भारत-कनाडा कूटनीतिक विवाद तथा भारतीय शासक वर्ग की राजनीतिक स्वतंत्रता का प्रश्न

सनी

पिछले साल कनाडा ने भारत की सुरक्षा एजेंसियों पर कनाडा की ज़मीन पर राजनीतिक हत्याओं को अंजाम देने का आरोप लगाया था। इस मसले पर कनाडा के प्रधानमन्त्री ट्रूडो ने भारत सरकार को खरी-खोटी सुनाई जिसपर भारत ने भी जवाबी कार्यवाही करते हुए कनाडा के राजनायिकों की इम्यूनिटी भंग कर दी तथा कनाडा के अरोपों को बेबुनियाद बताया। यह मसला अभी दबा भी नहीं था कि अमेरिका ने भी भारत के अंडरकवर एजेण्ट द्वारा एक अमेरिकी नागरिक की हत्या करवाने के प्रयास का आरोप लगाया। भारत ने इस बार भी इसे निराधार बताया और इसे एक व्यक्ति की स्वतंत्र तौर पर की गयी हरकत बताया। एफबीआई चीफ ने इस घटना के बाद भारत का दौरा भी किया। भारत ने अमेरिका के ज़ोर देने के बाद भी कनाडा के प्रति अपनी तल्ख ज़ुबान बरकरार रखी है और यह साफ़ किया है कि वह किसी भी देश के दबाव में आकर अपनी विदेश नीति नहीं तय करता है। इस दौरान ही भारत ने अमेरिका के लठैत इजरायल के नरसंहार के ख़िलाफ़ भी यूएन में वोट किया। यह भारत के शासक वर्ग की राजनीतिक स्वतंत्रता की ही झलक है और साथ ही यह कनाडा विवाद भारतीय शासक वर्ग की राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को दिखाता है। भारत भूटान, नेपाल सरीखे देशों के प्रति खुद एक साम्राज्यवादी शक्ति की तरह व्यवहार करता है तो वहीं यह विश्व साम्राज्यवाद में अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों का ‘जूनियर पार्टनर’ है। कनाडा में भारतीय सुरक्षा एजेंसियों ने वही कारनामे अंजाम देने चाहे जो यह बलूचिस्तान, नेपाल और अन्य देशों में बिना ऐसे कूटनीतिक विवाद के अंजाम देता आया है। अपने राजनीतिक शत्रुओं का सफ़ाया अमेरिका, चीन और रूस जैसे देश विदेशी ज़मीन पर अपनी धौंस पट्टी के दम पर से करते आये हैं लेकिन भारत के शासक वर्ग द्वारा बड़ी सामरिक शक्तियों की ज़मीन पर यह कदम उठाना मौजूदा विश्व परिस्थिति में उसकी राजनीतिक महत्वकाक्षाओं को ही दिखाता है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण तौर पर यह भारतीय शासक वर्ग की राजनीतिक स्वतंत्रता को दिखलाता है और यह दिखलाता है कि भारत का पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद का दलाल नहीं है, जैसा कि लकीर की फ़कीरी करने वाले भारत के कई कठमुल्ला कम्युनिस्टों को लगता है।

इसके साथ ही भारत की विदेश नीति पर एक बार आम तौर पर नज़र मार लेना बेहतर होगा। यह चर्चा भारतीय शासक वर्ग के चरित्र पर सही समझ बनाने के लिए ज़रूरी है क्योंकि बहुतेरे क्रांतिकारी संगठन, समूह और कई स्वतंत्र बुद्धिजीवी भारतीय शासक वर्ग को साम्राज्यवादी पूँजी का दलाल बताते हैं। इनके विश्लेषण के अनुसार भारत का शासक वर्ग दलाल है और भारत के मज़दूर वर्ग का पहला कार्यभार राजनीतिक स्वतंत्रता का बन जाता है। यह विश्लेषण मज़दूर वर्ग की रणनीति और आम रणकौशल को ग़लत रुख दे देता है। इसके अनुसार, भारत के मज़दूर वर्ग को भारत के ‘राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग’ से मोर्चा बना लेना चाहिए, जिसमें तमाम छोटे कारखानेदार, धनी कुलक व फार्मर आदि आते हैं! हम मज़दूर अपने अनुभवों से जानते हैं कि यह कैसी मूर्खतापूर्ण बात है। लेकिन हमें सैद्धान्तिक तौर पर भी समझना चाहिए कि भारत का पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद का दलाल नहीं है।

भारत के पूँजीपति वर्ग का मुख्यतः चरित्र औद्योगिक वित्तीय है और मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का ‘ क ख ग’ भी जानने वाला यह जानता है कि यह  वर्ग दलाल नहीं हो सकता है क्योंकि उसे बाज़ार की ज़रूरत होती है जबकि मुख्यत: व्यापारिक- नौकरशाह पूँजीपति वर्ग दलाल हो सकता है, क्योंकि उसे इससे मतलब नहीं है कि वह देशी पूँजीपति का माल बाज़ार में बेचतकर वाणिज्यिक मुनाफ़ा हासिल कर रहा है, या विदेशी पूँजीपति का माल बेचकर। लेकिन भारत के पूँजीपति वर्ग का चरित्र मुख्यत: वाणिज्यिक-नौकरशाह पूँजीपति वर्ग का नहीं है। यह, मुख्यत: और मूलत:, एक वित्तीय-औद्योगिक पूँजीपति वर्ग है।

इस प्रश्न पर लकीर की फ़कीरी दिखाने वाले तमाम लोग असल में भारतीय शासक वर्ग की राजनीतिक स्वतंत्रता के ठोस तथ्यों से आँख मूँदकर भारतीय शासक वर्ग को दलाल बताते हैं। परन्तु हम एक बार फिर ऐसे लोगों की आँखों में चुभने वाले उन तथ्यों को यहाँ रख रहे हैं।

आज़ादी के बाद ही सुएज़ नहर प्रोजेक्ट पर भारतीय शासक वर्ग ने साम्राजवादी शक्तियों के विरोध का निर्णय लिया था और मिस्र की नासर की राष्ट्रीय बुर्जुआ सत्ता द्वारा सुएज़ नहर के राष्ट्रीकरण का साथ दिया था। शीत युद्ध के दौरान गुट निरपेक्ष आंदोलन में भागीदारी से भारतीय शासक वर्ग ने अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता पर बल दिया। सोवियत-एशिया मैत्री संघ में जुड़ने से इंकार कर उसने सोवियत साम्राज्यवादी धुरी से भी समान राजनीतिक दूरी बनाये रखी। भारत-चीन युद्ध में अमेरिका द्वारा मदद के बदले वॉइस ऑफ अमरिका का दफ़्तर खोलने की शर्त को ठुकरा कर भारतीय शासक वर्ग ने यह पुनः जतला दिया था। लम्बे समय से पर्यावरण के लिए क्योटो से लेकर कोपेनहेगन तथा रियो सम्मेलनों में अमेरीका व अन्य विकसित देशों द्वारा भारत से पिछड़ी तकनोलॉजी के चलते होने वाले कार्बन उत्सर्जन को सीमाबद्ध करने की माँग की जा रही थी। साम्राज्यवादी देशों के द्वारा भारत और अन्य पिछड़े पूँजीवादी देशों पर ‘पर्यावरण बचाने का बोझ’ डालने के इस प्रयास पर भारतीय शासक वर्ग ने इनकी एक न मानी। आर्थिक तौर पर देखें तो निश्चित ही आज़ादी के पहले भारतीय पूँजीपति वर्ग विदेशी निवेश पर आंशिक तौर पर निर्भर रहा था। लेकिन अपने जन्म के शुरुआती कुछ वर्षों को छोड़कर, यह कभी भी पूर्णत: वाणिज्यिक पूँजीपति नहीं रहा था। आज़ादी के बाद तो कुल पूँजी निवेश में विदेशी पूँजी का हिस्सा दस प्रतिशत (कुल कैपिटल स्टॉक के प्रतिशत में) से घटकर दो प्रतिशत रह गया। आज़ादी के बाद से बजट घाटा, आयात प्रतिस्थापन और संरक्षणवाद की नीति भारतीय शासक वर्ग ने अपनायी। इस दौरान निजी पूँजीपति वर्ग को पूँजी संचय करने दिया गया, साम्राज्यवादी पूँजी से प्रतिस्पर्धा से संरक्षण दिया गया और अवरचनागत ढाँचे को राज्य ने सम्भाल लिया। इस तरह विदेशी पूँजी पर आंशिक आर्थिक निर्भरता के बावजूद भारतीय शासक  पूँजीपति वर्ग ने अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता बरकरार रखी और हमेशा साम्राज्यवाद के आन्तरिक अन्तरविरोधों का लाभ उठाकर साम्राज्यवादी देशों से मोलभाव किया। नेहरू के “समाजवाद” की यही हक़ीक़त थी। 90 के दशक में जब भारतीय पूँजीपति वर्ग का पब्लिक सेक्टर ढाँचे में मुनाफ़ा संकुचित होने लगा और जब यह अपने पैरों पर खड़ा हो गया तथा विदेशी पूँजी से प्रतिस्पर्धा में सक्षम हो चुका था तो पब्लिक सेक्टर का ढाँचा त्याग दिया गया।

भारतीय वर्ल्ड बैंक, आई एम एफ से यानी अमेरीकी साम्राज्यवादी धुरी से वित्तीय मदद लेता रहा है जिसमें उसे इन वित्तीय संस्थाओं की कुछ शर्तों को भी स्वीकार करना पड़ता है। अमेरिका के साथ कई व्यापारिक और सामरिक सौदे भारत ने किये हैं। अमेरिका के साथ भारत क्वाड और आईटूयूटू का भी हिस्सा है जिसमें इज़रायल, यूनाईटेड अरब एमिरेट्स और अमेरिका शामिल हैं।

लेकिन साथ ही, अमेरिका के विरोध को धता बताते हुए भारत ने रूस से सामरिक और तेल के लिए व्यापार मजबूत किया है। रूस के एस-400 मिसाईल सिस्टम लेने पर अमेरिका ने काफी विरोध किया परन्तु भारत इसपर अडिग रहा। वहीं भारत आर्मेनिया को हथियार बेच रहा है जो रूस की सम्राज्यवादी नीति के अनुरूप नहीं है।वैसे तो चीन को “लाल आँख दिखाने” में भले ही मोदी सरकार असफल रही हो परन्तु चीन की बेल्ट रोड इनिशियेटिव का चीन के ज़ोर देने पर भी हिस्सा नहीं बनी और दक्षिण चीन सागर में चीन के विरोधियों के साथ ‘क्वाड’ की सामरिक कवायदों में शामिल हुई। लेकिन दूसरी तरफ़ भारत चीन के साथ ब्रिक्स में शामिल है और भारत में चीनी पूँजी के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र भी बनाये जा रहे हैं। भारत चीन के नेतृत्व में बने शंघाई कोऑपरेशन ओर्गनाईज़ेशन का सदस्य भी है। 

इन तथ्यों से यह उजागर हो जाता है कि भारतीय शासक वर्ग ने आज़ादी के बाद से ही साम्राज्यवादी शक्तियों के अलग धड़ों के साथ रिश्तों को चलाने के मामले पतली रस्सी पर चलते हुए नट की तरह संतुलन बनाये रखा है। ये संबंध भारत के शासक वर्ग की राजनीतिक स्वतंत्रता को ही पुष्ट करते हैं। आज के दौर में भी, भारतीय शासक वर्ग किसी भी एक साम्राज्यवादी धुरी के साथ सम्बद्ध नहीं है बल्कि अमरीकी धुरी और रूस-चीन धुरी के साथ संतुलित दूरी बनाकर अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता कायम रखता है। किसी दौर में यह एक धुरी के पक्ष में अधिक झुकाव रखता हुआ प्रतीत हो सकता है परन्तु लम्बी दूरी में यह अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता निरन्तर बनाये रखता है। भारतीय शासक वर्ग साम्राज्यवादी धड़ों के बीच अन्तरविरोध का फ़ायदा उठाकर ही अपने लिए रियायतें हासिल करता है। एक तरफ़ यह रूस- चीन धुरी तथा अमेरीकी धुरी पर वित्तीय तथा तकनोलॉजिकल मदद के लिए निर्भर है तो दूसरी तरफ़ यह अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता बनाये रखते हुए इन देशों की उन नीतियों का विरोध करता है जो इसके हितों के विरुद्ध होती हैं और इस मामले में यह साम्राज्यवादी शक्तियों की चेतावनियों के बावजूद अपनी नीति ही लागू करता है। निश्चित ही कुछ मसलों में इसे साम्राज्यवादी शक्तियों के आगे झुकना पड़ता है और उनकी शर्तें स्वीकार करनी पड़ती हैं परन्तु यह भारतीय शासक वर्ग के साम्राज्यवाद के कनिष्ठ सहयोगी होने को ही पुष्ट करती हैं और हर ऐसी शर्त को मानने पर भारतीय शासक वर्ग लेन-देन के समझौतों के तहत कुछ हासिल भी करता है।

 भारत-कनाडा विवाद भी भारत के शासक वर्ग के उपरोक्त चरित्र को ही स्पष्ट करती है और भारत के शासक वर्ग को साम्राज्यवाद का दलाल बताने वाले लोगों के बौद्धिक दिवालियेपन पर मोहर भी लगाती है।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2024


 

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