Category Archives: शिक्षा और रोज़गार

अर्बन कम्पनी की “इंस्टा हेल्प” स्कीम: घरेलू कामगारों की सस्ती श्रमशक्ति से मुनाफ़ा कमाने की स्कीम!

घरेलू कामगारों के तहत काम करने वाली आबादी में अधिकांश संख्या स्त्री मज़दूरों की है। काम के दौरान घरेलू कामगारों की सुरक्षा की गारण्टी सुनिश्चित करने की कोई जवाबदेही कम्पनी अपने ऊपर नहीं लेगी। गुडगाँव से लेकर नोएडा और दिल्ली के अलग-अलग मध्यवर्गीय कॉलोनियों में घरेलू कामगारों के साथ होने वाली जघन्य घटनाओं, यौन-उत्पीड़न, छेड़खानी, जातिगत भेदभाव इत्यादि ख़बरों के हम साक्षी बनते रहते हैं। कई मसले तो पैसों के ढेर के नीचे दबा दिये जाते हैं और सामने तक नहीं आते। 15 मिनट में सेवा मुहैया कराने वाली इस स्कीम के आने के बाद ऐसी घटनाएँ और बढ़ेंगी क्योंकि भारत का खाया-पीया-अघाया और मानवीय मूल्यों से रहित खाता-पीता मध्य वर्ग कम से कम समय में अधिक से अधिक काम करवाने की लालसा के साथ इंस्टा हेल्प का इस्तेमाल करेगा और प्लेटफ़ॉर्म कम्पनियाँ क्योंकि औपचारिक तौर पर नियोक्ता की भूमिका में नहीं हैं, इसलिए उनकी कोई जवाबदेही इन तमाम मसलों पर नहीं होगी। प्लेटफ़ॉर्म कम्पनी से पहले यह काम तमाम प्लेसमेण्ट एजेंसियाँ करती रही हैं, जो उचित मज़दूरी या सुरक्षा की गारण्टी दिये बिना रोज़गार के लिए उच्च शुल्क वसूल कर घरेलू श्रमिकों का शोषण करती हैं। श्रमिकों को अक्सर उनके रोज़गार की शर्तों (जिनमें वेतन या नौकरी की ज़िम्मेदारियाँ शामिल हैं) के बारे में जानकारी नहीं दी जाती है।

साम्प्रदायिक फ़ासीवादी दौर में घटता जनवादी स्पेस व बढ़ते छात्र-युवा आन्दोलन

आज छात्रों को विराजनीतिकरण के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए कैम्पस से बाहर भी निकलना होगा और आम मेहनतकश जनता के साथ मिलकर जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी होगी। साथ ही, आम मेहनतकश जनता को भी जनवादी अधिकारों पर हो रहे हमलों के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा, जिसमें छात्र- युवा आन्दोलन के सही माँगो के साथ खड़ा होना भी शामिल है।

तेलंगाना में जातिगत जनगणना : युवाओं को रोज़गार देने में फिसड्डी रेवन्त रेड्डी सरकार का नया शिगूफ़ा

जातिगत जनगणना के समर्थन में एक अन्य तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे भाजपा व संघ परिवार की हिन्दुत्व की राजनीति को मात दी जा सकती है। इस प्रकार का तर्क देने वाले यह मानकर चलते हैं कि यह हिन्दुत्व की राजनीति के द्वारा निर्मित हिन्दू एकता को निश्चय ही तोड़ेगा। परन्तु ऐसे लोग यह नहीं समझ पाते कि अन्य फ़ासीवादी विचारधाराओं की ही तरह हिन्दुत्व की विचारधारा का भी सबसे महत्वपूर्ण अंग व्यवहारवाद है। हिन्दुत्व फ़ासीवादी जहाँ एक ओर मुस्लिमों को दुश्मन बताते हुए एक पूर्ण रूप से विचारधारात्मक हिन्दू पहचान का निर्माण करते हैं वहीं दूसरी तरफ़ उन्हें जाति-आधारित पहचान की राजनीति करने से भी कोई परहेज़ नहीं है। अलग-अलग मंचों पर अलग-अलग श्रोताओं के अनुसार वे अलग-अलग पहलुओं पर ज़ोर देते हैं। उच्च जातियों के बीच घोर ब्राह्मणवादी श्रेष्ठतावादी प्रचार करने के साथ ही साथ उन्होंने पिछड़ी व दलित जातियों के बीच जाति-आधारित पहचान की राजनीति करने में अन्य सभी बुर्जुआ पार्टियों को पीछे छोड़ दिया है और साथ ही वे सभी हिन्दुओं के बीच मुस्लिम-विरोधी राजनीति को ज़हर फैलाते रहते हैं। यह महज़ इत्तेफ़ाक नहीं है कि भाजपा का उभार मण्डल की राजनीति के साथ-साथ ही हुआ और आज भाजपा के समर्थन आधार का बहुलांश पिछड़ी जातियों, दलितों व आदिवासियों के बीच से आता है। इस प्रकार मण्डल 1.0 कभी भी भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति के लिए प्रभावी चुनौती नहीं रहा है और यह मानने की कोई वजह नहीं है कि मण्डल 2.0 ऐसा करने में सक्षम होगा।

चिन्मय स्कूल प्रशासन की आपराधिक लापरवाही से प्रिन्स की मौत, फिर भी स्कूल प्रशासन को बचाने में लगी दिल्ली पुलिस

मोटी-मोटी फीस लेने वाले ये निजी स्कूल सरकार से शिक्षा के नाम पर सस्ती ज़मीन, बिजली और पानी हासिल करते हैं और मुनाफ़े की हवस में बेहद अप्रशिक्षित और अयोग्य लोगों को बेहद कम तनख्वाहों पर काम पर रखते हैं जो इस तरह के संकट से निपटने में अक्षम होते हैं। स्कूल प्रशासन की इस ग़ैर-ज़िम्मेदारी, लापरवाही और लचर व्यवस्था ने एक मासूम बच्चे की जान ले ली और एक माँ की गोद सूनी कर दी। प्रिन्स की हत्या हुई है और हत्यारा स्कूल प्रशासन है।

बढ़ती बेरोज़गारी के शिकार छात्रों-युवाओं पर टूटता फ़ासीवादी कहर – बिहार और उत्तराखण्ड में छात्रों पर बरसी लाठियाँ

फ़ासीवादी भाजपा सरकार छात्रों-युवाओं के लिए काल साबित हुई है। बेरोज़गारी के इस तूफ़ान ने करोड़ों छात्रों के भविष्य को अन्धकारमय बना दिया है। देश में अपराधों का रिकार्ड रखने वाली संस्था एनसीआरबी के आँकड़ों को देखें तो पता चला चलता है कि केवल वर्ष 2022 में 1 लाख 12 हज़ार छात्रों ने आत्महत्या की है। एक तरफ़ बेरोज़गारी जब विकराल रूप लेती जा रही है तो वहीं पर भर्तियों में भी तमाम तरीक़े के नये नियम लागू करके परिक्षाओं में चयन की प्रक्रिया को बेहद जटिल और मुश्किल बनाया जा रहा है। इसका ताज़ा उदाहरण इसी साल सितम्बर में झारखण्ड में हुई उत्पाद सिपाही भर्ती परीक्षा का है जिसमें दौड़ के नियमों में बदलाव करके 60 मिनट में 10 किलोमीटर दौड़ने का प्रावधान किया गया जबकि ये पहले 6 मिनट में 1600 मीटर था। इसका नतीज़ा ये हुआ कि दौड़ने के दौरान ही 12 छात्रों की मौत हो गयी।

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के ख़िलाफ़ छात्रों के आन्दोलन से हम मजदूरों को क्या सीखना चाहिए?

बिना किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के कोई भी स्वत:स्फूर्त आन्दोलन या जनउभार कुछ सफलताओं और अराजकता के साथ अन्ततः ज़्यादा से ज़्यादा किसी समझौते या अक्सर असफलता पर ही ख़त्म होता है। पिछले एक दशक में ही ऐसे तमाम जनान्दोलन दुनिया भर में देखने में आये हैं, जो स्वत:स्फूर्त थे, अपनी ताक़त से शासक वर्ग को भयभीत कर रहे थे, लेकिन किसी स्पष्ट राजनीतिक लक्ष्य, कार्यक्रम और नेतृत्व के अभाव में अन्त में वे दिशाहीन हो गये, जनता अन्तत: थककर वापस लौटी और शासक वर्गों को अपने आपको और अपनी सत्ता को वापस सम्भाल लेने का अवसर मिल गया। ऐसा ही हमें श्रीलंका और बंगलादेश में अचानक से हुए जनउभार में देखने को मिला। यही हमें अरब जनउभार में भी देखने को मिला था। इसलिए जो एक नकारात्मक सबक हमें इन उदाहरणों से मिलता है, वह यह कि हमें अपना ऐसा स्वतन्त्र राजनीतिक नेतृत्व और संगठन विकसित करना चाहिए जो पूँजीपति वर्ग के सभी चुनावबाज़ दलों के असर से मुक्त हो, पूर्ण रूप से मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी करता हो, उसकी राजनीति और विचारधारा मज़दूर वर्ग की राजनीति और विचारधारा हो। ऐसे क्रान्तिकारी सर्वहारा संगठन के बिना जनसमुदाय कभी भी अपने जनान्दोलनों के उद्देश्यों की पूर्ति तक नहीं पहुँच सकते।

काम के अत्यधिक दबाव और वर्कलोड से हो रही मौतें : ये निजी मुनाफ़े की हवस की पूर्ति के लिए व्यवस्थाजनित हत्याएँ हैं!

अत्यधिक कार्य दवाब से लोगों की मौत या और साफ़ शब्दों में कहे तो व्यवस्थाजनित हत्याओं पर सिर्फ़ अफ़सोस जताने से कुछ हासिल नहीं होगा। एक तरफ़ इस व्यवस्था में मुनाफ़े की हवास का शिकार होकर मरते लोग हैं और दूसरी ओर अत्यधिक कार्य दिवस की वकालत करने वाले धनपशुओं के “उपदेश” हैं। पिछले साल अक्टूबर में, इन्फ़ोसिस के सह संस्थापक नारायण मूर्ति ने कहा कि देश की आर्थिक तरक्की के लिए भारतीय युवाओं को सप्ताह में 70 घण्टे काम करना चाहिए! भारत में ओला के प्रमुख भावेश अग्रवाल ने उनके विचार से सहमति जतायी थी और कहा था कि काम और ज़िन्दगी के बीच संतुलन जैसे विचार में वह भरोसा नहीं करते और हिदायत दी कि “अगर आपको अपने काम में मज़ा आ रहा है, तो आपको अपनी ज़िन्दगी और काम दोनों में ख़ुशी मिलेगी, दोनों संतुलित रहेंगे।” साल 2022 में बॉम्बे शेविंग कम्पनी के संस्थापक शांतनु देशपांडे ने नौजवानों से काम के घण्टे को लेकर शिकायत नहीं करने को कहा था और सुझाव दिया था कि किसी भी नौकरी में रंगरूटों को अपने करियर के पहले चार या पाँच सालों में दिन के 18 घण्टे काम करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण में उप वर्गीकरण – मेहनतकशों को आपस में बाँटने का एक नया हथकण्डा !!

सच्चाई यह है कि जब नवउदारवादी दौर में सरकारी नौकरियाँ ही नहीं हैं, तो किसी जाति को औपचारिक तौर पर कितना आरक्षण दिया जाता है, दलितों के आरक्षण के बीच में कितना और कैसा उपवर्गीकरण कर दिया जाता है, उससे इस समूचे वर्ग की नियति पर, उनके हालात पर कोई गुणात्मक फ़र्क नहीं पड़ने वाला है। जब नौकरियों की पैदा होने की दर ही शून्य के निकट है और अगर उसे काम करने योग्य आबादी में होने वाली बढ़ोत्तरी के सापेक्ष रखें, तो नकारात्मक में है, तो फिर इन श्रेणीकरणों और वर्गीकरणों को आरक्षण की लागू नीति में घुसा देने से किसे क्या हासिल हो जायेगा? पूँजीवादी व्यवस्था में नगण्य होते अवसरों के लिए दलित मेहनतकश व आम मध्यवर्गीय जनता में ही आपस में सिर-फुटौव्वल होगा, दलित जातियों के बीच ही आपस में विभाजन की रेखाएँ खिंच जायेंगी और इसका पूरा फ़ायदा देश के हुक़्मरान उठायेंगे।

देश में बेतहाशा बढ़ती बेरोज़गारी

भारत में बेरोज़गारी तेजी से बढ़ रही है। भले ही लोगों का विकास नहीं हो रहा हो, पर बेरोज़गारी में लगातार ‘विकास’ देखने को मिल रहा है। करोड़ों मज़दूर और पढ़े-लिखे नौजवान, जो शरीर और मन से दुरुस्त हैं और काम करने के लिए तैयार हैं, उन्हें काम के अवसर से वंचित कर दिया गया है और मरने, भीख माँगने या अपराधी बन जाने के लिए सड़कों पर धकेल दिया गया है। आर्थिक संकट के ग़हराने के साथ हर दिन बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बहुत बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है, जिन्हें बेरोज़गारी के आँकड़ों में गिना ही नहीं जाता लेकिन वास्तव में उनके पास साल में कुछ दिन ही रोज़गार रहता है या फिर कई तरह के छोटे-मोटे काम करके भी वे मुश्किल से जीने लायक कमा पाते हैं। हमारे देश में काम करने वालों की कमी नहीं है, प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, जीवन के हर क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं के विकास और रोज़गार के अवसर पैदा करने की अनन्त सम्भावनाएँ मौजूद हैं, फिर भी आज देश में बेरोज़गारी आसमान छू रही है।

पूँजीवाद आपके बेहतर जीवन के सपने को कैसे बर्बाद कर रहा है!

आप अगर भारत में रहने वाले निचले 90 प्रतिशत लोगो में शामिल हैं, जो मेहनत-मशक्कत कर एक बेहतर ज़िन्दगी का सपना देखते हैं, जिसमें आपका अपना घर हो, अच्छी नौकरी हो, बच्चे अच्छी शिक्षा पा रहे हों, तो आप यह ज़रूर जानते होंगे कि यह सपना पूरा होना आज कितना मुश्किल होता जा रहा है। देश की बहुसंख्यक आबादी की ज़िन्दगी इसी सपने को पूरा करने के प्रयास में ख़त्म हो जाती है।