भारतीय न्यायपालिका का जर्जर होता चरित्र
किसी भी देश में पूँजीवादी संकट के गहराने के साथ ही जैसे-जैसे पूँजीवादी जनवाद का स्पेस सिकुड़ता चला जाता है, वैसे-वैसे न्यायपालिका की “निष्पक्षता” का नकाब उतरता चला जाता है। बुर्जुआ राज्यसत्ता जब किसी तरह की बोनापार्टिस्ट किस्म की निरंकुश सत्ता, सैनिक तानाशाही या फ़ासीवादी सत्ता का स्वरूप ग्रहण कर लेती है तो न्यायपालिका सीधे-सीधे सरकारों के निर्देशों पर चलती हुई अपनी सापेक्षिक स्वायत्तता को खो देती है और उसका यह चरित्र जनता की नज़रों में भी काफ़ी हद तक साफ़ हो जाता है। लेकिन इस मामले में फ़ासीवादी सत्ता का व्यवहार बुर्जुआ शासन के अन्य किसी भी आपवादिक निरंकुश रूप से भिन्न होता है। फ़ासीवादी शक्तियाँ अत्यन्त व्यवस्थित ढंग से न्यायपालिका के फ़ासीवादीकरण के काम को नीचे से ऊपर तक अंजाम देती हैं और बार एवं बेंच में अपने कुशल सिपहसालारों को घुसाने का काम करती हैं। भारतीय न्यायपालिका में फ़ासीवादी घुसपैठ की बात तो आज तमाम अधिवक्ताओं, विधिवक्ताओं से लेकर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई रिटायर्ड जज तक कर रहे हैं।