Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

मध्यम किसान और लागत-मूल्य का सवाल बहस का सम्पादकीय समाहार

लागत मूल्य घटाने के सवाल का तो हम किसी भी सूरत में समर्थन नहीं कर सकते, मध्यम किसान की किसी वाजिब तात्कालिक माँग का भी आज की तारीख़ में समर्थन का कोई व्यावहारिक मतलब नहीं है। यह एक खानापूर्ति या ज़ुबानी जमाख़र्च मात्र ही होगा। लेनिन ने अपने एक शुरुआती लेख “जनता के मित्र’ क्या हैं और वे सामाजिक जनवादियों से कैसे लड़ते हैं” में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि कम्युनिस्ट सबसे पहले अपना सारा ध्यान और अपनी सारी गतिविधियाँ मज़दूर वर्ग पर केन्द्रित करते हैं। जब मज़दूरों के उन्नत प्रतिनिधि वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों में पारंगत हो जाते हैं और मज़दूर वर्ग की ऐतिहासिक भूमिका को भली-भाँति समझ लेते हैं, उसके बाद ही वे जनता के अन्य वर्गों को संगठित करने में सफ़ल हो सकते हैं।

मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण का सवाल – तीन

अपने अगले लेख (जनवरी, 2005) में मैंने अपनी पोज़ीशन को विस्तार देते हुए किसानों का सर्वमान्य विभेदीकरण प्रस्तुत कर यही बात कही है कि मँझोले किसानों का बुनियादी चरित्र उसके बीच वाले हिस्से से ही निर्धारित होता है जो अपने श्रम पर आधारित खेती करता है। इसका ऊपरी हिस्सा और निचला हिस्सा एक तरफ़ कुलकों और दूसरी तरफ़ सर्वहारा वर्ग से नज़दीकी बनाते हैं। कोई भ्रम पैदा न हो, इसीलिए यहीं पर यह सर्वमान्य बात भी कह देना उचित होगा कि यह सर्वमान्य विभेदीकरण सिर्फ़ मँझोले किसानों के चरित्र को समझने के लिए किया जाता है। व्यवहार में यह विभेदीकरण सम्भव नहीं होता है। मँझोले किसान के चरित्र में यह सब घुला-मिला होता है। ऐसे भी मँझोले किसान हो सकते हैं जो मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित खेती करते हैं, लेकिन कभी-कभी मज़दूर भी लगाते हैं और कभी-कभी ख़ुद भी मज़दूरी करते हैं। ऐसे भी मँझोले किसान हो सकते हैं जो अन्य मँझोले किसानों की अपेक्षा कुछ अधिक मज़दूर लगाते हों, लेकिन फि़र भी मुख्यतः और मूलतः अपने श्रम पर आधारित खेती करते हैं। ऐसे भी मँझोले किसान हो सकते हैं जो कुछ हद तक अपनी जीविका के लिए मज़दूरी पर निर्भर हो चले हैं, लेकिन अभी मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित अपनी खेती से ही जीवनयापन करते हों।

मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण का सवाल – दो

सम्पादक-मण्डल ने अपनी माँगों की लम्बी सूची प्रस्तुत करते हुए एक और बात भी कही है। उसका कहना है कि पूँजीवादी विकास ने सभी मध्यवर्गीय तबक़ों की माँगों में समानता ला दी है। लेकिन क्या उत्पादन में लगे मध्यवर्गीय तबक़ों और सेवाओं, व्यापार आदि में लगे मध्यवर्गीय तबक़ों को एक साथ गोलबन्द करना सम्भव है? और यदि ऐसा हो भी जाये तो भी उत्पादन में लगे मध्यवर्गीय तबक़ों की मुख्य माँग तो उत्पादन से ही जुड़ी हुई होगी। ऐसी स्थिति में माँगों की सूची में से खेती की लागत घटाने से जुड़ी बिजली-पानी को रियायती दर पर देने की माँग ही छोटे-मँझोले किसानों की मुख्य माँग होगी। इस हालत में क्या सम्पादक-मण्डल छोटे-मँझोले किसानों के लिए मुख्य माँग के रूप में लागत मूल्य घटाने की माँग की वकालत नहीं कर रहा है?

किसानी के सवाल को पेटी बुर्जुआ चश्मे से नहीं सर्वहारा के नज़रिये से देखिये जनाब!

एस. प्रताप किसानों की जिन माँगों की हिमायत कर रहे हैं, वे किसानों की निम्न पूँजीवादी मानसिकता को ही बल प्रदान करती हैं और उन्हें बुर्जुआ वर्ग के पलड़े में धकेलने वाली हैं। वह लागत मूल्य घटाने की माँग को मँझोले किसानों की मुख्य माँग के बतौर पेश तो कर ही रहे हैं, और अभी उन्होंने लाभकारी मूल्य की माँग की हिमायत को भी नहीं छोड़ा है। भले ही उनका कहना है कि, लाभकारी मूल्य की माँग जनविरोधी, सर्वहारा विरोधी तथा धनी किसानों की माँग है। उनका कहना है कि उनके लेख में “जहाँ वाजिब मूल्य के लिए दबाव बनाने की रणनीति अपनाने की बात की गयी है, वह एक विशेष सन्दर्भ में है जब चीनी मिलों ने बिना किसी उपयुक्त कारण के पिछले साल के मुक़ाबले गन्ने का दाम एकाएक काफ़ी कम कर दिया था।” उनके कहने का तात्पर्य यह है कि उक्त “विशेष सन्दर्भ” में लाभकारी मूल्य की माँग उठाना जायज़ है। उनके इस धनी किसान प्रेम पर हमें एक बार फि़र से हैरत हो रही है।

मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण का सवाल – एक

लेनिन के ज़माने में खेती पिछड़ी हुई थी और किसान लागतों के लिए इस क़दर औद्योगिक मालों पर निर्भर नहीं थे। लेकिन फि़र भी लेनिन ने इस सवाल को छुआ है और इसे सर्वहारा विरोधी माँग का दर्जा देते नहीं दिखायी देते। हाँ, वे बार-बार आगाह करते हैं कि इससे उनकी तबाही-बरबादी रुक जायेगी, ऐसा भ्रम किसानों को नहीं पालना चाहिए। वह उन बुर्जुआ कोशिशों का भण्डाफ़ोड़ करते हैं जो इस तरह की माँग को किसानों के उद्धार के लिए केन्द्रीय माँग के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। इसके ख़िलाफ़ वे किसानों से कहते हैं : “सुधरी गृहस्थी बढ़िया चीज़ है, ज़्यादा सस्ते हल ख़रीदने में कोई बुराई नहीं है… लेकिन जब किसी ग़रीब या मँझोले किसान से कहा जाता है कि सुधरी गृहस्थी और ज़्यादा सस्ते हल तुम सबको ग़रीबी से पिण्ड छुड़ाने और अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करेंगे और यह काम धनियों को हाथ लगाये बग़ैर ही हो सकता है, तो यह सरासर धोखा है। ये सारे सुधार कम क़ीमतें और सहकार (माल ख़रीदने-बेचने के संघ) धनियों को ही अधिक लाभ पहुँचायेंगे…(गाँव के ग़रीबों से, पेज 38)।”

“संसदीय रास्ते का खंडन”

क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी को पूंजीवादी संसद–व्यवस्था में इसलिये हिस्सा लेना चाहिए, ताकि जनता को जगाया जा सके, और यह काम चुनाव के दौरान तथा संसद में अलग–अलग पार्टियों के बीच के संघर्ष के दौरान किया जा सकता है। लेकिन वर्ग–संघर्ष को केवल संसदीय संघर्ष तक ही सीमित रखने, अथवा संसदीय संघर्ष को इतना ऊंचा और निर्णयात्मक रूप देने कि संघर्ष के बाकी सब रूप उसके अधीन हो जाएं, का मतलब वास्तव में पूंजीपति वर्ग के पक्ष में चले जाना और सर्वहारा वर्ग के खिलाफ हो जाना है।

पार्टी की बुनियादी समझदारी (पैंतीसवीं किस्त)

क्रान्तिकारी कामों का मुख्य आधार बनने के लिए, उन्हें तीन महान क्रान्तिकारी संघर्षों में अनुकरणीय हरावल भूमिना निभानी चाहिए। मार्क्सवादी–लेनिनवादी क्लासिकीय रचनाओं और अध्यक्ष माओ की रचनाओं का अध्ययन करने में उन्हें अगली कतारों में होना चाहिए, वर्ग शत्रु से संघर्ष में शामिल होने में अग्रणी होना चाहिए, उत्पादन के लक्ष्यों को पूरा करने, वैज्ञानिक प्रयोगों को जारी रखने और दिक्कतों से पार पाने में अग्रणी होना चाहिए। पार्टी और राज्य द्वारा सौंपे गये सारे कामों को पूरा करने के लिए उन्हें जनसमुदायों को एकजुट करना चाहिए और उनकी अगुवाई करनी चाहिए।

भूमण्डलीकरण को ‘मानवीय’ बनाने में जुटे संसदीय वामपंथियों का असली अमानवीय चेहरा

भूमण्डलीकरण के चेहरे को मानवीय बनाने में जुटे संसदमार्गी वामपंथियों का असली चरित्र भी लोगों के सामने बिल्कुल साफ हो चुका है। पिछले एक साल में पश्चिम बंगाल के 14 चायबागानों में भुखमरी से 320 श्रमिकों की मौत से एक बार फिर यही साबित हुआ है कि अपने को आम लोगों की असली पार्टी बताने वाले संसदीय वाम के नंबरदार किस तरह इस पूंजीवादी व्यवस्था को ‘‘मानवीय’’ बनाते–बनाते खुद अमानवीय हो गये हैं।

किसानी के सवाल पर कम्युनिस्ट दृष्टिकोण पर बहस: एक पत्र और उसका सम्पादकीय उत्तर

आज की ही स्थिति यह है कि गाँवों और शहरों की सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी कुल आबादी के पचास प्रतिशत के आसपास पहुँच रही है। कम्युनिस्ट इसी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। यही समाजवादी क्रान्ति की नेतृत्वकारी शक्ति है, जो अब तेज़ी से (आबादी की दृष्टि से) मुख्य शक्ति भी बनती जा रही है। शहरी निम्न मध्य वर्ग की भारी, परेशानहाल आबादी इसकी मुख्य सहयोगी बनेगी क्योंकि इसे अपना कोई भविष्य नहीं दीख रहा है और निजी भू-स्वामित्व के मोह जैसी बाधा से भी यह मुक्त है। गाँवों के छोटे किसान सर्वहारा वर्ग के दूसरे क़रीबी दोस्त हैं। मध्यम किसान इसके ढुलमुल दोस्त हैं और आबादी की दृष्टि से भी इसकी कोई वजह नहीं दीखती कि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को छोड़कर इस ढुलमुल दोस्त की चिन्ता में ही दुबले हुए जा रहे हैं। यह नरोदवादी भटकाव नहीं तो भला और क्या है?

पूँजीवादी खेती के संकट पर सही कम्युनिस्ट दृष्टिकोण का सवाल

लाभकारी मूल्य का सवाल अपने वर्ग-सार की दृष्टि से पूरी तरह से धनी किसानों-कुलकों-पूँजीवादी किसानों की माँग है, जो मुनाफ़े के लिए पैदा करते हैं। यह देहाती इलाक़े का पूँजीपति वर्ग है जो शोषण और शासन में पूरे देश के स्तर पर औद्योगिक पूँजीपति वर्ग का छोटा साझीदार है। लाभकारी मूल्य का आन्दोलन मूलतः छोटे और बड़े लुटेरे शासक वर्गों के बीच की लड़ाई है, इसके ज़रिये पूँजीवादी भूस्वामी-फ़ार्मर-धनी किसान देश स्तर पर संचित अधिशेष (सरप्लस) में अपना हिस्सा बढ़ाने की माँग करते हैं। चूँकि उद्योग में मुनाफ़े की दर लगातार बढ़ाते जाने की सम्भावना खेती की अपेक्षा हमेशा ही बहुत अधिक होती है और चूँकि लूट के बड़े हिस्सेदार वित्तीय एवं औद्योगिक पूँजीपति वर्ग और साम्राज्यवादी भी हमेशा ही पूँजीवादी संकट का ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा लूट के छोटे साझीदार-धनी किसानों पर थोपने की कोशिश करते रहते हैं, इसलिए इनके बीच खींचतान चलती ही रहती है।