Category Archives: अक्‍टूबर क्रान्ति

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (समापन किस्त)

भारतीय पूँजीवादी लोकतन्त्र के छलावे का विकल्प भी हमें सर्वहारा जनवाद की ऐसी ही संस्थायें दे सकती हैं जिन्हें हम लोकस्वराज्य पंचायतों का नाम दे सकते हैं। ज़ाहिर है ऐसी पंचायतें अपनी असली प्रभाविता के साथ तभी सक्रिय हो सकती हैं जब समाजवादी जनक्रान्ति के वेगवाही तूफ़ान से मौजूदा पूँजीवादी सत्ता को उखाड़ फेंका जायेगा। परन्तु इसका यह अर्थ हरगिज़ नहीं कि हमें पूँजीवादी जनवाद का विकल्प प्रस्तुत करने के प्रश्न को स्वतः स्फूर्तता पर छोड़ देना चाहिए। हमें इतिहास के अनुभवों के आधार पर आज से ही इस विकल्प की रूपरेखा तैयार करनी होगी और उसको अमल में लाना होगा। इतना तय है कि यह विकल्प मौजूदा पंचायती राज संस्थाओं में नहीं ढूँढा जाना चाहिए क्योंकि ये पंचायतें तृणमूल स्तर पर जनवाद क़ायम करने की बजाय वास्तव में मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के सामाजिक आधार को विस्तृत करने का ही काम कर रही हैं और इनमें चुने जाने वाले प्रतिनिधि आम जनता का नहीं बल्कि सम्पत्तिशाली तबकों के ही हितों की नुमाइंदगी करते हैं। ऐसे में हमें वैकल्पिक प्रतिनिधि सभा पंचायतें बनाने के बारे में सोचना होगा जो यह सुनिश्चित करेंगी कि उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर, हर तरफ़ से, हर स्तर पर उत्पादन करने वालों का नियन्त्रण हो – फ़ैसले लेने और लागू करवाने की पूरी ताक़त उनके हाथों में केन्द्रित हो। यही सच्ची, वास्तविक जनवादी व्यवस्था होगी।

इक्कीसवीं सदी की सच्चाइयाँ और अक्टूबर क्रान्ति की प्रेरणाएँ एवं शिक्षाएँ

अक्टूबर क्रान्ति की मशालें अभी बुझी नहीं है। श्रमजीवी शक्तियाँ धरती के विस्तीर्ण-सुदूर भूभागों में बिखर गयी हैं। उनकी हिरावल टुकड़ियाँ तैयार नहीं हैं, पूँजी के दुर्ग पर नये आक्रमण की रणनीति पर एकमत नहीं है। पूँजी का दुर्ग नीम अँधेरे में आतंककारी रूप में शक्तिशाली भले दिख रहा हो, उसकी प्राचीरों में दरारें पड़ रही हैं, बुर्ज कमजोर हो गये हैं, द्वारों पर दीमक लग रहे है और दुर्ग-निवासी अभिजनों के बीच लगातार तनाव-विवाद गहराते जा रहे हैं। बीसवीं शताब्दी समाजवादी क्रान्तियों के पहले प्रयोगों की और राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों के (आमूलगामी ढंग से या क्रमिक उद्विकास की प्रक्रिया से) पूरी होने की शताब्दी थी। इक्कीसवीं शताब्दी पूँजी और श्रम के बीच आमने-सामने के टकराव की, और निर्णायक टकराव की, शताब्दी है। विकल्प दो ही हैं – या तो श्रम की शक्तियों की, यानी समाजवाद की, निर्णायक विजय, या फिर बर्बरता और विनाश। पृथ्वी पर यदि पूँजी का वर्चस्व क़ायम रहा तो लोभ-लाभ की अन्धी हवस में राजा मीडास के वंशज इंसानों के साथ ही प्रकृति को भी उस हद तक निचोड़ और तबाह कर डालेंगे कि पृथ्वी का पर्यावरण मनुष्य के जीने लायक़ ही नहीं रह जायेगा। इतिहास की लम्बी यात्रा ने मानव जाति की चेतना का जो स्तर दिया है, उसे देखते हुए यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि समय रहते वह चेत जायेगी और जो सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था भौतिक सम्पदा के साथ-साथ बहुसंख्यक जनों के लिए रौरव नर्क का जीवन, सांस्कृतिक-आत्मिक रिक्तता-रुग्णता और प्रकृति के भीषण विनाश का परिदृश्य रच रही है, उसे नष्ट करके एक न्यायपूर्ण, मानवीय, सृजनशील तथा प्रकृति और मनुष्य के बीच के द्वन्द्व को सही ढंग से हल करने वाली सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ेगी। इसके लिए सामाजिक परिवर्तन के विज्ञान की रोशनी में आज के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक जीवन के हर पहलू को समझने वाली, सर्वहारा क्रान्ति के मित्र और शत्रु वर्गों को पहचानने वाली तथा उस आधार पर क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल विकसित करने वाली सर्वहारा वर्ग की पार्टी का पुनर्निर्माण एवं पुनर्गठन पहली शर्त है। इसके बिना पूरी व्यवस्था के उस ‘कण्ट्रोलिंग, कमाण्डिंग ऐण्ड रेग्यूलेटिंग टॉवर” को, जिसे राज्यसत्ता कहते हैं, धराशायी किया ही नहीं जा सकता। अक्टूबर क्रान्ति के दूसरे संस्करण की तैयारी की प्रक्रिया की एकमात्र यही आम दिशा हो सकती है।

बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल! अक्टूबर की तूफ़ानी हवाओं को फिर ललकारो!!

आज से करीब 120 साल पहले रूस में क्रान्ति के बीज क्रान्तिकालीन यूरोप से पड़े। क्रान्ति का तूफान यूरोप से गुजरता हुआ रूस तक पहुँच गया। इस समय रूसी समाज बेहद पिछड़ा था। रूस का राजा जार सबसे बडा ज़मींदार था। रूस में बहुसंख्यक मेहनतकश किसान आबादी भुखमरी, कुपोषण और बीमारियों से ग्रस्त थी। ज़ार और उसकी विराट राजशाही किसानों को जमकर लूटती थी। रूस के मुख्य शहरों में ओद्योगीकरण हो रहा था। फैक्टरियाँ भी मज़दूरो के लिए नरक थीं और रूसी पूँजीपति मज़दूरो को मन-मर्जी पर खटाते थे। परन्तु जहाँ दमन-उत्पीड़न होता है वहीं विद्रोह पैदा होता है! मज़दूरों ने अपने सामूहिक हथियार हड़ताल का जमकर प्रयोग करना शुरू किया। क्रान्तिकारी नेता लेनिन के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने फैक्टरियों की हालत पर पर्चे, हड़ताल के पर्चे और ट्रेड यूनियन संघर्ष चलाया व मज़दूर अध्ययन मण्डल संगठित किये। लेनिन और अन्य क्रान्तिकारियों ने मिलकर मज़दूर अखबार ‘इस्क्रा’ (चिंगारी) निकालना शुरू किया जिसने पूरे मज़दूर आन्दोलन को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। इसी अखबार ने मज़दूर वर्ग की इस्पाती बोल्शेविक पार्टी की नींव रखी। बोल्शेविक पार्टी ने मज़दूर अखबार प्राव्दा (सत्य) भी निकाला। संघर्षों में लगातार डटे रहने के कारण मज़दूर और गरीब किसान बोल्शेविकों के साथ जुड़ते चले गए। राजनीतिक हड़तालों, प्रदर्शनों ने जो कि सीधे बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में चल रहे थे जार सरकार की चूलें हिला दी। औद्योगिक मज़दूरों की यूनियनों, गाँवों और शहरों में खड़े जन-दुर्ग, क्रान्तिकारी पंचायतें (सोवियतें) मिलकर जार की पुलिस और शासन का सामना कर रहे थे। पहला विश्व युद्ध छिड़ने पर बोल्शेविकों ने सैनिको के बीच इस साम्राज्यवादी युद्ध के खिलापफ़ जमकर पर्चे बांटे और रोटी, ज़मीन और शान्ति के नारे के साथ समस्त रूस को एकताबद्ध किया। आखिरकार फरवरी, 1917 में ज़ार का तख्ता पलट दिया गया पर उसकी जगह सत्ता पर पूँजीपतियों के प्रतिनिधि और मज़दूर वर्ग के गद्दार मेन्शेविक पार्टी के नेता बैठ गये। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पंचायतों ने बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में एकजुट होकर 7 नवम्बर (25 अक्टूबर) 1917 को पूँजीपतियों की सरकार का भी तख्ता पलट दिया। पेत्रेग्राद शहर में युद्धपोत अव्रोरा के तोप की गड़गड़ाहट ने इतिहास की पहली सचेतन सर्वहारा क्रान्ति कि घोषणा की! तोप के निशाने और मज़दुरों की बगावत के सामने राजा के महल में छिपे पूँजीपतियो की सरकार के नेता घुटने टेक चुके थे। मज़दूर वर्ग के नारों की हुँकार पूरी दुनिया में गूंज उठी। पूँजीपतियो के ‘‘स्वर्ग पर धावा’’ बोला गया और उसे जीत लिया गया। मज़दूर वर्ग ने इतिहास की करवट बदल दी। रूस में मज़दूर वर्ग की जीत दुनिया भर के शोषितों की जीत थी और शासको-लुटेरों की हार।

अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण के निर्माण का रास्ता ही मुक्ति का रास्ता है!

महान अक्टूबर क्रान्ति ने यह साबित कर दिखाया कि दुनिया की तमाम सम्पदा का उत्पादक मेहनतकश जनसमुदाय सर्वहारा वर्ग की अगुवाई में और उसके हिरावल दस्ते – एक सच्ची, इंकलाबी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में स्वयं शासन-सूत्र भी सम्हाल सकता है तथा अपने भाग्य और भविष्य का नियन्ता स्वयं बन सकता है। महान अक्टूबर क्रान्ति ने यह साबित किया कि मालिक वर्गों को समझा-बुझाकर नहीं बल्कि उनकी सत्ता को बलपूर्वक उखाड़कर और उनपर बलपूर्वक अपनी सत्ता (सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व) कायम करके ही पूँजीवाद के जड़मूल से नाश की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है और समाजवाद का निर्माण किया जा सकता है।

अक्टूबर क्रान्ति के दिनों की वीरांगनाएँ

अक्टूबर क्रान्ति की नायिकाएँ एक पूरी सेना के बराबर थीं और नाम भले ही भूल जायें उस क्रान्ति की जीत में और आज सोवियत संघ में और औरतों को मिली उपलब्धियों और अधिकारों के रूप में उनकी निःस्वार्थता जीवित रहेगी।

बिगुल पुस्तिका – 6 : बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

‘नयी समाजवादी क्रान्ति का उद्घोषक बिगुल’ में प्रकाशित लेखों का संकलन साम्राज्यवाद के मौजूदा दौर में मज़दूर क्रान्तियों का स्वरूप और रास्ता क्या होगा यह तय करना एक अहम कार्यभार है। इसके लिए अक्टूबर क्रान्ति के इतिहास और उसके मार्गदर्शक सिद्धान्त का गहराई से अध्ययन करना भी ज़रूरी है। यह पुस्तिका इसी दिशा में एक कोशिश है। अक्टूबर क्रान्ति के  ऐतिहासिक महत्व और ऐतिहासिक संवेग को रेखांकित करने के साथ ही इनमें आज के दौर में क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन की समस्याओं और चुनौतियों पर विचारोत्तेजक चर्चा की गयी है।

अभी भी जीवित है ज्वाला! फिर भड़केगी जंगल की आग!

दुनिया के इतिहास में पहली बार मार्क्सवाद की किताबों में लिखे सिद्धान्त ठोस सच्चाई बनकर ज़मीन पर उतरे। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व का ख़ात्मा कर दिया गया। पर विभिन्न रूपों में असमानताएँ अभी भी मौजूद थीं। जैसा कि लेनिन ने इंगित किया था, छोटे पैमाने के निजी उत्पादन से और निम्न पूँजीवादी परिवेश में लगातार पैदा होने वाले नये पूँजीवादी तत्त्वों से, समाज में अब भी मौजूद बुर्जुआ अधिकारों से, अपने खोये हुए स्वर्ग की प्राप्ति के लिए पूरा ज़ोर लगा रहे सत्ताच्युत शोषकों से और साम्राज्यवादी घेरेबन्दी और घुसपैठ के कारण पूँजीवादी पुनर्स्थापना का ख़तरा बना हुआ था। इन समस्याओं से जूझते हुए पहली सर्वहारा सत्ता को समाजवादी संक्रमण की दीर्घकालिक अवधि से गुज़रते हुए कम्युनिज़्म की ओर यात्रा करनी थी। नवोदित समाजवादी सत्ता को फ़ासीवाद के ख़तरे का मुक़ाबला करते हुए समाजवादी संक्रमण के इन गहन गम्भीर प्रश्नों से जूझना था। निश्चय ही इसमें कुछ त्रुटियाँ हुईं जिनमें मूल और मुख्य त्रुटि यह थी कि समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष की प्रकृति और उसके संचालन के तौर-तरीकों को समझ पाने में कुछ समय तक सोवियत संघ का नेतृत्व विफल रहा। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध में फ़ासीवाद को परास्त करने के बाद स्तालिन ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण क़दम उठाये। समाजवादी समाज में किस प्रकार अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन और विनिमय विभिन्न रूपों में जारी रहता है और माल उत्पादन की अर्थव्यवस्था मौजूद रहती है इसका उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया था और इन समस्याओं पर चिन्तन की शुरुआत कर चुके थे। लेकिन यह प्रक्रिया आगे बढ़ती इसके पहले ही स्तालिन की मृत्यु हो गयी।

पहला लाभ / अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई

अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई (1872.1952) उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशक में रूसी क्रान्तिकारी आन्दोलन में शामिल हुई। 1917 में उन्होंने अक्टूबर क्रान्ति की लड़ाइयों में सक्रियता से भाग लिया। वे लेनिन की घनिष्ठ मित्र थीं। अक्टूबर क्रान्ति के बाद वे सामाजिक सुरक्षा की जन–कमिसार, कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के अन्तर्राष्ट्रीय महिला सचिवालय की सचिव और कालान्तर में नार्वे, मेक्सिको और स्वीडेन में सोवियत राजदूत रहीं।