राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर हिमालय की तबाही पर सुप्रीम मुहर

अपूर्व मालवीय

आपने क्रान्तिकारी कवि अवतार सिंह पाश की वह कविता तो पढ़ी ही होगी ‘तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है’। इस कविता के एक-एक शब्द और पंक्तियों में तो सच्चाई है ही बल्कि इसमें (पाश से माफ़ी के साथ) कुछ पंक्तियाँ और भी जोड़ी जा सकती हैं, जैसे कि

सुरक्षा के नाम पर

हिमालय और उसके पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की तबाही

और वहाँ की जनता की ज़िन्दगी को ख़तरे में डालना ही अगर देश की सुरक्षा होती है

तो वाक़ई हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है।

आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हो गया कि हिमालय ख़तरे में आ गया! वहाँ की जनता की ज़िन्दगी ख़तरे में आ गयी! दरअसल हिमालय ख़तरे में आया नहीं बल्कि लाया गया है और इसे ख़तरे में डाल रही है मोदी सरकार की वे नीतियाँ जिनसे हिमालय और उसके पूरे पारिस्थितिकी तंत्र का भयंकर नुक़सान होने वाला है। वैसे ये नीतियाँ केवल मोदी सरकार की ही नहीं हैं बल्कि इस मुनाफ़ाख़ोर पूँजीवादी व्यवस्था में कोई भी सरकार इन्हीं नीतियों को ही लागू करेगी, हालाँकि यह काम मोदी सरकार विशेष तेज़ी और वफ़ादारी के साथ कर रही है। आप यह सोच रहे होंगे कि इतना गोल-गोल क्यों घुमाया जा रहा है! हुआ क्या है! चलिए सस्पेंस ख़त्म करके आपको बता ही देते हैं कि हुआ क्या है! 14 दिसम्बर 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार की उस सिफ़ारिश  पर अपनी अनुमति की मोहर लगा दी जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर चार धाम राजमार्ग परियोजना की सड़क की चौड़ाई को साढ़े पाँच मीटर से बढ़ाकर दस मीटर करने की माँग की गयी थी। अब आप सोच रहे होंगे कि इसमें ख़तरे वाली कौन-सी बात है! तो आइए आपको बताते हैं कि मामला क्या है! सबसे पहले चार धाम राजमार्ग परियोजना को समझते हैं।

क्या है चार धाम राजमार्ग परियोजना

दिसम्बर 2016 में उत्तराखण्ड के चार धाम यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ तक ऑल वेदर रोड परियोजना की शुरुआत हुई। इस परियोजना में 900 किलोमीटर की सड़क के साथ 15 पुल, 25 बड़े पुल, 18 यात्री सेवा केन्द्र और 13 बाईपास आदि बनाये जाने हैं। इसी परियोजना का नाम बदलकर चार धाम राजमार्ग परियोजना कर दिया गया। इस परियोजना का उद्देश्य चार धामों को हर मौसम में खुला रखने की थी ताकि कभी भी वहाँ बिना किसी रुकावट के आसानी से जाया जा सके। ‍12 हज़ार करोड़ की इस परियोजना को 2022 में पूरा हो जाना चाहिए था लेकिन सड़क के चौड़ीकरण में पर्यावरण के मानकों की खुली धज्जियाँ उड़ायी जाने लगीं जिसको लेकर कुछ एन.जी.ओ. और पर्यावरणविद पहले एन.जी.टी. (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) और बाद में सु‍प्रीम कोर्ट चले गये।

सुप्रीम कोर्ट ने परियोजना के पर्यावरण पर सम्भावित प्रभावों की जाँच के लिए अगस्त 2018 में एक हाई पावर कमेटी (एच.पी.सी.) का गठन किया। जुलाई 2020 में एच.पी.सी. ने अपनी रिपोर्ट सौंपी और स्वीकार किया कि परियोजना ने पहले ही अवैज्ञानिक और अनियोजित होने के कारण हिमालय की पारिस्थितिकी को नुक़सान पहुँचाया है। पहाड़ की लम्बवत कटौती की वजह से सड़क खिसकने का ख़तरा बहुत बढ़ गया है और 2020 से पहले चार महीनों में सड़क खिसकने की 11 घटनाएँ हुई हैं। यानी लगभग हर हफ़्ते एक घटना। मलबे के ग़लत निबटान के कारण मलबा नदियों में चला जाता है जिससे नदियाँ रुक जाती हैं। निर्माण कार्य में उठने वाली धूल को नीचे बैठाने के लिए पानी छिड़कने के बहुत कम प्रयास हुए हैं। उच्च हिमालयी इलाक़ों में ट्रैफ़िक के कारण बढ़ने वाले प्रदूषण की निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं है।

 इसके साथ ही पिछले दिनों इस परियोजना के अनियोजित कटाव और विस्फोटों के कारण बहुत सारे भूस्खलन ज़ोन बने हैं जिसका ख़ामियाज़ा अभी हाल में हुई मानसूनी बारिश के कारण बाढ़ और भूस्खलन में यहाँ की आम आबादी को अपनी जान और माल की हानि से चुकाना पड़ा है। पहाड़ के कटाव के कारण बहुत सारे प्रा‍कृतिक जलस्रोत बन्द हो गये हैं और वहाँ की ग्रामीण आबादी पानी की क़िल्लत से लगातार जूझ रही है। 

कैसे दिसम्बर 2020 में राष्ट्रीय सुरक्षा ख़तरे में पड़ी

एच.पी.सी. में सड़क की चौड़ाई के सन्दर्भ में सहमति नहीं बन पाने के कारण दो रिपोर्टें सौंपी गयी थीं। एच.पी.सी. के 21 सदस्य सड़क की 12 मीटर चौड़ाई के पक्ष में थे और बहुत ही कम सदस्य सड़क को 5.5 मीटर चौड़ा ही रखना चाहते थे। सितम्बर 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने कम सदस्यों वाली दी गयी सिफ़ारिशों को लागू करते हुए सड़क 5.5 मीटर चौड़ी रखने की ही अनुमति दी। यह अनुमति सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के मार्च 2018 के दिशा-निर्देशों के आधार पर थी। सितम्बर 2020 में ये फ़ैसला आने के बाद दिसम्बर 2020 में सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय ने इन दिशा-निर्देशों में बदलाव कर दिया। इस बदलाव में सड़क की चौड़ाई 10 मीटर कर दी गयी। इसके बाद केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अपने 5.5 मीटर की चौड़ाई वाले फ़ैसले को बदलने की अपील की और सड़क की चौड़ाई 10 मीटर करने की अनुमति माँगी। जिसपर इसका विरोध किया गया।

सड़क को ज़्यादा चौड़ी करने  का मतलब है कि ज़्यादा मात्रा में पेड़ और पहाड़ को काटना, ज़्यादा मलबा और हिमालय में उसके पारिस्थितिकी तंत्र को ज़्यादा नुक़सान होना! और तभी राष्ट्रीय सुरक्षा ख़तरे में पड़ गयी!

सरकार के रक्षा मंत्रालय द्वारा चौड़ी सड़क की माँग का प्रस्ताव आ गया और यह कहा गया कि चार धाम राजमार्ग परियोजना सामरिक रणनीतिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। चीन से मिल रही चुनौती को देखते हुए सेना को अपने सैन्य साजो-सामान, युद्ध उपकरण, टैंक और मिसाइलें आदि ले जाने के लिए ज़्यादा चौड़ी सड़क की ज़रूरत है। अटार्नी जनरल ने कहा कि “अगर भूस्खलन होता है तो सेना उससे निपट लेगी। हम ख़तरे में हैं और जो हम कर सकते हैं हमें करना होगा।” और जब सड़क की चौड़ाई का मामला देश की सेना और रक्षा से जुड़ जाये तो सुप्रीम कोर्ट भला उसपर क्यों रोक लगायेगी! भले ही पर्यावरण का चाहे कितना ही विनाश हो जाये!

आख़िर इतनी तीन तिकड़म क्यों?

मज़ेदार बात तो यह है कि देश की सुरक्षा के नाम पर जिस सड़क को बनाने और चौड़ी करने का प्रस्ताव रक्षा मंत्रालय दे रहा है 2020 के पहले उसी रक्षा मंत्रालय के उच्चाधिकारी सीमा पर सड़क न बनाये जाने के पक्षधर थे और उनका यह कहना था कि बेहतर सड़क होने से चीन को घुसपैठ करने में आसानी हो सकती है। दो साल पहले थल सेनाध्यक्ष विपिन रावत का ही यह बयान आया था कि सड़क की वर्तमान चौड़ाई सेना के आवागमन के लिए पर्याप्त है। आज भारतीय सेना इतनी सक्षम है कि वो भारी से भारी और बड़ी से बड़ी युद्धक सामग्री को हवाई मार्ग से आसानी से ले जा सकती है। वैसे तो चीन-भारत सीमा विवाद का इस्तेमाल भारत की पूँजीवादी सरकारें अपने देश में और चीन की पूँजीवादी-साम्राज्यवादी सरकार अपने देश में जनता के बीच अन्धराष्ट्रवादी लहर भड़काने और अपने क्षेत्रीय विस्तारवादी मंसूबों को पूरा करने के लिए करती रही हैं। वास्तव में, मेहनतकश जनता को ख़तरा मूलतः और मुख्यतः अपने शासक वर्ग से होता है।

ख़ैर, तब सवाल यह है कि आख़िर मोदी सरकार सड़क को चौड़ा करने के लिए इतना तीन तिकड़म क्यों लगा रही है? इस सवाल का जवाब छिपा है सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के उस क़ानून में जिसमें यह कहा गया है कि दस मीटर से कम चौड़ी सड़कों पर कोई टोल टैक्स नहीं वसूला जा सकता। मोदी सरकार ने इस परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव के मूल्यांकन से बचाव के लिए भी एक तिकड़म लगायी है। 900 किलोमीटर की इस चार धाम परियोजना को सौ किलोमीटर से छोटी तिरपन परियोजनाओं में बाँट दिया गया है ताकि पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन की ज़रूरत ही न पड़े। सौ किलोमीटर से बड़ी परियोजनाओं के लिए ही पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन करना ज़रूरी होता है।

अपने मुनाफ़े और कारपोरेट के हित के लिए ये सरकारें पूरे हिमालय को तबाह करने पर तुली हुई हैं। हिमालय जैसे संवेदनशील ईको सेंसिटिव ज़ोन में किसी भी बड़ी परियोजना के ख़तरे को लेकर भूवैज्ञानिक और पर्यावरणविद् लगातार चेतावनी देते रहे हैं। इन परियोजनाओं के कारण अगर भविष्य में कोई बड़ी आपदा आती है तो उसकी सबसे बड़ी क़ीमत आम जनता को ही चुकानी है।

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2022

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments