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शहरी ग़रीबों में बीमारियों और कुपोषण की स्थिति चिन्तनीय

शहरी ग़रीबों की भारी आबादी आज बीमारियों, कुपोषण तथा इलाज के अभाव की शिकार है। राजधानी दिल्ली के लाखों मज़दूर कमरतोड़ काम करने के बाद भी स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। स्त्रियों में ख़ून की कमी तथा बच्चों में कुपोषण से पैदा होने वाले रोगों की स्थिति चिन्तनीय है और पुरुषों में भी विभिन्न प्रकार के रोगों का प्रतिशत बहुत अधिक है। स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच मुश्किल और महँगी होती जा रही है। ऊपर से सरकारी अस्पतालों में भारी भीड़, दवाओं के न मिलने तथा खाने-पीने की चीज़ों की भीषण महँगाई ने मेहनतकश आबादी के बीच स्वास्थ्य की समस्या को और भी गम्भीर बना दिया है।

दिल्ली की शाहाबाद डेयरी बस्ती में एक और बच्ची की निर्मम हत्या

लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ऐसे अपराध समाज में हो ही क्यों रहे हैं। इस समाज में स्त्रियां और बच्चियां महफ़ूज क्यों नहीं हैं। दरअसल, 1990 के बाद से देश में उदारीकरण की जो हवा बह रही है, उसमें बीमार होती मनुष्यता की बदबू भी समायी हुई है। पूँजीवादी लोभ-लालच की संस्कृति ने स्त्रियों को एक ‘माल’ बना डाला है और इस व्यवस्था की कचरा संस्कृति से पैदा होने वाले जानवरों में इस ‘माल’ के उपभोग की हवस भर दी है। सदियों से हमारे समाज के पोर-पोर में समायी पितृसत्तात्मक मानसिकता इसे हवा दे रही है, जो औरतों को उपभोग का सामान और बच्चा पैदा करने की मशीन मानती है, और पल-पल औरत विरोधी सोच को जन्म देती है। और ’90 के बाद लागू हुई आर्थिक नीतियों ने देश में अमीरी-ग़रीबी के बीच की खाई को अधिक चौड़ा किया है, जिससे पैसे वालों पर पैसे का नशा और ग़रीबों में हताशा-निराशा, अपराध हावी हो रहा है।

नये संकल्पों और नयी शुरुआतों के साथ मना शहीदेआजम भगतसिंह का जन्मदिवस

देश का शोषक हुक्मरान वर्ग जनता के सच्चे नायकों की यादों को पत्थर की मूर्तियों में बदल देना चाहता है। ऐसा ही शहीद भगतसिंह की याद के साथ किया जा रहा है। शहीद भगतसिंह के विचारों और जनता के दुश्मन वर्ग आज उनका नाम ग़लत अर्थों में ले रहे हैं। उन्होंने क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास के पन्ने पलटते हुए दिखाया कि शहीद भगतसिंह और उनके साथियों नें भारत में समाजवाद के निर्माण का सपना देखा और इसके लिए संघर्ष किया। उनका मानना था कि भारतीय मेहनतकश जनता की सच्ची आजादी समाजवाद में ही आ सकती है, सिर्फ अंग्रेजों से राजनीतिक आजादी हासिल कर लेने से जनता की हालत में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। सुखविन्दर ने कहा कि आज आजाद भारत में भी मेहनतकश ग़रीबी, भुखमरी, बदहाली की जिन्दगी जी रहे हैं। जितने जुल्म अंग्रेजों ने भारतीय मेहनतकश जनता पर किये, उससे कहीं अधिक जुल्म भारतीय हुक्मरानों के शासन में किये गये हैं। उन्होंने कहा कि शहीद भगतसिंह के सपनों के समाज के निर्माण के पथ पर चलना ही शहीद भगतसिंह की कुर्बानी और विचारधारा को सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।

जब एक हारी हुई लड़ाई ने जगाई मजदूरों में उम्मीद और हौसले की लौ…

इस छोटे से संघर्ष ने ही यह दिखा दिया कि हमारे देश में लोकतन्त्र की असलियत क्या है! मजदूरों को उनके हक से वंचित करने के लिए मिल मालिक ने साम-दाम-दण्ड-भेद की हर चाल चली। पहले ही दिन जब 4 अक्टूबर की शाम को मजदूर आन्दोलन की नोटिस देने के लिए शाहाबाद डेयरी थाने में गये तो मालिक के इशारे पर वहाँ पहले से तैयार पुलिस वालों ने उन पर हमला किया और सभी मजदूरों तथा साथ गये ‘बिगुल मजदूर दस्ता’ के दो साथियों को बुरी तरह पीटा। लेकिन जब मजदूर अपनी बात पर अड़े रहे तो आखिरकार पुलिस को नोटिस स्वीकार करना पड़ा। इसके बाद भी लगभग हर दिन धरना स्थल पर पुलिस के लोग आकर मजदूरों को डराने-धमकाने की कोशिश करते थे, लेकिन मजदूरों की एकजुटता के आगे उनकी एक न चली। मजदूरों ने 5 अक्टूबर को धरने पर बैठने से पहले ही डी.एल.सी. कार्यालय में ज्ञापन देकर सारी स्थिति से उन्हें अवगत करा दिया था लेकिन श्रम विभाग के अधिकारी केवल काग़जी कार्रवाई ही करते रहे। 8 अक्टूबर को उपश्रमायुक्त (डीएलसी) के कार्यालय में मालिक के साथ वार्ता रखी गयी थी, लेकिन मालिक ने चिट्ठी भिजवा दी कि ये मजदूर उसके कर्मचारी ही नहीं हैं, जबकि ये मजदूर 3 से 6 साल तक से उस मालिक के लिए काम रहे हैं। इन मजदूरों की कमरतोड़ मेहनत के दम पर मालिक ने करोड़ों का मुनाफा बटोरा है, लेकिन मजदूरों को उनका थोड़ा-सा जायज हक देने से बचने के लिए उसने एक मिनट में उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया।