म किया जायेगा। आगे चलकर 1917 की रूसी मज़दूर क्रान्ति ने इसी कड़ी को आगे बढ़ाया।

पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (पाँचवी किश्त)

कम्यून में महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण ओहदे और ज़िम्मेदारी वाले व्यक्ति को भी कोई विशेषाधिकार नहीं हासिल था। मज़दूर और अफ़सरों-मन्त्रियों के तनख्वाहों के भीतर पूँजीवादी हुक़ूमत के दौरान जो आकाश-पाताल का अन्तर था, उसे ख़त्‍म कर दिया गया। राज्य के नेता जो वेतन लेते थे वह एक कुशल मज़दूर के वेतन के बराबर होता था। अधिक काम करना उनका अनिवार्य कर्तव्य था, पर उन्हें अधिक वेतन लेने का या किसी भी तरह की विशेष सुविधा का कोई अधिकार नहीं था। यह एक अभूतपूर्व चीज़ थी। इसने ‘सस्ती सरकार’ के नारे को सच्चे अर्थों में यथार्थ में बदल दिया। इसने शासकीय मामलों के संचालन के इर्द-गिर्द निर्मित ”रहस्य” और ”विशिष्टता” के उस वातावरण को समाप्त कर दिया जो शोषक वर्ग द्वारा जनता को मूर्ख बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। इसने राजकीय मामलों के संचालन को सीधे-सीधे एक कामगार के कर्तव्यों में बदल दिया और राज्य के पदाधिकारियों को ‘विशेष औजारों’ से काम लेने वाले कामगारों में रूपान्तरित कर दिया। कम्यून के नेताओं पर काम का बहुत बोझ था। काउंसिल के सदस्यों को क़ानून बनाने के अलावा कई कार्यकारी और सैनिक ज़िम्मेदारियाँ भी उठानी पड़ती थीं।

पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (चौथी किश्त)

बेहद मुश्किल हालात के बावजूद, अपने थोड़े-से समय में कम्यून कुछ बड़े कदम उठाने में कामयाब रहा। कम्यून ने स्थायी सेना, यानी सत्ताधरी वर्गों के हाथों के इस दानवी अस्त्र के स्थान पर पूरी जनता को हथियारबन्द किया। उसने धर्म को राज्य से पृथक करने की घोषणा की, धार्मिक पंथों को राज्य से दी जानेवाली धनराशियाँ (यानी पुरोहित-पादरियों को राजकीय वेतन) बन्द कर दीं, जनता की शिक्षा को सही अर्थों में सेक्युलर बना दिया और इस तरह चोग़ाधारी पुलिसवालों पर करारा प्रहार किया। विशुद्ध सामाजिक क्षेत्र में कम्यून बहुत कम हासिल कर पाया, लेकिन यह ”बहुत कम” भी जनता की, मज़दूरों की सरकार के रूप में उसके स्वरूप को बहुत साफ तौर पर उजागर करता है। नानबाइयों की दुकानों में रात्रि-श्रम पर पाबन्दी लगा दी गयी। जुर्माने की प्रणाली का, जो मज़दूरों के साथ एक क़ानूनी डकैती थी, ख़ात्मा कर दिया गया। आखिरी चीज़, वह प्रसिद्ध आज्ञप्ति जारी की गयी, जिसके अनुसार मालिकों द्वारा छोड़ दिये गये या बन्द किये गये सारे मिल-कारख़ाने और वर्कशाप उत्पादन फिर से शुरू करने के लिए मज़दूरों के संघों को सौंप दिये गये। और सच्ची जनवादी, सर्वहारा सरकार के अपने स्वरूप पर ज़ोर देने के लिए कम्यून ने यह निर्देश दिया कि समस्त प्रशासनिक तथा सरकारी अधिकारियों के वेतन मज़दूर की सामान्य मज़दूरी से अधिक नहीं होंगे और किसी भी सूरत में 6000 फ़्रांक सालाना से ज्यादा नहीं होंगे। इन तमाम कदमों ने एकदम साफ तौर पर यह दिखा दिया कि कम्यून जनता की ग़ुलामी और शोषण पर आधारित पुरानी दुनिया के लिए घातक ख़तरा था। इसी कारण बुर्जुआ समाज तब तक चैन महसूस नहीं कर सका, जब तक पेरिस की नगर संसद पर सर्वहारा वर्ग का लाल झण्डा फहराता रहा।