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विधानसभा चुनाव के बाद हरियाणा में भी “अच्छे दिनों” की शुरुआत

अच्छे दिन यदि किसी के लिए आये हैं तो वह है देश का पूँजीपति वर्ग। जनता से जुड़े मसलों पर कोई ठोस काम किये बिना ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘जन-धन योजना’, ‘आदर्श ग्राम योजना’ आदि जैसी लोकरंजक और हवा-हवाई योजनाओं के साथ-साथ साम्प्रदायिक आधार पर जनता को बाँटने के फ़ार्मूले पर भी ख़ूब काम हो रहा है। सत्ता में आते ही पहले आम बजट में पूँजीपतियों को 5.32 लाख करोड़ की प्रत्यक्ष छूट और कर माफ़ी मिली है। स्वदेशी का नगाड़ा बजाने वाली और ‘प्रत्यक्ष विदेशी निवेश’ (एफ़डीआई) के मुद्दे पर रुदालियों की तरह छाती पीटने वाली भाजपा विदेशी पूँजीपतियों के लिए रेलवे, बीमा और रक्षा जैसे नाजुक क्षेत्रों में 49 से 100 फ़ीसदी तक एफ़डीआई लेकर आयी है। अपनी चुनावी रैलियों में भाजपा के ‘दिग्गज’ 100 दिनों के अन्दर काला धन वापस लाकर देश के हर परिवार को 15 लाख रुपये देने की बात करते नहीं थकते थे, लेकिन अब 150 दिन बाद भी काले धन के मसले पर वही पुराना स्वांग हो रहा है। रेलवे के किराये में 14 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी कर दी गयी। पैट्रोल और डीजल से बड़े ही शातिराने ढंग से सरकारी सब्सिडी हटाकर इन्हें बाज़ार की अन्धी ताक़तों के हवाले कर दिया गया। सितम्बर 2014 में जीवनरक्षक दवाओं को मूल्य नियन्त्रण के दायरे में लाने वाले फ़ैसले पर रोक लगा दी है जिससे इनके दामों में भरी बढ़ोत्तरी हुई है। ‘श्रमेव जयते’ का शिगूफा उछालने वाली भाजपा सरकार मज़दूर आबादी के रहे-सहे श्रम क़ानून छीनने पर आमादा है। 31 जुलाई को फ़ैक्टरी एक्ट 1948, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मज़दूरी क़ानून 1971, एप्रेण्टिस एक्ट 1961 जैसे तमाम श्रम क़ानूनों को “लचीला” बनाने के नाम पर कमजोर करने की कवायद शुरू कर दी है। मतलब अब क़ानूनी तौर पर भी मज़दूरों की लूट पर कोई रोक नहीं होगी। चाहे करनाल का लिबर्टी फ़ैक्टरी का मसला हो, एनसीआर में होने वाले होण्डा, रिको और मारुति सुजुकी मज़दूरों के आन्दोलनों को कुचलने की बात हो कांग्रेस ने मालिकों का पक्ष लिया। हरियाणा की मज़दूर आबादी के हक़-अधिकारों को कुचलने के मामले में भाजपा हर तरह से कांग्रेस से इक्कीस ही पड़ने वाली है। जापान यात्रा में मोदी की मालिक भक्ति जग-ज़ाहिर हो गयी जब जापानी पूँजीपतियों की सेवा में ‘जापानी प्लस’ नाम से एक नया प्रकोष्ठ खोलने का ऐलान हुआ। जापानी प्रबन्धन जिस तरह से मज़दूरों का ख़ून निचोड़ता है इसे ऑटो-मोबाइल उद्योग के मज़दूर भली प्रकार से जानते हैं।

हरियाणा के मज़दूरों के लिए और “अच्छे दिनों” की शुरुआत!

कांग्रेस, भाजपा, इनेलो, बसपा, सपा, माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) समेत सभी चुनावी पार्टियों में इस बात की होड़ है कि पूँजीपतियों की सेवा कौन बेहतर करेगा। मौजूदा मन्दी के दौर में पूँजीपति वर्ग के लिए मज़दूरों पर नंगी तानाशाही लागू करने के मामले में भाजपा ने सभी चुनावी मदारियों को पीछे छोड़ दिया है। भाजपा-शासित राज्यों और विशेषकर गुजरात, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में मज़दूरों-मेहनतकशों पर देशी-विदेशी पूँजीपतियों की नंगी तानाशाही कायम करके भाजपा ने दिखला दिया है कि पूँजीपति वर्ग को संकट से कुछ राहत देने के लिए वह इस समय सबसे उपयुक्त पार्टी है। इसीलिए देश के पूँजीपतियों ने एकजुट होकर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च करके पहले देश में और फिर हरियाणा, महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनवायी है। पूँजीवादी चुनावों में जीतता वही है जिसके पास पूँजीपतियों का समर्थन होता है क्योंकि इन चुनावों में सारा खेल ही बाहुबल, धनबल और मीडिया का होता है।

निर्माण मज़दूर यूनियन, नरवाना ने सम्पन्न की दूसरी आम सभा

पिछली 3 अगस्त को निर्माण मज़दूर यूनियन, नरवाना (हरियाणा) ने अपनी दूसरी आम सभा सम्पन्न की। सभा की अध्यक्षता मज़दूर साथी इन्दर ने की जो यूनियन के अध्यक्ष भी हैं। सभा के दौरान मुख्य रूप से तीन एजेंडों पर बात की गयी। पहली चर्चा यूनियन की ज़रूरत और मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक लक्ष्य पर की गयी। चर्चा के दौरान यह बात तफ़सील से रखी गयी कि यूनियन के तहत हमारा रोज़मर्रा का संघर्ष हमारी ज़िन्दगी के लिए उतना ही ज़रूरी है जितना कि साँस लेना। किन्तु हमें अपने दूरगामी लक्ष्य से अपनी नज़र एक पल के लिए भी नहीं हटानी होगी। यह लक्ष्य है ऐसा समाज बनाना जिसमें उत्पादन पर उत्पादक वर्गों का कब्जा हो और वितरण का अधिकार भी उन्हीं के हाथों में हो।

हरियाणा के नरवाना में निर्माण मज़दूरों ने संघर्ष के दम पर जीती हड़ताल

15 तारीख़ को ही निर्माण मज़दूर यूनियन की तरफ़ से पर्चा छपवा दिया गया और सभी मज़दूरों को एकजुट करके हड़ताल करने का निर्णय लिया गया। उसी दिन यूनियन की 11 सदस्यीय कार्यकारी कमेटी का चुनाव भी कर लिया गया। पहले दिन काम बन्द करवाने को लेकर कई मालिकों के साथ कहा-सुनी और झगड़ा भी हुआ, किन्तु अपनी एकजुटता के बल पर यूनियन ने हर जगह काम बन्द करवा दिया। 16 तारीख़ को यूनियन ने नौभास और बिगुल मज़दूर दस्ता की मदद से पूरे शहर में पर्चा वितरण और हड़ताल का प्रचार किया। मज़दूरों के संघर्ष और जुझारू एकजुटता के सामने 16 तारीख़ को ही दोपहर में मालिकों यानी भवन निर्माण से जुड़ी सामग्री बेचने वाले दुकानदारों ने हाथ खड़े कर दिये। मज़दूरी में किसी सामग्री में 100 तो किसी में 50 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हुई। जैसे पहले सीमेण्ट का एक कट्टा 1.25 से 1.50 रुपये तक में उतारा और लादा जाता था, हड़ताल के बाद इसका रेट न्यूनतम 2.50 रुपये तय हुआ। रेती की ट्राली उतारने और लादने का रेट 60-70 से बढ़कर 130 रुपये न्यूनतम तय हुआ।

भगाना काण्ड: हरियाणा के दलित उत्पीड़न के इतिहास की अगली कड़ी

रोज़-रोज़ प्रचारित किया जाने वाला हरियाणा के मुख्यमन्त्री का ‘नम्बर वन हरियाणा’ का दावा कई मायनों में सच भी है। चाहे मज़दूरों के विभिन्न मामलों को कुचलना, दबाना हो, चाहे राज्य में महिलाओं के साथ आये दिन होने वाली बलात्कार जैसी घटनाओं का मामला हो या फिर दलित उत्पीड़न का मामला हो, इन सभी में हरियाणा सरकार अपने नम्बर वन के दावे पर खरी उतरती है। उत्पीड़न के सभी मामलों में सरकारी अमला जिस काहिली और अकर्मण्यता का परिचय देता है, वह भी अद्वितीय है।

एहरेस्टी के मज़दूरों की एकजुटता तोड़ने के लिए बर्बर लाठीचार्ज

मज़दूरों की एकजुटता को तोड़ने और प्लाण्ट ख़ाली करवाने के लिए कम्पनी ने 31 मई को हरियाणा पुलिस से साँठगाँठ कर मज़दूरों पर बर्बर लाठीचार्ज करवाया, जिसमें 30 से ज़्यादा मज़दूरों को गम्भीर चोटें आयी हैं। इस बर्बर दमन ने साफ़ कर दिया है कि चाहे भाजपा की वसुन्धरा सरकार या कांग्रेस की हुड्डा सरकार, वे तो बस पूँजीपतियों के हितों को सुरक्षित करने का काम कर रहे हैं। 

भगाणा काण्ड: हरियाणा में बढ़ते दलित और स्त्री उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष की एक मिसाल

हरियाणा में पिछले एक दशक में दलित और स्त्री उत्पीड़न की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है। गोहाना, मिर्चपुर, झज्जर की घटनाओं के बाद पिछले 25 मार्च को हिसार जिले के भगाणा गाँव की चार दलित लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार की दिल दहला देने वाली घटना घटी। इस घृणित कुकृत्य में गाँव के सरपंच के रिश्तेदार और दबंग जाट समुदाय के लोग शामिल हैं। यह घटना उन दलित परिवारों के साथ घटी है जिन्होंने इन दबंग जाटों द्वारा सामाजिक बहिष्कार की घोषणा किये जाने के बावजूद गाँव नहीं छोड़ा था, जबकि वहीं के अन्य दलित परिवार इस बहिष्कार की वजह से पिछले दो साल से गाँव के बाहर रहने पर मजबूर हैं।