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टेक्स्टाइल उद्योग में हड़ताल और बोल्शेविकों का काम (ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम-1)

21 जनवरी को, कार्डिंग विभाग के तीस मज़दूरों को बिना कोई नोटिस दिये यह कह दिया गया कि आज से उनकी मज़दूरी 10 कोपेक प्रतिदिन कम कर दी गयी है। अगली सुबह इस विभाग के मज़दूरों ने मज़दूरी की पुरानी दर बहाल करने के लिए हड़ताल की घोषणा कर दी। मैनेजमेंट यही तो चाहता था। उस रात जब नयी शिफ़्ट के लोग काम पर आये, तो भाप की मशीनें रोक दी गयीं, बत्तियाँ बुझा दी गयीं, और आने वाले मज़दूरों से कह दिया गया कि फ़ैक्ट्री में अनिश्चित काल तक काम बन्द रहेगा और सभी मज़दूरों का हिसाब कर दिया जायेगा। ज़ाहिर था कि मालिकान भड़कावे की कार्रवाई कर रहे हैं। तीस मज़दूरों की माँगें पूरी करने में उन्हें सिर्फ़ 3 रूबल प्रतिदिन ख़र्च करना पड़ता, लेकिन इसकी वजह से 1200 मज़दूर, जो हड़ताल में शामिल भी नहीं थे, बेरोज़गारी और भुखमरी की ओर धकेले जा रहे थे।

मुनाफ़े की अन्धी हवस में हादसों में मरते मजदूर

हर साल विश्व में कोयला खान हादसों में 20,000 से ज्यादा मज़दूरों की मौत होती है और इसमें बड़ा हिस्सा चीन के भीतर होने वाले हादसों का होता है। भारत में भी अक्सर कोयला खदानों में होने वाली दुर्घटनाओं में मज़दूरों की मौत होती रहती है। लगातार ऐसे हादसों का घटित होना इस पूरी मुनाफे पर टिकी हुई व्यवस्था का ही परिणाम है जिसमें मुनाफ़े के आगे इंसान की जान की कोई क़ीमत नहीं है। हादसों के बाद प्रशासन और सरकारों की ओर से सुरक्षा को लेकर कुछ दिखावटी फैसले किये जाते हैं लेकिन कुछ ही समय बाद मुनाफे के आगे ऐसे फैसलों की असल औकात दिख जाती है और काम फिर से पहले की तरह चलता रहता है। मुनाफे पर टिकी हुई इस पूरी व्यवस्था को उखाड़ कर ही ऐसे हादसों की संभावना को बेहद कम किया जा सकता है।

अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का अखाड़ा बना सीरिया

2016 में डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्‍ट्रपति पद की प्रमुख उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन पार्टी के ज़्यादातर नेता सीरिया के ऊपर “उड़ान प्रतिबंधित क्षेत्र” बनाने की तजवीज कर रहे हैं। लेकिन अमेरिकी सरकार के ज़्यादा सूझबूझ वाले राजनीतिज्ञ समझते हैं कि ऐसा करना ख़ुद अमेरिका के लिए घातक होगा क्योंकि “उड़ान प्रतिबंधित क्षेत्र” बनाने का मतलब होगा उन रूसी जहाज़ों को भी निशाना बनाना जो इस समय सीरिया में तैनात हैं, यानी रूस के साथ सीधे युद्ध में उलझना। लेकिन इस समय अमेरिका यह नहीं चाहता। फ़िलहाल वह सीरिया के तथाकथित ‘सेकुलर’ बागियों को मदद पहुँचाने तक ही सीमित रहना चाहता है। आर्थिक संकट की वजह से अमेरिका की राजनीतिक ताकत पर भी असर पड़ा है। इसलिए भी वह रूस के साथ सीधी टक्कर फ़िलहाल नहीं चाहता। अमेरिका की गिरती राजनीतिक ताकत का प्रत्यक्ष संकेत सयुंक्त राष्ट्र संघ की महासभा में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भाषण था। ओबामा ने अपने पहले भाषण में रूस की ओर से आई.एस.आई.एस के अलावा तथाकथित “सेकुलर” बागियों को भी मारने के लिए उसकी ज़ोरदार निंदा की। पुतिन ने भी जब अपनी बारी में सीरिया मामले पर अमेरिका की नीति की आलोचना की तो ओबामा ने अपने दूसरे भाषण में रुख बदलते हुए रूस के साथ बातचीत के लिए तैयार होने की बात कही। ओबामा ने कहा कि सीरिया के साथ किसी भी समझौते की शर्त राष्‍ट्रपति बशर अल-असद का अपने पद से हटना है लेकिन वह तब तक राष्‍ट्रपति बना रह सकता है जब तक कि इस मसले का कोई समाधान नहीं निकल आता। साथ ही ओबामा ने यह भी कहा कि नयी बनने वाली सरकार में मौजूदा बाथ पार्टी के नुमाइंदे भी शामिल हो सकते हैं। सीरिया से किसी भी तरह का समझौता नहीं करने की पोजीशन से लेकर अब उसके नुमाइंदों को नयी सरकार में मौका देने की बात करना साफ़ तौर पर अमेरिका की गिरती साख को दर्शा रहा है।

रूस के मज़दूरों की महान अक्टूबर क्रान्ति की 98वीं वर्षगाँठ पर जारी पर्चा

 आज इक्कीसवीं सदी में हम भारत के मज़दूरों को अपने देश में पूँजीपति वर्ग के शासन को नेस्तनाबूद करना है, यहाँ मज़दूरों का समाजवादी राज्य कायम करना है। यह तभी सम्भव है जब हम अपने इतिहास को जानेंगे, उससे जरूरी सबक निकालेंगे और लागू करेंगे। रूस की मज़दूर क्रान्ति के बारे में, इसकी उपलब्धियों के बारे में पूँजीपतियों के टी.वी. चैनल, उनकी किताबें, उनके अखबार, उनके कल्मघसीट लेखक कभी नहीं बताएँगे। क्योंकि वो डरते हैं मज़दूर वर्ग से, उसके महान इतिहास से, मज़दूर क्रान्तियों से। आईए, जानें क्या कैसे हूई मज़दूरों की रूसी क्रान्ति, क्या थी इसकी उपलब्धियाँ, और आज हमारे लिए उसके क्या मायने हैं, सबक हैं?

समाजवादी रूस और चीन ने नशाख़ोरी का उन्मूलन कैसे किया

सोवियत सरकार ने अब तक शराबख़ोरी के खि़लाफ़ चली लहरों की मौजूदा रिपोर्टों और जानकारियों का अध्ययन किया। इन तथ्यों की छानबीन के बाद सोवियत अधिकारियों ने शराबख़ोरी की समस्या की जाँच-पड़ताल का काम नये सिरे से अपने हाथ में लिया। इस जाँच-पड़ताल के दौरान यह सामने आया कि रूस में शराबख़ोरी की समस्या सामाजिक और आर्थिक समस्या के साथ जुड़ी हुई है। लोग शराब की तरफ़ उस समय दौड़ते हैं जब वे अपने आपको ग़रीबी, भुखमरी, बेकारी जैसी समस्याओं से घिरा हुआ देखते हैं। उनको अपने दुख-तकलीप़फ़ों को भूलने का एक ही हल नज़र आता था – शराब। दूसरा इसको प्रोत्साहन इसलिए दिया जाता था कि सरकार इससे टैक्सों के द्वारा भारी लाभ कमा सके। ज़ार सरकार की कुल आमदनी का चौथा हिस्सा शराब से आता था।

स्तालिन कालीन सोवियत संघ के इतिहास के कुछ तथ्य और नये खुलासों पर एक नज़र

पूरी दुनिया में आज तक आधुनिक संशोधनवादी, त्रत्स्की-पन्थी व अराजकतावादी ख्रुश्चेव द्वारा तैयार किये गये “स्‍तलिन की ग़लतियों” के पर्दे की आड़ लेकर सर्वहारा वर्ग के साथ अपनी ग़द्दारी को छुपाने का काम कर रहे हैं। सर्वहारा वर्ग के प्रति ख्रुश्चेव की इस ग़द्दारी के झण्डे को उठाकर पूरी दुनिया के साम्राज्यवादी-पूँजीवादी आज तक कम्युनिस्ट आन्दोलनों को बदनाम करने और पूँजीवादी समाज में दमन-उत्पीड़न से जूझ रही मेहनतकश जनता के बीच समाजवाद के प्रति सन्देह पैदा करने के लिए हरसम्भव कोशिश में लगे हैं, ताकि आने वाले समय में कम्युनिस्ट आन्दोलनों को दिग्भ्रमित किया जा सके और व्यापक मेहनतकश जनता की लूटमार और शोषण पर खड़े अपने स्वर्ग के टापू को उजड़ने से बचाया जा सके। लेकिन यह झण्डा इतिहास के तथ्यों की मार से लगातार चिथड़ा होता जा रहा है और दुनिया की जनता के दिलों से स्तालिन को मिटाने की उनकी हर कोशिश नाकाम रही है।

आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष को दिशा देने वाली ‘महान बहस’ के 50 वर्ष

1953 में स्तालिन की मृत्यु के बाद 1956 में आधुनिक संशोधनवादियों ने सोवियत संघ में पार्टी और राज्य पर कब्ज़ा कर लिया और ख्रुश्चेव ने स्तालिन की “ग़लतियों” के बहाने मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी उसूलों पर ही हमला शुरू कर दिया। उसने “शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता और शान्तिपूर्ण संक्रमण” के सिद्धान्त पेश करके मार्क्सवाद से उसकी आत्मा को यानी वर्ग संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व को ही निकाल देने की कोशिश की। मार्क्सवाद पर इस हमले के ख़ि‍लाफ़ छेड़ी गयी “महान बहस” के दौरान माओ ने तथा चीन और अल्बानिया की कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद की हिफ़ाज़त की। दुनिया के पहले समाजवादी देश में पूँजीवादी पुनर्स्थापना की शुरुआत दुनियाभर के सर्वहारा आन्दोलन के लिए एक भारी धक्का थी, लेकिन महान बहस, चीन में जारी समाजवादी प्रयोगों और चीनी पार्टी के इर्द-गिर्द दुनियाभर के सच्चे कम्युनिस्टों के गोलबन्द होने पर विश्व मजदूर आन्दोलन की आशाएँ टि‍की हुई थीं।

स्तालिन: पहले समाजवादी राज्य के निर्माता

मज़दूर वर्ग के पहले राज्य सोवियत संघ की बुनियाद रखी थी महान लेनिन ने, और पूरी पूँजीवादी दुनिया के प्रत्यक्ष और खुफ़ि‍या हमलों, साज़िशों, घेरेबन्दी और फ़ासिस्टों के हमले को नाकाम करते हुए पहले समाजवादी राज्य का निर्माण करने वाले थे जोसेफ़ स्तालिन। स्तालिन शब्द का मतलब होता है इस्पात का इन्सान – और स्तालिन सचमुच एक फ़ौलादी इन्सान थे। मेहनतकशों के पहले राज्य को नेस्तनाबूद कर देने की पूँजीवादी लुटेरों की हर कोशिश को धूल चटाते हुए स्तालिन ने एक फ़ौलादी दीवार की तरह उसकी रक्षा की, उसे विकसित किया और उसे दुनिया के सबसे समृद्ध और ताक़तवर समाजों की कतार में ला खड़ा किया। उन्होंने साबित कर दिखाया कि मेहनतकश जनता अपने बलबूते पर एक नया समाज बना सकती है और विकास के ऐसे कीर्तिमान रच सकती है जिन्हें देखकर पूरी दुनिया दाँतों तले उँगली दबा ले। उनके प्रेरक नेतृत्व और कुशल सेनापतित्व में सोवियत जनता ने हिटलर की फ़ासिस्ट फ़ौजों को मटियामेट करके दुनिया को फ़ासीवाद के कहर से बचाया। यही वजह है कि दुनिया भर के पूँजीवादी स्तालिन से जी-जान से नफ़रत करते हैं और उन्हें बदनाम करने और उन पर लांछन लगाने तथा कीचड़ उछालने का कोई मौका नहीं छोड़ते। सर्वहारा वर्ग के इस महान शिक्षक और नेता के निधन के 56 वर्ष बाद भी मानो उन्हें स्तालिन का हौवा सताता रहता है। वे आज भी स्तालिन से डरते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि रूस की और दुनिया भर की मेहनतकश जनता के दिलों में स्तालिन आज भी ज़िन्दा हैं।

इक्कीसवीं सदी की सच्चाइयाँ और अक्टूबर क्रान्ति की प्रेरणाएँ एवं शिक्षाएँ

अक्टूबर क्रान्ति की मशालें अभी बुझी नहीं है। श्रमजीवी शक्तियाँ धरती के विस्तीर्ण-सुदूर भूभागों में बिखर गयी हैं। उनकी हिरावल टुकड़ियाँ तैयार नहीं हैं, पूँजी के दुर्ग पर नये आक्रमण की रणनीति पर एकमत नहीं है। पूँजी का दुर्ग नीम अँधेरे में आतंककारी रूप में शक्तिशाली भले दिख रहा हो, उसकी प्राचीरों में दरारें पड़ रही हैं, बुर्ज कमजोर हो गये हैं, द्वारों पर दीमक लग रहे है और दुर्ग-निवासी अभिजनों के बीच लगातार तनाव-विवाद गहराते जा रहे हैं। बीसवीं शताब्दी समाजवादी क्रान्तियों के पहले प्रयोगों की और राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों के (आमूलगामी ढंग से या क्रमिक उद्विकास की प्रक्रिया से) पूरी होने की शताब्दी थी। इक्कीसवीं शताब्दी पूँजी और श्रम के बीच आमने-सामने के टकराव की, और निर्णायक टकराव की, शताब्दी है। विकल्प दो ही हैं – या तो श्रम की शक्तियों की, यानी समाजवाद की, निर्णायक विजय, या फिर बर्बरता और विनाश। पृथ्वी पर यदि पूँजी का वर्चस्व क़ायम रहा तो लोभ-लाभ की अन्धी हवस में राजा मीडास के वंशज इंसानों के साथ ही प्रकृति को भी उस हद तक निचोड़ और तबाह कर डालेंगे कि पृथ्वी का पर्यावरण मनुष्य के जीने लायक़ ही नहीं रह जायेगा। इतिहास की लम्बी यात्रा ने मानव जाति की चेतना का जो स्तर दिया है, उसे देखते हुए यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि समय रहते वह चेत जायेगी और जो सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था भौतिक सम्पदा के साथ-साथ बहुसंख्यक जनों के लिए रौरव नर्क का जीवन, सांस्कृतिक-आत्मिक रिक्तता-रुग्णता और प्रकृति के भीषण विनाश का परिदृश्य रच रही है, उसे नष्ट करके एक न्यायपूर्ण, मानवीय, सृजनशील तथा प्रकृति और मनुष्य के बीच के द्वन्द्व को सही ढंग से हल करने वाली सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ेगी। इसके लिए सामाजिक परिवर्तन के विज्ञान की रोशनी में आज के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक जीवन के हर पहलू को समझने वाली, सर्वहारा क्रान्ति के मित्र और शत्रु वर्गों को पहचानने वाली तथा उस आधार पर क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल विकसित करने वाली सर्वहारा वर्ग की पार्टी का पुनर्निर्माण एवं पुनर्गठन पहली शर्त है। इसके बिना पूरी व्यवस्था के उस ‘कण्ट्रोलिंग, कमाण्डिंग ऐण्ड रेग्यूलेटिंग टॉवर” को, जिसे राज्यसत्ता कहते हैं, धराशायी किया ही नहीं जा सकता। अक्टूबर क्रान्ति के दूसरे संस्करण की तैयारी की प्रक्रिया की एकमात्र यही आम दिशा हो सकती है।

बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल! अक्टूबर की तूफ़ानी हवाओं को फिर ललकारो!!

आज से करीब 120 साल पहले रूस में क्रान्ति के बीज क्रान्तिकालीन यूरोप से पड़े। क्रान्ति का तूफान यूरोप से गुजरता हुआ रूस तक पहुँच गया। इस समय रूसी समाज बेहद पिछड़ा था। रूस का राजा जार सबसे बडा ज़मींदार था। रूस में बहुसंख्यक मेहनतकश किसान आबादी भुखमरी, कुपोषण और बीमारियों से ग्रस्त थी। ज़ार और उसकी विराट राजशाही किसानों को जमकर लूटती थी। रूस के मुख्य शहरों में ओद्योगीकरण हो रहा था। फैक्टरियाँ भी मज़दूरो के लिए नरक थीं और रूसी पूँजीपति मज़दूरो को मन-मर्जी पर खटाते थे। परन्तु जहाँ दमन-उत्पीड़न होता है वहीं विद्रोह पैदा होता है! मज़दूरों ने अपने सामूहिक हथियार हड़ताल का जमकर प्रयोग करना शुरू किया। क्रान्तिकारी नेता लेनिन के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने फैक्टरियों की हालत पर पर्चे, हड़ताल के पर्चे और ट्रेड यूनियन संघर्ष चलाया व मज़दूर अध्ययन मण्डल संगठित किये। लेनिन और अन्य क्रान्तिकारियों ने मिलकर मज़दूर अखबार ‘इस्क्रा’ (चिंगारी) निकालना शुरू किया जिसने पूरे मज़दूर आन्दोलन को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। इसी अखबार ने मज़दूर वर्ग की इस्पाती बोल्शेविक पार्टी की नींव रखी। बोल्शेविक पार्टी ने मज़दूर अखबार प्राव्दा (सत्य) भी निकाला। संघर्षों में लगातार डटे रहने के कारण मज़दूर और गरीब किसान बोल्शेविकों के साथ जुड़ते चले गए। राजनीतिक हड़तालों, प्रदर्शनों ने जो कि सीधे बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में चल रहे थे जार सरकार की चूलें हिला दी। औद्योगिक मज़दूरों की यूनियनों, गाँवों और शहरों में खड़े जन-दुर्ग, क्रान्तिकारी पंचायतें (सोवियतें) मिलकर जार की पुलिस और शासन का सामना कर रहे थे। पहला विश्व युद्ध छिड़ने पर बोल्शेविकों ने सैनिको के बीच इस साम्राज्यवादी युद्ध के खिलापफ़ जमकर पर्चे बांटे और रोटी, ज़मीन और शान्ति के नारे के साथ समस्त रूस को एकताबद्ध किया। आखिरकार फरवरी, 1917 में ज़ार का तख्ता पलट दिया गया पर उसकी जगह सत्ता पर पूँजीपतियों के प्रतिनिधि और मज़दूर वर्ग के गद्दार मेन्शेविक पार्टी के नेता बैठ गये। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पंचायतों ने बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में एकजुट होकर 7 नवम्बर (25 अक्टूबर) 1917 को पूँजीपतियों की सरकार का भी तख्ता पलट दिया। पेत्रेग्राद शहर में युद्धपोत अव्रोरा के तोप की गड़गड़ाहट ने इतिहास की पहली सचेतन सर्वहारा क्रान्ति कि घोषणा की! तोप के निशाने और मज़दुरों की बगावत के सामने राजा के महल में छिपे पूँजीपतियो की सरकार के नेता घुटने टेक चुके थे। मज़दूर वर्ग के नारों की हुँकार पूरी दुनिया में गूंज उठी। पूँजीपतियो के ‘‘स्वर्ग पर धावा’’ बोला गया और उसे जीत लिया गया। मज़दूर वर्ग ने इतिहास की करवट बदल दी। रूस में मज़दूर वर्ग की जीत दुनिया भर के शोषितों की जीत थी और शासको-लुटेरों की हार।