Category Archives: बच्चों के ख़िलाफ़ अपराध

गोरखपुर में मासूमों की मौत – अब भी चेत जाओ वरना हत्यारों-लुटेरों का यह गिरोह पूरे समाज की ऑक्सीजन बन्द कर देगा!

इस वर्ष के बजट में चिकित्सा शिक्षा का आवंटन घटाकर आधा कर दिया गया है। जान लें कि बीआरडी मेडिकल कॉलेज और अन्य सरकारी कॉलेजों को इसी मद में पैसे मिलते हैं। ऐसे 14 मेडिकल कॉलेजों और उनके साथ जुड़े टीचिंग अस्पतालों का बजट पिछले वर्ष के 2344 करोड़ से घटाकर इस वर्ष 1148 करोड़ कर दिया गया है। बीआरडी मेडिकल कॉलेज का आवंटन पिछले वर्ष 15.9 करोड़ से घटकर इस वर्ष केवल 7.8 करोड़ रह गया है। इतना ही नहीं, मशीनों और उपकरणों के लिए इसे मिलने वाली राशि पिछले वर्ष 3 करोड़ से घटाकर इस वर्ष केवल 75 लाख कर दी गयी है।

इक्कीसवीं सदी में भी नन्हीं जिन्दगियों को बाल विवाह की बलि चढ़ा रहा है समाज

पूँजीवाद ने जनता को ग़ुलाम और पिछड़ा बनाये रखने के लिए तमाम तरह के सामन्ती मूल्य-मान्यताओं के साथ समझौता करके न सिर्फ़ उन्हें बनाये रखा है बल्कि लगातार बढ़ावा भी दे रहा है। इस पूँजीवादी समाज व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए राजनीतिक और आर्थिक संघर्ष चलाने के साथ ही पिछड़ी सोच और संस्‍कृति से भी लड़ना होगा। पहले के संघर्षों और सामाजिक परिवर्तन द्वारा स्त्रियों ने कुछ हद तक सम्मान से जीने का हक़ पाया है। बराबरी का हक़ पाने के लिए पूँजीवादी व्यवस्था को ही बदलना होगा।

साम्राज्यी युद्धों की भेंट चढ़ता बचपन

इन मुल्कों में युद्ध के लिए साम्राज्यवादी मुल्क ही ज़िम्मेवार हैं जो प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करके मुनाफा कमाने की दौड़ में बेकसूर और मासूम बच्चों को मारने से भी नहीं झिझकते। युद्ध के उजाड़े गए इन लोगों को धरती के किसी टुकड़े पर शरण भी नहीं मिल रही और यूरोप भर की सरकारें इनको अपने-अपने मुल्कों में भी शरण देने को तैयार नहीं है।

मुम्बई में लगातार ग़रीबों के बच्चों की गुमशुदगी के ख़ि‍लाफ़ मुहिम

वेश्यावृत्ति, अंगों के व्यापार, भीख मँगवाने आदि के लिए देशभर में बच्चे ग़ायब करने वाले गिरोह सक्रिय रहते हैं। पूरे देश में ग़ायब होने वाले बच्चों की संख्या के हिसाब से महाराष्ट्र टॉप पर है। मुम्बई में भी दक्षिण के पॉश वार्डों की अपेक्षा ईस्ट वार्ड से सबसे ज़्यादा बच्चे ग़ायब होते हैं। अमीरों का कुत्ता ग़ायब होने पर भी सक्रिय हो जाने वाली पुलिस ग़रीबों के बच्चों के ग़ायब होने पर भी अक्सर या तो रिपोर्ट ही नहीं लिखती है या फिर रिपोर्ट के बावजूद कार्रवाई नहीं करती है। ग़ायब बच्चों के मां-बाप को एक ओर अपने बच्चों के ग़ायब होने का दुख होता है तो दूसरी ओर पुलिस का संवेदनहीन रवैया उनके घावों पर मिर्च छिड़कने का काम करता है।

लगातार बढ़ता जा रहा है स्त्रियों और बच्चों की तस्करी का घिनौना कारोबार

मुनाफ़े पर टिके आर्थिक- सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे ने मानवता को कितना अमानवीय बना दिया है इसकी एक भयंकर तस्वीर मनुष्यों की तस्करी के रूप में देखी जा सकती है। विश्व स्तर पर यह व्यापार विश्व में तीसरा स्थान हासिल कर चुका है। यह तस्करी वेश्यावृत्ति, शारीरिक शोषण, जबरन विवाह, बन्धुआ मज़दूरी, अंगों की तस्करी आदि के लिए की जाती है। अस्सी फ़ीसदी की तस्करी तो सेक्स व्यापार के लिए ही की जाती है। मनुष्य की तस्करी का सबसे अधिक शिकार बच्चे हो रहे हैं और उनमें से भी बच्चियों को इसका सबसे अधिक शिकार होना पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र के एक आँकड़े के मुताबिक विश्व स्तर पर हर वर्ष 12 लाख बच्चों की ख़रीद-फरोख्त होती है। इन बच्चों में आधों की उम्र 11 से 14 वर्ष के बीच होती है।

पूँजीवादी पाशविकता की बलि चढ़ते मासूम बच्चे

इसमें कोई दो राय नहीं कि बच्चों के खिलाफ़ होने वाले अपराधों का शिकार आमतौर से गरीब परिवारों और निम्न मध्‍यम वर्गीय परिवारों से आने वाले बच्चे होते हैं। अक्सर ही ऐसे परिवारों में गुजर बसर के लिए स्‍त्री और पुरूष दोनों को ही मेहनत मज़दूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। हालाँकि 12-14 घंटे लगातार अपना हाड़-मांस गलाने के बावजूद उन्हें इतनी कम मज़दूरी मिलती है कि बमुश्किल ही गुजारा हो पाता है। ऐसे हालात में बच्चे घरों में अकेले रह जाते हैं, वे असुरक्षित होते हैं इसलिए तमाम अपराधियों का आसानी से शिकार बनते हैं।

दिल्ली की शाहाबाद डेयरी बस्ती में एक और बच्ची की निर्मम हत्या

लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ऐसे अपराध समाज में हो ही क्यों रहे हैं। इस समाज में स्त्रियां और बच्चियां महफ़ूज क्यों नहीं हैं। दरअसल, 1990 के बाद से देश में उदारीकरण की जो हवा बह रही है, उसमें बीमार होती मनुष्यता की बदबू भी समायी हुई है। पूँजीवादी लोभ-लालच की संस्कृति ने स्त्रियों को एक ‘माल’ बना डाला है और इस व्यवस्था की कचरा संस्कृति से पैदा होने वाले जानवरों में इस ‘माल’ के उपभोग की हवस भर दी है। सदियों से हमारे समाज के पोर-पोर में समायी पितृसत्तात्मक मानसिकता इसे हवा दे रही है, जो औरतों को उपभोग का सामान और बच्चा पैदा करने की मशीन मानती है, और पल-पल औरत विरोधी सोच को जन्म देती है। और ’90 के बाद लागू हुई आर्थिक नीतियों ने देश में अमीरी-ग़रीबी के बीच की खाई को अधिक चौड़ा किया है, जिससे पैसे वालों पर पैसे का नशा और ग़रीबों में हताशा-निराशा, अपराध हावी हो रहा है।

अपने बच्चों को बचाओ व्यवस्था के आदमख़ोर भेड़िये से!

इस दिल दहलाने वाली घटना ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है कि हम आख़िर किस तरह के समाज में रह रहे हैं। कैसा है यह समाज जो ऐसे वहशी दरिन्दों को पैदा कर रहा है जो अपने मुनाफ़े के लिए छोटे-छोटे मासूम बच्चों को दर्दनाक मौत के हवाले कर दे रहे हैं। अभी तक मिले साक्ष्यों से ऐसे आरोपों की पुष्टि होती लग रही है कि बिहार में चुनावी राजनीति के तहत वर्तमान सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए इस घिनौनी साज़िश को अंजाम दिया गया है। चुनावी राजनीति की सारी राहें ख़ून के दलदल से होकर ग़ुज़रती हैं, लाशों के ढेर पर ही सत्ता के सिंहासन सजते हैं, मगर अपने चुनावी मंसूबों के लिए नन्हे बच्चों की बलि चढ़ाने की यह घटना बताती है कि पूँजीवादी राजनीति पतन के किस गटर में डूब चुकी है।

मंगोलपुरी की घटना ने फिर साबित किया कि आज न्याय, इंसाफ़ और सुरक्षा सिर्फ अमीरज़ादों के लिए ही है!

नगरनिगम, विधानसभा से लेकर संसद तक मौजूदा सरकारें समाज के धनी वर्गों की सेवा करती हैं। अमीरज़ादों के लिए बनाये गये सरकारी और निजी स्कूलों में सुरक्षा के सारे इन्तज़ाम हैं। जबकि ग़रीबों के बच्चों को बुनियादी सुरक्षा भी स्कूलों में नहीं दी जाती है, कि उनका जीवन सुरक्षित रहे। और तो और, ऐसी किसी घटना के बाद गरीब लोगों को आमतौर पर इंसाफ मिल ही नहीं पाता है। मंगोलपुरी की इस घटना के बाद प्रशासन का जो रवैया रहा उसने यही साबित किया कि मौजूदा व्यवस्था में न्याय, इंसाफ और सुरक्षा सिर्फ अमीरज़ादों के लिए ही है; जबकि मज़दूरों के लिए ये सिर्फ कागज़ी बातें है। मेहनतकश लोग अगर सच्चे मायनों में अपने और अपने बच्चों के लिए न्याय, इंसाफ और सुरक्षा चाहते हैं तो उन्हें मुनाफ़े पर टिकी मौजूदा व्यवस्था के ख़ात्मे के बारे में सोचना होगा।

राष्‍ट्रीय राजधानी में ग़रीबों के गुमशुदा बच्चों और पुलिस-प्रशासन के ग़रीब-विरोधी रवैये पर बिगुल मज़दूर दस्ता और नौजवान भारत सभा की रिपोर्ट

दिल्ली आज भी गुमशुदा बच्चों के मामले में देश में पहले स्थान पर है, जिनमें 80 प्रतिशत से ज़्यादा संख्या ग़रीबों के बच्चों की होती है। शायद इसीलिए पुलिस से लेकर सरकार तक कोई इस मुद्दे पर गम्भीर नहीं है। पिछले वर्ष सितम्बर तक दिल्ली में 11,825 बच्चे गुमशुदा थे। राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार हर साल दिल्ली से क़रीब 7,000 बच्चे गुम हो जाते हैं, लेकिन यह संख्या दिल्ली पुलिस के आँकड़ों पर आधारित है। हालाँकि विभिन्न संस्थाओं का अनुमान है कि वास्तविक संख्या इससे कई गुना अधिक हो सकती है क्योंकि ज़्यादातर लोग अपनी शिकायत लेकर पुलिस के पास जाते ही नहीं। पुलिस के पास गुमशुदगी की जो सूचनाएँ पहुँचती भी हैं, उनमें से भी बमुश्किल 10 प्रतिशत मामलों में एफ़आईआर दर्ज की जाती है। ज़्यादातर मामलों को पुलिस रोज़नामचे में दर्ज करके काग़ज़ी ख़ानापूर्ति कर लेती है।