कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है (पन्‍द्रहवीं किश्त)
मूलभूत अधिकारः दावे और हक़ीक़त

आनन्द सिंह

इस लेखमाला के अन्‍तर्गत प्रकाशित सभी किस्‍तें पढने के लिए क्लिक करें

 

पिछले अंक में हमने भारतीय संविधान में मौजूद समता के अधिकार और स्वतन्त्रता सम्बन्धी अधिकारों की विस्तृत चर्चा की। इस अंक में हम संविधान के भाग तीन में उल्लिखित अन्य मूलभूत अधिकारों यानी शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म की स्वतन्त्रता सम्बन्धी अधिकार, अल्पसंख्यकों के अधिकार और संवैधानिक उपचारों के अधिकार की चर्चा करेंगे और यह जानने की कोशिश करेंगे कि क्या ये अधिकार वाक़ई अपने दावों पर खरे उतरते हैं।

शोषण के विरुद्ध अधिकार

संविधान के तीसरे भाग में दो अनुच्छेद (23 और 24) ‘शोषण के विरुद्ध अधिकार’ शीर्षक के तहत रखे गये हैं। परन्तु इस शीर्षक से यह गलतफ़हमी नहीं होनी चाहिए कि इसके तहत सामाजिक उत्पादन में सबसे महत्वपूर्ण योगदान करने वाले मज़दूर वर्ग के शोषण के विरुद्ध कोई बुनियादी प्रावधान है। यदि संविधान निर्माता वाक़ई शोषण का ख़ात्मा करने के लिए दृढ़संकल्प होते तो वे इस शीर्षक के तहत सबसे पहला प्रावधान यह रखते कि मुनाफ़ा कमाने की स्वार्थी हसरत के लिए किसी नागरिक के श्रम को नहीं निचोड़ा जा सकता। परन्तु यदि वे ऐसा करते तो भारत में पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था की नींव डाली ही नहीं जा सकती थी क्योंकि भारतीय संविधान बनने के लगभग एक शताब्दी पहले ही मार्क्स ने वैज्ञानिक तर्कों द्वारा यह निर्विवाद रूप से सिद्ध कर दिया था कि श्रम का शोषण किये बग़ैर पूँजीवादी व्यवस्था की अट्टालिका का निर्माण हो ही नहीं सकता। बहरहाल, संविधान के निर्माण की प्रक्रिया की चर्चा के दौरान हम यह पहले ही देख चुके हैं कि संविधान निर्माता वास्तव में भारत के नवजात बुर्जुआ वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। इसलिए उनसे यह उम्मीद करना कि वे संविधान में कोई ऐसा कोई बुनियादी प्रावधान डालते जो बुर्जुआ वर्ग के हितों के खि़लाफ़ जाता, एक नादानी होगी।

एक उदारवादी पूँजीवादी व्यवस्था भी मज़दूर वर्ग के लिए कुछ अधिकारों का प्रावधान करती है, मसलन न्यूनतम मज़दूरी का अधिकार, समान काम के लिए समान वेतन का अधिकार, काम की मानवोचित परिस्थितियों का अधिकार, काम के सीमित घण्टों का अधिकार इत्यादि। परन्तु भारतीय संविधान में ‘शोषण के विरुद्ध अधिकार’ शीर्षक के तहत इनमें से किसी भी अधिकार का ज़ि‍क्र तक नहीं है। यह अपने आप में भारतीय संविधान और उस पर आधारित भारतीय लोकतन्त्र के घोर मज़दूर विरोधी चरित्र को दिखाता है।

अब आइये देखते हैं कि ‘शोषण के विरुद्ध अधिकार’ शीर्षक के तहत किन अधिकारों के प्रावधान संविधान के तीसरे भाग में मौजूद हैं। इस शीर्षक के तहत अनुच्छेद 23 में मानव के दुर्व्यापार (Human Trafficking) और बेगार जैसे बलात् श्रम पर पाबन्दी का प्रावधान है। संविधान लागू होने के छह दशकों का अनुभव यह बताता है कि भारतीय राज्य इस अधिकार को भी लागू करने में नितान्त अक्षम सिद्ध हुआ है। पिछले छह दशकों मे ग़रीबी और बेरोज़गारी की मार झेलते लोगों का सापेक्षिक पिछड़े इलाक़ों से विकसित इलाक़ों की ओर न सिर्फ़ स्वेच्छा से पलायन होता आया है, बल्कि ग़ैर क़ानूनी रूप से मानव दुर्व्यापार का गोरखधन्धा कम होने की बजाय लगातार बढ़ता ही गया है। इससे भी भयावह सच्चाई यह है कि मानव दुर्व्यापार के इस गोरखधन्धे के शिकार ज़्यादातर मामलों में महिलायें और बच्चे होते हैं जिनमें से अधिकांश वेश्यावृत्ति के दुष्चक्र में फ़ँस जाते हैं। देश के हर शहर में यह गोरखधन्धा पिछले छह दशकों में संविधान में इसको रोकने के प्रावधान की खिल्ली उड़ाता हुआ दिन दूनी रात चौगुनी रफ़्तार से बढ़ता गया है।

संविधान के अनुच्छेद 24 में चौदह वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारख़ाने, खान या अन्य परिसंकटमय काम के लिए नियोजित करने की पाबन्दी का प्रावधान है। यह पूरा प्रावधान खामियों से भरा है इसकी मिसाल इसी से मिल जाती है कि संविधान लागू होने के छह दशक बाद भी भारत दुनिया भर में बाल मज़दूरी के मामले में अग्रणी देशों की श्रेणी में शामिल है। किसी भी लोकतान्त्रिक देश में बाल मज़दूरी के सभी रूपों पर पाबन्दी होनी चाहिए। परन्तु भारतीय संविधान में यह सिर्फ़ कारख़ानों, खानों और परिसंकटमय कामों में ही वर्जित है। यानि ढाबों, होटलों, दुकानों और घरों में बाल मज़दूरी के सिलसिले में संविधान में कोई भी पाबन्दी नहीं है। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 24 में बाल मज़दूरी सम्बन्धी प्रावधान 14 वर्ष तक के ही बच्चों पर लागू हैं, अर्थात् 14 वर्ष और एक दिन के बच्चे के लिए बाल मज़दूरी पर पाबन्दी सम्बन्धी कोई भी प्रावधान संविधान में मौजूद नहीं है। संविधान में मौजूद प्रावधान की उपरोक्त सीमाओं की वजह से कालीन उद्योग, होटल और रेस्त्रँ व ढाबों में ही नहीं बल्कि ख़दानों में एवं पटाखा उद्योग और माचिस उद्योग जैसे ख़तरनाक उद्योगों में बाल मज़दूरी धड़ल्ले से जारी है। चूँकि बाल मज़दूरी से पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा कमाने का हित सधता है इसलिए पिछले छह दशकों में इस मानवता पर कलंक इस विभीषिका को समाप्त करने के लिए कोई कारगर क़दम नहीं उठाये गये हैं। ऐसे में संविधान में मौजूद शोषण के विरुद्ध अधिकार औपचारिक अधिकारों की सीमा से एक क़दम भी आगे बढ़ते नहीं दिखते।

धर्म की स्वतन्त्रता और अल्पसंख्यकों के अधिकार

संविधान के अनुच्छेद 25-30 में धर्म की स्वतन्त्रता और अल्पसंख्यकों की संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकारों के प्रावधान हैं। संविधान की प्रस्तावना की चर्चा के दौरान हमने देखा था कि किस प्रकार भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता धार्मिक संस्थाओं-अनुष्ठानों का राज्य से पूर्ण पृथक्करण और धार्मिक विश्वासों को निजी जीवन के दायरे तक सीमित कर देने वाली क्लासिकी बुर्जुआ जनवादी अवधारणा न होकर “सर्व-धर्म समभाव” के अर्थों में प्रचलित हुई। इसका परिणाम यह हुआ कि सार्वजनिक जीवन में धार्मिक कुरीतियों और अन्धविश्वासों तथा सामन्ती और पितृसत्तात्मक मूल्यों के खि़लाफ़ संघर्ष करने की बजाय धर्म की स्वतन्त्रता के नाम पर उन्हें बरक़रार रहने दिया गया। यही नहीं पिछले छह दशकों में धर्म और जाति पर आधारित वोट बैंक की राजनीति भी ख़ूब फ़ली-फ़ूली। विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ लोगों की धार्मिक और जातीय पहचान बरक़रार रखने का खुले आम आह्वान करती हैं। नतीजतन समताविरोधी, नारीविरोधी विचारों का परित्याग करने और समता पर आधारित आधुनिक मूल्यों की स्थापना करने की बजाय दकियानूसी विचार नये सिरे से और पहले से कहीं ज़्यादा गहराई से लोगों के दिलो-दिमाग़ में पैठ बना रहे हैं।

धर्म निरपेक्षता की प्रबोधनकालीन अवधारणा सार्वजनिक जीवन में वैज्ञानिक और तर्कसंगत विचारों को बढ़ावा देने की पक्षधर थी। परन्तु धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा यानी “सर्वधर्म समभाव” इसका ठीक उल्टा कर रही है। विज्ञान ने अपनी सतत् विकासयात्रा के दौरान ब्रह्माण्ड, प्रकृति और मानव समाज के बारे में नित नये क्षितिज उद्घाटित किये हैं जिनकी समझ स्थापित करके तमाम सामाजिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। परन्तु भारत में हो ये रहा है कि विज्ञान का दैनिक जीवन के हर क्षेत्र में इस्तेमाल होते हुए भी विचारों के धरातल पर अवैज्ञानिक और अतार्किक विचारों का घटाटोप छाया हुआ है। इसकी एक मिसाल इसी से मिल जाती है कि भारत में सैकड़ों टी वी चैनल हैं जिनमें से धर्म पर आधारित चैनलों की संख्या दर्ज़नों में है, परन्तु विज्ञान पर आधारित एक भी नहीं है। इन धार्मिक चैनलों पर प्रवचन सुनाने वाले किसिम-किसिम के बाबा और कुछ नहीं करते बल्कि पुरातनपन्थी, दकियानूसी और घोर अवैज्ञानिक जीवन दृष्टिकोण का प्रचार-प्रसार करते हैं और धर्म की स्वतन्त्रता के नाम पर अपना धन्धा चलाते हैं जिससे लोगों में सामाजिक बदलाव की वैज्ञानिक चेतना कुन्द होती है।

1990 के दशक से हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादी राजनीति के उभार के बाद से अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गयी। भय और आतंक के साम्प्रदायिक माहौल में संविधान में उल्लिखित धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार ज़ाहिरा तौर पर एक बेहद सीमित मायने रखता है। अल्पसंख्यकों और निम्न जातियों के हितों के प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले संगठन और राजनीतिक पार्टियाँ भी अल्पसंख्यकों और निम्न जातियों के लोगों में प्रबोधनकारी और वैज्ञानिक विचारों की पैठ बनाने की बजाय उनमें पुरातनपन्थी और अतार्किक विचारों का ही प्रचार-प्रसार करते हैं। वे एक वैकल्पिक समतामूलक सामाजिक ढाँचे के निर्माण के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करने की बजाय उनमें असुरक्षा की भावना भरकर उन्हें मज़हबी और जातीय पहचान से चिपके रहने की सलाह देते हैं। आरक्षण की राजनीति इसी का एक उदाहरण है जो निम्न जातियों और अल्पसंख्यकों को मौजूदा व्यवस्था को आमूलचूल ढंग से बदलकर नयी समतामूलक धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के निर्माण की बजाय इसी व्यवस्था में उच्च जातीय हिन्दू शासक वर्ग से ख़ैरात के कुछ टुकड़े माँगकर संतुष्ट हो जाने की सलाह देती है।

चूँकि भारत में उत्पादन के साधनों का मालिकाना हक़ जिनके पास है वे अधिकांशतः उच्च जाति के हिन्दू समुदाय से आते हैं, इसलिए अल्पसंख्यकों और निचली जातियों के लोगों के लिए स्वतन्त्रता बेमानी ही है। यही बात अल्पसंख्यकों के संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी प्रावधानों के विषय में लागू होती है। संविधान में मौजूद इन प्रावधानों का लाभ अल्पसंख्यकों के एक बेहद छोटे से हिस्से तक ही पहुँच पाता है जो पहले से ही सुविधासम्पन्न होते हैं और जो इन विशेषाधिकारों की मलाई काटकर मौजूदा व्यवस्था के सबसे बड़े पैरोकार बन जाते हैं। अल्पसंख्यकों की अधिकांश आबादी मेहनतकश वर्ग से आती है और आर्थिक दृष्टि से पिछड़ने की वजह से शिक्षा और संस्कृति के मामले में भी पिछड़ेपन का शिकार होती है। अल्पसंख्यकों की इस बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के शैक्षिक और सांस्कृतिक पिछड़ेपन के बारे में भारतीय संविधान मौन है।

संवैधानिक उपचारों का अधिकार

संविधान के अनुच्छेद 32 में नागरिकों को कई क़िस्म के रिटों के रूप में संवैधानिक उपचारों का प्रावधान उल्लिखित है। ये रिट हैं – बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेरण। कोई भी व्यक्ति संविधान के भाग तीन में उल्लिखित किसी भी मूलभूत अधिकार के किसी व्यक्ति अथवा राज्य द्वारा हनन की सूरत में उपरोक्त रिटों के माध्यम से सीधे उच्चतम न्यायालय तक गुहार लगा सकता है।

मूलभूत अधिकारों की प्रस्तावना सम्बन्धी अंक में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि उच्चतम न्यायालय अधिकांश नागरिकों की पहुँच से न सिर्फ़ भौगोलिक रूप से दूर है बल्कि बेहिसाब मँहगी और बेहद जटिल न्यायिक प्रक्रिया की वजह से भी संवैधानिक उपचारों का अधिकार महज़ औपचारिक अधिकार रह जाता है। उच्चतम न्यायालय में नामी-गिरामी वकीलों की महज़ एक सुनवाई की फ़ीस लाखों में होती है। ऐसे में ज़ाहिर है कि न्याय भी पैसे की ताक़त से ख़रीदा जानेवाला माल बन गया है और इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि अमूमन उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले मज़दूर विरोधी और धनिकों और मालिकों के पक्ष में होते हैं। आम आदमी अव्वलन तो उच्चतम न्यायालय तक जाने की सोचता भी नहीं और अगर वो हिम्मत जुटाकर वहाँ जाता भी है तो यदि उसके अधिकारों का हनन करने वाला ताकतवर और धनिक है तो अधिकांश मामलों में पूँजी की ताक़त के आगे न्याय की उसकी गुहार दब जाती है।

इस प्रकार न्याय की प्रक्रिया में पूँजी की दख़ल होने की वजह से संवैधानिक उपचार का अधिकार भी महज़ काग़ज़ी अधिकार रह जाता है। हक़ीक़त में यह आम जनता की पहुँच से बाहर है। चूँकि आम जनता संवैधानिक उपचार के अधिकार को ही अपने हित में लागू करने में सक्षम नहीं हो पाती इसलिए संविधान में मौजूद अन्य अतिसीमित मूलभूत अधिकार भी अन्तिम विश्लेषण में बेमानी ही साबित होते हैं।

(अगले अंक में संविधान के चौथे भाग में मौजूद राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्तों की असलियत)


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments