Category Archives: भारतीय संविधान

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (इक्कीसवीं किश्त)

इन धन्नासेठों और अपराधियों की तू-तू-मैं-मैं और नूराकुश्ती के लिए संसद के सत्र के दौरान प्रतिदिन करोड़ो रुपये खर्च होते हैं जो देश की जनता के खून-पसीने की कमाई से ही सम्भव होता है। उसमें भी सत्र के ज़्यादातर दिन तो किसी न किसी मुद्दे को लेकर संसद में कार्यस्थगन हो जाता है और फिर जनता के लुटेरों को अय्याशी के लिए और वक़्त मिल जाता है। आम जनता की ज़िन्दगी से कोसों दूर ये लुटेरे आलीशान बंगलों में रहते हैं, सरकारी ख़र्च से हवाई जहाज और महँगी गाड़ियों से सफर करते हैं और विदेशों और हिल स्टेशनों पर छुट्टियाँ मनाते हैं। एक ऐसे देश में जहाँ बहुसंख्यक जनता को दस-दस बारह-बारह घण्टे खटने के बाद भी दो जून की रोटी के लाले पड़े रहते हैं, जनता के तथाकथित प्रतिनिधियों की विलासिता भरी ज़िन्दगी अपने आप में लोकतन्त्र के लम्बे-चौड़े दावों को एक भद्दा मज़ाक बना देती है।

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है ? (बीसवीं किस्त)

उत्तर-पूर्व के समान ही जम्मू एवं कश्मीर की जनता के साथ भारतीय राज्य अपने जन्म से ही छल और कपट करता आया है जिसका दुष्परिणाम वहाँ की जनता को आज तक झेलना पड़ रहा है। भारत का खाता-पीता मध्य वर्ग जब राष्ट्रभक्ति की भावना से ओतप्रोत होकर कश्मीर को भारत का ताज़ कहता है तो उसे यह आभास भी नहीं होता कि यह ताज़ कश्मीरियों की कई पीढ़ियों की भावनाओं और आकांक्षाओं को बेरहमी से कुचल कर बना है। इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि कश्मीर में आतंकवाद की हरक़तों को बढ़ावा देने में पाकिस्तान का भी हाथ है परन्तु यह सच्चाई आमतौर पर दृष्टि ओझल कर दी जाती है कि कश्मीर में आतंकवाद के पनपने की मुख्य वजह भारतीय राज्य की वायदाखि़लाफ़ी और कश्मीरी जनता के न्यायोचित संघर्षों के बर्बर दमन और उससे बढ़ते असंतोष एवं अलगाव की भावना रही है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (उन्नीसवीं किस्त)

भारत की शक्तिशाली केन्द्रीय राज्यसत्ता से टकराकर उत्तर-पूर्व की छोटी-छोटी राज्य राष्ट्रीयताएँ भले ही अपनी मुक्ति न प्राप्त कर पायें, परन्तु वे हारेंगी भी नहीं। उनका संघर्ष तब तक चलता रहेगा जब तक उनके अलगाव और उपेक्षा की स्थिति बनी रहेगी। किसी काल्पनिक एकाश्मी राष्ट्रवाद में उनकी राष्ट्रीय भावनाओं का विलयन पूँजीवाद की चौहद्दी में सम्भव भी नहीं लगता। इसलिए उनके संघर्ष भी विसर्जित नहीं होंगे। नेतृत्व की कोई एक धारा जब समर्पण करेगी तो दूसरी धारा उभरकर सामने आयेगी और संघर्ष को ज़ारी रखेगी। इस समस्या का समाधान केवल और केवल एक समाजवादी राज्य के तहत ही सम्भव है जो सही मायने में विभिन्न राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के आत्म-निर्णय के अधिकार और अलग होने के अधिकार के आधार पर एक संघात्मक ढाँचा विकसित करेगा।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (अठारहवीं किस्त)

पूँजीवादी विकास के फ़लस्वरूप अलग-अलग राज्यों और राष्ट्रीयताओं में क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग भी पैदा हुआ है। इस क्षेत्रीय बुर्जुआजी की परिपक्वता के साथ ही साथ केन्द्रीय बुर्जुआजी से इसके अन्तर्विरोध भी बढ़े हैं। इनमें से अधिकांश इसी व्यवस्था के दायरे में अन्तर्विरोधों को हल करने के पक्षधर हैं। पिछले दो दशकों से केन्द्र में मिली-जुली सरकारों का अस्तित्व इसी की निशानी है और यह दर्शाता है कि केन्द्रीय बुर्जुआजी से मोल-तोल में भी क्षेत्रीय बुर्जुआजी की ताकत बढ़ी है। क्षेत्रीय बुर्जुआजी विभिन्न राष्ट्रीयताओं की जनता को असली मुद्दों से दूर करके अन्य राज्यों के प्रवासी मज़दूरों को वापस भेजने, नये राज्य बनाने अथवा नदियों के जल के बँटवारे जैसे मुद्दे उछालकर क्षेत्रीय अन्धराष्ट्रवादी भावनायें फैलाती है और लोगों की वर्ग-चेतना को भोथरा कर इस व्यवस्था की उम्र लम्बी करने मे अपनी भूमिका अदा करती है। इस प्रकार यह क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की बजाय उसे आपस में बाँटने का ही काम करता है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (सत्रहवीं किश्त)

पूँजीवादी शासक वर्ग तमाम हथकण्डों से जनता को अपने शासन के प्रति निष्ठावान और समर्पित बनाने की कोशिश करता आया है और भारतीय संविधान में मौजूद मूलभूत कर्तव्य भी इसी की एक कड़ी है। परन्तु एक मेहनतकश इन्सान का सर्वोपरि दायित्व यह है कि वह उत्पादन और शासन-प्रशासन की एक ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए जी जान से जुट जाये जो एक इन्सान द्वारा दूसरे इन्सान के शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करे।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (सोलहवीं किश्त)

दरअसल ये नीति निदेशक सिद्धान्त कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य की कीन्सियाई अवधारणा पर आधारित थे और अब जब पूरे विश्व में पूँजीवाद कल्याणकारी राज्य के लबादे से छुटकारा पाना चाह रहा है, तो ऐसे सिद्धान्तों का उनके लिए भी कोई मतलब नहीं रह गया है। हाँ, यह ज़रूर है कि संविधान में इन सिद्धान्तों की मौजूदगी से इस अमानवीय व्यवस्था के वीभत्स रूप पर पर्दा डालने में मदद मिलती है। इन सिद्धान्तों के ज़रिये शासक वर्ग और उसके टुकड़ों पर पलने वाले बुद्धिजीवी, जनता के बीच यह भ्रम पैदा करते हैं कि भले ही आज जनता को तमाम दिक्कतों और तकलीप़फ़ों का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन धीरे-धीरे करके ये सिद्धान्त लागू किये जायेंगे जिनसे जनता की सारी समस्याओं का हल निकल आयेगा। इसलिए, जनता को इन सिद्धान्तों के भ्रमजाल से बाहर निकालना आज के दौर में क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रमुख कार्यभारों में से एक है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है (पन्‍द्रहवीं किश्त)

उच्चतम न्यायालय अधिकांश नागरिकों की पहुँच से न सिर्फ़ भौगोलिक रूप से दूर है बल्कि बेहिसाब मँहगी और बेहद जटिल न्यायिक प्रक्रिया की वजह से भी संवैधानिक उपचारों का अधिकार महज़ औपचारिक अधिकार रह जाता है। उच्चतम न्यायालय में नामी-गिरामी वकीलों की महज़ एक सुनवाई की फ़ीस लाखों में होती है। ऐसे में ज़ाहिर है कि न्याय भी पैसे की ताक़त से ख़रीदा जानेवाला माल बन गया है और इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि अमूमन उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले मज़दूर विरोधी और धनिकों और मालिकों के पक्ष में होते हैं। आम आदमी अव्वलन तो उच्चतम न्यायालय तक जाने की सोचता भी नहीं और अगर वो हिम्मत जुटाकर वहाँ जाता भी है तो यदि उसके अधिकारों का हनन करने वाला ताकतवर और धनिक है तो अधिकांश मामलों में पूँजी की ताक़त के आगे न्याय की उसकी गुहार दब जाती है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है (चौदहवीं किश्त)

इस देश के लोगों को बोलने की आज़ादी तब तक है जब तक वो राज्य की सुरक्षा और देश की प्रभुता और अखण्डता के दायरे के भीतर बात करते हैं। ज्यों ही कोई मौजूदा व्यवस्था का आमूलचूल परिवर्तन करके वास्तविक जनवाद और समता पर आधारित एक वैकल्पिक व्यवस्था के निर्माण के बारे में बोलता है, या फ़िर कश्मीर और उत्तर पूर्व के राज्यों के लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार के पक्ष में बोलता है, राज्य सत्ता के कान खड़े हो जाते हैं और उस व्यक्ति के बोलने की आज़ादी पर वाजिब पाबन्दियों के लिए संविधान का सहारा लेकर उसकी ज़बान ख़ामोश करने की क़वायद शुरू हो जाती है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (तेरहवीं किस्‍त)

भारतीय नागरिकों को प्रदत्त मूलभूत अधिकार न सिर्फ़ नाकाफ़ी हैं बल्कि जो चन्द राजनीतिक अधिकार संविधान द्वारा दिये भी गये हैं उनको भी तमाम शर्तों और पाबन्दियों भरे प्रावधानों से परिसीमित किया गया है। उनको पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है मानो संविधान निर्माताओं ने अपनी सारी विद्वता और क़ानूनी ज्ञान जनता के मूलभूत अधिकारों की हिफ़ाज़त करने के बजाय एक मज़बूत राज्यसत्ता की स्थापना करने में में झोंक दिया हो। इन शर्तों और पाबन्दियों की बदौलत आलम यह है कि भारतीय राज्य को जनता के मूलभूत अधिकारों का हनन करने के लिए संविधान का उल्लंघन करने की ज़रूरत ही नहीं है। इसके अतिरिक्त संविधान में एक विशेष हिस्सा (भाग 18) आपातकाल सम्बन्धी प्रावधानों का है जो राज्य को आपातकाल घोषित करने का अधिकार देता है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (बारहवीं किस्त)

भारतीय पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों ने बड़ी कुशलता के साथ पूँजीवादी विकास के अपने रास्ते को समाजवाद के आवरण में पेश किया। भाकपा, माकपा और कुछ अन्य कम्युनिस्ट नामधारी पार्टियाँ भी इसी को समाजवाद की दिशा में कदम का दाम देती थीं और राष्ट्रीकरण की रट लगाती रहती थीं। आज भी ये पार्टियाँ सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण पर इस कदर मातम करती हैं मानो वास्तव में जनता से समाजवाद छीन लिया गया हो। क्या बड़े उद्योगों पर सरकार का स्वामित्व ही समाजवाद है? पूँजीवाद के तहत होने वाला राष्ट्रीकरण विशुद्ध पूँजीवाद ही होता है। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के नौकरशाहों और टेक्नोक्रेट के रूप में एक विशाल नौकरशाह पूँजीपति वर्ग अस्तित्व में आया। इन उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों से उगाहे गये अतिरिक्त मूल्य का हस्तगतकर्ता जनता नहीं थी। इसकी भारी मात्रा पूँजीपतियों को अपने उद्योगों के विकास में मदद के लिए थमा दी जाती थी और बाकी नौकरशाह पूँजीपतियों के नये वर्ग के ऐशो-आराम और विलासिता पर खर्च होती थी। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के शीर्षस्थ अफसर अपने ऊपर करोड़ों रुपये खर्च करते थे।