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राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर हिमालय की तबाही पर सुप्रीम मुहर

सवाल यह है कि आख़िर मोदी सरकार सड़क को चौड़ा करने के लिए इतना तीन तिकड़म क्यों लगा रही है? इस सवाल का जवाब छिपा है सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के उस क़ानून में जिसमें यह कहा गया है कि दस मीटर से कम चौड़ी सड़कों पर कोई टोल टैक्स नहीं वसूला जा सकता। मोदी सरकार ने इस परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव के मूल्यांकन से बचाव के लिए भी एक तिकड़म लगायी है। 900 किलोमीटर की इस चार धाम परियोजना को सौ किलोमीटर से छोटी तिरपन परियोजनाओं में बाँट दिया गया है ताकि पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन की ज़रूरत ही न पड़े। सौ किलोमीटर से बड़ी परियोजनाओं के लिए ही पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन करना ज़रूरी होता है।

200 मेहनतकशों की जान लेने वाली चमोली दुर्घटना सरकार और व्यवस्था की पैदाइश है!

पिछली 7 फ़रवरी की सुबह चमोली ज़िले के ऋषिगंगा हाइड्रो इलेक्ट्रिक पॉवर प्रोजेक्ट पर काम कर रहे मज़दूरों की दिनचर्या सामान्य दिनों की तरह ही शुरू हो गयी थी। क़रीब 30-35 मज़दूर वहाँ काम कर रहे थे। लेकिन काम के एक घण्टे बाद ही सब कुछ बदल गया। वहाँ मशीन पर काम कर रहे एक मज़दूर कुलदीप पटवार को ऊपर पहाड़ से धूल और गर्द का एक बड़ा ग़ुबार नीचे आता हुआ दिखायी दिया।

भारत-अमेरिका रक्षा समझौता देश की सम्प्रभुता और सामरिक आत्मनिर्णय से समझौता है!

निशाना लगाते समय हमें अमेरिकी उपग्रह और उसके सैन्य संचालकों का सहारा लेना होगा और उन्हीं के माध्यम से भारत को एन्क्रिप्टेड डेटा प्राप्त होगा। यानी अगर भारत को किसी पर निशाना लगाना है तो उसके लिए भी अमेरिका की सहमति आवश्यक होगी। कुल मिलाकर भारतीय सैन्य तंत्र का ढाँचा और युद्ध सामग्री अमेरिका की निगरानी में चली जायेगी। और ये बिल्कुल सम्भव है कि अमेरिका भारत के किसी सैन्य निर्णय को आसानी से प्रभावित कर सके। यह किसी भी सूरत में एक सम्प्रभु राष्ट्र के लिए और उसके सामरिक आत्मनिर्णय के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है।

ग़ैर-सरकारी संगठनों का सरकारी तन्त्र

सरकारी योजनाओं में ग़ैर-सरकारी संगठनों की घुसपैठ को समझा जा सकता है। नब्बे के दशक में जब भारत में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ लागू की गयीं, उस समय हमारे देश में एनजीओ की संख्या क़रीब एक लाख थी। आज इन नीतियों ने जब देश की मेहनतकश जनता को तबाह-बर्बाद करने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रख छोड़ी है, इनकी संख्या 32 लाख 97 हज़ार तक पहुँच चुकी है (सीबीआई की तरफ़ से सुप्रीम कोर्ट में दाखि़ल रिपोर्ट)। यानी देश के 15 लाख स्कूलों से दुगने और भारत के अस्पतालों से 250 गुने ज़्यादा!

मेघालय खदान हादसा : क़ातिल सुरंगों में दिखता पूँजीवादी व्यवस्था का अँधेरा

खदान मज़दूरों की औसत उम्र कम हो जाती है। अगर मज़दूर हादसों से बच भी जाते हैं, तो भी खदानों के अन्दर की ज़हरीली गैसें उनके फेफड़ों और शरीर की कोशिकाओं को काफ़ी नुक़सान पहुँचा चुकी होती हैं। सस्ते श्रम और ज़्यादा मुनाफ़े के चक्कर में खदान मालिक और ठेकेदार बच्चों और महिलाओं को बड़े पैमाने पर काम पर रखते हैं। बेहद पिछड़े इलाक़े से आने के कारण इन्हें कोई क़ानूनी सुरक्षा की भी जानकारी नहीं होती है।