Category Archives: अर्थवाद

मज़दूरों पर बढ़ते हमलों के इस समय में करोड़ों की सदस्यता वाली केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें कहाँ हैं?

पाँच करोड़ संगठित पब्लिक सेक्टर के मज़दूरों की सदस्यता वाली ट्रेड यूनियनें तब एकदम चुप मारकर बैठी हैं जब मज़दूर वर्ग पर चौतरफ़ा हमले हो रहे हैं और बेरोज़गारी का स्तर 45 सालों में सबसे ज्यादा है । उन्हें ठेके पर काम कर रहे या छोटे कारखानों में लगे करोड़ों असंगठित मज़दूरों के बिगड़ते हालात से कोई ़फ़र्क नहीं पड़ता । देश की 51 करोड़ खाँटी मज़दूर आबादी में 84 फ़ीसदी आबादी असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की हैं, परन्तु सीटू, एटक, एचएमएस जैसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें न तो उनके मुद्दे उठाती हैं और न ही उनके बीच इनका कोई आधार है । कांग्रेसी यूनियन इंटक और संघी यूनियन बीएमएस से तो इसकी उम्मीद करना ही बेवकूफ़ी है।

देश-भर में 8-9 जनवरी को हुई आम हड़ताल से मज़दूरों ने क्या पाया? इस हड़ताल से क्या सबक़ निकलता है?

जहाँ तक केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की बात है तो इनसे पुछा जाये कि एकदिनी हड़ताल करने वाली इन यूनियनों की आका पार्टियाँ संसद विधानसभा में मज़दूर विरोधी क़ानून पारित होते समय क्यों चुप्पी मारकर बैठी रहती हैं? जब पहले से ही लचर श्रम क़ानूनों को और भी कमज़ोर करने के संशोधन संसद में पारित किये जा रहे होते हैं, तब ये ट्रेड यूनियनें और इनकी राजनीतिक पार्टियाँ कुम्भकर्ण की नींद सोये होते हैं। सोचने की बात है कि सीपीआई और सीपीएम जैसे संसदीय वामपन्थियों समेत सभी चुनावी पार्टियाँ संसद और वि‍धानसभाओं में हमेशा मज़दूर विरोधी नीतियाँ बनाती आयी हैं, तो फिर इनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हक़ों के लिए कैसे लड़ सकती हैं?

हरियाणा में नगर परिषद, नगर निगम, नगर पालिका के कर्मचारियों की हड़ताल समाप्त

हड़ताल का नेतृत्व नगरपालिका कर्मचारी संघ, हरियाणा ने किया था जोकि जोकि सर्व कर्मचारी संघ, हरियाणा से सम्बन्ध रखता है। 16 दिन की हड़ताल का कुल परिणाम यह निकला की कर्मचारियों की तनख्वाह 11,700 से बढ़ाकर 13,500 कर दी गयी है। पक्का करने की माँग, ठेका प्रथा ख़त्म करने की माँग और समान काम का समान वेतन देनें की माँग पर सरकार ने वही पुराना कमेटी बैठने का झुनझुना कर्मचारी नेताओं को थमा दिया जिसे लेकर वे अपने-अपने घर आ गये। इस चीज़ में कोई दोराय नहीं है कि फ़िलहाली तौर पर मिल रहे संघर्षों के हासिल को अपने पास रख लिया जाये और आगे के संघर्षों की तैयारी की जाये। किन्तु फ़िलहाल और लम्बे समय से देश सहित हरियाणा प्रदेश में भी मज़दूर-कर्मचारी आन्दोलनों में अर्थवाद पूरी तरह से हावी है।

ओमैक्स के बहादुर मज़दूरों का संघर्ष जारी है!

मुनाफ़े की हवस में अन्धे कम्पनी प्रबन्धन के लिए मज़दूर की ज़िन्दगी की क़ीमत महज़ एक पुर्जे जितनी है जिसे इस्तेमाल करने के बाद फेंक दिया जाता है। परन्तु ओमैक्स के मज़दूर पूँजी की इस गुलामी के ि‍ख़‍लाफ़ अपनी फै़क्टरी गेट पर डेट हुए हैं। मज़दूरों को कम्पनी के अन्दर मौजूद स्थायी मज़दूरों के बीच एकता स्थापित होने का ख़तरा लम्बे समय से खटक रहा था। 6 मार्च को कम्पनी ने यूनियन बॉडी सहित 18 स्थायी मज़दूरों को काम से निकाल दिया और काम पर आने पर स्थायी मज़दूरों से एक दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने को कहा जिसके तहत मज़दूरों को मीटिंग करने व संगठित होने की मनाही थी। कुछ मज़दूरों ने नासमझी और भ्रम में इसपर हस्ताक्षर कर दिये लेकिन करीब 100 मज़दूरों ने ऐसा करने से मना कर दिया। वे हड़ताल पर बैठे हुए मज़दूरों के साथ आ गये और प्रबन्धन के विरुद्ध नारेबाजी करने लगे। यह इस संघर्ष का एक बेहद महत्वपूर्ण बिन्दु था, जहाँ स्थायी और अस्थायी मज़दूरों के बीच एक ज़बरदस्त एकता क़ायम की जा सकती थी और पूरे संघर्ष को एक नये मुक़ाम तक पहुँचाया जा सकता था। परन्तु यह नहीं किया गया बल्कि उल्टा सभी स्थायी मज़दूर वापस काम पर चले गये। यह क़दम इस संघर्ष को कितना नुक़सान पहुँचायेगा यह तो आने वाले वक़्त में ही पता चलेगा परन्तु अगर मज़दूर इस संघर्ष को अपनी फै़क्टरी गेट से पूरे सेक्टर तक लेकर जायें तो इस संघर्ष को विस्तृत किया जा एकता है।

पूँजीवादी मुनाफे का चक्का जाम करने के लिए मज़दूरों को अपनी एकता को मज़बूत कर लम्बी लड़ाई लड़नी होगी!

असल में एकदिनी हड़तालें करना इन तमाम यूनियनों के अस्तित्व का प्रश्न है। ऐसा करने से उनके बारे में मज़दूरों का भ्रम भी थोड़ा बना रहता है और पूँजीपतियों की सेवा करने का काम भी ये यूनियनें आसानी से कर लेती हैं। यह एकदिनी हड़ताल कितनी कारगर है यह इसी बात से पता चलता है कि ऐसी हड़तालों के दिन आम तौर पर तमाम पूँजीपति और कई बार कुछ सरकारी विभाग तक खुद ही छुट्टी घोषित कर देते हैं। और कई इलाकों में मालिकों से इनकी यह सेटिंग हो चुकी होती है कि दोपहर तक ही हड़ताल रहेगी और उसके बाद फैक्ट्री चलेगी। गुड़गाँव में इस हड़ताल की “छुट्टी” के बदले इससे पहले वाले हफ्ते में ओवरटाइम काम करवा लिया जाता है। इसे रस्म नहीं कहा जाये तो क्या कहें?

हमें एक दिनी हड़तालों की रस्म से आगे बढ़ना होगा

एकदिनी हड़ताल करने वाली इन केंद्रीय ट्रेड यूनियनों से पूछा जाना चाहिए कि जब इनकी आका पार्टियां संसद-विधानसभा में मज़दूर-विरोधी क़ानून पारित करती हैं, तो उस समय ये चुप्पी मारकर क्यों बैठी रहती हैं? सीपीआई और सीपीएम जब सत्ता में रहती हैं तो खुद ही मज़दूरों के विरूद्ध नीतियां बनाती हैं, तो फिर इनसे जुडी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हकों के लिए कैसे लड़ सकती हैं?

मार्क्सवादी पार्टी बनाने के लिए लेनिन की योजना और मार्क्सवादी पार्टी का सैद्धान्तिक आधार

कठिनाई इसी में नहीं थी कि जार सरकार के बर्बर दमन का सामना करते हुए पार्टी बनानी थी। जार सरकार जब-तब संगठनों के सबसे अच्छे कार्यकर्ता छीन लेती थी और उन्हें निर्वासन, जेल और कठिन मेहनत की सजाएँ देती थी। कठिनाई इस बात में भी थी कि स्थानीय कमेटियों और उनके सदस्यों की एक बड़ी तादाद अपनी स्थानीय, छोटी-मोटी अमली कार्रवाई छोड़कर और किसी चीज़ से सरोकार नहीं रखती थी। पार्टी के अन्दर संगठन और विचारधारा की एकता नहीं होने से कितना नुक़सान हो रहा है, इसका अनुभव नहीं करती थी। पार्टी के भीतर जो फूट और सैद्धान्तिक उलझन फैली हुई थी, वह उसकी आदी हो गयी थी। वह समझती थी कि बिना एक संयुक्त केन्द्रित पार्टी के भी मज़े में काम चला सकती है।

लेनिन – क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों से मज़दूर का वार्तालाप

”आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने” की माँग राजनीतिक कार्य के क्षेत्र में स्वयंस्फूर्ति की पूजा करने की प्रवृत्ति को सबसे स्पष्ट रूप में व्यक्त करती है। बहुधा आर्थिक संघर्ष स्वयंस्फूर्त ढंग से, अर्थात ”क्रान्तिकारी कीटाणुओं, यानी बुद्धिजीवियों” के हस्तक्षेप के बिना ही, वर्ग-चेतन सामाजिक-जनवादियों के हस्तक्षेप के बिना ही, राजनीतिक रूप धारण कर लेता है। उदाहरण के लिए, समाजवादियों के कोई हस्तक्षेप न करने पर भी ब्रिटिश मज़दूरों के आर्थिक संघर्ष ने राजनीतिक रूप धरण कर लिया। लेकिन सामाजिक-जनवादियों का कार्यभार यहीं ख़त्म नहीं हो जाता कि वे आर्थिक आधार पर राजनीतिक आन्दोलन करें; उनका कार्यभार इस ट्रेड-यूनियनवादी राजनीति को सामाजिक-जनवादी राजनीतिक संघर्ष में बदलना और आर्थिक संघर्ष से मज़दूरों में राजनीतिक चेतना की जो चिंगारियाँ पैदा होती हैं, उनका इस्तेमाल इस मकसद से करना है कि मज़दूर को सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चेतना के स्तर पर उठाया जा सके। किन्तु मार्तीनोव जैसे लोग मज़दूरों की अपने आप उठती हुई राजनीतिक चेनता को और ऊपर उठाने तथा बढ़ाने जाने के बजाय स्वयंस्फूर्ति के सामने शीश झुकाते हैं और उबा देने की हद तक बार-बार यही बात दोहराते रहते हैं कि आर्थिक संघर्ष मज़दूरों को अपने राजनीतिक अधिकारों के अभाव के बारे में सोचने की ”प्रेरणा देता है”। सज्जनो, यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि अपने आप उठती हुई ट्रेड-यूनियनवादी राजनीतिक चेतना आपको यह प्रेरणा नहीं दे पाती कि सामाजिक-जनवादी होने के नाते आपके क्या कार्यभार हैं।